आचार्य परम्परा में उद्भट आचार्य समन्तभद्र स्वामी हुए हैं जिन्होंने उज्वल चारित्र का पालन कर जैन धर्म की अपने जीवन में इतनी प्रभावना की है जो "भूतो न भविष्यति"। उन्होंने श्रावकों को अपनी समीचीन चर्या बनाये रखने के लिये एक महान् ग्रन्थ रत्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की है। यहाँ गुजरात में समयसार का स्वाध्याय बहुत हुआ किन्तु अब चर्या समीचीन बनाये रखने के लिए उसी श्रावकाचार के स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। उस श्रावकाचार में सम्यक ज्ञान, ज्ञान, चारित्र इन तीनों (रत्नत्रय) का सटीक एवं संक्षेप में वर्णन किया गया है।
जैसे आप अपने जीवन में वित्त के लिए पुरुषार्थ करते हो वैसे आत्मोत्थान के लिए भी धर्म पुरुषार्थ करो, यदि कल के दिन को उज्वल देखना चाहते हो तो आज के दिन पुरुषार्थ करो अर्थात् भविष्य को उज्वल बनाने के लिए वर्तमान को सुधारो।
यहाँ (ईडर में) ३-४ जिनालयों में जाकर जिन बिम्बों के दर्शन किये तो सारी थकान गायब हो गयी, ऐसे भव्य अतिशयकारी जिन बिम्बों के दर्शन करके लगा कि यहाँ जैनियों की बहुलता एवं बहुत प्रभाव रहा है किन्तु आज यहाँ लोग कम हैं बाहर अर्थ के लिए चले गये हैं (इसी बीच श्रोताओं ने कहा नहीं महाराज यहाँ राजाओं के द्वारा बहुत त्रास था इसीलिए गये हैं)।
अब संक्षेप से यही कहना चाहता हूँकि घर की रक्षा के समान इन जिनालयों की भी रक्षा करो, बच्चों के ऊपर जैसे अर्थ के संस्कार डालते हो वैसे ही परमार्थ के अच्छे संस्कार डालो। श्रावक धर्म का समीचीन पालन करो क्योंकि श्रावक की खान से ही मुनि निकलते हैं। यदि आप अहिंसा धर्म एवं श्रमणत्व की रक्षा करना चाहते हो तो उसे धारण करो क्योंकि धारण करने से ही उसकी रक्षा संभव है, मात्र कहने से नहीं।
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