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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. बचाओ पशु-धन, नहीं तो मिट जायेगा वतन श्री दिगम्बर जैन रेवा तट सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में पावन पयुर्षण पर्व के उपलक्ष्य में आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में "मांस निर्यात बन्द करो, अत्याचार का अन्त करो' 'बचाओ पर्यावरण नहीं तो अकाल मरण'बचाओ पशु-धन, नहीं तो मिट जायेगा वतन" आदि अहिंसा, पर्यावरण, करुणा, शाकाहार के चर्चित विषयों को लेकर एक विराट कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। जिसमें विभिन्न स्थानों से आये कवियों ने अपनी जोशीली बुलन्द आवाज में कविता पाठ किया सारे कवियों ने खचाखच भरी धर्म-सभा को मोहित कर लिया सबके मन में पशुओं पर हो रहे अत्याचार के विरोध में एक अहिंसक भावना पैदा हुई। इस विराट कवि सम्मेलन का संचालन प्रसिद्ध कवि सत्य नारायण 'सतन' ने किया। मंगलाचरण के दौर पर सत्य नारायण 'सतन' की गुरुभक्ति की पंक्तियों ने जन मानस के हृदय गद्गद् कर दिये। धर्म देशना विद्यासागर जी की हृदय से स्वीकार करो, बंद करो मांस निर्यात पशु संहार बन्द करो। तुम बने महाराज हो गए नंगे, जिधर रखे पैर वहीं हो हर-हर गंगे || कवि कैलाश जैन ने मंगलाचरण करते हुए अपनी कविता की- ठहर गया विद्यासागर नर्मदा के तीर स्वयं नर्मदा बोल उठी ये इस युग के महावीर। दूध की नदियाँ लोप हो गई धरा खून से लाल-लाल, कृष्ण कन्हैया की गैय्या भी, हो गयी आज यहाँ हलाल..... क्या कल बुचाद्खानो में इंसान को कटा जायेगा पशु मांस खाने वाला क्या, इंसानों को खायेगा | ये पंक्तियाँ केवल पंक्तियाँ नहीं इसमें एक सच्चाई भी निहित है कत्लखानों में जो पशु काटे जा रहे है उनकी बेहद संख्या है इसी रफ्तार से पशु कटते रहे तो एक दिन देश में पशु समाप्त हो जायेंगे। हम गाय, बैल, भैंस, आदि जानवरों के चित्र मात्र कैलेंडर में देखेंगे और उनके नाम शब्दकोशों में पढ़ेंगे। स्थिति बहुत भयानक है जिस देश में कृष्णजी की पूजा होती है। उसी देश में कन्हैया की गैय्या कत्ल हो रही है, उसी का मांस निर्यात हो रहा है आवश्यकता इस बात की है कि हम जनता को इस पशु हत्या का बोध करायें, पशुओं की हत्या का विरोध करायें। यदि हमने इस हत्याकाण्ड को अनदेखा कर दिया तो आने वाले समय में हमको महा संकट से गुजरना होगा देश में कोई संकट न आये इससे पहले ही हम अपनी सुरक्षा कर लें। वस्तुत: यदि इंसान इसी प्रकार मांस का भक्षण करता रहा तो एक दिन सारे पशु समाप्त हो जायेंगे फिर नम्बर आयेगा इंसान का। आदमी, आदमी को न खाये इसके लिए हमको अभी से वह शाकाहार क्रांति लाना है जिसमें हम भी सुखी रहें और पशु पक्षी भी मस्त रहें। कवि सुरेश वैरागी मन्दसौर ने भी लोगों को हिन्दुस्तान की पहचान बताई - जिन्हें पूजता राम, महावीर, गौतम का देश, उनके मांस का निर्यात कर दिया भारत से विदेश। सोचो समझो भारत माँ के मुँह में आज मुस्कान नहीं, पशु मांस निर्यात करें यह अपना हिन्दुस्तान नहीं। ठीक ही है भारत कृषि प्रधान देश है अहिंसा प्रधान देश है यहाँ गाय की पूजा होती है, यहाँ हीरा,मोती, स्नों का निर्यात होता था यहाँ पशुपालन होता है। आदि ब्रह्मा ने युग के आदि में भारतीय जन मानस को यह नारा दिया था कि 'कृषि करो या ऋषि बनो।' भारत ने यह नारा भुला दिया, पशु पालन करने वाला देश आज पशुओं का कत्ल कर रहा है यह भारत के लिए कलंक है। भारतीयो! जागो मांस निर्यात करना भारत की संस्कृति नहीं है। भारत की गरिमा को बताते हुए एक अन्य कवि ने कहा। देखो शंकर तेरा नन्दी कत्लखानों में काटा जाता है। राजनीति के अन्धों द्वारा, देश मिटाया जाता है। मंगल पाण्डेय के इतिहास को दुहराया जाता है। और गौ माता का खून बहाया जाता है। आप अपनी आजादी के इतिहास को जरा याद करें, भारत की आजादी का इतिहास ही गौ रक्षा से प्रारम्भ हुआ था। कारतूस पर गाय की चर्बी लगाकर अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करना चाहा लेकिन मंगल पाण्डेय ने इसको सहन नहीं किया और विद्रोह कर दिया। वस्तुत: वह विद्रोह नहीं था वह तो अहिंसा की लड़ाई का मंगलाचरण था। हिंसा को रोकने के लिए हम जो कदम उठाते हैं वह हिंसा नहीं कहलाती वह तो अहिंसा का कदम है। हमको भी आज आवश्यकता है एक अहिंसा की लड़ाई लड़ने की। सरकार ने जो कत्ल घर, बूचड़खाने खोल रखे हैं उन तमाम बूचड़खानों को समाप्त करना है। भारत को गौ शालाओं की आवश्यकता है कत्लखानों की नहीं। जीवों की रक्षा करना ही हमारी संस्कृति है इसी बात को कहता है एक कवि- जो जलचर, थलचर, नभचर हैं उनकी रक्षा करना ही हमारी कल्चर है। और अब हमको जीवों की रक्षा के लिए एक जंग छेड़ना होगी सरकार को समझाना होगा, जनता को जगाना होगा। अपनी भारतीय संस्कृति और इतिहास का अध्ययन करना होगा और इसके लिए एक कवि कहता है | बहुत सहा हमने अब तक, अब नहीं सहन करेंगे। खून की धारा भारत में, अब नहीं बहने देगे। बन्द करो मांस निर्यात, नहीं तो, हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। वस्तुत: यह संकल्प है हमको अब सचेत हो जाना है हमारा देश वीरों का देश है, रणवीरों का देश है, बहादुरों का देश है शहीदों का देश है। हम मौत से डरने वाले नहीं है हम तो पाप से डरते हैं। क्षत्रिय वही कहलाता है जो निर्बलों की रक्षा करता है। हथियार चलाने वाला क्षत्रिय नहीं, अपितु सच्चा क्षत्रिय तो वह है जो दूसरों की जान बचाता है, सच्चा वीर तो वह है जो दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देता है। इसी बात को कहता है एक कवि पशुओं की रक्षा के खातिर, कुर्बान जवानी कर देंगे, इस धरती से बूचड़खानों की, खतम कहानी कर देंगे || मेरे प्रिय जवानों जागो उठो, अपनी चेतना को जागृत करो, और भारत को हिंसा से मुक्त करो, हमको हिंसा मुक्त भारत का निर्माण करना है कत्लखानों से मुक्त भारत का निर्माण करना है, मांस निर्यात मुक्त भारत का निर्माण करना है। कुछ करो- भाई-बहिनो कुछ नई बात कर लो, हिन्दुस्तान से भ्रष्ट नेताओं का निर्यात कर दो। भ्रष्ट नेताओं का निर्यात करने में कोई हिंसा भी नहीं है, क्योंकि उनको तो जिन्दा निर्यात करना है, वे तो पशुओं को कत्ल करके उनका मांस निर्यात कर रहे हैं। हमको उनका जिन्दा निर्यात करना है। वस्तुत: आज भारत को अहिंसा की आवश्यकता है, यदि हिंसा को फाँसी लगाना चाहते हो, हिंसा को कालापानी भेजना चाहते हो तो अहिंसकों की फौज तैयार करो और एक जन आन्दोलन करके तमाम हिंसा के कार्य को रोक दो और एक गीत में सारी जनता की लयबद्ध कर दो वह गीत यह है कि- एक कलंक लग रहा है आदमी की जात को, बंद करो, बंद करो, मांस के निर्यात को। क्या हो गया, ये गाँधी के देश को, रुपये के बदले खून बेचता विदेश को॥ और भी कवियों ने अपनी ओजस्वी वाणी के द्वारा सारे जन मानस में एक चेतना जागृत कर दी, कवियों का संचालन कर रहे सत्यनारायण सत्तन ने शाकाहार की बात करते हुए उसकी गरिमा बढ़ाई एक प्रसंग उन्होंने सुनाया कि एक व्यक्ति ने उनसे कहा - मैं मुर्दा खाता हूँ लेकिन अण्डा नहीं खाता, क्योंकि अण्डे का जन्मस्थान ठीक नहीं ??? वस्तुत: अण्डा तो मांसाहारी ही है उसको शाकाहार नहीं कहा जा सकता अत: 'सण्डे हो या मण्डे कभी न खाओ अण्डे' अन्त में जब भी कवियों ने अपनी-अपनी कविताएँ पढ़ीं तदुपरांत कवियों के कवि,महाकाव्य'मूक माटी' के रचयिता मनीषी महाकवि आचार्य विद्यासागर महाराज ने अपनी अमृतवाणी रूपी झरने से तीन घंटे से आस लगाये बैठे श्रोताओं को तृप्त किया। आचार्य श्री ने कहा कि- हमारा देश सत्य का पुजारी है, हमारे देश में अहिंसा की ध्वजा फहराती है फिर भी आज सरकार जो मांस का निर्यात कर रही है यह बड़ी पाप की बात है। अब हमको इस हत्याकांड का विरोध करना है, इसके लिए डरना नहीं है। हिंसा को रोकने के लिए जो हिंसा हो जाये वह हिंसा नहीं है वह तो अहिंसा है। प्रतिदिन कत्लखानों में लाखों जीवों का खून हो रहा है ऐसी स्थिति में हम धर्म की बात कैसे कर सकते हैं? सबसे पहले पशु हत्या के इस अधर्म को रोक लो फिर धर्म की बात करो। माँ के मरने पर बच्चे का पालन गौ माता के दूध से होता है। दुनियाँ में दो ही दूध हैं- पहला माँ का दूध दूसरा गौ माता का दूध। आज गाय भी खतरे में है और दूध भी। अब कायरता को छोड़ दो और पशु-हत्या को रोकने के लिए आगे आओ। यह भारत योग प्रधान है भोग प्रधान नहीं, अब उपयोग लगा कर योग की साधना करो, यहाँ आत्मा परमात्मा की साधना होती है और यह आत्मा सभी के पास है पशुओं के पास भी है फिर पशुओं का कत्ल क्यों? यह पापाचार कब तक चलेगा याद रखो। जब किसी की अति हो जाती है जो उसकी इति भी होती है अब पाप की इति करना है कीमत पैसों की नहीं कीमत तो जीवन की है किसी के जीवन को छीनने का हमको कोई अधिकार नहीं सबको जीने का अधिकार है। अत: किसी को मत मारो सबको जीने दो जीवन सबको प्यारा है। चाहे वह जानवर हो या आदमी अत: किसी भी जीव को मत मारो ।
  2. घी का दीपक मंगल का प्रतीक है, घी के दीपक से आँख की ज्योति बढ़ती है। घी के बिना हम भोजन कर सकते हैं लेकिन घी के जले बिना हम प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकते, जीवन को भोजन नहीं प्रकाश चाहिए। विदेश में घी नहीं है इसलिए वहाँ आरती भी नहीं है, विदेश में दूध है, मक्खन है, दही है, मलाई है, लेकिन घी नहीं, घी भारत की पहचान है। अत: वह घी की मूल प्रदाता गाय की रक्षा करना आज का हमारा प्रथम कर्तव्य है। हमको घी की नहीं गाय की रक्षा करना है। गाय की रक्षा होने पर घी की रक्षा स्वयं हो जावेगी। घी का दीपक जलता है लेकिन उसके जलने से दूसरों को प्रकाश मिलता है। तुम जलना प्रारंभ कर दो, जलाना नहीं, तुम मिटोगे नहीं, मरोगे नहीं, तुम समाप्त नहीं होगे। तुम जलोगे, दूसरों को प्रकाश मिलेगा, तुम जलाओगे स्वयं मिट जाओगे। आज हम दूसरों को जला रहे है, हिंसा से बढ़कर और कौन सी आग हो सकती है? भारत ने कितने कत्लखाने खोल लिये, इन कत्लखानों में प्रतिदिन कितना खून हो रहा है, कितनी गायें कट रही हैं, मांस का निर्यात हो रहा है सरकार विदेशी मुद्रा की लालच में अपनी पशु सम्पदा का विनाश कर रही है। इन पशुओं के कटने से प्रकृति असन्तुलित हो रही है, प्रकृति के प्रकोप बढ़ रहे हैं, लेकिन हमने अपने स्वार्थ के लिये यह सब अनदेखा कर दिया है, मात्र अर्थ के लिए हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, परमार्थ की हमने अथीं निकाल दी। जिस परमार्थ के लिये यह जीवन था उसी परमार्थ की आज अथों बन गई। याद रखो! परमार्थ की अर्थी बनना ही प्रलय का लक्षण है। आज हम प्रलय के निकट हैं, किस वक्त हमारे ऊपर प्रलय का प्रहार हो जावे यह घटना अनिश्चित है। भारत की आजादी के उपरांत भारत में गाय बैलों के कत्ल की रफ्तार तेजी से बढ़ गयी है। भारत में पशुओं का कत्ल करके उनके मांस को बेचकर विदेशी मुद्रा कमाने की अवैध नीति अपनाकर कृषि प्रधान देश के धवल माथे पर कलंक की काली बिन्दी लगा दी जो भारत के लिए अभिशाप है। ये पशु-पक्षी देश की अमूल्य सम्पदा है। इनसे ही धरती की हरियाली सुरक्षित रहेगी, ये पशु जीवित रहेंगे तो यह धरती प्रसन्न रहेगी, पशुओं को मारकर धरती को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। हमारा कर्तव्य है कि हम इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करें, इनको मारें नहीं, उनको सतायें नहीं, उनको अपनी शरण दें, सेवा करें, उनकी रक्षा करें, वस्तुत: यही सच्ची धार्मिकता है। जीवों पर दया करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है, राष्ट्रीय कर्तव्य को भूलकर हम अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं कर सकते। जिस राष्ट्र में दया नहीं है, मैं समझता हूँ उस राष्ट्र में कोई शास्त्र नहीं क्योंकि दया से बड़ा और कौन सा शास्त्र हो सकता है। आखिर हमारे शास्त्र पुराण हमको दया करना ही तो सिखलाते हैं। फिर भी हमने यदि दया का पालन नहीं किया तो शास्त्रों को पढ़कर या अपने पास रखकर उनकी पूजा आरती करने से भी कुछ नहीं होगा। दया से बढ़कर और कौन सी पूजा है, जिसके दिल में दया नहीं वह आरती करके भी क्या करेगा? आरती तो दिल को साफ-कोमल करने के लिये की जाती है, लेकिन कठोर दिल वाला आरती करके भी क्या प्राप्त करेगा? दया करना परमार्थ है, आज हम धर्म को बेचकर धन कमा रहे हैं उसी का यह परिणाम है कि हमारा देश ५० वर्ष को पार करके भी गरीबी को नहीं भगा सका। विकास नहीं तो प्रकाश नहीं और प्रकाश के बिना क्या उचित क्या अनुचित एक बराबर है। हम विकास करें लेकिन प्रकाश के साथ अन्धकार के साथ नहीं। हिंसा एक अंधकार है, जबकि अहिंसा प्रकाश है। अहिंसा के साथ जो विकास होगा वही हमारी वास्तविक उपलब्धि मानी जा सकती है। हिंसा का विकास विनाश का निमंत्रण है। पशु रक्षा करना अहिंसा है और कत्लखाने, मांस निर्यात हिंसा है अब हिंसा से भारत को बचाना है। इसी पुनीत भावना के साथ अहिंसा परमो धर्म की जय।
  3. आज लोगों को अपने तन की चिन्ता है। वतन की नहीं, इसलिए वतन का पतन हो रहा है। यदि वतन को पतन से बचाना चाहते हो तो वतन की बात करो तन की नहीं। वतन की रक्षा के लिए हमको अपने ऐतिहासिक प्रसंगों को याद करना होगा। अपना इतिहास खोलना होगा, अपनी संस्कृति को सामने रखना होगा। इतिहास और संस्कृति को भूलकर हम अपने देश का नव निर्माण नहीं कर सकते, क्योंकि हमारी संस्कृति अहिंसा प्रधान रही है जबकि आज हम अहिंसा को भूलकर हिंसा को पसंद कर रहे हैं कैसे कहें कि हम अपने देश को सुरक्षित रख सकेंगे। संस्कृति को मिटाकर, इतिहास को भुलाकर देश का सुधार नहीं किया जा सकता। संस्कृति को आदर्श मानकर ही हम अपने कदम आगे बढ़ा सकते हैं अन्यथा हम अपना कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सकते। भारतीय साहित्य कहता है पानी को कपड़े में छानकर पियो, रास्ते पर नीचे देखकर चलो मुँह से सत्य कहो और मन को पवित्र रखो। लेकिन आज तो लोग खून को छानकर पीने की बात कर रहे हैं! यह कितना बुरा दिन है इस देश का कितनी बड़ी अहिंसा का भाव कि पानी छानकर पियो ताकि सूक्ष्म जीवों की रक्षा हो सके, उनका घात न हो, उनकी हिंसा न हो लेकिन आज तो बड़ी हिंसा को भी ध्यान में नहीं रखा गया, पशु-वध होने लगा, पशुओं का मांस निर्यात होने लगा, कहाँ गई वह हमारी भारतीय आचार संहिता की सत्यता? आज सत्य ही लुप्त हो रहा है, पवित्रता ही लुप्त हो रही है, अहिंसा ही लुप्त हो रही है, दया, करुणा ही लुप्त हो रही है। क्या होगा इस देश का? यह आज एक विचारणीय बिन्दु है। याद रखो। जिस दिन दया का समापन हो जायेगा यह धरती शमशान बन जायेगी। दिल में दया के रहते ही हम आपस में रहकर कुछ कर सकते है, दया के अभाव में मात्र आपसी टकराव ही होगा, हिंसा ही होगी इसलिए हिंसा को रोकने के लिए दिल में दया को पैदा करना होगा, दया हिंसा को रोकती है, जबकि दया की कमी हिंसा को जन्म देती है। देश में दया की कमी के कारण ही कत्लखाने खुल गये हैं यदि हम दया की कमी को दूर कर देंगे तो देश के सारे कत्लखाने बंद हो जायेंगे और अब समय आ गया है दिल में दया को जागृत करने का यदि हमने दया की उपेक्षा की तो यह हमारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। आज आवश्यकता है पशुओं को बचाने की जो बेमौत मारे जा रहे हैं। बेकसूर, निर्दोष प्राणियों की हत्या महापाप है, यह महापाप हमको रोकना चाहिए। यदि हम जीव-जन्तुओं की रक्षा नहीं कर सके तो इतने बड़े राष्ट्र की रक्षा कैसे करेंगे? जीव जन्तुओं को मारना जघन्य अपराध है। पशु-वध जैसे हिंसक, क्रूर कार्य करके हम अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं बना सकते। हिंसा से उन्नति संभव नहीं है, हिंसा को छोड़े बिना राष्ट्र उन्नत हो ही नहीं सकता। बोलना सबको आता है लेकिन सत्य बोलना सबको नहीं आता, लाइट जलाने मात्र से जीवन में उज्ज्वलता नहीं आ जाती, जीवन में डी-लाइट (सुख) भी होना चाहिए, जीवन में मात्र रास्ता नहीं साथ-साथ आस्था भी चाहिए, वस्तुत: जिस दिन मांस निर्यात रुकेगा उसी दिन सही 'स्वतंत्रता दिवस' होगा। यह स्वतंत्रता नहीं है कि हम मनमानी करें स्वतंत्रता का अर्थ तो सभी जीवों को जीने का समान अधिकार दिलाना होता है यह कौन-सी स्वतंत्रता है कि हम अपने लिए तो मानवाधिकार की बात करें और पशुओं को अनुपयोगी कहकर उनका कत्ल कर दें। यह मानवाधिकार भी नहीं है। मानव को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी की जान पर हमला करके किसी का जीवन छीने। जीने का अधिकार सबको है मृत्युदण्ड भी उसी को मिलता है जिसने कोई क्रूर अपराध किया हो लेकिन ये बेकसूर पशु निरपराधी हैं। इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है फिर इनको बेमौत क्यों मारा जा रहा है? इस अपराध की भी सजा होना चाहिए। भारत वह राष्ट्र है जिसने हमेशा सारे विश्व को दिशा बोध दिया है और अहिंसा का सन्देश दिया है लेकिन वही भारत आज अपनी दिशा से भटक गया है। अहिंसक देश को आज अहिंसा का उपदेश देना पड़ रहा है। क्योंकि उसने हिंसा को विकास का साधन समझ लिया है। जो गलत कदम है। मात्र अर्थ नीति ही सब कुछ नहीं है परमार्थ नीति भी होना चाहिए। अर्थ नीति देश को समृद्ध नहीं कर सकती, भौतिक सुख सुविधाएँ आदमी को सुखी नहीं बना सकती। सुखी बनने के लिए परमार्थ नीति की आवश्यकता है। केवल अर्थ नीति व्यक्ति को सन्तुष्ट नहीं कर सकती उसके साथ परमार्थ भी होना चाहिए परमार्थ का अर्थ न्याय नीति का सहारा लेकर जीवन विकास है। हम न्याय की बात करते हैं लेकिन न्याय का काम करना नहीं चाहते। हमारे न्यायालय किसलिए हैं? न्याय और कानून की व्यवस्था हिंसा और अपराध को रोकने के लिए ही तो हैं न कि 'शो' के लिए। फिर हमारे न्याय का क्या अर्थ जो हिंसा पर प्रतिबंध न लगा सके। क्या न्यायालय कत्लखाने नहीं रुकवा सकता? हिंसा को रोकने में न्यायालय की क्या भूमिका है? ये कत्लखाने हिंसा और कत्ल के ठिकाने हैं, ये कत्लखाने पर्यावरण के लिए घातक हैं। प्रदूषण, गन्दगी फैलाने वाले हैं इन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए कत्लखाने मुक्त भारत का निर्माण करो यही भारत की सही स्वर्ण जयन्ती है।
  4. शंकर का नन्दी कत्लखानों में कट रहा है और आप शंकर जी के मंदिर में पूजा कर रहे हैं। यह ठीक नहीं, अब मंदिर नहीं, कत्लखाने में कट रहे शंकर के नन्दी को बचाओ यही सबसे बड़ी शंकर की पूजा है। पशु वध रोकना ही सबसे बड़ी पूजा है। पूजा के लिए मंदिर अनिवार्य नहीं। मंदिर तो हम अपने अंदर ही बना सकते हैं, यदि हमारे दिल में करुणा और अहिंसा की वेदी बनी है तो समझ लो अवश्य तुम्हारे अन्दर परमात्मा का मंदिर बना हुआ है, और तुम उस परमात्मा की पूजा कर रहे हो। हम आज मंदिर में पूजा कर लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमने परमात्मा को खुश कर लिया, नहीं, नहीं, जब तक हमारे अन्दर से हिंसा, क्रूरता, बर्बरता निकल नहीं जायेगी तब तक हम अपने भीतरी भगवान् को नहीं समझ पायेंगे। अब मंदिर में जाकर भगवान् की पूजा करने की अपेक्षा, जो कत्लखानों में पशु कट रहे हैं उन पशुओं की हत्या रोको उनकी जान बचाओ यही सबसे बड़ी पूजा है। पशुओं की रक्षा के लिए उनके संरक्षण के लिए हमको अपने गाँव में गो-शाला का अवश्य निर्माण करना चाहिए। गौ-शाला भी मंदिर से कम नहीं है उस गौ-शाला में भी आपको परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं वहाँ आपकी पूजा हो सकती है, वहाँ भी आपका भजन हो सकता है। अहिंसा के दर्शन आपको गी शाला में भी हो सकते हैं इसलिए आप गो-शाला का अवश्य निर्माण करें। दूसरी बात, यदि आपके घर में गाय, बैल, भैंस आदि जानवर हैं और जब वे वृद्ध हो जाते हैं तो आप उनको बेचें नहीं। यदि आप बूढ़े गाय-बैल आदि पशुओं को बेचते हैं तो अवश्य आप पाप के भागीदार हैं क्योंकि वे बूढ़े जानवर कसाई के यहीं जावेंगे और वह उनका कत्ल करेगा और मांस बेचेगा। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हमने जिनसे जीवनभर काम लिया उनसे खेती की, उनका दूध पिया अब उनको अपने माता-पिता के समान पालन पोषण करें, यही सबसे बड़ा धर्म है। इस प्रकार से पशुओं को कत्ल होने से बचाने के लिये यह बहुत सरल उपाय है (१) गौशाला (२) बूढ़े जानवरों को नहीं बेचना (३) गाँव-गाँव में चौकियाँ स्थापित करना, अर्थात् जहाँजहाँ से ट्रकों में भर-भर कर पशु कत्लखानों में कटने के लिए चले जाते हैं उनको उन चौकियों में पकड़ना और ले जाने वालों को पुलिस के हवाले करना। गाँव-गाँव में इस प्रकार का प्रचार प्रसार करना कि कसाई जानवरों को कहीं से भी खरीद न सकें। इस प्रकार से पशु वध रोकने के उपाय हम कर सकते हैं, करना चाहिए। यदि हम गाँव-गाँव में इस प्रकार की व्यवस्था कर लें तो कत्लखाने आज बन्द हो सकते हैं। धर्म एक नदी के समान है, धर्म एक सूर्य के समान है जिस प्रकार नदी किसी जाति, समाज, अमीर-गरीब आदि के भेद-भाव बिना जो उसके तट पर जाता है उसको जल प्रदान करती है, वह नदी किसी को मना नहीं करती कि तुम मेरा पानी मत पियो। इसी प्रकार सूर्य प्रकाश बिना भेद-भाव के सबके घरों में अपना प्रकाश प्रदान करता है। बस धर्म भी इसी प्रकार होता है। धर्म वही है जो सबको जीना सिखलाता है, धर्म वही है जो पक्षपात करना छुड़वाता है। धर्म वही है जो सुख से जीना सिखलाता है। धर्म वही है जो शांति से जीना सिखलाता है। धर्म को समझो, धर्म हमारी ईष्या, राग, द्वेष छुड़वाता है, विरोध प्रतिशोध छुड़वाता है धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है और कर्तव्य का अर्थ करने योग्य कार्य। करने योग्य क्या है? अच्छाई करने योग्य है। करने योग्य क्या नहीं है? बुराई करने योग्य नहीं है। बुराई निन्दा, चुगली, कलह, झगड़ा यह सब अयोग्य कार्य हैं इनको नहीं करना चाहिए। यह मनुष्य मनु की सन्तान है, मनन करता है, चिन्तन करता है, विचार करता है विचारशील है लेकिन आचारशील नहीं है लेकिन अब मनुष्य को आचारशील बनना है। आचार का अर्थ नैतिक आचरण होता है हमको आज आचरण की आवश्यकता है मनुष्य के जीवन में आचरण की बड़ी कीमत होती है। आचरण के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं कहला सकता। कीमत मनुष्य की नहीं होती, कीमत आचरण की होती है। सदाचार की होती है, शाकाहार की होती है। यदि मनुष्य में सदाचार, सेवा, शाकाहार, सरलता नहीं तो वह मनुष्य नहीं कहला सकता। सदाचार का नाम है आदमी, सरलता का नाम है आदमी, अहिंसा का नाम है आदमी, ईमान का नाम है इंसान, मानवता का नाम है धर्म। इंसान को ईमान की पूजा करना चाहिए। योग का नाम है आदमी, भोग का नाम नहीं। जब भोग समाप्त हो जाते हैं और योग में लीन हो जाता है तब सारे विकार समाप्त हो जाते हैं वासना एक विकृति, खराबी है, वासना को जीते बिना योग साधना प्रारम्भ नहीं हो सकती। योग साधना के लिए वासना को पहले छोड़ना होगा, वासना को भूलकर उपासना करो, प्रार्थना करो, साधना करो। वासना के साथ उपासना नहीं हो सकती। उपासना करने के लिए प्रार्थना करो, साधना करो, और कामना करो कि हमारा जीवन सफल हो इसके लिए पुण्य काम करो। मनुष्य जीवन पुण्य का फल है। इसलिए पुण्य कार्य करो पाप कार्य से बचो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से बचो। अच्छाई का कार्य करो, बुराइयों से बचो। मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि हमें पापों से बचकर पुण्य करना है। आचार्य श्री ने भारत की प्राचीन कानून प्रणाली एवं दण्ड संहिता का उल्लेख करते हुए कहा कि प्राचीन भारत में दण्ड के नाम पर तीन धाराएँ थी पहला ‘हा’ दूसरा 'मा' और तीसरा ‘धिक्र' इनका अर्थ यह है कि यदि किसी ने कोई अपराध कर लिया तो उसको दण्ड के नाम पर राजा मात्र ‘हा’ कहता था यानि हाय! हाय! तूने यह क्या कर लिया। बस इतने मात्र में वह अपराधी सुधर जाता था। किसी को 'मा' यानि अब ऐसा कभी मत करो। और किसी को ‘धिक्र' यानि धिक्कार। धिक्कार। छी छी। बस ये तीन ही दण्ड थे, न सजा थी न जुर्माना और न फाँसी। मात्र शाब्दिक उच्चारण रूप दण्ड में ही उस समय का आदमी सुधर जाता था लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया उद्धृण्डता बढ़ती गई और दण्ड संहिताओं का भी विस्तार होता गया और आज तो दण्ड के नाम पर सजा है, जुर्माना है, फाँसी है सब कुछ है लेकिन किसी भी प्रकार से अपराधों में कमी नहीं है दिनों दिन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। अपराधों को जन्म देने में हिंसक वातावरण का पहला हाथ है सरकार अपराधों को रोकने के लिए कानून बनाती है लेकिन हिंसक वातावरण का स्वयं निर्माण भी करती है। यह तो सत्य है कि कत्लखानों से कभी अहिंसक वातावरण का निर्माण नहीं हो सकता। जहाँ कत्ल होता है, खून होता है, जिन्दा जीवों को मशीनों से काटा जाता है, ऐसे वध स्थानों में अहिंसक वातावरण की क्या कल्पना की जा सकती है? इन्हीं कत्लखानों की वजह से ही आदमी के अन्दर भी अनेक प्रकार के अपराध जाग रहे हैं। इन कत्लखानों ने पशुओं की चोरी करना सिखला दिया, हजारों को कसाई बना दिया, अत्याचार करना सिखला दिया, यूजलैस (अनुपयोगी) जानवर के नाम पर दुधारू जानवरों का भी वध होने लगा है। जवान गाय-बैल का भी कत्ल होने लगा है। एक तरफ तो सरकार गौ-वंश के गीत गाती है और दूसरी और कत्लखाने खोलकर गाय-बैलों का कत्ल करके उनके मांस को डिब्बों में बन्द कर विदेश निर्यात करती है, और वहाँ से गोबर मंगाती है दूध पाउडर मंगाती है यह कौन सी नीति है? मांस निर्यात मनुष्यता के लिए अभिशाप है इसको रोकना चाहिए, कत्लखाने मानव जाति पर कलंक है, कत्लखाने भारतीय अहिंसक संस्कृति पर कुठाराघात है, मांस निर्यात को रोकना चाहिए पशु बचाओ और उसके लिए हम सबको एक जुट हो जाना चाहिए।
  5. यह भारत भूमि है, यह कृषि प्रधान देश है। जहाँ वेदों, पुराणों की पूजा होती है, यहाँ प्रत्येक प्राणी को अभयदान दिया जाता है यहाँ बीजों को भी बचाया जाता है क्योंकि उनमें भी अंकुर का जीवन होता है वृक्ष का विकास होता है। जीवन की रक्षा ही भारतीय संस्कृति है लेकिन आज यह भारत किस उन्मार्ग पर जा रहा है इसका बड़ा दुख है। बीजों को भी कष्ट न पहुँचाने वाला यह भारत आज बड़े-बड़े गाय, बैल, भैंस, इत्यादि जिन्दा जानवरों को कत्ल करके उनका मांस खून बेच रहा है। यहाँ की गाय भी गीता से कम पवित्र नहीं है लेकिन इस भारत ने उस पवित्र गाय को भी कत्ल करने का घिनौना कुकृत्य प्रारंभ कर दिया है। गाय का खून, मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है, यह हत्या का काम भारत को चौपट कर देगा, किसी की हत्या करके, खून करके, हम अपने खून के जीवन को सुरक्षित नहीं रख सकते। इसके लिए हमको भारत से मांस का निर्यात तुरन्त बंद कर देना चाहिए। भारत की अहिंसा का आदर्श आज भी हमारे शास्त्र पुराणों में सुरक्षित है यह वह भारत है जहाँ यज्ञ-हवन की पूजन सामग्री के लिए भी अग्नि में होम के लिए भी यह कहा जाता था कि ' यजैर्यष्टव्यम्' अर्थात् यज्ञ की अग्नि में उन धानों (बीजों) की आहूति करो जो धान तीन वर्ष पुराने हैं, जिनमें उगने, अंकुरित होने की शक्ति नहीं रही है उन निर्जीव धानों(बीजों) का अग्नि में हवन करो, यह है भारतीय संस्कृति जहाँ जीवित बीजों को भी अग्नि में नहीं डाला जाता। लेकिन आज भारत की वह आदर्श संस्कृति कहाँ गायब हो गई? आज तो जिन्दा जानवरों को यांत्रिक कत्लखानों में, मशीनों में काटा जा रहा है, ये कत्लखाने प्रतिदिन लाखों की संख्या में पशुओं की बलि ले रहें हैं, इतना ही नहीं करंट के द्वारा जानवरों को मारा जा रहा है और यह सब कर रही है हमारी सरकार । सोना, चाँदी, हीरा, मोती का निर्यात करने वाला यह भारत आज खून, मांस हड़ी का निर्यात कर रहा है। इन जानवरों को मारकर के उनका मांस निर्यात करके यह भारत कभी भी अपनी उन्नति नहीं कर सकता। राष्ट्र को कत्लखानों की आवश्यकता नहीं भारत को पशुशालाओं की आवश्यकता है, गौ शालाओं की आवश्यकता है, दुग्ध शालाओं की आवश्यकता है। गायों को मारकर सरकार विदेशियों के पेट में गो-मांस डाल रही है और यहाँ दूध की भुखमरी पड़ रही है देश में नकली दूध का प्रचलन बढ़ रहा है, जिस नकली दूध से घातक बीमारियाँ बढ़ रही हैं - आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने पशुओं को सुरक्षित रखें ताकि हमको शुद्ध दूध और खाद की प्राप्ति हो और जहरीले नकली दूध, घी, खाद से बचे रहें। यह कौन सी सरकार है जो अण्डों को शाकाहारी कह रही है और झूठा प्रचार कर रही है। अण्डे कभी शाकाहारी नहीं हो सकते, अण्डे तो मांसाहारी ही हैं, अण्डों में जीव है, वह भ्रूण है, उसमें जीवन है। अण्डे किसी वृक्ष पर नहीं लगते। अण्डों का उत्पादन किसी वृक्ष पर नहीं होता, अण्डे कोई फल नहीं हैं, वह तो मुर्गी का बच्चा है। ऐसे जीवित अण्डों को शाकाहारी कहना सरासर अन्याय है। दुनियाँ का कोई भी अण्डा शाकाहारी नहीं हो सकता। आज वैज्ञानिकों ने भी इसी बात को सिद्ध कर दिया कि अण्डा मांसाहारी ही है और वह अण्डा मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है, उसका सेवन कैंसर जैसे प्राणघातक रोगों को जन्म देता है अत: सरकार को जनता के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए और टी.वी. में अण्डों का विज्ञापन बंद होना चाहिए। यह देश के साथ खिलवाड़ है। क्या यही पचास वर्ष का विकास है? कि हम अण्डों को शाकाहारी कहने लगे? मांस को बेचने लगे, मांस खून को सुखाकर पैकेट में बंद कर बेचने लगे? विकास के नाम पर देश में हिंसा का विकास हुआ है, अन्याय का विकास हुआ है, अत्याचार का विकास हुआ है, मानवीय सभ्यता, संस्कारों और चरित्रों का ह्रास हुआ है यही है हमारी पचास वर्ष की उपलब्धि। परतंत्र भारत में मांस का निर्यात नहीं हुआ, लेकिन आज स्वतंत्र भारत में मांस का निर्यात हो रहा है। हम स्वर्ण जयंती का जश्न मनाने की तैयारियाँ कर रहे हैं मात्र सभा, संगोष्ठी, सम्मेलनों के रूप में। इससे भारत का कुछ विकास नहीं हो सकता, भारत के विकास के लिए अहिंसा चाहिए, सत्य चाहिए। किसी ने मुझसे कहा महाराज १५ अगस्त को आप कोई विशेष कार्यक्रम देंगे क्या? मैंने कहा मैं तो रोज १५ अगस्त मना रहा हूँ क्योंकि आप लोगों ने आजादी का दुरुपयोग किया है मैं तो आजादी का महोत्सव प्रतिदिन मनाता हूँ मेरे लिए १५ अगस्त रोज है क्योंकि मैंने समझा है- आजादी का सही मायना। आजादी की स्वर्ण जयंती का मनाना तभी यथार्थ होगा कि हम अपने देश से हिंसा, अन्याय, अत्याचार को समाप्त कर दें और अहिंसा, न्याय, सदाचार को अपने जीवन में उतार लें। यदि हमारे जीवन में अहिंसा नहीं, सत्य नहीं, न्याय नहीं, सदाचार नहीं तो फिर हम अपने देश को सुरक्षित नहीं रख पायेंगे, क्योंकि देश की रक्षा, सत्य अहिंसा न्याय सदाचार से ही होगी, अकेले राष्ट्रीय जश्न मनाने और गीत गाने से नहीं होगी।
  6. प्रकृति को रोकना डेन्जर (खतरा) है प्रकृति को मत रोकिए यदि तुमने प्रकृति को रोकना चाहा तो समझ लो तुम्हारा जीवन खतरे में है। आज हमने प्रकृति से छेड़छाड़ करके अनेक खतरे पैदा कर लिए हैं, हमने नदियों को रोक लिया बांध बना लिया। याद रखो, नदियों में कमी भी 'डेजर' नहीं लिखा रहता जबकि बांधों में ‘डेंजर" लिखा रहता है क्योंकि हमने प्रकृति से छेड़छाड़ किया है, नदियों को रोक कर हमने कई खतरे पैदा कर लिए हैं। प्रकृति में रहो लेकिन प्रकृति के अनुसार रहो प्रकृति के अनुसार चलने में ही मानवजाति का भला है, यदि मानव जाति को खतरों से बचाना चाहते हो तो प्रकृति के प्रतिकूल मत चलो। जीवन में राइट नॉलेज (समीचीन ज्ञान) होना चाहिए, यह दुनियाँ भटक रही है क्योंकि इसके पास राइट नॉलेज नहीं है, हमारे पास सब कुछ है किसी बात की कमी नहीं है लेकिन हमारे पास सबसे बड़ी गरीबी राइट नॉलेज की है। यदि तुम आत्मशांति की खोज करना चाहते हो तो बाहर की यात्रा बंद कर दी। शांति बाहर नहीं मिलेगी शांति भीतर मिलती है और आत्मशांति के लिए समीचीन ज्ञान की आवश्यकता है। जब हमको राइट नॉलेज हो जाता है तब हम अपने (राइट) अधिकार की बात करना छोड़ देते हैं यानि हम कर्तव्य की ओर बढ़ जाते हैं। बात कर्तव्य की करो, अधिकार की नहीं, कर्तव्य ही जीवन है, अधिकार नहीं। यदि हम दुनियाँ का भला करना चाहते हैं तो हमको कर्तव्यशील बनना होगा और अधिकार की बात को छोड़ना होगा। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमको भीतरी चेतना को समझना होगा। वह सच्चा ज्ञान मंदिर में ही नहीं रणांगन (युद्ध भूमि) में भी हो सकता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है भारतीय इतिहास का आदर्श नरेश सम्राट अशोक महान्, अशोक महान् को सच्चा ज्ञान मंदिर में नहीं युद्ध में हुआ था, अशोक ने जब युद्ध भूमि में लाशों का ढेर देखा उसकी आत्मा काँप उठी, वह रो पड़ा, उसका दिल दहल उठा और उसकी आत्मा चिल्ला उठी, ये नरसंहार आखिर किसके लिए? नहीं, नहीं राष्ट्र की रक्षा के लिए, प्रजा की उन्नति के लिए? यह खून खराबा उचित नहीं और उसने आजीवन युद्ध का त्याग कर दिया। उसने सोचा दूसरों के खून से राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं, प्रजा की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए अहिंसा ही एक मात्र सच्चा साधन है। उस अशोक महान् की मुद्रा ही आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। हमारे देश का राष्ट्रीय चिह्न ही अहिंसा का प्रतीक है। जब हमारे देश की राष्ट्रीय मुद्रा ही अहिंसा का प्रतीक है तो फिर देश हिंसा का सहारा लेकर राष्ट्र की उन्नति का स्वप्न क्यों देख रहा है। अशोक ने युद्ध का त्यागकर दिया था, क्या भारत को नहीं मालूम कत्लखानों में युद्ध से भी बदतर स्थिति है। जहाँ जिन्दा जानवरों का कत्ल कर दिया जाता है फिर अशोक महान् की मुद्रा को राष्ट्रीय चिह्न बनाने का क्या अर्थ? यदि हमारी राष्ट्रीय मुद्रा अहिंसा का प्रतीक है तो हमको भी अहिंसा का अनुपालन करना चाहिए। अन्यथा राष्ट्रीय मुद्रा का अपमान है। जिस मुद्रा में 'सत्यमेव जयते' का वेद वाक्य लिखा हो फिर भी सरकार मांस का निर्यात करे यह कौन सा आदर्श है। जिसको आप माँ कहते हैं और उसी गौ माँ का मांस बेचकर राष्ट्र का उत्थान चाहना यह कितनी लज्जा शर्म की बात है। भले ट्रेक्टर से कृषि हो जाये लेकिन ट्रेक्टर से दूध नहीं मिल सकता, घी नहीं मिल सकता, खोवा, गोबर नहीं मिलेगा। अत: गौ रक्षा अनिवार्य है। यदि गैय्या नहीं रही भैय्या तो याद रखो भगवान् की आरती के लिए भी पेट्रोल की आवश्यता होगी क्योंकि घी गाय से मिलेगा ट्रेक्टर से नहीं। गाय एक चेतन धन है जड़ धन के लिए चेतन धन को नाश करके धन की वृद्धि करना बिल्कुल बेकार है यह तो अभिशाप है, इससे देश का कुछ भी उत्थान नहीं होगा। भारत को किस बात की कमी है। भारत के पास कृषि के लिए बहुत जमीन है फिर आज मछली की खेती, अण्डों की खेती, मांस की खेती क्यों की जा रही है? गाँधी जी के शब्दों में () अर्थात् गाय करुणा की कविता है। उन्होंने गौ रक्षा का अर्थ भी बहुत अच्छा किया ( ) अर्थात् गौ रक्षा का अर्थ क्या है? ईश्वर के समग्र मूक सृष्टि की रक्षा करना गी रक्षा है। मूक सृष्टि का अर्थ पशु जगत् के समग्र प्राणी जैसे-गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, बकरी, बकरा, मुर्गा, मेंढक, मछली, पक्षी इत्यादि सब। गाय का दूध पीने वालो गाय का खून मत होने दो, राष्ट्र की रक्षा और प्रजा का पालन हमारा धर्म होना चाहिए यदि हम राष्ट्र की रक्षा और प्रजा का पालन नहीं कर सके तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। हमारे पास आज राष्ट्रीय गीत है, राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रीय चिन्ह है लेकिन हमारे "राष्ट्रीय चरित्र " नहीं है यदि हम अपना राष्ट्रीय चरित्र बना लें तो हमारे राष्ट्र का भला है। वह राष्ट्रीय चरित्र क्या है? सत्य और अहिंसा ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र हो, सत्य और अहिंसा ही हमारा राष्ट्रीय धर्म हो, और यदि हमारे नस-नस में इस राष्ट्रीयता का संचार हो जाये तो फिर हमको किसी दूसरी चीज का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं। हमारा राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा का प्रतीक है, अहिंसा की ध्वजा को फहराने वाला देश, करुणा, विश्व मैत्री, विश्व शांति का अमर सन्देश देने वाला देश, गाय की आरती और पूजा करने वाला देश मांस निर्यात कर अपने आदर्श को खो रहा है अपनी संस्कृति को कलंकित कर रहा है!!! 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाली कहावत चरितार्थ होने वाली है याद रखो। दूध फटने के बाद उसमें कितना भी अच्छा रसायन डालो वह दूध पुनः सही नहीं हो सकता इसी प्रकार यदि एक बार देश की संस्कृति फट गई, विकृत हो गई तो समझ लो देश बचने वाला नहीं है। भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए देश की पशु सम्पदा को बचाना आवश्यक है और इसके लिए देश के कर्णधारों को जागना है। जो कर्णधार तो हैं लेकिन उनके कानों में आवाज नहीं जाती। आप भारत के अतीत उन पवित्र पद चिह्नों में चलिए जिससे दुनियाँ को सच्चाई का मार्ग मिले सत्य का दर्शन हो, और असत्य से घृणा हो। हमारा आचरण ऐसा हो कि हमारे द्वारा प्रजा का ही नहीं अपितु प्रतिपक्ष का भी संरक्षण हो। सन्तों का यह उपदेश है कि आप अपनी यात्रा रोकिए मत अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर लगाइये। अशोक महान् के आदर्श को मत भूलिये, जिससे हमारी राष्ट्रीय मुद्रा बनी है। विदेशी मुद्रा के खातिर अपनी मुद्रा (दशा) मत बिगाड़ो। सबका संरक्षण करो, सबका भला करो, किसी का वध मत करो, किसी को मत सताओ, किसी की जान पर हमला मत करो, पशुओं की रक्षा करना ही धर्म है।
  7. ऐसी सरकार को लेकर क्या करना जो बूचड़खाने खोले, पशुओं का वध करे मांस का निर्यात करे, हमको वह सरकार चाहिए जो हिंसा, कत्लखाने, पशु-वध और मांस निर्यात पर प्रतिबंध लगाये, इनको रोके। इन कत्लखानों में मात्र पशुओं का ही वध नहीं हो रहा है अपितु जनता की धार्मिक एवं मानवीय भावनाओं को मारा जा रहा है। ऐसा करके क्या हम अपने देश में सुख, शांति, अहिंसा, मैत्री, का वातावरण तैयार कर सकते है? क्या इन कत्लखानों से सत्य, अहिंसा जीवित रहेगी? क्या इन कत्लखानों से मानवता जिन्दा रहेगी? हिंसा का उद्योग देश में हिंसा ही फैलायेगा, अहिंसा नहीं। सरकार अहिंसा की बात करती है लेकिन हिंसा के कार्य छोड़ती नहीं। अहिंसा की स्थापना हिंसा से नहीं हो सकती। आज हमको हिंसा नहीं अहिंसा चाहिए, अहिंसा को समाप्त करके क्या हिंसा से देश बचा पायेंगे? सरकार को चाहिए कि वह हिंसा को रोके, जो हिंसा को न रोक सके वह देश को बर्बादी से नहीं बचा सकता। यह हमारी दृष्टि का भ्रम है कि हम पशुओं के मांस निर्यात से अपने देश की आर्थिक सम्पदा का विकास करना चाहते हैं आर्थिक विकास के लिए हमको मौलिक व्यवसायों को अपनाना होगा व्यक्तिगत परिश्रम को मजबूत करना होगा, अपव्यय और अनावश्यक उत्पादनों को रोकना होगा। यदि हम व्यक्तिगत परिश्रम को मजबूत कर लें, तो हम स्वयं अपने ऊपर डिपेण्ड (आश्रित) हो सकते हैं। परिश्रम का अभाव देश में गरीबी पैदा कर रहा है, हर व्यक्ति परिश्रम करने लगे तो देश का आर्थिक विकास बहुत जल्दी हो सकता है। लेकिन देश की मौलिक चेतन सम्पदा को चौपट करके उसके बदले में कुछ विदेशी मुद्रा का लालच हमारे देश को चौपट कर रहा है। भारतीय इतिहास में ऐसा युग कभी भी नहीं आया जिस वक्त भारत ने मांस का निर्यात किया हो, अपितु हर युग में भारत ने पशुओं का संरक्षण किया है उनको बचाया है लेकिन आज के शासकों को यह कौन-सी धुन सवार हो गई है पशु वध करना, यह एकदम विपरीत कदम है इसको रोकना चाहिए। देश को जानवरों से विहीन मत होने दें सरकार का कर्तव्य है कि वे इस ओर अपने कदम उठाये। जनता कत्लखानों के विरोध में अपनी आवाज उठा रही है उसको सुने, सरकार को जनता की आवाज सुनना चाहिए। जनता का फर्ज होता है कि वह ऐसी सरकार का चुनाव करे जो अहिंसक कार्य करे, जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है लेकिन उसको यह सोचना चाहिए कि हमारा प्रतिनिधि कैसा हो, चरित्रवान, आस्थावान, निःस्वार्थी, न्यायी, सेवक, अहिंसक प्रतिनिधि को चुनना चाहिए। अगर आप अपनी धार्मिक भावनाओं की रक्षा करना चाहते हो तो ऐसी सरकार बनाओ जो हिंसा से देश को मुक्त कर कत्लखाने रहित भारत का निर्माण करे। जब तक बुरी चीज का त्याग नहीं होता तब तक अच्छी चीज का ग्रहण नहीं हो सकता और बुरी चीज का त्याग भी तभी होता है जबकि बुरी चीज का ज्ञान हो जाये। बुरा क्या है? अच्छा क्या है? इसका सबसे पहले ज्ञान करो, समझो। तुम्हारी अच्छाई से कई लोगों की बुराइयाँ छूट सकती हैं, दूसरों की बुराइयाँ तुम्हारी अच्छाई से छूट सकती हैं। लेकिन बुराईयों को छोड़ने के लिए हमको आस्था की सबसे बडी आवश्यकता है क्योंकि त्याग का क्रम आस्था के बाद ही आता है। हम आस्थावान बन जायें हमको हमारी बुराइयाँ समझ में आने लगेंगी। बुराईयों को समझना ही अच्छाईयों का मार्ग है। बुराई को समझो और भलाई पर लग जाओ। धन जीवन का ध्रुव बिन्दु नहीं है, वह तो एक सहारा है एक पगडंडी है उसको जीवन का लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए। जीवन धन के लिए नहीं जीवन तो धर्म के लिए है, धन एक साधन है अपनी जरूरतों को पूर्ण करने का। धन साधन है जबकि धर्म साधना है, धन पेट के लिए है धर्म शांति के लिए है, धन से तो हमारा पेट भरता है लेकिन शांति पेट भरने से नहीं मिलती क्योंकि पेट शांति का स्थान नहीं शांति का स्थान तो आत्मा है और धर्म आत्मा की खुराक है। इसलिए जीवन में धन के साथ-साथ धर्म भी होना अनिवार्य है। धर्म और धर्म के स्वरूप को समझे बिना हम अपने इष्ट की प्राप्ति नहीं कर सकते। धर्म आत्म शांति का विज्ञान है, आत्म खोज का विज्ञान है। धर्म की परिभाषा मानव ने नहीं अपितु धर्म ने मानव को धर्म की परिभाषा सिखाई। वस्तुत: धर्म परिभाषाओं की वस्तु नहीं क्योंकि धर्म भाषा नहीं भाव है। हम धर्म को भाषाओं से समझ रहे हैं इसलिए धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं, धर्म भावों से समझा जाता है लेकिन वे भाव भी आपके पास होना चाहिए जो आपको समझा सकें। धर्म समझ में आने पर जीवन अधर्म से बच जाता है। धर्म हमको गुनाहों से बचने का संकल्प देता है, एवं आत्मिक उत्थान की ओर ले जाता है। धर्म हिंसा और अशांति का विरोधी है, वह हिंसा को कभी पसंद नहीं करता क्योंकि हिंसा अशांति है। दुनियाँ का कोई भी प्राणी हो उसकी पहली माँग आत्म शांति ही होती है। वह आतरिक क्लेशों से बचना चाहता है, यह बात अलग है कि वह शांति के यथार्थ मार्ग को न समझ अशांति की पगडंडी में भटकता रहता है। धर्म जीवन विज्ञान है। मानव जाति आज संकट में गुजर रही है क्योंकि उसने धर्म को ठुकराया है इसीलिए वह ठोकर खा रही है। यदि हम अपना सर्वागीण चहुँमुखी विकास चाहते हैं तो हमको अहिंसा धर्म की वेदी पर अपना माथा टेक जीवन में उसको ट्रान्सलेट (परिवर्तित) करना होगा।
  8. जो बच्चे अपनी माँ को खो देते हैं यानि बच्चे को जन्म देकर जिसकी माँ मर जाती है, उन अनाथ बच्चों का पालन-पोषण गौ माता के दूध से हो जाता है। गौ का दूध आदमी के बच्चों को पुष्ट करता है, शक्ति देता है, उनको एक लम्बी उम्र देता है। जो शक्ति माँ के दूध में नहीं वह शक्ति है गी माता के दूध में। ऐसी शक्तिवर्धक, स्वास्थ्य की जननी गौ माता का आज वध हो रहा है, जिसका हमने दूध पिया, उसी का आज खून बेच रहे हैं। भारत के लिये यह बहुत बड़ा कलंक है। भारत आज गी मांस बेच रहा है, गौ की हत्या कर रहा है। भारत ने कत्लखाने खोल लिये हैं, मांस निर्यात कर रहा है, यह मांस बेचना भारतीय संस्कृति नहीं, भारत में तो जीवों को बचाया जाता है, उनका पालन-पोषण किया जाता है। भारत कृषि प्रधान देश है, मांस प्रधान नहीं। आज भारत में मांस का व्यापार हो रहा है, शराब का व्यापार हो रहा है, अण्डों की खेती हो रही है, यह सब भारत के लिये कलंक है। मांस, शराब, अण्डे, मछली को बेचकर यह भारत कभी भी उन्नति नहीं कर सकता, क्योंकि यह सब हिंसा है। यह हिंसा का पैसा, खून का पैसा, तुम्हारे मस्तिष्क को विकृत कर देगा और सारा पैसा दिमाग को ही ठीक करने में खर्च हो जायेगा फिर देश की उन्नति के लिये क्या बचेगा? राष्ट्र का विकास अहिंसा से ही हो सकता है, हिंसा से नहीं। यदि तुम भारत की उन्नति चाहते हो तो हिंसा को रोक दो हिंसा से इस देश को मुक्त कर दो। इस देश की उम्र बढ़ जायेगी, यदि हिंसा को नहीं रोक सके तो समझ लेना देश की उम्र बहुत कम बची है। हिंसा बहुत बड़ा गुनाह है। हिंसा से बढ़कर पाप नहीं है, हिंसा सब पापों की जड़ है। जीवित पशुओं को मारकर उनका मांस बेचकर हम अपने देश को अहिंसा का संदेश कैसे दे सकते हैं? मांस का निर्यात करके पैसा कमाना यह धन कमाने का साधन कतई नहीं हो सकता। भारत को खून, मांस बेचना छोड़ देना चाहिए। खून, मांस बेचकर भारत सुखी नहीं हो सकता। मांस निर्यात करना सबसे बड़ा घोटाला है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस महा घोटाले को कोई घोटाला नहीं समझ रहा है और इसके विषय में कोई आवाज नहीं उठा रहा है। देशवासियों का यह पहला कर्तव्य है कि वे सबसे पहले मांस नियति के हिंसक घोटाले को बंद करवायें, जब तक पशु हत्या का घोटाला रुकेगा नहीं, तब तक यह भारत अपना विकास नहीं कर सकता। भारत का विकास पशु हत्या को रोकने में ही है। इन जानवरों को मारकर हम कैसे जिंदा रह सकते हैं? इन गाय- बैल इत्यादि को फसल की तरह नहीं उगाया जा सकता। पेड़-पौधों को तो उगाया जा सकता है, लेकिन इनको उगाया नहीं जा सकता। भारत के अपने आदर्श हैं, लेकिन मांस बेचकर भारत ने अपने सारे आदर्श मिटा डाले। आदर्श के नाम पर उसके पास कुछ नहीं बचा। भारत को पुन: उन संस्कारों को जीवित करने की आवश्यकता है, जिनको वह भूल गया है, यदि इन अहिंसा के संस्कारों को जीवित नहीं किया गया तो हिंसा का प्रलय हम सबको तबाह कर देगा। अत: हमको मांस-निर्यात बंद करके ही अहिंसा के संस्कारों को जीवित करना है। आज के आदमी का सबसे ज्यादा पैसा दिमाग और दवाई में ही खर्च होता है, पेट में नहीं। वह अपने पेट को अच्छी- अच्छी चीज खिलाना चाहता है, लेकिन उसका दिमाग खराब होने के कारण वह खिला नहीं पाता। उसका दिमाग इसलिए खराब है, क्योंकि उसके दिल में दया मर गई। दया के समाप्त हो जाने पर दिल बेकार हो जाता है और जिसका दिल बेकार हो जाये, उसका पेट ठीक कैसे रह सकता है और खराब पेट वाला आहार नहीं दवाई खाता है। आज हम अपने दिल और दिमाग को ठीक कर लें हमारा पैसा दवाई से बच जायेगा और उस पैसे से हम अपने देश की तरक्की अच्छी तरह से कर सकते हैं। भले आप राम, महावीर को याद न करो लेकिन दया को याद रखो, क्योंकि जहाँ दया है वहीं राम हैं, वहीं महावीर हैं। दया ही राम है, दया ही महावीर है। आज भारत के पास दया नहीं रही इसलिए वह मांस निर्यात जैसे खूनी कर्म करने लगा, अन्यथा दूध का देश खून क्यों बेचता?
  9. पशुओं का वध बिना मौत के हो रहा है, इस पशु वध को रोकने में आपका क्या सहयोग है? क्या मात्र संकल्प पत्र में हस्ताक्षर? नहीं, नहीं, पशु वध को रोकने के लिए अब हस्ताक्षर की आवश्यकता नहीं अब हस्तक्षेप चाहिए। हस्तक्षेप का अर्थ बाधा उत्पन्न करना, और वह बाधा किसमें? हिंसा में, अहिंसा में नहीं। पशु वध हिंसा है, कत्लखाने हिंसा है, मांस निर्यात हिंसा है, इस हिंसा में बाधा उत्पन्न करो, यह पशुओं की हिंसा हस्ताक्षर से रुकने वाली नहीं है इसके लिए अब हस्तक्षेप की आवश्यकता है। स्वतंत्र होने के बाद पशुओं का हमारे ऊपर डिपेन्ड होना, यानि उनका संरक्षण करते लेकिन यह भारत इतना गरीब हो गया कि पशुओं पर डिपेन्ड हो गया, यानि पशुओं को मारकर उनका खून मांस बेचकर अपनी गरीबी भगाना चाहता है उनसे पैसा कमाना चाहता है। पशुओं का मांस बेचकर क्या भारत धनी बन जायेगा पशुओं की हत्या करके यह भारत अपने कर्ज को मिटा लेगा? मांस बेचने से न भारत का उत्थान होगा और न उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी । कत्लखाने कृषि प्रधान देश के लिए कलंक हैं। देश में बढ़ती हिंसाएं, बर्बरताएं हमारे विनाश का मानसून तैयार कर रही हैं। कत्लखाने, पशु हत्या, मांस निर्यात, वृक्षों की कटाई पक्षियों की तस्करी, फैलता प्रदूषण, बिगड़ता पर्यावरण हमारे जीवन मरण का प्रश्न है। यदि हमने इस बढ़ते पापाचार पर प्रतिबंध नहीं लगाया तो प्रकृति के प्रकुपित होने में अब देर नहीं है। प्रकृति का प्रकुपित प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखी, दुर्भिक्ष के भीषण विकराल दाडों में दुनियाँ को चबा जायेगा। अत: आवश्यकता है एक 'जन क्रांति' की जो दुनिया के हिंसक वातावरण को अहिंसा और करुणा में बदल दे। आप गाँव में रहें या शहर में अथवा कहीं भी रहें आपको ‘ मांस निर्यात' के खिलाफ एक आन्दोलन करना है। इसके लिए आप अपने यहाँ एक 'मांस निर्यात निरोध परिषद' का गठन करें और जनमत तैयार करें और यह मात्र जैनों का जनमत नहीं अपितु आपके गाँव- शहर में रहने वाले जितने भी समुदाय हैं उनसे मिलकर विचार विमर्श करके उन सबके साथ अपनी आवाज को बुलन्द करें। रैलियां निकालें, धरना दें, दैनिक समाचार पत्रों में पशु वध से होने वाली आर्थिक, धार्मिक, पर्यावरणीय जानकारियाँ लेख मालाएं प्रकाशित कराएं इस आन्दोलन को मंद न होने दें। खून मांस बेचकर, कत्लखाने खोलकर, पशुओं का कत्ल करके क्या आप ईश्वर से प्रार्थना करने के काबिल हैं? क्या आप ईश्वर से राष्ट्र की सुख समृद्धि की दुआएं माँग सकते हैं? किस मुँह से माँगोगे? किस मन से माँगोगे? किन भावनाओं से माँगोगे? ईश्वर की उपासना करने वाले देश में कत्लखानों की क्या आवश्यकता? ईश्वर की उपासना तो हिंसा, कत्ल से घृणा कराती है, सभी जीवों को जीने का सन्देश देती है, सभी से प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सिखाती है। कत्लखाने खोलना, मांस का निर्यात करना धर्म का अपमान है। सरकार को किसी भी धर्म का अपमान करने का अधिकार नहीं, कोई भी हिंसा को अच्छा नहीं कहता, इन कत्लखानों से धार्मिकता कम हो रही है। इन कत्लखानों से समाज को क्या शिक्षा मिलेगी? समाज तो पशुओं की रक्षा के लिए, पशु सेवा के लिए, पशु संरक्षणालय बनाता है, गौ शाला बनाता है और सरकार कत्लखानों का लाइसेंस देती है। मांस निर्यात से धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं। जो व्यक्ति अपने लिए रोता है वह स्वार्थी कहलाता है लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है वह धर्मात्मा कहलाता है। यदि हम दूसरों के लिए रोना सीख लेते हैं तो बहुत से लोग हँसने लगेंगे। धर्म को समझने के लिए सबसे पहले मंदिर जाना अनिवार्य नहीं अपितु दूसरों के दुखों को समझना पहले अनिवार्य है परन्तु जब तक हम हमारे दिल में किसी को जगह नहीं देंगे तब तक हम दूसरों के दुखों को नहीं समझ सकते। पहले दिल में जगह दें जमीन में नहीं, जमीन में जगह देना कोई जगह देना नहीं है यह तो सभी दे सकते हैं, लेकिन दिल में जगह देना सबके वश की बात नहीं। दिल में जगह वही दे सकता है जिसका हृदय विशाल है छोटे दिल वाला तो मात्र जमीन में जगह देता है दिल में नहीं। जीवन में सहमति की अपेक्षा सहयोग की महत्ता है। सहमति तो हर व्यक्ति दे देता है लेकिन सहयोग हर कोई नहीं दे सकता। अब हमको सहमति की नहीं सहयोग की आवश्यकता है। जनता यदि एक दूसरे को सहयोग देने लगे तो हम एक दूसरे के बहुत निकट आ सकते हैं। एक दूसरे का सहयोग करने से हृदय में आत्मीयता का संचार होता है, परस्पर मैत्री से स्नेह दृढ़ होता है। हम आदमी को नहीं पशु पक्षियों को भी सहयोग दें उनके सुख-दुख में भी अपना हाथ बटाएं, उनको कष्ट से निकालें उनकी परेशानी दूर करें, उनकी जिन्दगी का ख्याल रखें, कहीं वे हमारे द्वारा पीड़ित तो नहीं है ? नेता को वोट देने वाला भी नेता से कम नहीं होता, वह भी एक नेता होता है। वोट लेने वाला नेता होता है तो वोट देने वाला भी नेता होता है। जब दोनों ही नेता होते हैं तो वोट देने वाला नेता अपने नेता के चुनाव में गलती क्यों कर जाता है? ऐसे नेता का चयन करना चाहिए जिसके द्वारा हमारा संरक्षण हो, हमारी संस्कृति, हमारे धर्म का संवर्द्धन हो। जिस नेता के द्वारा हमारा संरक्षण न हो, हमारी संस्कृति, धर्म का ह्रास हो उसको कभी भी चयन नहीं करना चाहिए। आज हमारे देश की पशु सम्पदा का विनाश हो रहा है और यह सब कौन करा रहा है? आखिर है तो सरकार ही न? सरकार ही ने तो कत्लखाने खुलवाये हैं। फिर हमारा क्या कर्तव्य होता है? जिसको हमने वोट दिया अपना प्रतिनिधि बनाया यदि वही हमारी आवाज को न सुने तो हमको उस नेता से सत्ता वापस ले लेना चाहिए। इसमें कोई बुराई की बात नहीं, यह तो योग्यता की बात है, किसी पार्टी की नहीं। आप अपनी ताकत जगाइये, आपके पास विराट शक्ति है। आप अपनी भावनाओं, भावों की शक्ति से सारी दुनियाँ बदल सकते हैं आप अपनी सम्प्रेषण की शक्ति को जानिए। सम्प्रेषण का अर्थ भावों का खेल है, भावों की शक्ति का चमत्कार। आप अपनी सम्प्रेषण की शक्ति से सारी दुनियाँ को हिला सकते हैं। आप अपने भावों में करुणा, अहिंसा, दया को भरिए आप अपने अहिंसक भावों का सम्प्रेषण डालिये। यदि आपके भावों में सहानुभूति है, तो बिना दवा के भी रोगी ठीक हो सकता है। हमारी दया सक्रिय होना चाहिए। निष्क्रिय नहीं। सक्रिय दया का अर्थ आचरण में उसका पालन होता है। यदि हमारी दया सक्रिय हो जाये जो आज ही कत्लखाने बन्द हो सकते हैं। हर समाज में कितनी कितनी संस्थाएँ हैं लेकिन सक्रिय न होने के कारण हमारी जीत नहीं हो पा रही है अगर हम सब मिलकर बीड़ा उठा लें और संकल्प कर लें कि हम भारत से मांस निर्यात नहीं होने देंगे तो सरकार की क्या मजाल कि वह इसको रोक सके। अपनी दया को सक्रिय करो भावनाओं में स्फूर्ति लाओ और जुट जाओ इस जीव दया के कार्य में। एक दिन अवश्य विजय मिलेगी, अवश्य जीत होगी बस आप लोग लगे रहो इसकी गति को मंद मत होने दो एक दिन अवश्य आयेगा जिस दिन मांस नियति रुक जायेगा।
  10. जब आप लोगों को प्यास लगती है तो कारण खोज लेते हैं कि क्यों लगी और कैसे शांत होगी। जब शारीरिक दर्द होता है तो कारण की खोज कर लेते हैं उसी प्रकार हमें अपने जीवन में मोक्ष के कारणों को खोजना होगा। जब तर्जनी को दूसरों की ओर करते है तो दोषों की ओर संकेत करते हैं। जब ऊपर की और हिलाते हुए करते हैं तो संकेत प्राप्त होता है कि खबरदार ऐसा किया तो, यह दंड का प्रतीक बन जाती है। यही तर्जनी जब स्थिर ऊपर की ओर आती है तो भगवान् की ओर संकेत करती है। इस प्रकार तर्जनी साम, दाम, दंड, भेद और आत्मा परमात्मा आदि सभी की ओर संकेत करती है। विज्ञान प्रत्येक कार्य शोध परख करके ही स्वीकार करता है। जब सभी प्रकार के पुरुषार्थ कर लेने के बाद कार्य सिद्ध नहीं होता तो उसे भी भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करके उस पर छोड़ना पड़ता है। जैसे जब किसी डॉक्टर के यहाँ जाओ तो वह कहता है कि मैं पूरा पुरुषार्थ कर रहा हूँ किन्तु सफलता सब उपर वाले की कृपा से संभव है। पुरुषार्थ तब तक होना चाहिए जब तक सफलता नहीं मिल जाती। सफलता मिल जाने पर अभिमान नहीं होना चाहिए। पुरुष अभिमानी होता है, अभिमान उन्नति में बाधा खड़ी कर देता है। आज आदमी अभिमान उपासना में भी कर जाता है। करने योग्य कार्य करना चाहिए उसी में अपने चित्त को लगाये रखना चाहिए। भगवान् की उपासना जब कभी नहीं होती किन्तु योग्य समय पर की जाती है। विमान चालक बाहर रास्ता नहीं देखता किन्तु भीतर लगी हुई दिशा बोधक घड़ी (चुम्बकीय सुई) को बार-बार देखता है। वह सोता नहीं। जो सो जाता है वह खो जाता है। समुद्र में कोई साइन बोर्ड नहीं रहते जिसे देखना हो। भीतर लगी घड़ी से तूफान आदि के संकेत भी मिल जाते हैं फिर भी कई घटनायें घट जाती हैं। नीतिकारों ने कहा है धन और सत्ता के मिलने से व्यक्ति पागल हो सकता है और दशा बिगड़ जाती है। दशा ठीक करना चाहते हो तो दिशा बोध प्राप्त करो। संतों के डायरेक्शन (दिशा) को बहुत महत्व दिया है। यदि दिशा सही नहीं मिले तो दशा कभी सुधर नहीं सकती बल्कि और दुर्दशा होती चली जाती है। बहुत मात्रा में शस्त्र होने से विजय नहीं मिलती किन्तु जब उस शस्त्र को सही-सही चलाना आता हो तब विजय प्राप्त होती है। धन के माध्यम से आगे बढ़ना विदेश नीति है इसे आप भूल जाओ क्योंकि धन जितना अधिक बढ़ेगा पागलपन उतना अधिक बढ़ेगा। जैसे पेट भरने के बाद एक रोटी अधिक हो जाय तो चैन से नहीं सो सकते हैं। आज भारत की जो धन की नीति बन गई है वह ठीक नहीं उसे तो अपनी वही धर्म नीति बनाये रखना चाहिए। धर्म नीति से ही सब ठीक किया जा सकता है। धन भारत के लिये पागलपन और पराजय के लिये कारण बन सकता है। जिस दिन भारत देश से धर्म उठ जायेगा उस दिन कुछ नहीं बच सकता। भगवान् ने हमें जागृत किया है यदि उसे भुला दिया तो बहुत अनर्थ हो जायेगा। आर्टिफिशियल गैस तब तक काम कर सकती है जब तक आपके फेफड़े कार्य कर रहे हों। इसी प्रकार धन आपके लिये तब तक सहाई हो सकता है जब तक तुम्हारे अन्दर धर्म है। (धन आर्टिफिशियल गैस के समान है और धर्म फेफड़े के समान है)
  11. घड़ी में तीन काँटे होते हैं जो समय को बताते हैं। एक सेकेंड का कांटा होता है, जो चलता नहीं, भागता है। इसी से ज्ञात होता है कि घड़ी चल रही है। जिसका विशेष कार्य होता है वह चलता नहीं, भागता है जैसे आप को विशेष कार्य हो तो आप चलते नहीं भागते हैं। घंटे का कांटा चलता है किन्तु ज्ञात नहीं होता कि ये चल रहा है इसे अनुमान से जान सकते हैं कि ये चल रहा है क्योंकि अपने स्थान से दूसरे स्थान पर चला गया है। सेकेंड का कांटा चरित्र का प्रतीक है। जो भागता है उसे कुछ कहने सुनने की फुर्सत नहीं रहती है। जब कहीं आग लग जाती है तब एक पानी से भरी गाड़ी (फायर ब्रिगेड) तेज रफ्तार से घंटी बजती हुई भागती जाती है,वह रूकती नहीं अथवा जैसे विशेष रोगी को लेकर जाती हुई एम्बुलेंस होता है वह भी नहीं रुकती है। उसके आते-जाते कलेक्टर मंत्री को भी रास्ते से हटना पड़ता है। इसी प्रकार चारित्रधारी चलता ही रहता है रुकता नहीं। सेकेंड के कांटे के साथ मिनट और घंटे के दो काटे और चलते रहते हैं। मिनट का कांटा ज्ञान का प्रतीक है और घंटे का कांटा आस्था का प्रतीक है। इन तीनों का सम्बन्ध एक ही केन्द्र से रहता है। बारह बजे ये तीनों एक हो जाते है जो यथाख्यात चारित्र की दशा को बताते है। जैसा छहढाला में कहा भी है तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा। प्रकटी जहाँ दूग ज्ञान व्रत, ये तीन धा एकै लसा॥ एक चौथा कांटा और होता है जो स्वयं चलता नहीं, इसका उन तीनों कांटों से कोई सम्बन्ध नहीं भी रहता। उसे अलार्म कांटा कहते हैं। गुरु अलार्म का काम करते है। जो सोने वालों को जगा देते हैं। मराठी में इसे अल्लाराम कहते हैं अर्थात् जिसे अल्ला भी जगाये और राम भी जगाये वह है अल्लाराम–अलार्म। वर्तना परिणाम आदि तो अनादिकाल से काल द्वारा होता रहा है फिर भी काल (समय) कभी भी किसी को उठा (जगा) नहीं सकता गुरु का वचन रूपी अलार्म ही उठा सकता है। आप लोग ऐसे अर्ध चेतना की अवस्था में हैं कि जब अलार्म बजने लगता है तब आप उसके स्विच पर हाथ रख देते हैं और वह बंद हो जाता है आवाज आना बंद हो जाती है। इसी प्रकार बेहोशी की दशा में हित अहित क्या है और हेय उपादेय क्या है इसका ज्ञान नहीं हो पाता है। मोक्ष मार्ग सो मोक्षमार्ग है बिना मार्ग के मंजिल नहीं है। उस मोक्ष मार्ग के ४ उपकरण हैं। सर्वप्रथम यथाजात बालकवत् जिनलिंग। अर्थात् बालक जन्म के समय बाहर भीतर से नग्न रहता है। उसके काया तो रहती है किन्तु माया नहीं रहती। दूसरा उपकरण गुरुवचन। वचन अलग और प्रवचन अलग होते हैं जैसे बच्चा कहीं जाता है और जाने से पूर्व कहता है माँ कुछ कहो। तो माँ कुछ कहती है वह सदा याद रखता है यही है वचन। गुरु अपने अनुभव से शिष्य को ऐसे वचन दे देते हैं, कि शिष्य को मार्ग में कोई कष्ट नहीं होता। तीसरा विनय होता है विनय मंजिल तक पहुँचाने का एक मार्ग है। चौथा है श्रुताभ्यास। गुरु के बिना यदि कोई श्रुतज्ञान प्राप्त करता है तो वह रहस्यों को जान नहीं सकता, जिनवाणी के रहस्यों को गुरुवाणी ही बताती है। ये चारों चीजें जिस के पास है उसे मोक्ष मार्ग से कोई नहीं, रोक सकता है। ज्ञानार्जन के लिए अपने आप को हमेशा जवान समझना चाहिए और धर्म के लिए वृद्ध समझना चाहिए। अर्थात् ज्ञानार्जन करते समय सोचना चाहिए कि अभी मुझे बहुत जीना है और धर्म करते समय सोचना चाहिए मौत सामने खड़ी है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार रत्नत्रय की प्ररूपणा करने वाला ग्रन्थ है। जब पेटी ही रत्नों की हो तो उसमें रखी वस्तु कितनी कीमती होगी अर्थात् ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने इस ग्रन्थ को रत्नत्रय स्तुति ग्रन्थ कहा है पानी की गति है मिट्टी की नहीं। अत: पानी की गति के लिए मिट्टी निकालो पानी अपने आप आ जायेगा। जितना खोदोगे उतना मीठा पानी आयेगा। धर्म ध्यान ना, शुक्ल से, मोक्ष मिले आखिर। जितना गहरा कूप हो, उतना मीठा नीर॥ खुदा तो मौन रहते हैं, उनसे वास्ता क्या है। गुरुवर बोलते तुम हो, बता दो रास्ता क्या है। अज्ञानमयी कोठी में, आस्था बिन पड़ा रहा। करुणा कर बता दो नाथ, सम्यग् आस्था क्या है॥ संसार में भटका फिरा, मोह से, अज्ञान से। इसको हटाने का बता दो, सच्चा रास्ता क्या है। भूखे ना मुझसे हो सकेगी, यात्रा उस मोक्ष की। उस रास्ते का तुम बता दो, अच्छा नास्ता क्या है॥ मिथ्यात्व में लिपटे पड़े हैं, शास्ता इस काल में। अब बता दो हे गुरुवर, सम्यग् शास्ता क्या है॥
  12. (आज प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाशजी फिरोजाबाद वाले आये आचार्य श्री जी से पूर्व उन्होंने अपनी देवशास्त्र एवं गुरु के प्रति भावाञ्जलि समर्पित की) अभी पंडितजी ने कहा कि-हम आचार्य महाराज के पास बैटरी चार्ज करने के लिये आये हैं पंडितजी आप चार्ज तो कर लेते हैं किन्तु चार्ज भी देना चाहिए। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की, जिसे मंगलाचरण से प्रारंभ कर अंत भी मंगलाचरण से किया है। जिसके माध्यम से हम जैसों को जागृत किया है। पाप मरातिर्धमो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्। समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति। हमें शत्रुओं से बचना चाहिए और मित्रों से मिलना चाहिए। हमें अपाय (दुख) पहुँचाने वाले शत्रु होते हैं और सुख पहुँचाने वाले मित्र होते हैं, किन्तु हमें यह ज्ञान नहीं कि मित्र कौन है और शत्रु कौन? शत्रु बाहर नहीं भीतर है जिसके सम्बन्ध में आचार्य समंतभद्र स्वामी एक श्लोक के माध्यम से कहते हैं हमारा हित अर्थात् मित्र धर्म है और शत्रु अधर्म है। अधर्म से बचने के बाद धर्म प्राप्त करने की कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती। जैसे रेशम का कीड़ा अपनी लार से वेष्ठित होने के कारण उसी में मर जाता है वैसा ही अधर्म होता है। जैसे प्रकाश के आते ही अंधकार भाग जाता है वैसे धर्म के आते ही अधर्म भाग जाता है। अधर्म को तब तक हटाते जाओ जब तक धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। जैसे मानली २०० फीट नीचे पानी है यदि कोई कहता है कि पानी निकालो तो ऐसा कहने से पानी नहीं आने वाला किन्तु जो मिट्टी है उसे निकाली, पानी अपने आप आ जायेगा। इसी प्रकार धर्म तो आत्मा है किन्तु मात्र अधर्म रूपी मिट्टी हटाना है। हम मिट्टी निकालना नहीं चाहते और पानी चाहते हैं यह हमारी मूर्खता है। पहले के लोग आग को राख में छुपा कर रखते थे। जब उसकी आवश्यकता होती थी तब राख को हटा देते थे और आग मिल जाती थी। वैसे ही राग रूपी राख हटेगी तो हमारे अंदर वह विद्यमान चमकती हुई तेज आत्मा रूप आग प्राप्त हो जायेगी।
  13. तन की गमों तो मिटे मन की भी मिट जाय। तीर्थ जहाँ पर उभय सुख अमिट अमित मिल जाय। संसारी प्राणी दो प्रकार के दुखों से दुखित है। तन से और मन से जिसमें मन के द्वारा अर्थात् अपने भावों से ज्यादा दुखित है किन्तु तीर्थक्षेत्रों पर दोनों प्रकार के दुख मिट जाते हैं और कभी न मिटने वाला असीम अमित सुख प्राप्त होता है। गर्मी तन की हो या मन की वे दोनों बाहर से नहीं आती है। जैसे मलेरिया बुखार में ठंड बाहर से नहीं आती और गर्मी रजाई से नहीं आती वह तो भीतर से आती है, उसी प्रकार पुण्य पाप कर्म भीतर से आते रहते हैं। सिन्धु नीर ते प्यास न जाये तो पण एक न बूंद लहाय॥ नरकों में इतनी प्यास लगती है कि समुद्र के पानी से भी नहीं बुझती। फिर भी एक बूंद पानी नहीं मिलने पर भी नहीं मरता यहाँ पर पानी न मिले तो मर जाता है इस कर्म सिद्धान्त की ओर भी देख लेना चाहिए। नारकियों को गर्मी-ठंडी एवं भूख प्यास लगती है, किन्तु वहाँ असुर कुमार के देव जाते हैं उन्हें ठंडी गर्मी भूख प्यास नहीं लगती। तिल-तिल देह के खंड होते हैं फिर भी उन नारकियों के शरीर पारे के समान पुनः जुड़ जाते हैं यह कर्म सिद्धान्त की बात है। जो सुख-दुख, हर्ष-विषाद है वे पुण्य पाप कर्म के उदय से मिलते हैं। बंधन जब तक नहीं टूटते तब तक कितने भी प्रबंध कर लो फिर भी कुछ होने वाला नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान होने को धर्म कहते हैं, इसी को भेद विज्ञान कहते हैं। सुख-दुख कर्म की देन है जब तक ऐसा नहीं जान लेते तब तक समता नहीं आती है। संसार में हम जो भोग रहे हैं और भोगेंगे वह सब कर्मोदय से है। जैसी करनी वैसी भरनी यह भारतीय नीति ही नहीं, सिद्धान्त भी है। दया किस पर और क्यों की जाय यह भी होश (ज्ञान) रखना चाहिए। जब हम दया करने चले जाते हैं तब अपने आप कर्म और कर्म फल की ओर दृष्टि चली जाती है। जैसे सीता के जीव ने स्वर्गों से देखा कि रावण का जीव नरक में है। सीता के जीव ने वहाँ जाकर संबोधन किया और साथ लेकर आने की कोशिश भी की किन्तुला नहीं पाया। वह रावण भी सोचता है मैंने पूर्व जीवन में अच्छा किया होता तो अच्छा होता। भारतीय संस्कृति की जैसी करनी वैसी भरनी वाली बात नरकों में भी काम आती है जैसे रावण के जीवन में घटित हो रही है। वह पूर्व कर्म को लेकर पश्चाताप कर रहा है। अत: अच्छा है कि यहाँ पर कुछ अच्छा कर लो, नहीं तो नरकों में जाने के बाद पश्चाताप ही हाथ लगेगा। आज कोई संस्था हो बिना पैसे से नहीं चलती है। अर्थ का यदि सदुपयोग नहीं किया जाता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। काल रहते उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए। काल नहीं पलटता किन्तु काल में जो किया जाता है वह जरूर पलटता है, जो भविष्य काल में कर्मों के रूप में आ जाता है। हम पलटाने के भाव तो कर सकते हैं लेकिन पलटा नहीं सकते है जैसा सीता के जीव ने किया। दया करुणा के माध्यम से तत्ववेत्ता उपकार करने की बात कर ही लेता है। कर्म का उदय सत्य और तथ्य है। हमें ऐसे समीचीन कर्तव्य का पालन करना चाहिए जिससे तन और मन दोनों प्रकार की गर्मी मिट जाये। यहाँ पर करोड़ों आत्माओं ने दोनों प्रकार की गर्मी मिटायी, अंदर बैठे शत्रुओं को निकाल फेंका और मुक्ति को पाया प्रत्येक शिला इसकी प्रमाण देती है। बम दो प्रकार के होते हैं एक बारूद भरकर बनाये जाते हैं जिन्हें गर्मी (आग) दी जाती और फूट जाते हैं। इन्हें सावधानी से रखना होता है नहीं तो बिना टाइम में भी फूट सकते हैं। दूसरे प्रकार के टाइम बम्ब होते हैं जो समय आते ही फूट जाते हैं। यदि विस्फोट से बचना चाहते हो तो समय से पूर्व निकालकर फेंक दी। उसी प्रकार हम समय से पहले चेत जायें तो हम भी कमाँ के विस्फोट से बच सकते हैं। भारत देश के मध्यप्रदेश में जबलपुर एक ऐसा स्थान है जहाँ खमरिया बारूद की फैक्ट्री है। उससे कुछ ही क्षणों में पूरा जबलपुर समाप्त हो सकता है इसीलिए वहाँ जल की ऐसी व्यवस्था रखी है कि एक मिनट में वह जलमय हो जाये और विस्फोट से बच सके। इसी प्रकार क्रोध कषाय रूपी बारूद को शांत करना चाहते हो तो क्षमा रूपी नीर लाओ । ऐसे इस क्षेत्र पर साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने कर्म रूपी बारूद के विस्फोट को शांत किया इसीलिए यहाँ पर जहाँ भी बैठो शांति का अनुभव होता है। मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जीवन को तप मय ढालना । अंतर जगत बहुत विराट है। जो भूत भविष्य और वर्तमान से सम्बन्ध रखता है अंतर जगत की ओर दृष्टि रखने वाला ही उस विराटता से सम्बन्ध रखता है। जैसे वैज्ञानिकों के क्षण खोज में ही निकलते हैं उसी प्रकार तत्व वेत्ता के क्षण अंतर्जगत् में डूबे हुए तत्वज्ञान में ही निकलते हैं। जब शरीर भिन्न आत्मा भिन्न ऐसा भेद विज्ञान हो जाता है तब शरीर का ज्ञान तो होता है परन्तु लगाव नहीं रहता। यह शरीर राग-द्वेष की जड़ है और राग-द्वेष आग है ऐसा जानकर उसे पकड़ते नहीं मात्र जानते हैं। ऐसे भेद विज्ञानी घर में रहने वाले श्रावकों को भी विशेष लगाव नहीं रहता और एक कर्तव्य समझ कर कार्य करते चले जाते हैं। क्षेत्रों पर आयें तो अपने आपको जानने देखने की कोशिश करें अपने कर्मों के बारे में सोचें, सिद्धत्व का चिंतन करें। इन क्षेत्रों पर आज भी वही गंध है जो पहले थी। आज भी वही पवित्रता है जो पहले थी। यहाँ जैसे गाय भैंस आदि पशु आते हैं और चरकर चले जाते हैं वैसे ही कहीं आप तो यहाँ आकर नहीं कर रहे हैं। इस क्षेत्र पर आकर करोड़ों जीवों ने लाभ लिया और अनंत कालीन दुख की दशा को समाप्त किया। जो सभी अतीत होता जा रहा है, जो कभी भी वापिस नहीं आने वाला है। अत: जीवन के प्रत्येक क्षण उस दिव्य ज्योति को चलाने में लगाना चाहिए। हम जैसा खाते हैं वैसी डकार आती है। हम खाये महेरी और डकार खीर की आये ऐसा हो नहीं सकता। विषय कषायों में व्यतीत किये गये क्षण अंधकार पैदा करते हैं। अवशेष के माध्यम से ही विशेष बात समझ में आती है। इस क्षेत्र पर ये अवशेष नहीं रहेंगे तो फिर आप कैसे कह सकेंगे कि यह सिद्धक्षेत्र है इसीलिये बाप दादाओं से जो मिला है उसे सुरक्षित रखिये और अपने द्वारा कमाई गई पूंजी का दान करिये । गुरु गगन से ऊँचा समुंदर से भी गहरा है। धर्म का महल बस उनके ही दम से ठहरा है। जिदगी क्या है मोह का पर्दा हटाकर देखो। पता चलेगा तुम्हें जरा खुद में नहाकर देखो। (विद्यामंजरी से)
  14. (आज ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी थी जिसे श्रुत पंचमी के रूप में मनाया जाता है इस कार्यक्रम का संचालन ब्रह्मचारी सर्वेश कुमार जी ने किया। इस प्रसंग पर ब्रह्मचारी ऐ-के- जैन इंजीनियर अहमदाबाद, क्षुल्लक निर्णय सागर जी, क्षु- विनीत सागर जी, ऐलक नम्र सागर जी एवं योगसागर जी ने अपने उद्बोधन दिये तदुपरांत आचार्य श्री ने एक दोहे से अपने प्रवचन की शुरूआत की) सार सार दे सार दे, बनू विसारद धीर। सहार दे, दे तार दे, उतार दे उस तीर॥ सरस्वती (जिनवाणी) माँ से हमें सार की मांग करना चाहिए। अक्षर ज्ञान की मांग करना चाहिए शब्दों की नहीं। जो क्षय को प्राप्त न हो वह है अक्षर। अक्षर को सुन सकते हैं पढ़ सकते हैं और सुना सकते हैं। शब्द को सुन सकते हैं, पढ़ नहीं सकते हैं। भगवान् के द्वारा निकले शब्द श्रवण से अथवा गुरुओं के मुख से निकली देशना सुनने से देशना लब्धि प्राप्त होती है। दुनिया में पदार्थ अनंतानंत हैं जो केवली के ज्ञान में दर्पणवत् झलक रहे हैं। उसमें बहुभाग अकथ्य है। अकथ्य और अवक्तव्य में बहुत अंतर है। जिस अकथ्य को जब केवली भगवान् भी नहीं कह सकते फिर उसे आम लोग छाती ठीक ठोक कर कैसे कह रहे हैं, यह कुछ समय में नहीं आता। ध्यान रखना एक पदार्थ का पूर्ण कथन अनंत केवली भी नहीं कर सकते। केवली भगवान् ने जो जाना उसका अनंतवाँ भाग कहा। उस अनंत वे भाग का गणधर ने अनंतवां भाग सुना, उसका अनंतवाँ भाग कहा और जो कहा उसका असंख्यातवाँ भाग लिखा गया। आज वही पूर्ण नहीं है उसका अंशमात्र ही रह गया। बीच-बीच में जो आचार्य हुए वे हमें उसका सारसार देते रहे। उसी से हमारा काम चल रहा है। हमें सभी प्रकार की बीमारी लगी है इसीलिए किसी एक स्पेशलिस्ट डाक्टर से काम नहीं चलने वाला किन्तु सभी प्रकार के रोगों की दवाई करने वाले सामान्य डाक्टर से काम चलेगा। ऐसे ही सामान्य डाक्टर चाहिए। हमारे आचार्यों ने सामान्य डाक्टर का कार्य किया है। उन्होंने कहा में सारसार की बात बताऊँगा। इसमें अभिमान की बात नहीं यह तो गौरव की बात है। आचार्यों ने कहा पहले भगवान् को पहचानी। शास्त्र की पहचान कराते हुए समंतभद्र स्वामी कहते हैं - जो कुपथ का निराकरण करे उसे शास्त्र कहा है और जो सब का हित (भला) करने वाला है, हित करने वाले को सार्वम् कहा है। जिसका वादी प्रतिवादी द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सके, प्रत्यक्षपरोक्ष और अनुमानादि प्रमाणों से कोई विरोध न आता हो ऐसा जो सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट है उसे शास्त्र कहते हैं। जैसे शब्द देखने में नहीं आता वैसे ही सर्वज्ञत्व देखने में नहीं आता है। प्रतिमा क्या कह रही है उसे कानों से नहीं सुन सकते, उसे मात्र आँखों से सुन (देख) सकते है। आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते है जो वीतरागी, हितोपदेशी और जो १८ दोषों से रहित है वे सर्वज्ञ हैं वही हमारे देव हैं। भोजन करने वाले हमारे देव (भगवान्) नहीं हो सकते। हमारे भगवान् बाहर भीतर एक से लगते हैं। उनकी मुद्रा सामुद्रिक होती है। वे जीवन पर्यत सदा किशोर बालक वत् होते हैं, वे कभी वृद्ध नहीं होते यदि वृद्ध होते हैं तो ज्ञान चारित्र और उम्र से वृद्ध होते हैं। भगवान् की ऐसी वीतरागता की ओर एक बार भी दृष्टि रखकर देखने मात्र से अनंतकालीन मिथ्यात्व क्षय को प्राप्त हो जाता है और सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाता है। इन आँखों से सर्वज्ञता नहीं दिखती, वीतरागता दिखती है। जहाँ वीतरागता हो वहाँ सर्वज्ञता आ ही जाती है। सर्वज्ञता जानने की चीज है और वीतरागता देखने की चीज है। सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद-रसलीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज रहसविहीन। मिथ्या दृष्टि की दृष्टि में भी वीतरागता आ सकती है किन्तु सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में सर्वज्ञता नहीं आ सकती। देव शास्त्र गुरु की पहचान वीतरागता से ही होती है। आज सेल्फ स्टेडी होने लगी है जो ठीक नहीं। आज जो निजी स्वाध्याय और उस स्वाध्याय का जो व्यवसाय होने लगा ये दोनों इस युग का बड़ा आश्चर्यजनक कार्य है। आज ग्रन्थों पर मूल्य आ गये, सर्वाधिकार सुरक्षा की बात आ गयी। पहले ग्रन्थों पर मूल्य स्वाध्याय, सदुपयोग, चिंतन मनन आदि रखा जाता था। आज ग्रन्थों को वाद में देखते हैं, पहले कीमत देखते हैं। जिनकी आजीविका का साधन जिनवाणी है वे कभी सत्य नहीं बोल सकते हैं। जरा विचार करो जिनवाणी से चेतन या वेतन, स्वाध्याय या व्यवसाय किसकी बात कर रहे हो। आज इतना तो अच्छा है कि प्रतिष्ठित भगवान् का मूल्य नहीं रखा गया किन्तु जिन जिनवाणी नहीं बच पायी। भगवान् अतुल हैं, अमोल है। प्रतिष्ठित होने के बाद भगवान् का मूल्य सम्यक दर्शन होता है। एक कारिका का मूल्य करोड़ रुपये भी कम है। कारिका तो अमूल्य है इसी प्रकार की सही पहचान से सम्यक दर्शन हो सकता है। जिन ग्रन्थों के पढ़ने से, विषय कषायों का पोषण और आजीविका का साधन हो जाय वह स्वाध्याय नहीं है। श्रद्धानं परमार्थाना माप्तागमतपोभूताम्। त्रिमूढ़ापोढ़मष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥ इस प्रकार जिसके माध्यम से सम्यक दर्शनहोता है और जिस भक्ति पूजन अभिषेक से असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा बतायी है उसे बंध का कारण कहा जा रहा है। जिसे व्यवहार सम्यक दर्शन मानकर स्वीकार नहीं किया जा रहा है और अपनी अपनी चला रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे एक बालक अंधेरे में खोटी चवन्नी (२५ पैसे का सिक्का) चला लेता है और कहता चल गई, चल गई खोटी चवन्नी चल गई। ग्रन्थों में लिखा है कि सम्यक दर्शन देव दर्शन करने से होता है किन्तु ऐसा कहाँ लिखा कि पूजन अभिषेक करने से मात्र बंध ही होता है ? आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि - जेण रागा विरजेज जेण सेय सुरजदि जेण मेक्तिपभावेज तणांणा जिण सासणे॥ धर्मानुराग को हम राग तो कहते हैं किन्तु यह राग महानता लिये होता है। जैसे आचार्य कुंदकुंद देव महाराज ने धर्मानुराग से ही तो शास्त्र की रचना की है। जब धर्मानुराग बुरा था, हेय था,तो आचार्यों ने उस राग से ग्रन्थ क्यों लिखे। स्वयं पथ से दूर हो रहे हों तो दूसरों को कैसे रास्ते में ला सकते हैं। जैसे माँ ने नाक में तेल लगा-लगा कर सीधी की है तभी हम बाजार में नाक दिखाने लायक बने हैं, वैसे ही अनेक आचार्यों ने अपना कर्तव्य समझकर शास्त्रों की रचना की जिसके माध्यम से हम यहाँ खड़े होने लायक बने हैं। जिन आचार्य महाराजों ने ये धर्मानुराग की बात कही है उसे हम आग कह दे यह हमारा ही महान् अपराध माना जायेगा। ऐसे वीतरागी महाराजों को हम रागी कह दे तो हम अभागे ही माने जायेंगे। जिनवाणी भव्य जीवों के कल्याण के लिए है। पुरुषार्थ करो मीठा फल मिलेगा। कुछ लोगों का मानना है कि कसायपाहुड षट्खडागम से प्राचीन है। कसायपाहुड में एक ही विषय पर बहुत किन्तु षट्खडागम में बहुत प्रकार का है। ऐसे ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा के ऊपर कितनी धूल है उसे कैसे दूर कर सकते हैं। जैनेतर लोग आज कहते हैं कसायपाहुड को पढ़कर कि कोई सर्वज्ञ है जिन्होंने ये सब बताया कि सारे विश्व में ऐसा ग्रंथ नहीं है। ऐसी जिनवाणी को पढ़कर अथवा सुनकर रत्नत्रय की प्राप्ति हो तभी सार्थक है। जिनवाणी को पढ़कर जहाँ-तहाँ नहीं रखना चाहिए उसकी पूरी विनय होना चाहिए। कल्याण हो जायेगा माल मत छोड़ो, मालकियत छोड़ दो। कल्याण हो जायेगा जिसने जन्म लिया है उसकी मोत निश्चित है इसलिये मौत को नहीं, मौत का भय छोड़ दो कल्याण हो जायेगा भोजन अनिवार्य है, जिदगी जीने के लिये इसीलिये भोजन नहीं, भोजन के प्रति गृद्धता छोड़ दो कल्याण हो जायेगा। (विद्यामंजरी से)
  15. धर्म की बात सुनने का अधिकार जीव मात्र को है। ये बात अलग है कि सुनने के उद्देश्य की पूर्ति कौन करता है ? भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण की रचना होने के बाद देवों से खचा-खच भरा था समवशरण फिर भी वाणी नहीं खिरी, क्योंकि भगवान् को एक भव्य मुमुक्षु मनुष्य की आवश्यकता थी। दुनिया की बात तो किसी से भी की जा सकती है किन्तु मोक्ष की बात मुमुक्षु से ही की जाती है। अहिंसा धर्म और मोक्ष की बात सुनकर उसके उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है और कुछ अंशों में तिर्यच भी कर सकते हैं। देव मोक्ष की बात सुनते है परन्तु उसका पालन नहीं कर सकते। कुछ लोग प्रतिज्ञा किसी के सामने लेते हैं और कुछ अपने भीतर ही भीतर स्वयं ले लेते हैं। मनुष्य सुनता है, गुनता (विचार करता) है किन्तु बोलता भी है। तिर्यच सुनता है, गुनता है परन्तु बोलता नहीं। इसी कारण तिर्यच जन्म लेने के कुछ समय बाद सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है। मनुष्य कम से कम ८ वर्ष अंतर्मुहूर्त में कर पाता है। मनुष्य स्वयं उलझता है और उलझाता है। दूसरों को फंसाने के लिए जाल बिछाता है, किन्तु तिर्यच ऐसा नहीं करते इसीलिये सम्यक दर्शन प्राप्त करने की भूमिका मनुष्य से पहले बन जाती है। संकल्प चारित्र की कोटी में आता है। लिये गये संकल्प के प्रति आस्था है या नहीं ये मनुष्य के साथ घटित होता है (यदि नहीं है तो द्रव्य लिंगी कहा जाता है) किन्तु तिर्यचों को आज तक द्रव्य लिंगी नहीं कहा। आज लोग कहते हैं पहले सम्यक दर्शन प्राप्त करो, बाद में चारित्र अंगीकार करो जबकि ऐसा एकान्त नियम नहीं है। मनुष्य की बात क्या, मूक जानवर भी चुटकी बजाते-बजाते सम्यक दर्शन के साथ-साथ चारित्र अंगीकार कर लेते हैं, किन्तु मूक तिर्यच बताते नहीं कि मैंने ऐसा संयम अंगीकार किया है। वे सोचते है कि जीवन का सही रास्ता यही है। वे व्रत संयम लेते समय कोई शर्त नहीं रखते कि मुझे इसमें यह छूट मिल जाये इसीलिये वे अपने व्रतों में फैल न होते हुए अपना कल्याण कर जाते हैं। जंगल में रहने वाले एक मूक प्राणी ने संकल्प लिया कि मैं रात्रि में पानी नहीं पीऊँगा। एक दिन उसे पानी नहीं मिला। प्यास बहुत सता रही थी। खोजते-खोजते बहुत समय हो गया फिर उसे एक हरा भरा वृक्ष दिखाई दिया। उसने सोचा वहाँ पानी होना चाहिए। पानी की आशा में वहाँ गया। वहाँ उसे एक बावड़ी दिखाई दी। उसमें देखा पानी भी है प्यास बुझाने के लिये नीचे बावड़ी में उतरा। पानी के पास तक पहुँचते अंधेरा हो जाता है। ऊपर आता है, देखता है कि अभी दिन है। पुन: नीचे जाता है तो अंधेरा पाता है, ऊपर आता है, दिन का उजाला पाता है। पुन: नीचे जाता है, इस प्रकार ऊपर नीचे चढ़ते उतरते प्यासा ही मर जाता है, पर अंधेरा होने से अपना संकल्प नहीं तोड़ता। उसकी जगह मनुष्य होता तो पानी पी लेता और कहता महाराज से प्रायश्चित ले लैंगा, महाराज ने ही तो प्रतिज्ञा दी थी और यह भी पूछ लेता कि आगे भी ऐसा कर सकता हूँ क्या ? यह मनुष्य कितना विषयों के अधीन हुआ है ये कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। यह मनुष्य प्रण को नहीं, प्राणों को देखता है। उस मूक प्राणी ने प्रण नहीं तोड़ा भले ही प्राण छोड़ दिये। हमारे अंदर राग-द्वेष, आकुलतादि रूप जो परिणाम होते हैं वे सब कर्म बंध के कारण होते हैं। हम राग-द्वेष करके अपनी आत्मा का ही घात करते चले जाते हैं। राग-द्वेष करना ही भाव हिंसा है। द्रव्य हिंसा होने से पहले भाव हिंसा हो जाती है। भावों द्वारा हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील आदि होते ही रहते हैं इसका पता लगाना बहुत कठिन होता है। महावीर भगवान् का मार्ग आत्माश्रित है। अत: आत्माश्रित होने से निज की ओर देखने से सरल है, और यदि पर की ओर देखते हैं तो बहुत कठिन है। एक सियार भी अपनी स्मृति के माध्यम से अपने भाव ताजा बनाये रख सकता है और तोड़ता नहीं। इसे कहते हैं आस्था और संयम। आस्था में कमी आने से ज्ञान में कमी आ जाती है और संयम डांवाडोल होने लगता है। आस्था ज्ञान और संयम में कमी होने से विकास तो दूर रहा, उल्टे विनाश की ओर कदम बढ़ जाते हैं। रत्नत्रय की उन्नति सो ज्ञान का विकास है, वही आत्मा का विकास है। जैसे-जैसे ज्ञान को विषयों की ओर ले जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान फकीर होता चला जाता है, ज्ञान का हास्य होता चल जाता है। यदिजनक हास्य होता है तो आत्मा का हास्य होने लगता है। मानव एक ऐसा प्राणी है कि एक त्याग करके दूसरा रास्ता निकाल लेता है। इसके हाथ में संविधान बनाना और तोड़ना दोनों है। संविधान नियम कानून की व्यवस्था मनुष्यों के लिये ही है। रात्रि भ्रमण और खान-पान आदि में अधिक विषमता मनुष्यों में होती है, पशु पक्षियों में नहीं। पशु जो हिंसक है वे रात्रि में ही निकलते हैं, जो अहिंसक हैं वे दिन में ही निकलते हैं रात भर शांत बैठते हैं, पशु दिन में चरते हैं रात को जुगाली करते हैं, लेकिन मनुष्य दिन में भी चरता है और रात में भी चरता है। पशु-पक्षी अपनी मर्यादा में रहते हैं, मनुष्य की कोई मर्यादा नहीं रही। सूर्य में आतप रहता है जो तेजमय होता है, उसमें एक विशेष प्रकार की ऊर्जा रहती है जो भोजन पचाने में सहायक होती है। यहाँ रात्रि भोजन पानी के त्याग का सियार (तिर्यच) प्राणि का उदाहरण इसीलिए दिया कि मनुष्यों में जागृति आ जाये। यह सियार रात्रि पानी त्याग के कारण मर कर प्रीतिकर बना जिसे देख कर सब के मन में उसके प्रति प्रीति जाग जाती थी। सोलहवें स्वर्ग में तिर्यच संयमासंयम चारित्र के माध्यम से पहुँच जाता है। स्वर्ग की अधिकांश सीटें तिर्यचों से भरती हैं, किन्तु मनुष्य इतना होशियार है कि वह स्वर्ग में भी मुखिया बनकर बैठता है। मनुष्य जीवन के ये क्षण इतने कीमती हैं कि इन्हें शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। एक व्यक्ति हजारों लाखों लोगों का एक साथ विकास कर सकता है। गुणस्थान चेंज (परिवर्तन) करा सकता है। वह स्वयं भगवान् बन सकता है और दूसरों को भगवान् बनाने में कारण हो सकता है। प्रभु को देखते ही असंख्यात जीवों का चढ़ा विषय भोगों का जहर एक साथ उतर सकता है। यदि पेड़ पौधों की जड़ें विषाक्त जल से जल जाती हैं तो शुद्ध जल से कलियाँ खिल जाती हैं, ऐसे ही हमारे बीच में रहने वाले मनुष्यों के द्वारा ही यदि प्राणी विषाक्त जीवन जी सकते हैं तो अमृतमय कमल के समान खिला जीवन भी जी सकते हैं। यहाँ आने के बाद हम जीवन के निर्वाण की बात नहीं सोच रहे हैं तो कहाँ सोचेंगे। सोचे विचारे बिना यदि कार्य करते हैं तो अफसोस ही प्राप्त होता है। तारंगा की इस पावन भूमि पर साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने निर्वाण पद को प्राप्त किया, ऐसी पावन भूमि पर आना अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए और अपने आपको धन्य मानना चाहिए। आप विदेशी को देशी बनाना चाहते हैं और आप स्वयं देशी रहना नहीं चाहते। आप विदेशी सामान अपनाना चाहते हैं। यहाँ भारत के पशु भी अहिंसा का पालन कर रहे हैं और विदेशों में मनुष्य भी नहीं कर पा रहे हैं। सियार की प्रतिज्ञा पालन करने की निष्ठा मानव मन को झकझोर देती है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय
  16. (आज आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की २४वीं पुण्य तिथि थी इस अवसर पर ब्रह्मचारी अजयजी ने संचालन किया, क्षुल्लक चंद्रसागरजी, ऐलक निर्भयसागर जी, ऐलक अभय सागर जी, एवं मुनि श्री १०८ योगसागर जी महाराज ने अपनी अपनी भाव भीनी गुरूणां गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलियाँ समर्पित की। इसी प्रसंग को लेकर आचार्य श्री ने कहा) अभी आप ने अनेक लोगों की भावाञ्जलियाँ सुनी।) काल अपनी गति से संसार के सारे पदार्थों को लेकर चल रहा है। काल अपनी गति से चलता है, किन्तु कभी-कभी जल्दी और कभी-कभी विलंब से भागता हुआ दिखाई देता है। आज गुरु महाराज की २४वीं पुण्य तिथि है किन्तु लगता नहीं कि २३ वर्ष हो गये। जब काल की ओर देखता हूँ तो वह स्थायी सा लगता है। जब किसी कार्य में लग जाता हूँ तो काल का पता ही नहीं चलता। जब परिणमन को देखता हूँ तो सत्ता ही नजर नहीं आती है और जब सत्ता को देखता हूँ तो परिणमन ही नजर नहीं आता है। कहा भी है - 'सत्ता सव्व पयत्था सविस्स रुवा अनंत पजाया' यदि महासत्ता का आधार लिया जाये तो जो अभी आकुलतायें हो रही हैं, सब मिट जायेंगी। आचार्य श्री को हमेशा-हमेशा उसी महासता को देखने का अभ्यास रहता था। वे जल की ओर देखते थे लहर (तरंग) की ओर नहीं। अभी आत्मा में विकल्प ही विकल्प है परन्तु जब हम आत्मा की ओर देखने लग जाते हैं उसी से परिचय करने लग जाते हैं, तब सारे विकल्प अपने आप शांत हो जाते हैं। किसी ने कहा है - जमाने में उसने सबसे बड़ी बात कर ली। जिसने अपने आप से मुलाकात कर ली। मृत्यु महोत्सव इसलिये बड़ा लग रहा है कि हम जमाने की ओर देख रहे हैं जो संकल्प विकल्पों में ही रहता है, जो जमाने में रहता हुआ बहता नहीं जमा ही रहता है, वह संसार समुद्र में नहीं जाता। जो व्यक्ति जमता नहीं बहता ही रहता है, वह बहता-बहता समुद्र में जा कर डूब जाता है। ज्ञानसागर जी गुरु महाराज घर में बहुत ही शांतिमय जीवन जीते थे घर में पूरे समय तक व्रती रहे। व्रतों से कभी नीचे नहीं गिरे, वे पापों से बचकर रहते थे, प्रत्येक कदम बहुत अच्छे ढंग से जमाजमा कर रखते थे। उनका जीवन ऐसा जमा हुआ था कि उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। जब हम गीली मिट्टी पर चलते हैं तो अंगूठा गढ़ा कर चलने पर फिसलते नहीं। हाथ जमाकर लिखना नहीं होता किन्तु दिमाग में जम जाने से लिखना होता है। मेरी भावना है कि मैं जो कुछ भी बनूँ वह गुरु चरणों में चढ़े और वहीं जम जाऊं । इसी भावना से एक दोहा लिखा था - पंक नहीं, पंकज बनूँ, मुक्ता बनूँ, न सीप। दीप बनूँ, जलता रहूँ, गुरु पद पाद समीप। महापुरुष वीरता और साहस से काम लेते हैं, ऐसे उन महापुरुषों के माध्यम से साहस मिलता है और कमजोर व्यक्ति भी वैसे ही वीरता से सामने आता है, जैसे रणांगण में वीर हो तो कमजोर भी वीरता से सामने आता है। हमारा ज्ञान अनेक वस्तुओं में लगा होने से, हमारे ज्ञान में ज्ञान नहीं आ रहा है इसी कारण हम निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं ज्ञान जिस पदार्थ को देखना चाहता है, ज्ञान को उस पदार्थ रूप परिणमन करना होता है तभी वह पदार्थ दिखता है। इसी कारण पर पदार्थ को देखते समय ज्ञान-ज्ञान को नहीं दिखता है। हमें पदार्थ नहीं भटका रहा है, किन्तु ज्ञान भटका रहा है। आचार्य महाराज की दृष्टि पर पदार्थ की ओर नहीं, ज्ञान की ओर ही रहती थी इसीलिए वे संसार में फंसे नहीं। आज दुनिया में ऐसे बहुत से खेल है जिसमें ज्ञान को उलझाया जाता है दुनिया उसी में उलझना पसंद करती है। मुनि उस ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं। जानो देखो किन्तु उस ज्ञान से उलझी नहीं। ज्ञानी मुनि ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं, वे सदा खाली रहते हैं, आत्मा में रमते हैं परन्तु एक स्थान पर जमते नहीं। नाव की शोभा पानी में है, नाव में पानी हो तो उसकी शोभा नहीं। नाव यदि खाली रहे तो पार हो जाते हैं और यदि नाव कुछ खा ले (अर्थात् पानी भर जाये) तो डूब जाते हैं। उसी प्रकार साधु की शोभा खाली रहने में है। एक व्यक्ति यदि सूखी लकडी का सहारा ले लेता है तो नदी पार हो जाता है। ज्ञान सागर जी गुरु महाराज हमारे लिए ऐसे ही लकड़ी के समान थे संसार समुद्र पार होने के लिए। यदि एक व्यक्ति करेंट में चिपका हो और दूसरा उसे निकालने जाय तो वह भी उसी से चिपक जाता है इस प्रकार हजारों व्यक्ति चिपक सकते हैं किन्तु यदि एक सूखी लकड़ी का सहारा ले ले, तो सब छूट सकते हैं। ज्ञानसागर जी महाराज ने यही किया। जब शरीर के किसी अंग पैर आदि में दर्द हो तो तेल या बाम आदि लगाते हैं। उसे लगाने से मात्र ठीक नहीं होता, उसे लगाने के बाद गर्मी देने से ठीक होता है। जब दिमाग में गर्मी आ जाती है और ज्ञान काम नहीं करता, वह अपसेट हो जाता है तो उसे करेंट दी जाती है। जिससे अपसेट माइंड सेट हो जाता है। ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने हमें ऐसी करेंट दी कि हमारा अनादिकालीन अपसेट माइंड सेट हो गया। करेंट कितना देना यह भी दिमाग होना चाहिए। ज्ञान छूट जाता है टूटता नहीं। अत: पहले ज्ञान ठीक करो नहीं तो पैर टूट जायेंगे। ज्ञानसागर जी महाराज ने पहले चारित्र नहीं दिया, बल्कि पहले दिमाग ठीक करके ज्ञान दिया, फिर बाद में चलने के लिए पैर (चारित्र)। जैसे समय पर योग्य कन्या का जब तक विवाह नहीं करते तब तक श्रावक (पिता) को चैन नहीं रहती। उसी प्रकार ज्ञानसागर जी को पद देने से पूर्व तक चैन नहीं रही, अत: उन्होंने उचित समय पर कन्यादान के समान अपने पद का दान किया और सब कुछ त्याग कर समाधि जो मुख्य लक्ष्य था उसकी ओर बढ़ गये। वे व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, जो अपने लक्ष्य प्राप्ति के साधनों के अलावा अन्य किसी पदार्थों से न चिपका ही। जैसे कागज चिपकाना हो तो हाथ में कागज न चिपके इसका ध्यान रखा जाता है, नहीं तो कागज हाथ में चिपककर फट जाता है वैसे ही साधक ध्यान रखता है। जैसे सर्कस में तार पर चलने वाला कलाकार तार की ओर नहीं, लगातार हाथ में ली गई लकड़ी की ओर ही देखता रहता है और तार को पैरों से ही देखते हुए चलकर लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक पुरुष होता है। उसमें ज्ञानसागरजी महाराज भी एक है। जैसे पैर बराबर जमीन मिलने पर भी आज आदमी चलता है तो सब को विस्मय होता है वैसे ही ज्ञानी दिगम्बर मुनि जब चलता है तो सब को विस्मय होता है। गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ने ऐसी कला, साहस, और शक्ति दी कि अब हमें तार पर चलना तो सरल है ही, किन्तु दौड़ भी सकते हैं। लोहा पर पदार्थ (नमी) को पकड़ लेने से जंग खाकर अपने आपको खो देता है और स्वर्ण कभी पर पदार्थ को पकड़ता नहीं इसीलिए कभी नष्ट नहीं होता। अत: पदार्थों के इस प्रकार के स्वभाव को जानकर हम पर पदार्थों को पकड़े नहीं, उससे चिपके नहीं और अपने जीवन को स्वर्ण की भांति बनाये। गुरु महाराज के पास ऐसी सत्ता, संस्था और संपदा थी कि अन्य बाहरी सत्ता संस्था और संपदा की आवश्यकता ही नहीं होती थी। अपनी सत्ता और संस्थादि को जानकर उस स्व की संपदादि में इतने लीन रहते थे कि पर की चर्चा का समय ही नहीं था। ऊपरी ऊपरी ज्ञान से कुछ नहीं होता अत: वे तलस्पर्शी ज्ञान रखते थे। तलस्पर्शी ज्ञान किसी ग्रन्थ को एक बार बढ़ने से नहीं किन्तु अनेक बार पढ़ने से होता है। उन्होंने सभी को ऐसा ज्ञानरूपी प्रकाश दिया, मुझे भी मिला किन्तु अंत में। जब स्वयं ही नहीं चल पा रहा हो तो दूसरों को कैसे चला सकता है। जब स्वयं को दिशा बोध का ज्ञान न हो तो दूसरों को कैसे दे सकता है। अत: वे स्वयं चलते थे और समस्त ज्ञान रखते थे। पटरी पर यदि गाड़ी हो तो थोड़ा धक्का लगाने पर भी आगे बढ़ सकती है। ज्ञान सागर जी महाराज ने कृपा करके मेरी गाड़ी पटरी पर ला कर खड़ी कर दी। ऐसे उन गुरु महाराज के प्रति दिन गुण गान गाये और एक दिन भी न चले तो ठीक नहीं, किन्तु हम ३६४ दिन चले और एक दिन गुणगान गायें तो ठीक है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय
  17. आत्मा का स्वभाव जानना-देखना है यही उसका धर्म है, किन्तु जहाँ जाते हैं अथवा जहाँ से आते हैं वहाँ का जानना देखना भले बुरे रूप में अलग-अलग हो रहा है। संसारी प्राणी का जानना देखना नहीं छूट सकता है परन्तु भला बुरा छूट सकता है। जिनवाणी के शरण से, गुरुओं के समागम से सदाचरण से संस्कारित होकर जैसा वातावरण यहाँ है वैसा आप अपने ज्ञान से दूसरी जगह ले जा सकते हैं। जहाँ वातावरण अच्छा नहीं है वहाँ भी यहाँ जैसा जीवन यापन कर सकता है। वहाँ रहने वाले व्यक्तियों को भी जिनवाणी शरण, गुरु समागम की चाह पैदा कर सकता है। एक सेठ सामायिक करने बैठा है दीपक जला कर। उसने संकल्प लिया है जब तक दीपक जलता रहेगा तब तक सामायिक करूंगा। पत्नि को कुछ पता नहीं था। जैसे भोजन परोसते जाते हैं वैसे ही वह सेठानी दीपक में घी परोसती (डालती) गई। समय बहुत हो गया प्यास सताने लगी भीतर से संक्लेशित भाव होने लगे, परन्तु व्यक्त नहीं होने दे रहा है। उसी समय उसका मरण हो गया। किसी को ज्ञान नहीं था कि सेठ ने ऐसा नियम लिया है फिर भी उसने व्रत नहीं तोड़ा। आप होते तो कहते किसने देखा कि मैंने ऐसा नियम लिया और उठ जाते। यो श्रावक व्रतपाल स्वर्ग सोलम उपजावै। तह तैं चयनर जन्म पाय मुनि है शिव जावै। जो श्रावक हो और सामायिक में मरण करे तो ऐसा नियम नहीं कि स्वर्ग ही जाये। सामायिक का अर्थ मात्र आसन लगाकर बैठना नहीं बल्कि समतापूर्वक बैठना सामायिक है। जो समता के धनी होते हैं वही सामायिक कर सकते हैं। श्रावक भी समता धारण कर सकते हैं। जैसे दूध से बने दही का मंथन करने वाली सभी सामग्री ठीक हो किन्तु दही ही ठीक न हो तो मक्खन ठीक नहीं आ सकता है वैसे ही भाव यदि ठीक होते हैं तो कार्य (प्रतिफल) बहुत अच्छा होता है। सेठ का द्रव्य, क्षेत्र, काल तो बहुत ठीक था किन्तु भाव ठीक नहीं था, वह बिगड़ गया था। भाव जैसा था वैसा मिला। वह भावों के अनुसार जल में जा कर मेंढक हो गया। घी और जल दोनों तरल है किन्तु एक के पीने से प्यास बुझती है दूसरे से बढ़ती है। जो एक बार संस्कार पड़ जाते हैं वे जल्दी नहीं जाते। सेठ के संस्कार पड़ गये थे परन्तु एक बाद फेल हो गया कोई बात नहीं। जो एक कक्षा में दो साल पढ़ता है उसका अनुभव विशेष होता है। जब योग्य समय मिल जाता है तब पूर्व में पड़े संस्कार फलीभूत हो जाते हैं। भगवान् महावीर स्वामी का समवसरण आया। सभी लोग वहाँ जा रहे थे। वह मेंढक भी मुख में पांखुड़ी दबाकर फुदकता हुआ जा रहा है। उस मेंढक के पूजन, भक्ति, दर्शन के भाव कहाँ से आये? पूर्व पड़े संस्कार से आये। मनुष्य यदि पूर्व संस्कार वाली बात पर जरा ठीक से विचार करे तो ज्ञान की विराटता को पा सकता है। उस मेंढक को द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि श्रावकों के समान नहीं मिले, फिर भी पूर्व के संस्कारों से पूजन के भाव स्वयं के हैं। वह स्वयं वाहन है, रास्ते में बड़े वाहन वालों के वाहन से वह मर गया। मर कर देव हुआ। वह देव बन कर सोचता है मैं कहाँ से आया हूँ? कैसे आया हूँ? वह ज्ञान से जान करके जिस राजा श्रेणिक के वाहन से मरा था उससे पहले समवसरण में पहुँच जाता है। यह जैन धर्म उपादान और भाव प्रधान है जो बहुत अद्वितीय है। इस आत्मा का कब कैसा प्रभावक जीवन बनता है, कब उन्नत होता है, यह सब भावों पर आधारित है। वह मेंढक उन्नति करके प्रभावक देव बना। यदि पूजक बनना चाहते हो तो मेंढक के समान बनो। इसीलिए स्वामी समन्तभद्राचार्य महाराज ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में मेंढक का उदाहरण रखा है। यदि सामायिक करना चाहते हो तो सेठ के समान मत करो और यदि पूजन करना चाहते हो तो मेंढक के समान करो यह मेंढक का उदाहरण इसलिये दिया कि मनुष्य को थोड़ी टीस पहुँच जाये। मेंढक ने पूजा तो की नहीं थी मात्र पूजा के भाव से जा रहा था उसका फल देव पर्याय मिली। यदि आप भी ऐसा सोचें मात्र भाव पूजा कर ले, तो ऐसा नहीं। आप को तो द्रव्य सहित ही पूजा करना चाहिए द्रव्य सहित पूजन से भाव कुछ अलग ही उमड़ते हैं। जैसे होली खेलते हैं तो भावों से मात्र रंग नहीं डालते किन्तु जब रंग घोलकर डालते है तो भाव अलग ही होते हैं, आनंद अलग ही होता है। हमेशा-हमेशा भाव से पूजा नहीं होती। घर में बैठकर आप अनेक प्रकार के भाव तो कर सकते हैं लेकिन पूजन सामायिक, जाप, स्वाध्याय आदि के विशुद्ध भाव वहाँ नहीं कर सकते हैं, वे विशुद्ध भाव तो मंदिर में ही हो सकते हैं। कुछ ही समय में मेंढक के तीन भव हो गये। अत: सद्भावना के साथ अपनी आत्मा के ऊपर अच्छे संस्कार डालते जाइये। रत्नत्रय रूपी संस्कार ही हमारे सही काम आयेंगे। मुक्त होने का एक ही रास्ता है, हम आत्मा के ऊपर रत्नत्रय के संस्कार डालते चले जाये। संस्कार चश्मे के समान हैं जो आत्मा को देखने का साधन बन जाते हैं और आत्म विकास के लिये कारण होते हैं। रुचि और आस्थापूर्वक डाले गये संस्कार ही आगे काम आते हैं। मनुष्य भव अच्छे संस्कार डालने के लिए आषाढ़ के समय खेत में बीज डालने (बोने) के समान है, इसलिए मनुष्य जीवन के समय को व्यर्थ मत खोओ। संतान के ऊपर आपका सबसे बड़ा उपकार यही है कि उसके ऊपर अच्छे संस्कार डाली। उन्हें धर्म मार्ग पर लगाओ। मात्र पैसे कमाने के संस्कार डालोगे, तो आप उपकार नहीं अपकार कर रहे हैं। धन के संस्कार डालने की आवश्यकता नहीं वे तो स्वयं आ जाते हैं। इन विषयों (विषय भोगों) के वातावरण में हमें धर्म के संस्कार डालना ही चाहिए। देवगति में संस्कार देने की बात नहीं है। इस मनुष्य पर्याय में सम्यग्ज्ञान पूर्वक संस्कार डालना चाहिए, तभी देव गति में समवसरण में जाने के भाव होंगे। यदि सम्यग्दृष्टि है तो दूसरे भव में संस्कार काम आ सकते हैं। मिथ्यादृष्टि तो सब भूल कर विषय कषायों में लग जाता है। जितना लंबा चौड़ा जीवन मिलेगा, उतना लम्बा चौड़ा कार्य भी मिलेगा अत: इस जीवन में कुछ कर ली। अन्य किसी भवरूपी दुकान पर जाओगे तो तुम धर्मरूपी दुकान चला नहीं सकते, खरीदी कर सकते हो। इसीलिये यहाँ पर हमें दुकान खोलने का सौभाग्य मिला है, उसे खोलकर अच्छे ढंग से चलाये तो उसका फल हमें अच्छा ही मिलेगा। जिस प्रकार दुकानदार को अखबार पढ़ने से नये नये भावों की जानकारी मिलती है, उसी प्रकार श्रावकों को श्रावकाचार पढ़ने से नयी नयी जानकारी मिलती है। कर्म करना तो सब को आता है किन्तु ये मिटते कैसे हैं यह ज्ञात नहीं है। जो कर्म किये जाते हैं वे मिटते हैं, क्योंकि जो बनते हैं वे मिटते हैं, जो बनते नहीं मात्र हैं वे मिटते नहीं। कर्म किये हैं उन्हें मिटाया जा सकता है। अत: कर्म मिटाने की जानकारी होना चाहिए। मात्र रुपये पैसे, जमीन, जायदाद, भोग उपभोग आदि से जीवन सुन्दर नहीं होता। इस मेंढक की भाव कथा को सुनकर कैसे भाव करना चाहिए यह भी सोच लेना चाहिए।
  18. धर्म के स्वरूप के विषय में हम परिचित होते हुए भी अपरिचित से रह जाते हैं क्योंकि धर्म अहिंसा पर टिका है इसी बात को हम भूल जाते हैं। हम दया धर्म को उसके पास देख सकते हैं जिसके जीवन में अहिंसा है। जिस क्षेत्र में हिंसा रुक गई वहाँ अहिंसा है। हिंसा का रुकना ही अहिंसा है। हिंसा का अभाव ही अहिंसा का अवतार है। सबसे ज्यादा हिंसा संज्ञी पंचेन्द्रिय करता है। जैसे जैसे इन्द्रियाँ घटती चली जाती हैं वैसे वैसे हिंसा भी घटती चली जाती है। सबसे कम हिंसा एकेन्द्रियों से होती है। जहाँ पांच इंद्रियाँ होती हैं वहीं पंचायत बैठती है। पंचेन्द्रिय यदि सबसे ज्यादा हिंसा कर सकता है तो अहिंसा का पालन भी अच्छे ढंग से कर सकता है। आज देश को नहीं पूरे विश्व को शान्ति और उत्थान के लिये अहिंसा की परम आवश्यकता है। पतन का कारण रुक जाये तो उन्नति हो सकती है। पतंग होती है वह कोई भी बना सकता है किन्तु पतंग में डोर बांधना विज्ञान की बात है। बंदर की पूँछ की तरह पतंग की पूँछ होती है पतंग को उड़ाने के पूर्व बैलेन्स बनाने की बड़ी आवश्यकता है उसी प्रकार अहिंसा धर्म के लिये बैलेन्स परम आवश्यक है। हिंसा जितनी कम होती है, सुख शांति का अनुभव उतना अधिक होता है। अहिंसा धर्म की बात जैसे आप सुनने आये हैं, यहाँ धर्मसभा लगी है वैसे पूर्व में भी लगती थी। संत की वाणी खिर रही थी उसे एक व्यक्ति खड़ा खड़ा सुन रहा था। सभा समाप्त हुई सभी ने कुछ न कुछ नियम लिये, उस व्यक्ति ने कुछ भी नहीं लिया। संत ने उसे बुलाया। जैसे ग्राहक को पटाने की कला आपके पास होती है वैसे ही साधु के पास भी होती है। उसने कहा आपने जो कहा उससे विपरीत काम ही मेरा है। मेरा धंधा ही मछली मारना है फिर मैं कैसे हिंसा का त्याग करूं ? सूर्य तो एकाध दिन विश्राम ले सकता है लेकिन मैं विश्राम नहीं ले सकता साधू ने कहा ठीक है तुम एक काम करना, जो जाल में पहली मछली आये उसे छोड़ देना। उसने कहा यह तो सरल है। साधु महाराज ने कहा संकल्प पक्का होना चाहिए उसने कहा हाँ संकल्प पक्का है। संकल्प ले कर गया। जाल उठाया पानी में डाला पहली मछली आयी उसे निशान लगाकर छोड़ दिया। दूसरी बार जाल डाला, वही मछली आयी, दूसरी जगह तीसरी बार जाल डाला फिर वही मछली आयी इस प्रकार बार-बार वही मछली आई और वह छोड़ता गया। यदि आपसे कहा जाय कि जो पहला ग्राहक आये उसकी आमदनी (लाभ) मंदिर को दान दे देना तो आप नहीं कर सकते परन्तु वह प्रतिज्ञा में दृढ़ था। शाम हो गयी वह सोचता है कि गृहमंत्री (पत्नि) बहुत तेज है घर में प्रवेश नहीं देगी। घर गया वही हुआ रात भर बाहर ही पड़ा रहा रात्रि में सर्प ने काट लिया। वह मरकर देव हुआ। अहिंसा धर्म का यही तो महत्व है। छोटा सा नियम भी आत्म कल्याण के लिए कारण बन सकता है। व्रत (प्रतिज्ञा) कभी छोटा नहीं होता व्रत तो व्रत होता है, जिसका फल अपरंपार और अपूर्व होता है। संतों की वाणी से ही आत्मोन्नति का प्रारंभ हुआ करता है। जब तक अहिंसा धर्म में आस्था और आत्मा की भावना नहीं होगी तब तक उन्नति नहीं होगी। धर्म की शुरुआत तब होती है जब लिये गये संकल्प के प्रति दृढ़ता और आस्था होती है। आस्था को मजबूत प्रतिज्ञा के माध्यम से ही बनाया जा सकता है। धर्म की शुरुआत छोटे बड़े से नहीं किन्तु विचारों की दृढ़ता से होती है। जो आस्था और प्रतिज्ञा में कमजोर होता है वह कभी आत्मोन्नति नहीं कर सकता है। धारणा जिसकी पक्की होती है वह मंजिल प्राप्त कर लेता है। जब ज्ञान हो जाता है कि शरीराश्रित जीवन नश्वर है तब आत्मा की बात होती है और शरीर गौण हो जाता है। आज अहिंसा को रोकने की आवश्यकता होते हुए भी इसे रोकने के लिये कोई कटिबद्ध नहीं हो रहे हैं। जो हिंसा के माध्यम से धन का संग्रह होता है वह देश, समाज, परिवार एवं स्वयं के लिए घातक होगा। आज धर्म और समाज के प्रति बहुमान नहीं रहा इसी कारण अलकबीर जैसे कत्लखाने का डायरेक्टर जैन बन गया। पहले ऐसे हिंसक व्यापार को नहीं करते थे। जो पूर्व में इतने बड़े बड़े तीर्थक्षेत्र बनाये गये वे हिंसा के कार्य करके नहीं बनाये गये किन्तु जो न्याय नीति और दया का पालन करते हुए द्रव्य संग्रह किया, उसके माध्यम से बने हैं, तभी इन क्षेत्रों पर आते ही वीतराग मय भाव होते हैं। कोई भी कर्म करो, अहिंसा को दृष्टि में रखकर करो। यदि अहिंसा धर्म रहेगा तो स्वयं उन्नत होंगे और देश भी उन्नत होगा। भारत ही ऐसा देश है जो अपने धर्म कर्म को बेचने तैयार है। दया की बात अब शास्त्रों तक ही रह गई है तभी तो भारत से आज मांस निर्यात किया जा रहा है। प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य गुण सम्यक दृष्टि रखता है, अतः ऐसे महान् दया के कार्य सम्यक दृष्टि ही कर सकता है मिथ्या दृष्टि नहीं। आज जन जागरण की आवश्यकता है क्योंकि लोक तंत्र में लोक संग्रह की आवश्यकता होती है धन संग्रह की नहीं। अनेक पार्टी और अनेक विचारों वाले होने से दल दल हो रहा है। यदि आप अपने स्वार्थ के लिए वोट उन्हीं को दे रहे हैं जो हिंसा का कार्य करते हैं, जो मांस निर्यात करते हैं अथवा कराते हैं तो आप के द्वारा भी हिंसा का समर्थन हो गया ऐसा समझना चाहिए। आप लोगों को पार्टी या सत्ता के लिये नहीं, अपने देश के लिए समर्थन देना चाहिए। जिसके पास दया धर्म के प्रति अटूट श्रद्धान है वही बूचड़खानों को बंद करा सकते हैं। यदि इस प्रकार का हिंसात्मक कार्य आँखों देखा होता रहेगा तो नर्क का दृश्य यही आ जायेगा। अहिंसा धर्म के माध्यम से ही देश का संरक्षण हो सकता है गोला बारूद से नहीं। जब दया धर्म ही जीवन में नहीं तो आत्मा की बात कहाँ से आयेगी। दया धर्म के अभाव से अभी तो पशु से भी गया बीता जीवन जी रहे हैं। फिर आत्मा व परमात्मा की बात आयेगी कैसे ? आज अंडों को शाकाहारी घोषित किया जा रहा है उसे सिद्ध करने के लिए कहा जा रहा है कि उससे बच्चा उत्पन्न नहीं होता है। अंडों से बच्चे उत्पन्न हो अथवा न हो परन्तु वह मांसमय पिंड तो है ही। मांस को शाकाहारी कैसे कहें। जिसकी बुद्धि बिलकुल से खो गयी हो वही कह सकता है। धीवर ने प्राण छोड़ दिये पर प्रण नहीं छोड़ा। आप दोनों छोड़ने को तैयार हैं। जहाँ पर विवेक बुद्धि सुरक्षित है वहाँ दया धर्म है। ऐसे दया धर्म को बारंबार नमस्कार। दयारहित जो धर्म है, विनय रहित जो ज्ञान। समता बिन जप तप रहा, यथा देयनिष्प्राण। सम्यक दृष्टि जीव का, कोमल रहे स्वभाव। दीन दुखी को देखकर, धारे करुणा भाव। (विद्या स्तुतिशतक से)
  19. आज रविवार है जो आपको बहुत अच्छा लगता है। रवि का अपना काम है जगत को प्रकाश देना। रवि के समान ही महान् व्यक्तियों का काम हुआ करता है जो युगों-युगों से चला आ रहा है। जीवन क्या है, इसको बताने वाला ज्ञान है, साहित्य और शब्द है जो प्रकाश का काम करता है। शब्द जीव है किन्तु यह जीव के बिना उत्पन्न नहीं होता शब्दों को आज तक विज्ञान ने पैदा नहीं किया। शब्द का जीवन जीव के बिना प्रारंभ नहीं होता। उसे भाव प्रदान करने का श्रेय जीव को ही है। शब्दों से हम समझ जाते हैं कि हमारा स्वभाव क्या है, सुख-दुख क्या है, हमारा लक्ष्य क्या है इत्यादि। मूर्ति खंडित हो जाये तो उसका दूसरा निर्माण हो सकता है किन्तु एक बार लिखा साहित्य खराब हो जाने पर दुबारा लिखा जाना कठिन है। अपने आपको पहचानने के लिये सारा परिश्रम किया जाता है। जो अपना परिचय दूसरों के माध्यम से देते हैं उसे मैं उधार समझता हूँ। जिस प्रकार साहित्य की समीक्षा होती है उसी प्रकार आत्मा की भी समीक्षा होना चाहिए, लेकिन वह बिना आत्म ज्ञान के नहीं हो सकती है। चार ज्ञान गूंगे हैं केवल एक ज्ञान बोलता है, वह है श्रुत ज्ञान। जो बोलता है वह बोलने वाले का तो कल्याण करा ही देता है, किन्तु दूसरे का भी करा देता है। ज्ञान कल्याण के लिये तब हो सकता है जब हम उस पथ पर चलने लगते हैं। जिन भगवान् की मुख मुद्रा के माध्यम से मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं, अत: मतिज्ञान भी स्व (आत्म) कल्याण के लिये कार्यकारी है। जिन लिंग के माध्यम से जिन मार्ग एवं सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। श्रुतज्ञान के माध्यम से युग परिवर्तित कर सकते हैं बस हमारे पास योग्यता होना चाहिए, इसके माध्यम से लाखों व्यक्तियों को एक साथ उपदेश दिया जा सकता है। धर्म हमारे भीतर है बस अधर्म को छांट कर भगाने की आवश्यकता है। स्वरूप हमारे भीतर है बस कुरूप को छांटकर बाहर फेंकने की आवश्यकता है। अपने इन दोषों का मूल अपना अज्ञान ही है। अज्ञान का अर्थ उल्टा ज्ञान होता है जो विभाव रूप होता है अभाव रूप नहीं। श्रुतज्ञान के माध्यम से ही हम अपने आप को देख सकते हैं जैसे दर्पण में देखते हैं किन्तु पीछे देखो तो मात्र सिंदूर दिखता है। अपने आप के चेहरे को दर्पण में देखना हो तो सिंदूर की ओर नहीं देखना यदि हम जिन लिंग प्राप्त कर लेते हैं तो उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र दर्शन से ही दुनिया बोध प्राप्त कर लेगी। दुनिया को नहीं अपने आप को छानो, किन्तु अभी तक दुनिया को छाना। अपने आप को नहीं छाना, दुनिया को छानते छानते छने वर्कशाप के क्लीनर के वस्त्र के समान हो गये हैं किन्तु छान नहीं पाये, श्रुत ज्ञान छने का काम करता है उससे अपने आप को छानी। छने को हमेशा साफ रखना आवश्यक है। श्रुतज्ञान का अर्थ आगम होता है। स्व और पर तत्व जिसके द्वारा अभिगम्य (जाना जाता) हे वह आगम कहलाता है। आपाधापी में स्व-पर का ज्ञान समाप्त हो जाता है। आज पढ़-अपढ़ दोनों इसी में लगे हैं यदि इस आपाधापी में संन्यासी भी लग जायें तो आपा को भूल जायेंगे। गर्मी का समय था, सुबह की बात थी, रास्ते में नीम के वृक्षों की पंक्ति लगी थी तब एक दोहा बना खंडन मंडन में लगा, लिया न निज का स्वाद। फूल नीम का महकता, किन्तुकटुक ही स्वाद। नीम का फूल महकता बहुत है, लेकिन चखोगे तो कटुक ही लगेगा। इसी प्रकार जो श्रुत ज्ञान खंडन मंडन में लगा हो, तो वह नीम के पुष्प के समान कटुक ही होता है। जो श्रुत आत्मा के स्वाद लेने में लगा हो वही सही है, उसी से मीठा स्वाद आता है। आत्म तत्व की प्रधानता के बिना तत्व ज्ञान नीम के समान कटुक ही होता है। आत्म ज्ञान होना और आत्म संवेदन होना दोनों अलग-अलग हैं। जो आत्मा का स्वाद नहीं ले रहा है वह आत्म ज्ञान नहीं है भले ही श्रुत केवली क्यों न हो। जहाँ हारजीत, खंडन मंडन की बात हो वहाँ कुछ हाथ नहीं लगता। यदि हम ज्ञान के माध्यम से स्वमुखी हो जायें तो आनंद का पार नहीं रहता। जिस समय आत्मा का स्वाद आ जाता है, उस समय वर्णन करने की इच्छा ही नहीं होती है। घड़ी वही मूल्यवान है जिस घड़ी में हम आत्म वैभव की ओर दृष्टिपात करते हैं। हम पर के वैभव में लगे हैं आत्म वैभव में नहीं। आनंद तो आत्म वैभव में आता है दूसरों के वैभव को देखने में नहीं। पर ज्ञान के साथ ‘आत्म पधाने' पद भी नहीं भूलना चाहिए। योग्यता का नाम भव्यता है। जो संसार की वस्तुओं को प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं वे भव्य हैं और जो अपने को जानकर उसे प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं वे भी भव्य हैं इस दृष्टि से सभी भव्य हैं। जब हम अपनी आत्मा से बाहर आते हैं तो बहिरात्मा हो जाते हैं। वह बहिरात्मा ही दूसरे को बहिरात्मा कह सकता है। दुनिया डरती है उस व्यक्ति से जो दुनिया की ओर देखता है किन्तु जो अपनी ओर देखता है उससे कोई भी नहीं डरता। इसीलिये भगवान् बाहुबली के शरीर में पक्षियों ने घोंसले बना लिये, सिंह आकर बैठ गये, जीव जंतुओं ने वामी बना ली। मन के अधीन मानव है इसी मानव से प्रदूषण फैलता है पशु-पक्षियों से नहीं। पशु पक्षियों का बोलना संगीत का काम करता है किन्तु मानव की शब्द ध्वनियों से विप्लव हो जाता है, प्रदूषण फैलता है। शब्दों के माध्यम से यदि शांति फैलायी जा सकती है, तो विप्लव भी फैलता है। सिंह हमारा बैरी नहीं किन्तु हमारे शब्द सुनते ही उसका उपयोग उस ओर चला जाता है और उसे लगता है यह हमारा दुश्मन है। शब्दों में शक्ति होती है। एक ही शब्द, योजनों तक तेजो लेश्या का काम कर सकता है। शब्द शक्ति एक है, प्रयोग अच्छाई और बुराई के रूप में दो प्रकार से किये जाते हैं। यदि हम सात्विक मन से दूसरे के लिये अच्छे शब्दों में कुछ कह देते हैं तो उद्धार हो जाता है और यदि बुरे मन से कुछ कहते हैं तो विप्लव हो जाता है। श्रुत दो प्रकार का होता है एक स्वार्थ दूसरा परार्थ। दुनिया में अर्थादि के लिये परिश्रम सभी करते हैं किन्तु जो विद्वान करते हैं वह सभी के लिये होता है। संस्था के माध्यम से साहित्य प्रकाशन तो हो सकता है किन्तु यदि आँखों में ज्योति ही न हो तो, कहना ही पड़ेगा की प्रकाश न तो प्रकाशन से लाभ क्या ? धर्म की यहाँ गुजरात में भूख प्यास है किन्तु दाल के पानी के रूप में। यहाँ रत्नकरण्डक श्रावकाचार ही पर्याप्त है न्याय शास्त्ररूपी हलुआ नहीं, आप भी जिनवाणी के रहस्यों को समझते हुए मोक्षमार्ग पर अग्रसर हों बस यही गुरु ज्ञानसागरजी महाराज को स्मरण करते हुए कहना चाहता हूँ।
  20. किसान अपनी फसल काटकर खलिहान में लाया फिर दांये करने लगा, पहले ट्रेक्टर नहीं थे इसीलिये बैलों से दांये की जाती थी। किसान ने बैलों को मुशिका लगा लिया। जो मुंह को सींदे (बंद कर) उसका नाम मुशिका है। धान्य पशु की खुराक नहीं यदि खा भी ले तो पचता नहीं। धान्य मानव की खुराक है और घास पशु की खुराक है किन्तु आज मनुष्य घास भी खाने लगा और धान्य भी। अपने किये गये कर्म का फल तिल का ताड़, सरसों का पहाड़ बनकर आता है। काल का सबसे छोटा प्रमाण एक समय है उसमें किये गये कर्म से ७० कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण की अवधि बनकर कर्म आते हैं। कर्म यदि थोड़ा सा ब्रेक लगा देता है, तो क्या क्या हो सकता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आदिनाथ के जीवन की घटना है। उन्होंने पूर्व जीवन में ६ घड़ी के लिये बैल के मुख में मुशिका लगाया था जिसके फल स्वरूप ६ माह तक आहार का अलाभ रूप अंतराय कर्म बनकर सामने आया । श्रेयांसि बहुविध्नानी। श्रेष्ठ कार्यों में विध्न होते हैं। राजा श्रेयांस महापुरुष नहीं थे किन्तु महापुरुष से बढ़कर माने जाते हैं क्योंकि दान की परम्परा आदिकाल में उन्हीं ने चलाई थी, जिस समय राजा श्रेयांस के यहाँ आहार हुआ तो रत्नों की वृष्टि हुई होगी उसे देखने भरत चक्रवर्ती भी गया होगा, किन्तु चक्रवर्ती के हृदय में जरा भी मात्सर्य भाव नहीं आया। पूर्व भवों में देशना के संस्कार वर्तमान में कार्य कर सकते हैं जैसे राजा श्रेयांस के किये। आहार संज्ञा में पीड़ा भले ही न हो किन्तु आकुलता तो रहती ही ह, आकुलता साध्य और असाध्य भेद से दो प्रकार की होती है। आदिनाथ ने दीक्षा लेने के ६ माह बाद आहार चर्या की। यदि ६, ६ माह में एक बार आहार को उठे तो हजार वर्ष में दो हजार बार आहार तो किया होगा। पेट ने ऐसा काम किया कि बड़ों-बड़ों को भी क्यू (लाइन) में खड़ा कर दिया। केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शन ये भी पराश्रित हैं क्योंकि बिना वीर्य (शक्ति) के यह अपना कार्य नहीं कर सकते हैं अनंत शक्ति आवश्यक है ज्ञान दर्शन आदि को कार्य करने के लिये। जैसे करंट है किन्तु वायर नहीं तो बल्व नहीं जल सकता। बल्व नहीं हो और वायर लगा हो तो भी प्रकाश नहीं मिल सकता, यदि बल्व कम वाट का लगाया हो तो प्रकाश थोड़ा मिलेगा जिससे पूरा कमरा भी प्रकाशित नहीं हो सकता। किसी कार्य के सम्पन्न करने के लिये यथायोग्य विधि आवश्यक है कर्म काटने के लिये भी विधि है। यदि कर्म काटने की विधि ज्ञात है तो कट सकते है अन्यथा नहीं। कर्म बंधने के बाद बिना भोगे नहीं कट सकता, वह किसी न किसी रूप में फल देकर ही जायेगा, चाहे स्वमुख से फल दे या पर मुख से फल दे। इसीलिए कर्म बांधते समय ध्यान रखो। मुनि बनने के बाद १० वें गुणस्थान तक अंतराय कर्म का बंध और १२ वें गुणस्थान तक उदय चलता रहता है। भाव श्रद्धा का फल है अत: देवशास्त्र गुरु के ऊपर श्रद्धा करके उनके अनुसार बताये गये मार्ग पर चलो। जिससे उत्तरोत्तर कर्म निर्जरा बढ़ती चली जायेगी, कर्म कटते चले जायेंगे। जीवन मुक्ति सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान् को मिली बाद में अन्य साधकों को। केवल ज्ञान प्राप्त हो जाना जीवन मुक्ति है, परन्तु आदिनाथ भगवान् से पूर्व कुछ साधु मोक्ष चले गये। वह वैसा हुआ जैसे भोजन के लिए सब एक साथ बैठे हों परन्तु पेट सबका अलग-अलग समय में भरता है। पेट भरते चले जाने पर उठते चले जाते हैं।
  21. (आज सात ब्रह्मचारियों की क्षुल्लक दीक्षायें हुई एवं अक्षय तृतीया पर्व मनाया गया) दंसणवय सामाइय, पोसह सचित्तराइभत्ते य। बंभाऽरंभ परिग्रह अणुमण मुद्विट्ट देसविरदो य॥ यह अति प्राचीन गाथा है जिसमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रि भुति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमति त्याग और उद्विष्ट त्याग, इन ग्यारह प्रतिमाओं का कथन किया है। दर्शन प्रतिमा का अर्थ सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति निष्ठा। जिसकी दर्शन प्रतिमा उज्वल होगी उसका उत्साह भंग नहीं होता और चरित्र में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। दूसरी व्रत प्रतिमा है इस व्रत प्रतिमा में तीन मकार एवं पाँच उदुम्बर फलों (बड़, ऊमर, कटूमर, पीपल, पाकर का त्याग) पाँच अणुव्रत (अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत एवं परिग्रहपरिमाणाणुव्रत), चार शिक्षाव्रत, और तीन गुणव्रत होते हैं जिनका पालन करना होता है। इसके अन्तर्गत एक सल्लेखना व्रत भी रखा गया है जो आज के युग में बहुत कठिन हो रहा है अब अंत समय में अस्पताल की शरण में चले जाते हैं जो ठीक नहीं। यह सल्लेखना व्रत परीक्षा के समान है जिन्होंने घर छोड़ दिया हो उनके इसका पालन हो जाता है। तीसरी प्रतिमा है सामायिक प्रतिमा, जिसका महत्व आज दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। मुनियों के शुद्धोपयोग का स्वाद सामायिक के काल में ही आता है वह भी प्रमाद छोड़कर करने से, मात्र खाना पूर्ति करने से किसी को इसका स्वाद नहीं आ सकता है। सामायिक प्रतिमा में आरंभ आदि समस्त सावद्य का त्याग रहता है, अत: गाड़ी में चलने वालों के सामायिक प्रतिमा व्रत का पालन नहीं होता। चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा है जो दिन में एक बार ही आहार लेते हैं उनका प्रतिदिन प्रोषध चलता है, अतः जब कभी उपवास करेंगे तो प्रोषधोपवास ही होता है। मुनियों का जब उपवास हो तो नियम से प्रोषधोपवास ही होता है। पांचवी सचित त्याग प्रतिमा है इस प्रतिमा का धारी जल और भोजन सचित ग्रहण नहीं करता अचित्त (प्रासुक) ही ग्रहण करता है। प्रासुक में चलित रस न हो, किन्तु रस स्वाद परिवर्तित कर लेता है। छठवीं प्रतिमा है रात्रिभुति त्याग और सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। सातवीं प्रतिमाधारी घर नहीं छोड़ता किन्तु घरवाली को अवश्य छोड़ देता है। आठवीं प्रतिमा आरंभ त्याग प्रतिमा है इस प्रतिमा में घर गृहस्थी के समस्त आरंभ कार्य त्याग कर देता है, नौवीं परिग्रह त्याग प्रतिमा है यह प्रतिमाधारी आरंभ आदि क्रियाओं का त्याग करने के बाद जो आवश्यकतानुसार परिग्रह रख लिया है उसी से उदर पूर्ति करता है। शेष परिग्रह न रखता है न अनुमति देता है। दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है, यह प्रतिमाधारी आरंभ परिग्रह आदि पाप क्रियाओं को स्वयं तो करता ही नहीं, उसकी अनुमति (अनुमोदना) भी नहीं देता है, भले ही घर में रहे घर का त्याग न करे। ग्यारहवीं उद्विष्ट त्याग प्रतिमा है। दसवीं प्रतिमा के बाद घर का भी त्याग हो जाता है। भिक्षा वृत्ति से भोजन आहार ग्रहण करता है। थाली में भोजन करने से भी भिक्षा वृत्ति नहीं पलती है। भिक्षा वृत्ति से आहार ग्रहण नहीं करने से जिह्वा इन्द्रिय पर विजय प्राप्त नहीं होती है। बंधुओं चरित्र अपने आप आता नहीं ग्रहण किया जाता है जो मानते हैं कि चरित्र अपने आप आ जायेगा उसका जीवन यूं ही चला जायेगा परन्तु चरित्र नहीं आयेगा। साधू (क्षुल्लक) बनाना दीक्षा देना मात्र निमित्त होता, साधू बनाना नहीं बनता है। भाव लिंग को प्राप्त करना है। भाव लिंगी मुनि अनंतबार नहीं बनता किन्तु संयमा संयम और उपशम सम्यक्त्व को असंख्यात बार प्राप्त कर सकते हैं। आगम में दो पद बताये है एक सागार दूसरा अनगार। क्षुल्लक सागार में आते हैं। इनके पास जो पिच्छिका कमंडलु शास्त्र है वह उपकरण में आते हैं किन्तु लंगोट दुपट्टा और कटोरा उपकरण नहीं वह तो परिग्रह है। उसे भी छोड़ना है जो लौकिक सम्बन्ध थे टेलीफोन करना रुपये पैसे रखना आदि अब नहीं हो सकता। भगवान् महावीर की इस परम्परा में आचार्य श्री शांतिसागरजी, आचार्य श्री वीर सागर जी, आचार्य श्री शिवसागर जी, आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज हुए उन्हीं की परम्परा में, मैं आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का शिष्य (आचार्य विद्यासागर जी) हूँ इसी परम्परा में आज सात क्षुल्लक दीक्षित हुए हैं। क्षुल्लक प्रज्ञासागरजी पूर्वनाम विनोदकुमारजी गढ़ाकोटा। क्षुल्लक प्रबुद्धसागरजी पूर्वनाम प्रदीपकुमारजी, जबलपुर। क्षुल्लक प्रशस्त सागर जी पूर्वनाम स्वतंत्रकुमारजी, सनावद। क्षुल्लक प्रवचनसागरजी पूर्वनाम चंद्रशेखरजी, बेगमगंज । क्षुल्लक पुण्यसागरजी पूर्वनाम शांतिनाथ, लालाबडी (महाराष्ट्र)। क्षुल्लक प्रभावसागरजी पूर्वनाम मनोजकुमारजी, शाहगढ़। क्षुल्लक पायसागरजी पूर्वनाम पायप्पाजी (महाराष्ट्र)।
  22. चौबीस तीर्थकर हुए। अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी हुए। उनके तीर्थकाल से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ। पार्श्वनाथ का एक अपना अलग ही स्थान है जो हम लोगों के लिये बहुत प्रेरणा -दायी है, धर्म हमेशा दया की मुख्यता को लेकर है। दया ही धर्म का मूल है उसकी शाखायें और उपशाखाएँ बहुत लम्बी चौड़ी हैं। यदि हम धर्म मात्र की चर्चा करते रहते है तो जीवन सार हीन माना जायेगा। दया के बिना पैसे के बल पर जो धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं उसका आगे जाकर मूल ही सिद्ध नहीं होता है। आज दो तीन वर्ष में ही हाथों हाथ फल चाहते हैं इसी कारण कलम पद्धति आ गई। कलम लेखनी को भी कहते हैं अलग-अलग जाति के पेड़ को मिलाकर एक नया कलमी पेड़ उत्पन्न किया जाता है इस प्रकार के विकास को देखते हुए किसी व्यंग्यकार ने लिखा कि अब कलमी बच्चे भी मिलेंगे। यदि यह हो गया तो न मूल मिलेगा न चूल, न मूल ना संस्कार। पार्श्वनाथ रथ में बैठकर घूमने गये थे। किसी कारणवश रथ से उतरे उस समय वे मुनि नहीं थे, मुनि रथ में नहीं बैठते, वे तो सदा ज्ञानरथ में बैठते हैं। पार्श्वनाथ दयामय रथ में बैठते थे इसीलिये उन्होंने कहा जिस लकड़ी को तुम जला रहे हो उसमें जीव है। जिसमें जीव हो अथवा जीव होने की योग्यता हो उसे जलाया नहीं जाता। जैसे आप चावल चढ़ाते हैं क्योंकि वे जीवन्त नहीं हैं और आगे भी जीवंत होने की योग्यता नहीं है। जिसमें दया को स्थान नहीं वह धर्म नहीं। दयाधर्म के अभाव में जो संसार में भटक रहे हैं उन्हें रास्ता संतों को ही बताना होता है। दया धर्म का प्रचार मात्र शब्दों से होता है ऐसा एकान्त नियम नहीं। मोक्ष मार्ग विवेक के साथ ही प्रारंभ होता है संसारी प्राणी को भले ही दिव्य ज्ञान नहीं है परन्तु उसके पास विवेक है उसे रखना चाहिए उसी विवेक से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होगी, जिस धर्म में दुनिया के जानने की क्षमता है उस धर्म के माध्यम से दिव्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पोथी ज्ञान नहीं किन्तु योनि स्थान (जीवोत्पत्ति) कहाँ-कहाँ किस रूप में है यह विवेक जागृत होना ज्ञान है। नम: सिद्धेभ्य: तीर्थकर कहते हैं ओम् नहीं कहते हैं। फिर भी सुनते हैं नाग नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया पार्श्वनाथ ने।। णमोकार मंत्र का अर्थ होता है नमस्कार मंत्र अतः नमः सिद्धेभ्यः किया, अर्थात् सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार किया। पंच नमस्कार की बात नहीं है। दया का रहस्य खुल जाता है तब दयावान देवों को पीड़ा हो जाती है कि मैंने दया का ऐसा कार्य नहीं किया। दया का रूप द्रव्य, क्षेत्र काल भाव के अनुसार अलग-अलग हुआ करता है। दया का पाठ तिर्यच ने लिया जिससे वह तिर्यच देव हुआ, और फिर देवाधिदेव को देखकर अनुग्रह करने लगा। दया धर्म के प्रति जो समर्पित हो जाता है वह धर्मात्मा कहलाता है। दया का प्ररूपण केवली ही कर सकते हैं क्योंकि वही दया के विराट रूप हैं। दयामय कार्य को करने वाले प्रभू ने असंख्यात जीवों पर दया की। इतिहास उदाहरणों से भरा पड़ा है। धर्म कर्तव्यपरक है कर्तापरक नहीं। दया धर्म के पालन से ही उस दयावान की पूजा होती है दयामय धर्म जब जीवन में उतर जाता है तो हम तर जाते हैं और दुनिया को प्रकाश मिल जाता है। प्रकाश दीपक देता है किन्तु जो प्रकाशित करता है वही दीपक कहलाता है धर्मात्मा के पास बैठने से अथवा धर्म की बात सुनने मात्र से धर्मात्मा नहीं होते किन्तु जीवन में दयामय धर्म उतारने से धर्मात्मा होते हैं। धरणेन्द्र पद्मावती पूजक हैं और पार्श्वनाथ भगवान् पूज्य हैं। पूज्य मुख्य होता है वही बड़ा होता है अत: भगवान् मुख्य हैं उन्हें ही बड़ा होना चाहिए। जैसे फोटो लेते समय मुख्य की ओर फोकस करते हैं। पूजक के संविधान हो सकते हैं, विधान (पूजन) नहीं। जैसे गाड़ी (कार) में तीन व्यक्ति फ्रेंट में बैठते हैं तो उन तीन में एक ड्राइवर भी होता है उसके गले में माला नहीं डालते। देवाधिदेव के चरणों में देव झाडू लगाते हैं वे कभी यह नहीं कहते कि तुम भगवान् की पूजा छोड़कर हमारी पूजा करो। वे स्वयं भगवान् की पूजा करते हैं। जिस कार्यक्रम में मिनिस्टर कलेक्टर पुलिस आदि आ जाते हैं उसमें सामान्य लोगों की भीड़ अपने आप लग जाती है उसी प्रकार देवाधिदेव की जब पूजा करते हैं तब सामान्य देव अपने आप आ जाते हैं। आप लोगों को वीतरागता का ज्ञान न होने से और स्नेह, लोभ, आशा और भय के कारण देवी देवताओं की पूजा करने लगते हैं। भगवान् न देते हैं न लेते हैं किन्तु सामान्य चार निकाय के देव देते भी हैं, और लेते भी हैं और धक्का भी देते हैं। कहीं धक्का न दे दे, नहीं तो क्या होगा इसी डर के कारण आप पूजते हैं। देवों की पूजा नहीं परन्तु पद के अनुसार आदर तो देना ही चाहिए। सेवक हमेशा पीछे ही रहता है जब कोई गड़बड़ी होती है तो रक्षक बनकर आगे आ जाता है। आप धर्मात्मा हैं भगवान् के दास हैं और देव दासानुदास हैं अत: देव तो आयेंगे ही फिर उनसे डरना नहीं चाहिए। दयाधर्म भाव प्रधान है यदि भाव सहित भगवान् को नमस्कार किया जाता है तो भय संकट बाधायें दूर हो जाती हैं। यदि हम सम्यक ज्ञान मय क्रियायें करते हैं तो भगवान् का बहुमान और अधिक हो जाता है। जिसको जो पद मिला उसको उसी रूप में मानना उसी के अनुरूप पूजना सम्यक ज्ञान का कार्य है।
  23. एक व्यक्ति को डॉक्टर ने कहा कि इस दवाई को दिन में ३ बार पी लेना। उस व्यक्ति ने दवाई पीने के लिए डांट खोली और दवाई निकालना चाही, किन्तु दवाई नहीं निकली। दो-तीन बार प्रयास करने पर भी जब दवाई नहीं निकली, तब उसने सोचा इसमें दवाई नहीं है। इसी बीच दूसरे व्यक्ति ने कहा कि इसमें दवाई है परन्तु एक डांट और खोलना पड़ेगी तब दवाई निकलेगी। दवाई, डांट और शीशी का रंग एक सा होने से उसे ज्ञान नहीं हो रहा था। ज्ञान होते ही उस डांट को निकाल दिया गया और दवाई बाहर आ गई। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में दो प्रकार की डांट होती है एक बाहरी, दूसरी भीतरी। बाहरी डांट निकालना मात्र पर्याप्त नहीं है, किन्तु भीतरी डांट निकालना भी आवश्यक है। हमारे जीवन में भीतरी डांट राग, द्वेष, मोह, मात्सर्य आदि हैं जो आत्मा के साथ लगी हुई हैं। भीतरी डांट को दिखाया नहीं जा सकता, इसे महसूस करना पड़ता है। लक्षण प्रत्येक पदार्थ का होता है, जैसे काँटा लगा है उसके कुछ लक्षण हैं, पहला लक्षण जहाँ काँटा लगा है वहाँ दर्द होता है। दूसरा लक्षण काला निशान दिखाई देना। बिना लक्षण के काँटा निकलना असंभव है। इसी प्रकार लक्षण ज्ञात करके यह जानो कि क्या मेरा है क्या पराया है। अभी तक दुनिया का परिचय करते रहे और कहा यह भी मेरा है यह भी मेरा है किन्तु मेरा परिचय में नहीं आया, मेरी अनुभूति में नहीं आया। जब तक भीतरी डांट नहीं निकालते तब तक उसका परिचय, उसकी अनुभूति उसकी प्राप्ति नहीं होती। बाह्य परिग्रह बाहरी डांट है उसे खोलकर दान, पूजा, भक्ति आदि कर ली इतने मात्र से काम नहीं चलता। डांट बहुत सारी हैं जो निकल नहीं रही हैं, इसी कारण अमृत औषधि को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। इन तीर्थ क्षेत्रों पर रह कर अनेकों तपस्वियों ने अपनी भीतरी डांट निकाली है। अत: ये क्षेत्र भीतरी डांट निकालने के लिये होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को वृद्धावस्था में उत्साह नहीं रहता अत: वृद्धावस्था के पूर्व डॉट निकालने कमर कस कर सामने आना चाहिए, जब कमर ही टेडी हो जाये तब फिर कमर कैसे कस पाओगे। भगवान् महावीर स्वामी ने कहा, मूच्छा परिग्रहा। मूछों ही परिग्रह है, जो बहुत खतरनाक है। यदि मूछों की अवधि बढ़ जाती है तो वह आपरेशन से भी ज्यादा खतरनाक हो जाती है। वह मृत्यु के लिए कारण हो सकती है। मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है ? वह पहचान भी मूच्छा के कारण नहीं हो पाती है। जो समझना चाहता है किन्तु प्रयास करने पर भी समझ नहीं पाता तो उसकी गलती नहीं, उसके पूर्व कृत कर्मों का प्रतिफल है। किसी कार्य को करने के लिए रुचि होना आवश्यक है और क्या करना, कैसे करना, क्यों करना? ये कुछ ३-४ प्रश्न, कार्य करने के पूर्व समझना भी आवश्यक है। जिस क्षेत्र में जो सीनियर है उस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को उस सीनियर से पूछना चाहिए। जिसे उस क्षेत्र का ज्ञान ही नहीं वह दूसरों को कैसे रास्ता बता सकता है। इसीलिए जिसने डांट निकालने का प्रयास ही नहीं किया, उससे डांट निकालने की सलाह नहीं लेना चाहिए। भूख डालने की बात नहीं भूख लगने की बात होती है। यदि मंदाग्नि है तो भोजन और भोजन की प्रशंसा व्यर्थ जाती है। आज भोजन पचाने के लिए दवाई, भूख बढ़ाने के लिए दवाई, शौच जाने के लिए दवाई, नींद लाने के लिए दवाई। इस प्रकार भोजन कम दवाई ज्यादा ले रहे है ये लक्षण अपव्यय के हैं। पहले जो ज्यादा भोजन किया उसी के करने से ही शरीर निकम्मा हो गया है। शरीर निकम्मा हो जाने से ही दवाई खा रहे हैं। यदि दवाई ही खुराक बन जाये तो छूटना मुश्किल होता है। जैसे कैपसूल के भीतर दवाई होती है और ऊपर से डांट होती है। कैपसूल की दवाई शीघ्र काम करती है क्योंकि उसके पास डांट होती है जिससे बाहरी प्रभाव उसके ऊपर नहीं पड़ता। कैपसूल पेट में जाते ही ऊपर का केप घुल जाता है और दवाई बाहर आती है। तो अपना प्रभाव शरीर पर एटम बम्ब के समान छोड़ता है। यदि उसका केप (डांट) ही न गले तो दवाई काम नहीं कर सकती। स्वाध्याय भी एक कैपसूल है। जो कुंद कुंद के समयसार रूपी कैपसूल खा रहे फिर भी काम नहीं कर रहा, क्योंकि समयसार का कैपसूल घुल नहीं रहा और दवाई ज्यों की त्यों रह रही है इसीलिए अब उन्हें रत्नकरण्डक श्रावकाचार का चूर्ण ही पर्याप्त है। उसी से पेट साफ होगा, भूख बढ़ेगी। कैपसूल तो औषधि नहीं किन्तु दवाई रखने का एक केप (साधना) है। आज दवाई की एक्सपायर डेट होती है इसी प्रकार धर्म कर्म की भी एक अवधि होती है इसीलिये आज धर्म की ऐसी टेबलेट बनाना चाहिए जिससे दूसरों पर एवं स्वयं पर अच्छा प्रभाव पड़े। धार्मिक क्षेत्र में मात्र बाहरी परिणाम नहीं भीतरी परिणाम (रिजल्ट) भी देखना चाहिए। आज आर्टिफिशियल धर्म हो रहा है जैसे नेलपॉलिस, लिपिस्टिक लगाकर आर्टिफिशियल ओठ और नाखून दिखाना चाहते है। इसे मैं मात्र प्रदर्शन मानता हूँ। उत्साह भीतर से होना चाहिए एक के उत्साहित होने पर दूसरे को उत्साह आ सकता है। भीतर से उत्साह होने पर भूख प्यास में भी तेज टपकता रहता है। यदि धर्मात्मा खाये पिये फिर भी टी-बी- जैसे मरीज बने रहे तो देखने वालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? हमारे भगवान् कोई श्रृंगार नहीं करते फिर भी शरीर पर तेज बना रहता है, वीतरागता टपकती रहती है। राग द्वेष मद मत्सर कम करने से एक अलग तृप्ति होगी। एक अलग अनुभव होगा, एक अलग आनंद आयेगा। जो क्रोधादि कषाय को पी लेगा उसकी शक्ति बढ़ जायेगी और जो करेगा उसे वह क्रोधादि कषाय पी जायेगी, उसकी शक्ति समाप्त हो जायेगी। नील कंठ का नाम शिव कहा क्योंकि वो विष को भी पचा लेता है। यदि कषाय शांत हो और मन प्रसन्न हो तो विष खाने पर भी पेट में जाकर अमृत बन सकता है और यदि कषाय काम कर रही है तो अमृत भी विष का काम करता है यहाँ कषाय का अर्थ उद्विग्नता है। उद्विग्नता व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। जो चीज हमारे लिए हानिकारक है उसका ज्ञान पहले आवश्यक है। जैसे औषधि विपरीत होती चली जा रही है उसी प्रकार आज धर्म भी विपरीत होता चला जा रहा है। आज ऐसी धारणा बनती चली जा रही है कि अर्थ के द्वारा धर्म होता है इसीलिए धर्म पर कम, अर्थ पर ज्यादा विश्वास हो रहा है और धर्म को कम, अर्थ को ज्यादा समय दिया जा रहा है। डांट लगाने से सदा, अपयश और विनाश। नहीं डॉट खाना बुरा, सद्गुण होत विकास॥ शीशी शिष्य समान है, डांट चाहिए दोय। दोनों की बिन डांट के, कभी न कीमत होय। (विद्या स्तुतिशतक से)
  24. महावीर के महान् जीवन को हम शब्दों में नहीं बांध सकते हैं। शब्द जड़ हैं एवं शब्द का एक क्रम होता है फिर भी यदि उनके साथ भाव जुड़ जाते हैं तो उस विराटता को भी एक वाक्य में बांध सकते हैं। बांध का अर्थ कोई बांध बांधना या रस्सी से बांधना नहीं है। उस महान् व्यक्तित्व को यदि समझना है तो उसे जीवन में उतारना होगा। परोपकाराय रवे प्रवासः परोपकाराय कवे प्रयासः । परोपकारायवने बसंत परोपकारायवदंति संता॥ सुबह सूर्य की यात्रा प्रारंभ होती है बालभानु के रूप में। बालभानु के उदय होने पर चिड़िया चहकने लगती है। जब दोपहर में भानु प्रतापशाली हो जाता है, तब उसे सब देख नहीं पाते हैं। जो सूर्य की तीखी तीखी किरणें जलाती हैं उन्हीं किरणों में कोमल-कोमल कलियों को खिलाने (विकसित करने) की क्षमता है। जीवन में पड़े बीजों को अंकुरित करने की क्षमता है। आप लोग सनराइज और सनसेट देखने जाते हो, उसके तेज प्रताप को देखना नहीं चाहते जबकि हमें उसके प्रकाश और प्रताप की कीमत करना चाहिए क्योंकि उसमें महान् परोपकारिता, महान् विशालता और महान् विराटता छिपी है। उसकी विशालता, विराटता, परोपकारिता यही है कि वह सारे विश्व को ऊर्जा देता रहता है। इसी प्रकार आज से २५ सौ वर्ष पूर्व एक ऐसे सूर्य का उदय हुआ जिसने सबको ऊर्जा दी, सोई हुई चेतना को जागृत किया। उनके द्वारा दिये हुए सूत्र दिये (दीपक) का कार्य कर रहे हैं। उन सूत्रों में प्रकाश भरा हुआ है, इसलिए उनके सामने अंधकार रह कैसे सकता है। यदि प्रकाश की यात्रा नहीं होती तो अंधकार भागता कैसे ? भगवान् महावीर स्वामी ने प्रयास करके प्रकाश फैलाने का काम किया है। ज्ञान दीपक के समान है जो स्वयं प्रकाशित होता है और दूसरों को प्रकाशित करता है। जब सूर्य पूर्व में रहता है तो पश्चिम में उसकी किरणें नहीं पहुँच पाती हैं इसलिए वह प्रवास (यात्रा) करता है। छाया की ओर देखने से बैठने के भाव आ जाते हैं। छाया अधर्म द्रव्य है। अत: अधर्म द्रव्य की शरण में मत जाओ (जैसा द्रव्य संग्रह में कहा है) छाया जह पहियाणां.... छाया आशा का प्रतीक है और इस प्रकार होने से अच्छाई समाप्त हो जाती है। १२ बजे जब तेज प्रतापी सूर्य आता है तब छाया गायब हो जाती है। जब तक मेहनत नहीं होती तब तक पसीना नहीं आता और पसीना न आने से भीतर का विकार (रोग) बाहर नहीं आ सकता मेहनत का अर्थ मैं का/अहं का नत नष्ट हो जाना। अर्थात् मेहनत से अहं झुक जाता है और समर्पण के भाव आ जाते हैं। आप लोग बातों बातों के लिए हिल जाते हैं किन्तु कार्य करने के लिए नहीं हिलते। योजनाएँ बहुत बनाते हैं, परन्तु सरकार भगवान् भरोसे होती है। आप भगवान् को आदर्श मानकर कहते हैं, आप ही डूबती नैया को पार लगा सकते हैं। बन्धुओं आदर्श को सामने रखने मात्र से काम नहीं होता किन्तु आदर्श को सामने रखकर तदनुरूप पुरुषार्थ करने से काम होता है। भगवान् दूसरों को पानी पिलाकर प्यास बुझाते है और आप अपने को पानी पिलाकर प्यास बुझाते हैं, इन दोनों में बहुत अंतर है। अपने आपको पानी पिलाने से प्यास बुझती है इसे छोड़ दो, बंधुओं, दूसरों को पानी पिलाकर देखो तो क्या होता है ? जो देना जानता है दूसरों की प्यास बुझाता है, वह अपनी प्यास बुझा ही लेता है। आज देखो मैत्रीकुण्ड में कैसे हजारों पशु पक्षी पानी पीकर चले गये, मैंने कई लोगों से सुना है खिलाने-पिलाने के बाद (आहारदान आदि से) भूख प्यास मिट जाती है। आप खिलाना-पिलाना भूल जाते हैं किन्तु खाना पीना नहीं भूलते। अपने आप को भूलकर दूसरों को प्रकाश देने का, खिलाने पिलाने का और शरण देने का कार्य महावीर, राम, हनुमान, आदिनाथ आदि ने किया है। बाँटने (वितरण) से कभी समाप्त नहीं होता किन्तु डांटने से समाप्त हो जाता है। सब बांटने के लिए है रखने के लिए नहीं, यदि रखते चले जाये तो स्थिति बिगड़ जायेगी। अर्थ को जितना प्रयोग में लाया जाये उतना विकास होगा। ताले में बंद रखने से विकास रुकता है, दरिद्रता बढ़ती है और यदि तन-मन-धन सब बांट दो तो सारी दरिद्रता समाप्त हो जायेगी। भगवान् महावीर ने कुछ दिया नहीं किन्तु जो कोई आया उसे अपनाया यही उनकी आय है, व्यय तो है ही नहीं। उन्होंने जड़ का संग्रह नहीं, चेतन का संग्रह किया। उन्होंने जड़ के जोड़ने को नहीं, छोड़ने को अपनाया है, इसीलिए उनकी कीर्ति चारों ओर बढ़ती (फैलती) चली गई। भगवान् महावीर स्वामी ने छोटों को बड़ा बनना सिखाया है इसीलिए वे बड़े हुए हैं। मंत्र पढ़ने से या रटने से सिद्ध नहीं होता, किन्तु उसके प्रति श्रद्धा समर्पण और एकाग्रता से सिद्ध होता है। जो अपने जीवन में मंत्रों को आत्मसात कर लेता है उसे मंत्र अपने आप सिद्ध हो जाते हैं। मंत्रों का अपना प्रभाव होता है जैसे गारुण मंत्र के प्रयोग से सर्प को आकर उसका विष निकालना पड़ता है, जिसे उसने काटा है। हम लोगों का जीवन वन है, जी हाँ एक वन है, जिसमें पेड़ तो हैं, किन्तु फल फूल पत्तों से रहित सूखा सा है, जिसकी छाया भी अच्छी नहीं लगती। उस सूखे वन को बसंत हरा भरा बना देता है। जहाँ बसंत न भी हो, वहाँ यदि संत चले जाय तो बसंत आ जाता है। अकाल भी सुकाल बन जाता है। महावीर स्वामी के आने से यही हुआ। उनके जन्म होने से पूर्व ही दरिद्रता समाप्त हो गयी, क्योंकि उनकी दृष्टि आत्महित के साथ-साथ पर कल्याण की भी थी, इसलिए आज भी उनका नाम ले रहे हैं। हम अपने जीवन में ऐसा कार्य करें जो बसंत के समान हो। जो बिना दिये जीना चाहते हैं, वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं। उसने अपने जीवन को ही नहीं समझा जो मात्र लेने की बात जानते है देने की बात सुनना भी नहीं चाहते। कदम स्वार्थ की ओर बढ़ रहे हो परमार्थ की ओर नहीं तो ऐसा करना भी अपने आपको धोखा देना है। द्रव्य संग्रह की ओर वही दृष्टि रखता है जो द्रव्य संग्रह को नहीं देखता (पढ़ता)। 'द्रव्यति इति द्रव्य' जो द्रवणशील है वह द्रव्य है यह जब द्रव्य का लक्षण समझ में आ जाता है तब द्रव्य संग्रह से दृष्टि हट जाती है। भगवान् महावीर स्वामी का जीवन काल ७२ वर्ष का था उसे कारिका के समान चार चरणों में बांट दो तो १८-१८ वर्ष एक एक चरण में बैठते हैं ये १८ दोषों के नाश के लिए है। अंतिम चरण में कहा गया कि संतों के वचन परोपकार के लिए होते हैं कहा भी है त्रिभुवण हिद मसद वक्काण अर्थात् तीनों लोकों के हित के लिए संतों के वचन होते हैं।
  25. युग के आदि से धर्म अक्षुण्ण रूप से आया तो है लेकिन नदी के प्रवाह के समान बीच-बीच में अलग-अलग परिस्थितियाँ बनती रहती हैं। युग के आदि में वृषभनाथ ने राज्य करके अपने दोनों पुत्रों के लिए अपनी भूमि दो भागों बाँट दी लेकिन चक्रवर्ती पद पिता से नहीं मिला और मिल भी नहीं सकता। वह स्वयं पुरुषार्थ कर पुण्यार्जन से प्राप्त होता है। तीर्थकर का पुत्र चक्रवर्ती तो हो सकता है लेकिन तीर्थकर पद अपने बेटे को नहीं दे सकता। आदिनाथ दीक्षा लेकर मौन बैठ गए। उसी बीच दो बालक जाकर आदिनाथ स्वामी के सामने बैठ गए और इंतजार करने लगे कि दादाजी अब उटेंगे, अब उटेंगे, परन्तु नहीं उठे तब देवों ने अपना रूप परिवर्तित करते हुए सामने आकर कहा भगवान् ध्यान में लीन हैं। वे बोलेंगे नहीं, बैठने से पूर्व कह दिया कि तुम्हें विजयार्ध की श्रेणी में जमीन दी गई उन बालकों ने सहज सरल भाव से कहा हम तो दादाजी से ही लेंगे। ऐसी सरलता थी पूर्व में। आदिकाल में (दोनों बालक आदिनाथ के साले के पुत्र थे एक का नाम नमि दूसरे का नाम विनमि था इन्हीं से विद्याधरों का उद्भव हुआ) युग के आदि में कैसा वातावरण था और आज कैसा है उसका चित्रण मूलाचार में भी किया गया है। युग के आदि में जैसा भोलापन और सीधापन था वैसा आज देखने को नहीं मिलता। आदिम तीर्थकर और अंतिम तीर्थकर के बारे में बहुत सी विशेषताएँ रहीं हैं। प्रथम तीर्थकर के काल में मंद बुद्धि वाले थे, परन्तु सरल स्वभावी थे महावीर के काल वाले कुटिल हैं इनकी बुद्धि सीधी नहीं, बल्कि उल्टी चलती है इनकी भूतों की चाल है आज तो ये जानते नहीं मानते नहीं और ऊपर से तानते भी हैं। जब भगवान् महावीर स्वामी थे तब वे उन कुटिल बुद्धि वालों को संभाले हुए थे, लेकिन आज संभालने वाला नहीं है। आज कितना भी धार्मिक वातावरण बना लिया जाता है, फिर भी धर्म के संस्कार नहीं पड़ रहे हैं। हिंगड़े के डिब्बे में से हिंगड़ा निकाल कर साफ कर दो और उसमें कस्तूरी रख दो, तो वह हिंगड़ा भी अपना प्रभाव डालता है। उसी प्रकार आज बच्चों को कितने अच्छे संस्कार दो, तो भी वह कुसंस्कार रूपी हिंगड़ा छूटत नहीं है। इस युग में जितने भी विकास हो रहे हैं वे सब दुर्बुद्धी के कारण बना रहे हैं। आज जैसे जैसे भवनों में विराटता आ रही है, मंजिलें बढ़ती जा रहीं हैं वैसे वैसे पाप की विराटता बढ़ती जा रही है। आज एक नंबर का पैसा नहीं रहा, दो नम्बर का पैसा है। इसी प्रकार आज संस्कारों में वृद्धि की जा रही है, रक्षक भी आज भक्षक बनता जा रहा है, ऐसी स्थिति में हम भाग्य को या काल को दोष देकर पुरुषार्थ करना भूलते जा रहे हैं। इसीलिए संत कहते हैं ऐसा काम चलने वाला नहीं है और काल वान को देखकर पुरुषार्थ करके उन दुर्बुद्धि वालों में सुबुद्धी डालना होगा तभी ये मार्ग सुरक्षित रह सकता है। पहले स्वेच्छा से दिया हुआ ही लिया जाता था किन्तु आज देने वाले की इच्छा न होते हुए भी जबरदस्ती (बाह्य करके) लिया जाता है ऐसा इसलिए हो गया है कि अर्थ प्रधान हो गया है और परमार्थ गौण हो गया है। हमें सीख के लिए उस ओर दृष्टिपात करना होगा जिस ओर का संकेत गुरुओं का मिला है। गुरुओं की वाणी मार्ग में उत्पन्न होने वाले बाधक तत्वों को दूर करती है। कितने भी बाधक तत्व साधना में सामने हो यदि गुरु की वाणी हमारे सामने हो, तो बाधक कारण अपने आप अलग हो जायेंगे और गाड़ी आगे बढ़ती जायेगी। पथ पर चलने से बाधक कारण आते हैं, लेकिन उनको दूर करने के लिए कुंदकुंदाचार्य महाराज ने चार उपकरण बतायें है। मार्ग पर आरूढ़ साधक (श्रमण) इसे पाथेय (नाश्ता) समझ कर चलें जिन लिंग-साधक यथाजात बालकवत् जो निर्दोष जिन लिंग का भेष है उसे धारण किए रहें। श्रावक भी यथा शक्ति मोक्ष मार्ग पर चलता है उसे भी श्रावक धर्म निर्दोष रूप से पालन करना चाहिए। विनय-विनय नय के साथ चलता है। नय का अर्थ भगवान् जहाँ तक पहुँचे वहाँ तक पहुँचा दे। यदि हमारे पास विनय है तो हम निश्चित रूप से भगवान् के पास पहुँच सकते हैं। गुरु वयण (गुरु के वचन)-जैसे माँ अपने शिशु से जो कहती है शिशु वह मानता है वैसे ही शिष्य को गुरु की बात मानना चाहिए। गुरु और माँ ऐसे वचन देते हैं जो हमेशा कानों में गूंजते रहते है। कर्ण की माँ ने कहा बेटा गंगा के पास नहीं जाना। बेटे ने भी कह दिया अच्छा माँ ठीक है, किन्तु जब गंगा पार करने की बात आयी तब कर्ण विजयी होकर घर आया और उसके कानों में माँ के शब्द गूंजते रहे। गुरु के वचन मोक्ष मार्ग पर याद रखना सबसे बड़ी विनय है। गुरु के बाद श्रुत की विनय आती है। श्रुताभ्यास-आज सूत्र का अभ्यास है, किन्तु शेष तीनों बातें समाप्त होती चली जा रहीं हैं युग के आदि में ऐसा नहीं था। जैसा आगम में कहा गया और गुरु द्वारा संकेत किया गया वैसा करना पड़ता है तब अनुभव प्राप्त होता है। अनुभव परम आवश्यक है, परन्तु अनुभवपने आप नहीं आते वह तो चलते समय ही आते हैं। होने में और रहने में बहुत अंतर है। हैं से होने वाली यात्रा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। होने में परिश्रम लगता है। होने में और रहने में वैसा अंतर है जैसे पानी जमीन में है इस प्रकार पानी के होने में और खोद कर फिर उसे कुएँ में बनायें रखने में। जमीन में पानी है पर उसे कुएँ में बनाये रखना बहुत कठिन है। हम में शक्ति है, युक्ति नहीं। हम हैं, हुए नहीं। ये तभी संभव है जब चार चीजें जीवन में हों। आज का बच्चा एक कार्य के कहने पर दस कार्य करता है, परन्तु न करने योग्य ही कार्य करता है और अपनी माँ को एक पंथ दो काज वाली बात सुनाता है। आज हम लोग दोषों के पुंज हैं, हर कार्य में दोष ही दोष लगते हैं इसलिए दिन में तीन बार प्रतिक्रमण करने की आज्ञा है। आगे तो और भी अंधकार आने वाला है। जबकि २२वें तीर्थकर तक की परंपरा वालों को कोई दोष ही नहीं लगते थे। आज जो धुंधलापन आया है और आगे जो अंधकार आने वाला है उसमें कारण यह है कि आज का युग अर्थ की ओर मुड़ गया है। परमार्थ गौण हो गया है धुंधलेपन में तो फिर भी दिख सकता है। किन्तु जब आँखों में धूल चली जाये तो दिखना बंद हो जाता है। आज धूल घुस गयी है और कर्तव्य अकर्तव्य कुछ दिख नहीं रहा है। यदि आँखों की धूल अलग करना चाहते हो तो आचार्य कुंदकुन्द स्वामी की चार बातों को जीवन में उतारना चाहिए। इस क्षणभंगुर जीवन का सदुपयोग करो। अहिंसा की ओर कदम बढ़ाओ और विषय भोगों से पीठ फेर लेने में ही जीवन की सार्थकता है। सीधे सीधे सिझ गये, बने सिद्ध भगवंत। टेड़े सब संसार में, खड़े अनंतानंत। गुरुओं के आदेश में, ना तो तर्क वितर्क। कर सहर्ष स्वीकार वह, पालन करो सतर्क। (विद्या वैभवशतक से)
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