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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 6 - वेश नहीं ध्येय बदलो

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    वेश और परिवेश बदलने मात्र से मोह-मूच्छ, ममत्व या आसक्ति का अभाव नहीं होता। परस्पर विचारों के परिवर्तन से भी परिवर्तन नहीं आता इनमें परिवर्तन तो लक्ष्य को बदलने पर ही संभव है। इसके बिना तन, मन, धन या बर्तन भी बदलने से कुछ नहीं होगा। जीवन का मूल्य नहीं समझने के परिणाम स्वरूप ही मूच्छी होती है। अर्थ को पीठ पीछे छोड़ने पर ही परमार्थ होता है। किन्तु आज सिर के ऊपर परमार्थ नहीं अर्थ सवार है और सभी उसके नौकर-गुलाम हैं। जीवन के अमूल्य क्षण यूँ ही बीतते चले जा रहे हैं फिर भी हम अर्थ का संग्रह किए जा रहे हैं।


    जीवन कितना व्यतीत हो गया उस ओर दृष्टि नहीं होने से पहले रुपयों को जमीन में गाढ़ा जाता था। आज तो नोटों का जमाना है अत: उन्हें गड़ाते नहीं बल्कि विदेशों में गुप्त रखने का लक्ष्य हो गया है। विदेशों में धन रखने के चक्कर में भारतीय लोग बहुत अग्रणी (अगुआ) हैं। वह धन कहाँ, कितना, किसके द्वारा रखा है मात्र उसे यह ज्ञात है, अन्य किसी को नहीं। ऐसे धन का लाभ उस व्यक्ति के परिवार-समाज-राज्य या राष्ट्र को भी नहीं मिलता क्योंकि वह काला धन है और उसके अर्जन करने वाले का मुख भी काला होता है।


    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

    तोलो दया न छाड़िये, जबलों घट में प्राण।

    धर्म का अर्थ वस्तु नहीं अपितु भाव है। अच्छे भाव ही धर्म है तथा बुरे भाव ही अधर्म हैं, अत: भावों के ऊपर ही धर्म का प्रासाद टिका होता है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए धर्म है। आँखों में आँसू लाना मात्र धर्म नहीं बल्कि जीवन में कुछ न कुछ सुखद घटित होना चाहिये, उसके बिना यह अभिनय मात्र होगा। मूच्छ का अभाव उसी के जीवन में होता है जिसने दया को जीवन में उच्च स्थान दिया है। फिर वह भटकता नहीं बल्कि भटकों को लक्ष्य पर लाने में सहायता प्रदान करता है। संतों ने दया को छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं कहा, आदिप्रभु ने भी मुक्त कंठ से दया धर्म की घोषणा की है। सभी धर्म ने दया को स्थान दिया है


    मनुष्य के द्वारा करने योग्य कार्य नहीं करने के कारण नर ही नारकी बनता है तथा कर्तव्य पालन करके-'नर से नारायण' बनता है। नारकी बनने का कार्य अतीत में अनंत काल से होता आया है अत: नारकी बनने का कार्य न करें। करने योग्य कार्य एवं कर्तव्य पालन के लिए अनेक प्रकार से उचित साधनों को जुटाया जा सकता है। अपराध या गलत कार्य नहीं करना ही हमारी परीक्षा है और सवार्थ यानी स्वयं को परमार्थ की प्राप्ति कहा है। अपने जीवन की रक्षा के लिये अन्य जीवों को समाप्त न करें।' दीवान अमरचन्द ने सिंह को जलेबी और दूध पिला कर अहिंसा धर्म की रक्षा की। राणा प्रताप जैसे शासकों ने घास की रोटी खाकर अहिंसा धर्म जीवन में चरितार्थ किया था। जीव-रक्षा के माध्यम से ही अहिंसा धर्म का पालन हो सकता है। एक जीवन को समाप्त करके नया जीवन पाना भी हिंसा है। अहिंसा को जीवन में आचरित करने से देव भी उसके चरणों में आकर नत मस्तक होते हैं। मनु का अनुकरण करने से मनुष्य मानव कहलाता है परंतु आज मनुष्य मात्र मनुष्य रह गया और मनु तो बहुत पीछे छूट गया है।


    इंसानियत की रोशनी गुम हो गई कहाँ।

    सामे है आदमी के मगर आदमी कहाँ ||

    हमें अपने पूर्वजों बाप, दादाओं के प्रयासों-प्रयत्नों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमारे कदम भले कितने ही आगे की ओर हों पर संस्कृति का गौरव बहुमान रखना भी हमारा कर्तव्य है। अन्यथा प्राचीन संस्कृति में विरासत मात्र कागजी शोध का विषय रह जायेगी। शोध केवल पार्थिव जीवन/जड़ पदार्थों के संबंध में होता है। राख में दबी अग्नि के समान मनुष्यत्व को उद्घाटित करें अन्यथा बहुत अधिक समय तक राख से ढकी अग्नि के समान वह अग्नि रूप मनुष्यत्व का गौरव समाप्त या नष्ट हो जायेगा। मूच्छ ममत्व के कारण हमारी भीतरी अग्नि प्राय: बुझती जा रही है परंतु पूर्वाचार्यों-संतों ने जो उपदेश दिये हैं। उन्हें धारण कर यदि हमने प्रकाश की एक किरण-एक कणिका मात्र को भी उद्घाटित कर लिया तो संसार बंधन नष्ट करने में हम सक्षम हो सकेंगे।


    आज ही आप कृत संकल्पित हों कि जीवन में ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेंगे जिससे दूसरे का जीवन धर्म से विमुख होकर समाप्त हो अथवा जिनके कारण स्वयं का जीवन ही अनर्थ की गोद में चला जाये। भले ही जीवन में छोटा-सा कार्य करें पर अन्य प्राणियों का जीवन समाप्त न करें इतना ध्यान रखें। आचार्य श्री ने कहा-


    मरहम पट्टी बाँध कर, वृण का कर उपचार।

    यदि ऐसा न बन सके, डण्डा तो मत मार॥

    भगवान् महावीर स्वामी के सिद्धांतों को जीवन में स्थान देने वाला ही धर्मात्मा पुण्यशाली है। इसी कारण से वह ऐसी साधन-सामग्री जुटाता है जो निश्चय से पर कल्याण में सहायक होती है। वही व्यक्ति आराधना के लिए प्रभु के पास जायेगा और शीघ्र ही प्रभु सम बन जायेगा। अपने जीवन की चिंता नहीं कर सामने वाले के ऊपर दया दृष्टि रख, सहायता कर के उनत बनाना ही तो स्वयं की उन्नति है। जिसे आज हम भूल चुके हैं। धर्म पर के द्वारा नहीं होता, किन्तु उसके लिए पर को माध्यम बनाया जा सकता है। धर्म का अनुपालन करते हुए पर का कल्याण हो या नहीं पर स्वयं का कल्याण तो होता ही है। अन्याय या अत्याचार करते हुए लाखों-करोड़ों बँटोरकर उसमें से कुछ दे देना दान की कोटि में नहीं आता बल्कि वह तो आदान है। क्योंकि अत्यधिक लोभ आशक्ति के कारण धन को कमाया गया और मान की प्राप्ति के लिये देना यह तो व्यवसाय ही हुआ, दान या त्याग नहीं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज व्यवसाय आता जा रहा है और धीरे-धीरे बाजार से होता हुआ भगवान् की वेदी तक पहुँचता जा रहा है। यह सब अज्ञानता या धर्म के सही स्वरूप को नहीं समझने का परिणाम है।


    'ओ तृष्णा की पहली रेखा अरी विश्व बन की व्याली' अर्थात् सर्प-नाग के काटने पर उसका प्रतिकार रूप चिकित्सा है किन्तु मोह-मूच्छ रूप नागिन ऐसी है जिसके काटने से भव-भव में मृत्यु होती है। नाव तैरते हुए स्वयं को एवं दूसरे बैठने वाले को भी पार लगाने वाली होती है। यदि उसमें अतिभार हो जाये तो यह तैरने की अपेक्षा डूब जावेगी। जो पानी के ऊपर चलती थी उसमें ऊपर से पानी आकर भर जाता और वह सवार को डुबो देती, वैसे ही मोह मूच्छ के अतिरेक के कारण पाप का भार बढ़ जाता है अन्याय सिर से ऊपर हो जाता है और न्याय डूबता जाता है। ये अन्याय कभी डूबता नजर नहीं आता बल्कि जीवन में अन्याय का भार बढ़ जाने से न्याय रूपी नाव ही डूब जाती है। नाव स्वयं के कारण कभी नहीं डूबती, अन्याय नहीं बल्कि न्याय को भूल जाने के कारण उसमें बैठे सवार की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती और मोह-मूच्छ के कारण वह पाप में लिप्त हो न्याय को भूल जाता है। जीवन को जानने, सोचने और पहचानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है जो मूच्छ के कारण कुण्ठित हो जाती है। अत: ऐसे जीवन से क्या मतलब जिससे स्वयं तथा अन्य का जीवन खतरे में पड जावे।


    पानी बढ़े नाव में घट में बाढ़े दाम।

    दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम॥

    मूच्छ को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने बताया है कि धर्म को प्राप्त करने के लिए, निष्परिग्रह भाव आवश्यक है जो मूच्छा के अभाव रूप होता है। रोग से पीड़ित व्यक्ति जब मूच्छित हो जाता है तो स्व-पर को या कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं पहचान पाता । ऐसी ही कुछ आदतें निर्मित हो जाने पर उससे सहजता से छूट नहीं पाती, उसी में मूच्छ ऐसी है जिसके कारण व्यक्ति मुर्दे के समान हो जाता है। शरीर के साथ आत्मा भी शून्य सी हो जाती है। व्यक्ति धन की लिप्सा के कारण नर बलि चढ़ाने को भी तत्पर हो जाता है। सोना-चाँदी के प्रलोभन के कारण जिस व्यक्ति के मुँह में पानी आ जाता है। उसे ऐसी बली होते हुए देखकर भी आँखों में पानी नहीं आना भी मूच्छ का ही परिणाम है। जिसके कारण ये प्राणी नरक निगोद की यात्रा करता है।


    अहिंसा परमो धर्म की जय !

    Edited by admin


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