युग के आदि में आदिम तीर्थकर वृषभनाथ ने प्रजा के उत्थान हेतु असि-मसि-कृषिवाणिज्य-विद्या एवं शिल्प रूप षट् कर्मों का उपदेश दिया था। उसमें विद्या उल्लेखनीय है, उस विद्या के साथ 'आचरण' और जुड़ जाने से ‘विद्याचरण' हो सकता और सोने में सुगंध आ सकती है। भारतीय संस्कृति में विद्या आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु की जाती थी, पर आज विद्या (शिक्षा) अर्थकारी हो गई है। अर्थकारी विद्या से भारतीय संस्कृति का समुचित विकास, ज्ञान के सही प्रयोग एवं आचरण से ही संभव है।
दीनों के दुर्दिन मिटे, तुम दिनकर को देख।
सोया जीवन जागता, मिटता अघ अविवेक॥
मनुष्य सुख शांति तो चाहता है इस हेतु उपयुक्त वातावरण भी चाहिए। वह मूक पशु-पक्षियों का संरक्षण करें उनका विनाश नहीं। उनके दूध से ही हमारे शरीर में शक्ति और चरणों को गति प्राप्त होती है। भारत में रचित किसी भी सत् साहित्य में पशु वध के माध्यम से जीवन उन्नति या वित्त लाभ की बात नहीं कही गई। आज की अपेक्षा भारत को पूर्व में सोने की चिड़िया कहा जाता था। तब पूर्व में आज से पचास गुनी मुद्रा प्राप्त होती थी। महात्मा गाँधी भी जैन धर्म के सत्य, अहिंसा सिद्धांतों से प्रभावित थे, जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी जीवनगाथा में भी किया है। परन्तु आज पशुओं को बूचड़खाना में निर्मम रीति से मारकर विदेशी मुद्रा के लोभ में विदेशों में मास का निर्यात कर भारत प्रतिपल पाप का आचरण कर रहा है। इस मांस निर्यात पर अविलंब रोक लगना चाहिए। बूचड़खानों की योजनाओं पर प्रतिबंध लगे, ऐसी मेरी तथा समस्त अहिंसक समाज की भावना है। यदि लोकसभा में इस बात को वजनदारी से रखा जाता है तो सुख, शांति एवं कल्याणकारी कार्यों हेतु जैन समाज कटिबद्ध होकर राष्ट्र के विकास हेतु भरपूर मदद करेगी।
वृष का होता अर्थ है, दयामयी शुभ धर्म।
वृष से तुम भरपूर हो, वृष से मिटते कर्म।
गाँधीजी ने कहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अब किसी पार्टी को नहीं बल्कि देश को आगे बढ़ाने हेतु आचरण की आवश्यकता है, जो स्वयं के साथ जनता को भी आचरण के सांचे में ढाल सके। विगत ४-५ दशक व्यतीत हो जाने पर भी आज तक गाँधी जी के विचार साकार नहीं हो सके। अच्छे विचार तभी उठेगे जब स्वयं का आचरण श्रेष्ठ, पवित्र होगा। उसी के माध्यम से देश क्या समस्त विश्व का कल्याण होना संभव है। सूट, पेंट या पायजामा धारी नहीं बल्कि कमर कसने वाला व्यक्ति ही इस कार्य को मजबूती से कर सकता है। मंत्रीजी (पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल जी) भी धोती ही कसकर यहाँ पधारे हैं। ये यदि अपनी कमर को कसें तो यह कार्य शीघ्र हो सकता इस हेतु मेरा मंगल आशीष है। धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में है जो कि 'स्व” से पलायन नहीं, ‘स्व' के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है। ये प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है।
"साधना अभिशाप को वरदान बना देती है”। अतएव वासना के स्थान पर जीवन में उपासना आनी चाहिए। गाँधी जी की भावना के अनुरूप अहिंसा एवं सत्य के माध्यम से इस लोकतंत्र में मानव-जाति और पशु हित की बात हो सकती है। पुराण पुरुषों की उपस्थिति में प्रजा सुख-शांति का अनुभव करती। जीवन में आरोहण अवरोहण तो चलते रहते हैं। आज भगवान् वृषभनाथ महावीर भले नहीं है। पर उनका जीवन दर्शन उनके द्वारा प्रदर्शित पथ आज भी हमारे सम्मुख है। उसका सही सही अनुपालन होने से ही देश और विश्व सुख शांतिमय जीवन जी सकता है।
'ही' से ' भी' की और ही, बढ़े सभी हम लोग।
छह के आगे तीन हो, विश्व शान्ति का योग।
"अहिंसा परमो धर्म की जय !"
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