संतों के समागम तथा धमोंपदेश से हिंसामय जीवन अहिंसक बन जाता है। संतों के प्रभाव से मानव क्या पशु भी अपने जीवन निर्वाह के लिये पेट को कब्रिस्तान नहीं बनाते। वीतराग मुद्रा को देखकर सर्प तथा नेवला जैसे जन्म जात बैरी प्राणी भी परस्पर बैर को छोड़ देते हैं। उनके मन में मरनेमारने के भाव नहीं आते, बल्कि परस्पर रक्षा के भाव जागृत होते हैं। उनमें दूसरों को कष्ट देने के लिये नहीं अपितु कष्टों को हरने के भाव होते हैं। यह निर्विकार मुद्रा का ही अचिंत्य प्रभाव है।
माँ के द्वारा प्रदत्त संस्कार बच्चों के जीवन में अंतिम क्षण तक विद्यमान रहते हैं। क्योंकि माँ के दूध में करुणा का अमृत समाहित होता है परन्तु २० वीं शताब्दी में बच्चों को माता का नहीं अपितु डिब्बे का दूध मिलता है तो उनमें अहिंसा, दया और करुणा के संस्कार कैसे उत्पन्न होंगे?
आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी सदैव दया धर्म का पालन करने में तत्पर रहते हैं। वे जीवन में आदि से अंत तक किसी भी छोटे-बड़े जीवों को पीड़ा नहीं पहुँचाते इस हेतु अहर्निश सावधानी रखते हैं। इसीलिए आदान निक्षेपण समिति के लिये दया की प्रतीक चिह्न मयूर पिच्छिका रखते हैं। यह पिच्छिका दयाधर्म का पालन करने के लिये गमानागमन प्रवृत्ति के समय हाथ-पैर आदि को प्रक्षालित कर जमीन को संशोधित करने एवं प्राणियों की रक्षा के लिये कर में धारण की जाती है।
अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल माल बन जाय।
दया मूर्ति के दरस से, क्या का क्या बन जाय।
मयूर पिच्छिका संयम का सर्वोत्कृष्ट उपकरण है। दया धर्म की मूर्ति साधुजनों के हाथ में यह उपकार करने वाला उपकरण अहिंसा धर्म को मूर्तरूप देने एवं अहिंसा धर्म का पालन करने के लिये धारण करते हैं। उनकी कायिक, वाचनिक या मानसिक क्रिया से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचे, इसीलिए वे सदा सावधानी पूर्वक क्रियायें करते हैं। यह मयूर पंख मोर को भार हो जाने के कारण वह इच्छानुसार उड़ या भाग नहीं पाता तो कार्तिक या अगहन मास में अथवा वर्ष में एक-दो बार वह स्वयं ही छोड़ देता है। तभी इनका प्रयोग पिच्छिका हेतु किया जाता है। इन मयूर पंखों को उसके शरीर से बलात् कभी भी नहीं तोड़ा जाता।
इस मयूर पिच्छिका के पंख की यह विशेषता है कि उसका अग्रभाग यदि आँखों में चला जावे तो भी पीड़ा नहीं पहुँचती। पसीना तथा जल का संपर्क हो जाने पर भी यह आद्र नहीं होती और न ही उस पर धूल का प्रभाव पड़ता है। कोमल, मृदु निलेंपता एवं हल्कापन इसके विशेष गुण हैं। इसीलिए दिगम्बर जैन साधु इसके माध्यम से बैठने के स्थान पर इससे प्रक्षालन करते हैं। जब यह इतनी मृदु है तब इसके धारक साधुओं के भाव कितने कोमल होंगे यह स्वयं पहचाना जा सकता है। आचार्य श्री ने कहा कि- समयसार जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है उसमें पर की बात नहीं स्व की बात है। और उसे पाने हेतु भूत और भविष्यत् इन दोनों को भुलाकर वर्तमान का संवेदन करना ही अध्यात्म का सार है।
मूक तथा उपसर्ग अन्तकृत, अनेक विध केवल ज्ञानी,
हुए विगत में यति मुनिगणधर, कु-सुमत ज्ञानी विज्ञानी।
गिरि वन तरुओं गुफा कंदरों, सरिता सागर तीरों में,
तप साधन कर मोक्ष पधारे, अनल शिखा मरु टीलों में।
(नंदीश्वर भक्ति हिन्दी-३४)
जिन्होंने पंच नमस्कार मंत्र के जाप करने का संकल्प किया है, वे निश्चय ही साधना के क्षेत्र में बढ़कर भावों को उत्साहित कर कर्म निर्जरा करने में तत्पर रहते हैं। अत: सभी उत्साह के साथ अहिंसा त्याग एवं तपस्या के क्षेत्र में आगे कदम बढ़ावें तथा दया धर्म का पालन करते हुए पंच परमेठियों की आराधना में लीन हों। आचार्य श्री ने भाव के प्रभाव की और दृष्टिपात करते हुए कहा कि -
नदी के किनारे हिंसक जानवर रूप सिंहनी तथा निकट ही शाकाहारी पशु गाय के साथ-साथ जलपान करते देखा गया है। वही गाय के बछड़े के द्वारा सिंहनी के तथा सिंहनी के शावक को गाय के स्तनपान की घटना को व्याख्यायित किया है। वैसे यह विस्मयकारी घटना होकर भी मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। गाय भयभीत नहीं थी अपितु दोनों सगी बहिनें सी ही लग रही थीं। ये आनंद विभोर का क्षण ऐसा था जो आज तक प्राप्त नहीं हुआ था। किंतु इसका कारण था मयूर पिच्छिका के धारक वीतरागी निष्पृही दया की साक्षात् प्रतिमूर्ति नग्न दिगम्बर साधुका सात्विक सान्निध्य था, जहाँ अन्याय एवं पापवृत्ति से दूर रहकर जिन्होंने जीवन को अहिंसामय बनाकर पतित पापमय जीवन जीने वालों को शरण प्रदान की है। ऐसे पंच परमेष्ठियों का नाम उच्चारण स्मरण एवं आराधना करने से ही पापों की निर्जरा होती है। अत: हम उन साधु संतों का मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन को सार्थक करें।
"अहिंसा परमो धर्म की जय !"
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