मोहरूपी शत्रु से सारी दुनिया पीड़ित एवं हताहत हुई है। किन्तु आत्म तत्व को प्राप्त करने के लिए सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण करने पर मोहरूपी शत्रु को ही हताहत या नष्ट किया जाता है। पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने समाधिमरण करके विद्वत् जगत के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया है।
इस शरीर के कारण आस्था और निष्ठा में कमी आकर साधना कमजोर पड़ जाती है। पर आस्था एवं निष्ठा को दृढ़ बनाकर ज्ञान, आराधना को शास्त्रीजी ने जीवन में चरितार्थ किया। पंडित जी अनेक वर्षों से सल्लेखना हेतु आचार्य श्री से दिशा निर्देश प्राप्त कर, अपने आपको तैयार कर रहे थे। उन्होंने ९५ वर्ष की वृद्धावस्था में भी ७ प्रतिमाओं का पालन एवं पंच परमेष्ठी की आराधना करते हुए इस नश्वर शरीर को त्यागा। विद्वान तो क्या व्रती-संयमी जीवों में भी ऐसा बहुत कम हो पाता है। विद्वता तथा संयम दोनों पृथक्-पृथक् हैं। सल्लेखना धारण करते हुए प्राणों को छोड़ना ही महत्वपूर्ण है। आचार्यश्री ने कहा है- सल्लेखना जीवन से इंकार नहीं है और न ही मृत्यु से इंकार है। अपितु उसमें महाजीवन की आशा है, वह आत्महत्या नहीं है क्योंकि आत्महत्या में कषाय की तीव्रता एवं जीवन से निराशा रहती है।
लंबी उम्र पाकर वह घर को भले ही नहीं छोड़ सके किन्तु उनकी अनवरत यह भावना तो रहती ही थी। उन्होंने जो साधना की उसमें पूर्ण सफलता सीमा से बाहर प्राप्त की। आज कदाचित् साधु बनना तो आसान है पर गृहस्थ अवस्था में रहकर व्रतों को सुरक्षित रखना बहुत मुश्किल (कठिन) काम होता है। उन्होंने अपने विशाल परिवार के बीच में रहकर भी दृष्टि अपने ध्रुव-लक्ष्य की ओर रखी तभी यह संभव हो सका। पंडित जी के समान सभी व्रती बनकर संयम को धारण कर ऐसा ही अंतिम क्षण प्राप्त करे? जिससे साहस के साथ आत्मा को इस शरीर से पृथक् किया जा सके। जिस आत्म तत्व का उपदेश युग के आदि में तीर्थकर आदिनाथ भगवान् ने दिया था आचार्य श्री ने कहा है -
आदिम तीर्थकर प्रभु, आदिनाथ मुनिनाथ।
आधिव्याधि अघमदमिटे, तुम पद में मम माथ॥
इस अवसर पर नीरज जी ने कहा कि बड़े पंडित जी ने बड़े बाबा के चरणों में आचार्य प्रवर श्री विद्यासागरजी महाराज के सान्निध्य को प्राप्त किया जो बड़े भाग्य की बात है। या कहें कि ये मणि कांचन योग है। मैंने आचार्य पूज्य श्री विद्यासागरजी महाराज को देखा एवं इनके प्रवचन, चर्या देखी इसका श्रेय पंडित जी को ही है जो कि उनके प्रवचन, चर्या आदि देखी। सन् १९७५ में कटनी में जब आचार्य श्री अत्यधिक अस्वस्थ हो गए थे तब २९ वर्ष की उम्र में ही आपने पंडितजी से समाधिमरण कराने का भाव व्यक्त किया था तभी पंडितजी ने कहा था कि 'महाराज आप पर अभी धर्म समाज एवं राष्ट्र को बहुत आशा है।”
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने आपको आचार्य पद प्रदान करने के बाद आपके ही चरणों में समाधिमरण का संकल्प लेकर मानो लोक को यह उसी समय बता दिया था कि आप समाधि सम्राट् है। एवं भविष्य में भी, अनेक भक्तजन आपके चरणों में समाधि मरण कर सकेंगे। पंडित जगन्मोहन लाल जी ने जीवन को समाप्त कर मृत्यु का वरण किया। मृत्यु के भय को निकाल कर उन्होंने समयसार को केवल पत्रों में पढ़ा ही नहीं बल्कि जीवन में चरितार्थ भी किया है।
सिंघई महेशजी कटनी ने कहा कि हिन्दुस्तान की जैन समाज कटनी को पंडित जगन्मोहन लाल जी के नाम से जानती थी पर आज उनके नहीं रहने से कटनी शोभाविहीन हो गई है।
ब्रह्मचारी त्रिलोक जी ने बताया समर्पण सच्चा हो तो संतों के चरणों में बैठकर सल्लेखना पूर्वक मरण को प्राप्त किया जा सकता है। बड़े बाबा का मंत्र तथा आचार्य श्री का सान्निध्य अत्यंत दुर्लभता से प्राप्त होता है। निर्मलचंद एडवोकेट जबलपुर ने कहा ‘‘यह दुखमय नहीं अपितु अति सुखमय प्रसंग है। आदमी तो एक न एक दिन मरता है, पर जो हृदय पर अपनी स्मृति छोड़ जाता उसका मरण ही सार्थक है। पंडितजी की वाणी एवं मुस्कुराहट में कुछ ऐसी विशेषता थी जिसके कारण यह जगत् को सहज ही अपने नाम के अनुरूप मोहित कर लेते थे।”
डॉ. शिखरचंद जैन हटा ने कहा कि ‘यह विशाल श्रद्धा श्रुति सभा पं. जी की जीवन पर्यन्त जिनवाणी सेवा को ही बतला रही है। वे पहले विद्वान हैं। जिन्होंने माँ जिनवाणी की सेवा करते हुए समाधि मरण को प्राप्त किया।” कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष सिंघई संतोषकुमार ने कहा कि ‘पंडित जी जैन समाज के ख्याति प्राप्त विद्वान थे। आपने अनेक वर्षों तक माँ जिनवाणी की सेवा के साथ ही इस क्षेत्र की भी सेवा की। मानव जीवन की सफलता स्वरूप मानो आपने यह समाधि रूपी स्वर्ण कलश चढ़ाया है तथा श्री गुरुवर के चरणों में सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण करके विद्वत् जगत में एक अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया है।”
प्रकाशचंद जैन एडवोकेट दमोह ने सरस्वती पुत्र पंडित जगन्मोहन लालजी शास्त्री के जीवन का विस्तृत परिचय देते हुए स्मरण पत्र का वाचन किया। अंत में उपस्थित समस्त जन समुदाय ने ९ बार एणमोकार मंत्र का स्मरण किया। पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से निर्देश प्राप्त कर विगत २३ जून ९५ को सल्लेखना ग्रहण करने की भावना से ही सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी पधारे थे। १०७ दिनों की अनवरत साधना एवं आचार्य श्री के संकेत के अनुरूप ही आहार पद्धति को परिवर्तित करते हुए क्रमश: अन्न आहार का त्याग किया। विगत ७ दिनों में तो जल एवं लौकी का क्रमश: त्याग कर पूर्ण समर्पण एवं समता पूर्वक अपने जीवन का उपसंहार किया जो जैन विद्वत् समाज के लिए अनुपम आदर्श है।
आपने आसोज सुदी चतुर्दशी शनिवार को आचार्यश्री के मुख से शाम ७.०५ पर मुनिसंघ की उपस्थिति में णमोकार मंत्र श्रवण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया। दूसरे दिन प्रात: ७ बजे विशाल जन समूह ने अंतिम शोभायात्रा में भाग लेकर कुण्डलपुर क्षेत्र पर्वतमाला की तलहटी में नश्वर शरीर को अग्नि प्रदान की। आचार्य श्री ने लिखा है- गुरुभक्ति करते-करते जिसका हृदय शुद्ध हो गया है। आस्था मजबूत हो गई है उसे ही गुरु अध्यात्म का रहस्य उद्घाटित करते हैं।
"महावीर स्वामी की जय!"
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