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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अनुच्छेद - ५१ ए भारतीय नागरिकों के मूल कर्तव्य छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिनसे अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखें। झ) सार्वजनिक सम्पति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें। अनुच्छेद - ४८ कृषि और पशुपालन का संगठन राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्राणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्ट तथा गायों और बछडो तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और | सुधार के परिक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठायेगा।
  2. अमरीका के कॅलिफोर्निया नगर में एक गोशाला बनाई गई है, जिसमें ८० हजार बूढ़ी और अपंग गायें हैं। इसमें ८०० टन गोबर और इतना ही गोमूत्र प्रतिदिन प्राप्त होता है। इस गोबर और गोमूत्र से चलने वाले बिजली घरों में जो बिजली उत्पन्न होती है उसे बीस हजार परिवार काम में लेते हैं। १८० टन गोबर की राख भी प्रतिदिन प्राप्त होती है जो उर्वरक के नाते काम आती है। हिसाब लगाने पर सामने आया कि इस गोशाला के निर्माण में खर्च प्रत्येक एक डालर के एवंज मे गोशाला को पाँच डालर हर साल प्राप्त हो रहे हैं। पेट्रोल तथा डीजल की जो बचत हो रही है वह इसके अतिरित है।
  3. प्रसंग : सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक, जिला शहडोल, म.प्र का है | 2 जुलाई, 2000 (सोमवार) दोपहर में सर्वार्थसिद्धि की क्लास लगाने के बाद आचार्यश्री ने पैर को फैलाते हुए हाथ लगाया। हम लोगों ने पूछा- 'क्या कुछ हो गया? आचार्यश्री ने सहजता से कहा- 'इस पिंडली में न जाने सुबह से कुछ दर्द-सा बना हुआ है।' देखा, बाहर तो कुछ नहीं अंदर कुछ गड़बड़ी हो गई होगी। बैठे-बैठे कोई नस आदि में दर्द हो गया होगा। शाम को सिकाई की गई और इसके बाद आयोडेक्स को लगाया, फिर रात्रि में पुनः आयोडेक्स लगाया। 3 जुलाई, 2000 (मंगलवार) प्रात:काल पूछा गया- 'पैर का दर्द कैसा है?' आचार्यश्री बोले 'कुछ समझ में नहीं आता ऐसा कैसा दर्द है? सिकाई आदि करने के बाद भी ठीक नहीं हुआ। कल से आज अधिक-सा लग रहा है।' सभी के लिए चर्चा का विषय बन गया। किसी ने कहा- 'इस पर आयोडेक्स नहीं, सीलोसबाम (लालबाम) हो तो लगाओ।" दिन में तीन बार सुबह-दोपहर-शाम को लगाया लेकिन दर्द कम नहीं हुआ। मुनिश्री मल्लिसागर जी (गृहस्थ जीवन के पिताश्री मल्लप्पाजी) कहते थे- बाम लगाकर गरम पानी डालो। लेकिन ऐसा नहीं किया। बाम बहुत तेज होती है। 4 जुलाई, 2000 (बुधवार) प्रात:काल पैर का दर्द कम नहीं हुआ। वह यथावत था। क्या किया जाए? आचार्यश्री को पेन्ड्रा रोड जाना था। 6 तारीख के कार्यक्रम का आशीर्वाद दे दिया था। इधर पैर में दर्द हो गया। कैसे जाएँ? दोपहर में विचार-विमर्श के लिए मुनिश्री योगसागरजी आदि दो-तीन महाराजों को बुलाया। आचार्यश्री ने कहा- 'पेन्ड्रा रोड तो जाना है क्योंकि आशीर्वाद उन लोगों को दे दिया तो जाना जरूरी है। चलो जो होगा, देखेंगे। चलते हैं। 'संघ में कह दिया- ' जिनको चलना है तो ठीक है, जिनको नहीं जाना है वो रुक सकते हैं क्योंकि वापस आना है।' यानि आज ही निश्चय हो गया था कि सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में चातुर्मास होना है। ऐसा कहा तो स्वास्थ्य एवं अन्तराय के कारण। मुनिश्री विनीतसागरजी, प्रबोधसागरजी एवं अप्रहसागरजी रुक गए। क्योंकि 9 तारीख तक वापस आ जाएँगे ऐसा निश्चय था। कच्चे रास्ते से गए। वर्षा के कारण से गड़बड़ तो था लेकिन आचार्यश्री अमरकंटक से निकले तो बिना रुके चलते गए। पैर में दर्द तो पहले से था। सीधे पकरिया ग्राम के पशु चिकित्सा एवं प्रजनन केन्द्र के अधिकारियों के खाली भवन पड़े थे, उसमें रुके। यानी 19 कि.मी. पूरा चले, रुके नहीं, न कहीं बैठे। निवेदन भी किया तो बोले- भैया बैठ गया तो चल नहीं पाऊँगा। दर्द तो बहुत था। उसे सहन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गए। बैठने के बाद दर्द ने अपना जोर दिखाया। रात्रि में उस दर्द के कारण बुखार आ गया। आचार्यश्री जी ने सुबह बताया कि रात्रि में बहुत बुखार था। लगता था जैसे 104 डिग्री बुखार हो। आचार्यश्री को पूर्व में भी बुखार 106-107 डिग्री तक आया। उनकी बेचैनी से लग रहा था रात्रि में इसके कारण नींद भी नहीं आई। आँखें फूली हुई थीं। लेकिन सुबह फिर चलना था। 5 जुलाई, 2000 (गुरुवार) प्रात:काल चले 11 किमी. चलना था। तब पेन्ड्रा रोड (गोरेला) पहुँचेंगे। आचार्यश्री का दर्द देखकर लग रहा था कैसे चलेंगे? क्योंकि ठंडी हवा में हम सब लोगों को कपकपी लग रही थी लेकिन आचार्यश्री पसीना-पसीना हो रहे थे। एक महाराज ने कहा- 'आपको पसीना आ रहा है और हम लोगों को इस हवा से ठंड लग रहा है।' आचार्यश्री ने कहा- 'मैं एक-एक कदम कैसे रख रहा हूँ। मैं ही जानता हूँ। बहुत परेशान कर रहा है यह पैर। ऐसा लग रहा है जैसे पैर में आग लगी हो। पैर के ऊपर बड़े-बड़े दाने आ गए थे। लाल-लाल। हम लोगों ने समझा लगता है रात्रि में मकड़ी या लाईट के कीड़े महाराज के पैर में रगड़ गए हैं और उनका विषैला तरल चमड़ी में फैल गया है, इस कारण ऐसा हो गया। पेन्ड्रा रोड पहुँचने के पूर्व शौच क्रिया के लिए एक स्थान पर बैठे थोड़ा उठकर जाने लगे खेत की ओर तभी एक श्रावक पेन्ड्रा के बोले- महाराज यहाँ पर ठीक नहीं। आगे बेकसाइड खदान का ढेर है, वहाँ चलेंगे। आचार्यश्री बोले- चलो भैया आगे चलेंगे। आगे बढ़ गए। आज देखा जब असाता की उदीरणा हो तब उसकी उदीरणा को तीव्र बनाने के लिए और निमित्त साधन सहज में मिल जाते हैं। हुआ यह कि जिन श्रावक ने कहा था आगे स्थान है, उनको स्वयं ज्ञात नहीं था उसे भी किसी ने कहा था। जब गए तो करीब एक-डेढ़ किमी. अंदर चले गए। स्थान नहीं मिला। सारी जनता इधर आचार्यश्री की अगवानी के लिए खड़ी। आगे स्टेशन के पास स्थान मिला। इसके बाद इतना रास्ता आचार्यश्री को वापस आना, जुलूस बनाकर प्रवेश करना संभव नहीं था। समाचार भेज दिया, संघ के जो मुनिगण वहाँ रास्ते में रुके हैं। वे जुलूस के साथ आ जाएँ हम तो यहीं से सीधे निकटस्थ मार्ग से मंदिर पहुँचते हैं। स्टेशन के पास ही मंदिर है। रेलवे लाइन को पार करके आचार्यश्री एवं हम दो मुनिगण सीधे मंदिरजी पहुँच गए। भगवान के दर्शन करके आचार्यश्री कमरे में जाकर बैठे। थोड़ा बैठने के बाद हमने उनसे लेटने को कहा। आचार्यश्री जी लेट गए। लेटते हुए कहते हैं- 'भैया! आ तो गए, अब वापस भी जाना है। यह पैर कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मकड़ी मिड़ जाने से ये चते आए होंगे। तो हम लोगों ने रुई को तेल में डालकर उस स्थान पर लगाया फिर जलाया। कहते हैं, ऐसा करने से ठीक हो जाता है। लेकिन दो-तीन बार करने पर भी कोई असर कम नहीं हुआ। दोपहर में गौरेला के सरकारी अधिकारी, तहसीलदार आदि और अजैन लोग भी दर्शन करने आए। रात में पैर की तकलीफ बहुत रही। क्या करें कुछ समझ में नहीं आता। नींद नहीं आई। दर्द के तीखेपन के कारण ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे थे सो आज प्रात:काल आहार भी ठीक से नहीं ले पाए। 6 जुलाई, 2000 (शुक्रवार) आज आचार्यश्री का मुनि दीक्षा दिवस था। यह 33वाँ मुनि दीक्षा दिवस का कार्यक्रम था और इसी दिन करीब एक हजार से अधिक गायों से भरी ट्रेन अजमेर (राज.) से (आचार्यश्री की मुनि दीक्षा स्थली से) मुनि दीक्षा दिवस के दिन पहुँच रही थी। प्रात:काल आहारचर्या हुई। दर्द के कारण आचार्यश्री का अच्छे से तो आहार नहीं हुआ। दिन में सामान्य उपचार आदि चलता रहा। क्या किया जाए। वैद्य आदि को बुलाने के लिए कहा। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था आखिर है क्या? कौन सा रोग है? इससे रात्रि में बुखार भी आ गया था। दोपहर में रेलवे स्टेशन परिसर में दीक्षा दिवस का कार्यक्रम हुआ। स्थानीय नेता लोगों ने बधाई, स्वागत आदि के विषय में बोले। गायों की ट्रेन आनी थी। मध्यप्रदेश गौसेवा आयोग के अध्यक्ष श्री महेन्द्रजी बम भी आए और आचार्यश्री का प्रवचन हुआ। शाम को करीब 5.30 बजे गायों वाली मालगाड़ी (ट्रेन) आई। आचार्यश्री और हम सभी ने स्टेशन पर ट्रेन को देखा। उनमें से सभी गायों को उतारा गया। सभी अच्छी गायें थीं। ये राजस्थान के अकाल पीड़ित क्षेत्र से यहाँ संरक्षण को लाई गई थीं। इस सब पूरे कार्यक्रम के समय आचार्यश्री अपने पैर की पीड़ा को सहन करते रहे। स्टेज पर दो घंटे बैठे। इसी दौरान वर्षा हो गई। पंडाल कपड़े का था। आचार्यश्री सहित पूरा संघ एवं उपस्थित जनसमूह वर्षा के पानी में भीगता रहा लेकिन कार्यक्रम चलता रहा। शाम को मंदिर में आए प्रतिक्रमण भक्ति के बाद आचार्यश्रीजी की सेवा की। आचार्यश्री बोले- 'भैया! ये पैर तो आज मुझे बैठने से मना कर रहा है।' हम लोगों ने कहा- 'आप लेटकर सामायिक कर लो। आपको आज तकलीफ है।' आचार्यश्री बोले- 'ऐसा नहीं भैया। सामयिक तो अच्छे से करना है। जब तक बनेगा, बैठकर ही सामायिक करूंगा।' और आचार्यश्री ने 48 मिनट तक जघन्य सामायिक की और लेट गए। हम लोगों की तो धारणा यही थी साइटिका की नस पर दर्द है। शायद वही दर्द उठा है। इसलिए सिकाई आदि रात्रि में कराई गई लेकिन रोग तो कुछ और ही था। रात्रि में मच्छर बहुत थे, तकलीफ रही। फिर भी नींद लग गई थोड़े समय के लिए। 7 जुलाई, 2000 (शनिवार) आचार्यश्री ने आचार्य भक्ति की। इसके बाद बोले- 'पेन्ड्रा चलना है। रास्ते में शौच आदि से निवृत्त होते हुए पहुँच जाएँगे। कहते हैं यहाँ रेलवे स्टेशन गोरेला से पेंड्रा 8 कि.मी. है। पैर में दर्द तो है, धीरे-धीरे चलते हैं।' भगवान के दर्शन करके पेन्ड्रा के लिए विहार किया। 8 किमी. चलकर रास्ते में एक स्थान पर बैठे। 9 बजे के करीब पेन्ड्रा पहुँचकर मंदिर में दर्शन करके स्थानीय समाज जन जैन बस वालों के मकान में संघ को रोका। आहार चर्या हुई। इधर आचार्यश्री के पैर का दर्द धीरे-धीरे अपनी चरम सीमा को छूता जा रहा था। हम सभी कुछ समझ नहीं पा रहे थे आखिर है कौन-सा दर्द? इतनी सिकाई हो रही है, आमी हल्दी, चोट सजी, बच इन तीनों को घिसकर एवं गरम करके पैर में लगाया। हल्दीफिटकरी के पानी से सिंकाई की फिर भी दर्द ठीक क्यों नहीं हो रहा है। दोपहर में स्थानीय वैद्य को बुलाया। उसने जात्यादि तेल बाहर लगाने को कहा। खाने की दवा दी। उससे पूछा- 'ये कौनसा रोग है?" तो निर्णयात्मक कुछ नहीं बताया। बोले- 'मुझे ऐसा लगता है जैसे 'हर्पिस' हो। और तो मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। वैसे उपचार उन्होंने हर्पिस का किया था। शाम को मुनिश्री योगसागरजी, मुनिश्री समयसागरजी, मुनिश्री अभयसागरजी और मैं विचारार्थ बैठे। क्या किया जाए? निर्णय हुआ कि जयपुर से सुशीलजी वैद्य को बुलाया जाए। फिर कहा गया, जब तक वो आएँगे इससे पूर्व बिलासपुर से स्किन विशेषज्ञ एवं सर्जन डॉक्टर को बुलाया जाए। रात्रि में ही श्री प्रमोद जैन ने अपने भाई को फोन किया। कल डॉक्टस को लेकर आना है। रात्रि में दर्द बहुत रहा। नींद भी नहीं आई। फिर बुखार भी आ गया गुरुदेव को। करवट बदलते रहे। मुनि प्रसादसागरजी एवं पुराणसागरजी उसी कमरे में सोए थे। बाकी वहीं हॉल में ही थे। एक कोई महाराज जागते रहते, पैर को सहलाते रहते। कोई आराम नहीं। आग-सी जलन और दर्द दोनों एक साथ हो रहे थे। आचार्यश्री दर्द को सहन करते कभी बैठ जाते, कभी लेट जाते। इस प्रकार रात कट गई। 8.7.2000 (रविवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद समाचार आया कि बिलासपुर से डॉक्टर लोग कल आएँगे। रविवार को बंद रहती है हॉस्पिटल। आज नहीं आ सकते। आज आचार्यश्री की औषधी चली और तेल भी लगाया। दर्द में तीव्रता आती जा रही थी। जहाँ रुके थे वहीं पर ब्रह्मचारीगण अभिषेक-पूजन हेतु एक प्रतिमाजी विराजमान किये थे। यहीं से जिन दर्शन करके फिर आचार्यश्री आहार चर्या को उठे। दोपहर में आचार्यश्री को पीड़ा हो रही थी और मेरा भी असाता कर्म इसी समय उदीरणा को प्राप्त हुआ जिसने मुझे वैय्यावृत्ति से वंचित कर दिया। बहुत जोर से सर्दी जुकाम और बुखार आ गया। मैं एक तरफ बैठा था और महाराज लोग पैर को तेल लगाकर उसे सहला रहे थे। लेकिन आचार्यश्री की पीड़ा को देखकर मैं सोच रहा था आखिर कैसा अनुभव हो रहा होगा उन्हें। मैंने सहज रूप से आचार्यश्री से पूछा- 'आचार्यश्री जी! जब आपको दर्द होता है तो आप कैसे सहन करते हैं?' आचार्यश्री ने इतनी पीड़ा में अपने अधरों पर मुस्कान को बिखेरते हुए कहा- 'भैया! अपना ही तो कर्म है। उसकी उदीरणा चल रही है। सहन करने की चेष्ण तो करता हूँ। अति हो जाती है तो आकुलता होती है लेकिन समता रखता हूँ। सहन कर रहा हूँ। इसमें भी हम असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करते हैं। वैय्यावृत्ति करते-करते मुनिश्री प्रवचनसागरजी ने एक कहावत सुनाई। वह कहावत थी | जब आता कर्मो का फेर, मकड जाल में फंसता शेर | आचार्यश्री ने यह बात सुनी और बहुत जोर से हँसे। बहुत अच्छा, एकदम सही बात है। एक बार फिर से सुनाओ। मुनिश्री ने कहावत को फिर से दोहराया। आचार्यश्री ने उसे याद कर ली। लेटे लेटे बोले- 'जब आता कर्मो का फेर, मकड़जाल में फँसता शेर।' बहुत अच्छी बात कही है इसमें। ऐसी कहावतों में पूरा जैन दर्शन का सार है। मुनिश्री प्रवचनसागरजी को कहावतें एवं नीति परक दोहे-शायरियाँ बहुत आती हैं। इसी समय एक शायरी भी सुनाई - आये थे फूल तोड़ने भागे थे हयात में | दामन को खुवार जाल में उलझा कर रहे गए || इस शायरी के माध्यम से कहने का आशय यह था, आए तो हम अहिंसा के कार्य के लिए, काम तो हुआ लेकिन हम स्वयं फंसकर रह गए। आचार्यश्री हँस दिये और मन में पूर्व की कहावत पंक्तियाँ याद कर रहे थे। लेटे-लेटे दोहा को बोले और कहते हैं एक सही बात इस दोहे में है। कर्म के सामने अच्छे-अच्छे योद्धा भी पराजित हो जाते हैं। इसी प्रकार चर्चा चलती रही और हम लोग उपचार करते रहे। पैर पर जो दाने लालिमा को लिए थे उस पर केंडील-बी लोशन लगा रहे थे और इसी का टयूब भी लगाया। आज रात्रि में वैद्यजी ने एक लेप बनाया था उसे आचार्यश्री के पैर पर लगाया। लेकिन जब तक वह गीला रहा तब तक ठीक रहा, सूखने के बाद दर्द और बढ़ गया। चमड़ी में खिंचाव सा होने लगा। उसे छुटाने में और तकलीफ हो गई। रात्रि में बहुत वेदना रही जिसको कहना संभव नहीं है। मुनिश्री प्रसादसागरजी साथ में सो रहे थे तो उन्होंने एक बात कही।- आचार्यश्री ने वर्ष भर में जितने करवट नहीं बदले होंगे, जितने आज पूरी रात्रि में बदलते रहे। लेकिन सहनशीलता बहुत थी। यही रोग यदि सामान्य गृहस्थ को हो जाता तो वह चिल्लाता, रोता और दर्द की पीड़ा में कराहता रहता। 9.7.2000 (रविवार) प्रात:काल आचार्यश्री को देखानींद नहीं आने से आँखें फूल गई थीं। बैठने में, लेटने में किसी में शांति नहीं थी। प्रात:काल सिकाई तो नहीं की, तेल मालिश आदि की। 9 बजे के करीब पास में ही शौचादि से निवृत्त होकर आए आचार्यश्री को मैंने अपने नीचे के कमरे में ही लेटने को कहा। क्योंकि आहार के लिए अभी उतरना होगा। आचार्यश्री बैठ गए। इसी दौरान बाहर एक बाबा जी जिनका नाम शिवरतनजी जायसवाल था। उम्र 60-65 के करीब थी। पूरे गाँव में हल्ला हो गया था कि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के पैर में दर्द है तो वह बाबा जी भी गुरुदेव को देखने आ गये थे। आचार्यश्री लेटे थे। ब्रह्मचारीगण आए, मुझसे बोले- महाराजजी! एक बाबाजी आए हैं। वे आचार्यश्री को देखना चाहते हैं। मैंने कहा- क्या करना चाहते हैं? पैर की खींचातानी तो नहीं करेंगे। मैंने बाहर आकर पूछा- आप क्या करना चाहते हैं? बाबाजी बोले- कुछ नहीं, मैं सिर्फ देखूंगा और इस लकड़ी को लगाऊँगा। मैंने बोला- ठीक है, पैर की खींचातानी नहीं करना, बहुत दर्द है। आचार्यश्री से पूछा। आचार्यश्री बोले- मैं क्या जानूँ? आप लोगों की व्यवस्था है। बड़े महाराजों से विचार-विमर्श करके उनको अंदर लेकर गए। उन्होंने आचार्यश्री को नमस्कार किया। एक लकड़ी निकाली और दर्द वाले पूरे स्थान पर कुछ मंत्र पढ़ते हुए फेरा। और पूछा- दर्द कम हुआ? दो-तीन बार किया फिर पूछा- दर्द कम हुआ? आचार्यश्री ने कहा- हाँ, दर्द कुछ कम जैसा तो लग रहा है। वह बोला- ठीक हो जाएगा। एक-दो बार और करने आऊँगा। दोपहर-शाम की। वह चले गये। आचार्यश्री का उस समय भी चिंतन चल रहा था। उन बाबाजी के जाने के बाद बोले- 'देखो! पुद्गल का पुद्गल द्रव्य के ऊपर ये उपकार है। उस छोटी सी लकड़ी में वह शक्ति है। उपयोग करने वाला चाहिए। इसके बाद आहार चर्या का समय हो गया। दर्शन करके आचार्यश्री पास के चौके में गए। दर्द तो था। जितना लिया गया ले लिया पर ऐसी पीड़ा में आहार करना और वह भी खड़े होकर, बड़ी परीक्षा होती है। रोग परीषह को सहन करते हैं। आहार के बाद आचार्यश्री आकर लेटे थे। उस दिन मुझे भी रात्रि में तेज बुखार आ गया था। थोड़ा आहार ही लिया गया। जाकर आचार्यश्री के पास बैठा था। दो महाराज वैय्यावृत्ति कर रहे थे। आचार्यश्री से सहज ही पूछ लिया- आचार्यश्रीजी ! आपको जब दर्द होता है तो उस समय आप क्या सोचते हैं? आचार्यश्री थोड़े हँसे और बोले- जब अधिक दर्द होता है, तो हम तो आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज को याद करते हैं। हमारा तो दर्द क्या है? महाराज तो इतने वृद्ध थे, उनको साईटिका रोग था। उसकी वेदना महाराज को जो होती थी, उसके बारे में सोचता हूँ। मैं सिकाई करता था। प्रतिदिन उन्होंने अंत समय तक इस पीड़ा को सहन किया। अपना तो यह तात्कालिक रोग है। ठीक हो जाएगा। थोड़ी देर बाद बोले- अरे! तुम लोग तो घबराने लगते हो। ये रोग भी हमारे लिए असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा कराता है। इसको समता के साथ सहन करना चाहिए। हाँ, हूँ या चिल्लाने आदि से दर्द थोड़े ही कम होने वाला है। सहन करो। अपना ही तो कर्म है। हमने किया था सो फल दे रहा है। फिर शांत होकर ओम्। शांति ओम्। शांति कहने लगे। ईयपिथ के लिए सभी महाराज लोग आ गए। प्रत्याख्यान और ईयपथ भक्ति हुई। दोपहर में वही बाबाजी एक बार फिर आए। उन्होंने अपनी लकड़ी को फेरने वाला काम किया और शाम या रात्रि में आने के लिए कह गए। शाम को करीब 4 बजे बिलासपुर से स्क्रीन चर्मरोग आदि के विशेषज्ञ डॉ. मोहन गुप्ता और एक हड़ी रोग विशेषज्ञ और एक्यूप्रेशर वाले डॉक्टर भी साथ आए। आचार्यश्री का पैर जैसे ही देखा आश्चर्यचकित होते हुए बोलेओह महाराज जी ! आपने कहाँ से बुला लिया यह रोग। बड़ी पीड़ा होती है इसमें, बहुत भयानक रोग है। करीब बैठे हुए महाराज लोगों ने पूछा- डॉक्टर साहब, यह कौन सा रोग है? डॉ. गुप्ता ने बताया- महाराज! यह 'हर्पिस' रोग है। उसमें भी यह हर्पिस जॉन्डिस है। बड़ा खतरनाक होता है। इस रोग की पीड़ा को या तो डॉक्टर जानता है या फिर रोगी जानता है। तीसरा व्यक्ति इसकी पीड़ा को नहीं समझ सकता है। बिलासपुर में एक एसपी को अचानक इस हर्पिस का अटैक हुआ। उस समय कोई मंत्री आने वाला था। वह अपनी वर्दी उतारकर इधर-उधर दौड़ता हुआ डॉक्टर से पूछ- इसका उपचार/औषधि आदि क्या है? डॉक्टर बोले- 'महाराज! इस रोग का तात्कालिक समाधान कुछ भी नहीं। इसका सिर्फ एक टयूब है वह भी बाहरी संक्रमण को रोकने के लिए और कोई दवा ठीक नहीं कर सकती। यह अपने समय से ही जाता है। कितना समय लग जाएगा ठीक होने में? हमने पूछा तो डॉक्टर बोले- कम से कम 21 दिन और अधिक की सीमा निश्चित नहीं कर सकते। 6 माह भी लग सकते हैं। 2-2 वर्ष तक लग जाते हैं। और इसकी कोई दवा भी नहीं है। यह संक्रामक रोग है। अंदर ही अंदर इसका प्रभाव रहता है। बाहर से और न बढ़ पाए इसके लिए यह मल्हम जो लिखा है, इसे दिन में दो-तीन बार लगाना है। डॉक्टर कमरे से बाहर चले गए। मुनिश्री समयसागर जी, मुनिश्री योगसागर जी, मुनिश्री अभयसागर जी आदि ने डॉक्टरों से चर्चा की। हम लोग आचार्यश्री के पास ही खड़े रहे। हँसते हुए बोले चलो ! जीवन का यह भी एक नया अनुभव है। अब शांति से सहन करो। यह सब कर्म का उदय है भैया। घबराते क्यों हो? उपसर्ग और परीषह तो मोक्षमार्ग में मिलते ही हैं। इनको सहन करने से भी हम असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा कर सकते हैं। डॉक्टर लोग चले गए। इसकी थोड़ी देर बाद में धर्मेशजी पेन्ड्रा वालों के घर जयपुर से फोन आया। मदनगंज किशनगढ़ से श्री अशोकजी पाटनी आर के मार्बल्स वालों का, की हम कल जयपुर से वैद्य सुशीलकुमारजी या उनके भतीजे वैद्य अशोकजी को लेकर आ रहे हैं। और साथ में मूलचंदजी लोहाड़िया भी आएँगे। उस समय तो ऐसी स्थिति थी कि जिसको भी ज्ञात होता महाराज को पैर में बहुत दर्द है तो सभी अपने गाँव-नगर से कोई वैद्य लेकर आते या दर्द की दवा भेजते थे। कुछ डॉक्टर स्वयं आते। वैसे अशोकजी पाटनी जयपुर से 8 सीटर विशेष विमान से वैद्यजी को लेकर आ रहे हैं, दो बजे तक आ जाएँगे। रात्रि में वही बाबा श्री शिवरतनजी जायसवाल आए। उन्होंने आचार्यश्री के पैर पर अपनी लकड़ी को फेरा। रात्रि में आज कल की अपेक्षा दर्द कम था लेकिन पीड़ा तो रही। थोड़ी नींद आई। शाम को किसी का फोन आया शाहपुर जिला सागर (म.प्र.) से कि मुनिश्री क्षमासागरजी महाराज का स्वास्थ्य बहुत खराब है। हार्ट अटैक आ गया है। सभी के लिए चिंता का विषय हो गया। शाम को आचार्यश्री को बताया। आचार्यश्री को इतनी पीड़ा होते हुए भी गंभीर चिंतन करते हुए कहा- चिंता नहीं करो, जल्दी घबरा जाते हो। शरीर है। क्षमासागरजी को आशीर्वाद भिजवा दो। हम तीन-चार महाराज (मुनिश्री समयसागरजी, मुनिश्री योगसागरजी, मुनिश्री अभयसागरजी) गए। आचार्यश्री ने कहा- (प्रवचन सार चारित्र चूलिकाधिकार गाथा 25) इस गाथा का चिंतन करें- और किसी प्रकार का विकल्प न करे ऐसा निर्देश दिया। आचार्यश्री अपनी पीड़ा को भूलकर अध्यात्म को हर समय याद रखते हैं। हम लोगों को भी ऐसे ही निर्देश दिया करते हैं। 10 जुलाई, 2000 (सोमवार) प्रात:काल 6 बजे आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद सिंकाई आदि तो डॉक्टर साहब ने मना कर दिया था इसलिए आज नहीं की। लेकिन पैर में तेल मालिश आदि किया। दवा लगाकर उपचार किया। आहार में औषधि भी चलाई। प्रात:काल जायसवालजी बाबा भी आए। उन्होंने अपना उपचार किया। आहार चर्या को उपाश्रय से ही भगवान के दर्शन करके उठे। सामायिक आचार्यश्री ने लेटकर ही की। पैर के दर्द के कारण बैठना संभव नहीं था। 1 बजे समाचार आया कि अशोकजी पाटनी वैद्यजी को लेकर बिलासपुर में विमान से आ गए हैं। वहाँ से तीन-चार बजे तक आ जाएँगे। लेकिन शाम 5.45 बजे के करीब आ पाए। अशोकजी अशोक कुमार जी जयपुर वाले आए। सुशीलजी दिल्ली गए हुए थे। वहाँ आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज का स्वास्थ्य खराब था। उनके पास गए थे इसलिए वैद्य अशोकजी आए थे। आचार्यश्री के पैर को देखकर आश्चर्य भरी दृष्टि से देखते हुए सहज ही बोल उठे। यह भारी पीड़ादायक संक्रमण रोग है। इस हर्पिस रोग को अपनी भाषा में यदि कहें, तो जैसे किसी को बड़ा फोड़ा हो जाए और उस फोड़े को फोड़ दो। इसके बाद उसमें नमक छिड़क दो। उससे जो पीड़ा और जलन होती है, वैसी ही पीड़ा इस रोग के होने पर रोगी को होती है। और यह रोग निशाचर कहा जाता है। यानी यह रात्रि के समय में ही सबसे अधिक पीड़ा देता है। जैसे-जैसे रात होती है, इसकी पीड़ा बढ़ती है दिन की अपेक्षा रात्रि में बहुत अधिक रहती है। आचार्यश्री से पूछा- 'आप इसे सहन कैसे कर लेते हैं?" आचार्यश्री कहते हैं- 'सहन तो करना ही होता है। सहन करने से कर्म निर्जरा कर लेते हैं।' वैद्य अशोकजी बोले- 'आपके स्थान पर हम जैसे सामान्य श्रावकों को यदि यह रोग हो जाए तो आप जैसे शांत बैठे हैं वैसे हम लोग नहीं बैठ सकते। आप तो बहुत सहन कर रहे हैं।' आचार्यश्री बोले- 'पैर में ऐसा लगता है जैसे आग जल रही हो अंदर ही अंदर, लेकिन समता के साथ सहन करता हूँ।' इसके उपरांत वैद्यजी ने बाह्य उपचार किया, पैर की मालिश आदि की। रात्रि में 9 बजे के बाद मालिश एवं उपचार किया गया। रात्रि में नींद आई। दर्द में थोड़ी कमी रही। 11 जुलाई, 2000 (मंगलवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद कमरे में आकर आचार्यश्री बैठे थे। वैद्य अशोकजी जयपुर, अशोक पाटनी एवं मूलचंदजी लोहाड़िया भी आ गए। सब बैठ गए। आचार्यश्री ने कहा- 'आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज को पैर में साईटिका रोग था। उनका वह दर्द बहुत दिन से था। कितना सहन किया उन्होंने। उनकी सिंकाई आदि गरम पानी में तारपीन का तेल डालकर करते थे। हमारा यह प्रतिदिन का काम था। अब तो हमारी वैय्यावृत्ति ही छूट गई और स्वयं वैय्यावृत्ति कराने लगे हैं। आज तो हम उनसे बड़े रोगी बन गए। यह ऐसा रोग है, कि इस पर तो सिंकाई भी नहीं कर सकते हैं।' आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज की चर्चा चल पड़ी। मूलचंदजी सहज ही बोल उठे- 'गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी बड़े सरलसहज थे। उनकी प्रवचन शैली एकदम सीधी एवं मृदुभाषा मय थी। उनका ही सबसे बड़ा उपकार है मेरे ऊपर।' आचार्यश्री ने मूलचंद जी को छेड़ा- 'ये जब गुरु महाराज थे तब उनसे बहुत चर्चा करते थे। एक बार की बात है। ये बहुत तर्क-वितर्क कर रहे थे। लौकिक प्रश्न बहुत रहते थे, और ये जोर जोर से बोलने लगते। तब गुरु महाराज इनसे कहते- 'अरे भैया! तुम तो हो जवान और हम ठहरे 80 वर्ष के वृद्ध। तुम्हारे पास तो बहुत जोश है। इस जोश में कभी-कभी होश गड़बड़ा जाता है, इसलिए जरा धीरे-धीरे बोलो। जब शांत नहीं होते तो कहते- अरे भैया, मेरे सिर पर 4-6 ही बाल बचे हैं। उनको बचने दोगे कि नहीं। धीरे से ऐसा कहकर शांत कर देते थे।' आचार्यश्री ज्ञानसागरजी भी समझाते-समझाते थक गए। हमने भी महाराज की बात को याद दिलाया। बस, अब जल्दी ही निवृत्ति ले रहा हूँ। अभी थोड़ा ये काम है, वो काम है आदि कहते-कहते वर्षों बीत गए। इस प्रकार 40-45 मिनट तक चर्चा होती रही। इसके बाद अशोकजी वैद्य ने अपना बाह्य उपचार किया। इसके बाद आहार चर्या का समय हो गया। आहार औषधि वगैरह भी दी। 12 बजे के करीब अशोकजी पाटनी, लोहाड़ियाजी आदि को उसी विमान से वापस जयपुर जाना था। आशीर्वाद लेकर चले गए। दोपहर में मुझे सर्दी जुकाम था, बुखार नहीं। आचार्यश्री भी विश्राम करते रहे। जो सुनते सभी दौड़े चले आते थे। आज दमोह से संतोष सिंघई आदि 10-12 व्यक्ति आ गए। जबलपुर, इंदौर जो भी सुनता वह जैसे ही साधन मिलता, चले आते थे क्योंकि समाज में तरह-तरह की अफवाह फैल गई थी। कोई कहता- हमने सुना है महाराज को पेन्ड्रा रोड जाते समय जंगल के रास्ते से जा रहे थे, सर्प ने काट लिया। किसी ने कहा- राजस्थान से जो गायें आई हैं उतारते समय आचार्यश्री को सींग मार दिया गाय ने। कोई कहता महाराज को साईटिका हो गया। इस प्रकार न्यूज पेपर आदि के द्वारा महाराज जी के स्वास्थ्य खराब होने की चर्चा चारों तरफ थी। सभी अपने-अपने नगर ग्राम में णमोकार मंत्र का जाप, अखंड पाठ करें, भत्तामर का पाठ करें, शांति विधान करें आदि बातें होने लगी। विधान पाठ आदि करने लगे। आर्यिका संघ में एवं मुनिगण जो आचार्यश्री से दीक्षित हैं, सभी चिंतित हो गए। जो बाहर गुरु से दूर थे। क्या किया जाए? सभी मंत्र जाप करने लगे। किसी ने दूध का त्याग कर दिया, सभी की भावना एक थी कि आचार्यश्री अतिशीघ्र ठीक हो जाएँ। आज रात्रि को दर्द में आराम रहा, नींद भी आ गई। 12 जुलाई, 2000 (बुधवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। उसके बाद आचार्यश्री के पैर का उपचार वैद्यजी ने किया। जो वहाँ स्थानीय थे। आज की रात्रि में वैद्यजी ने कोई नया लेप तैयार किया। उसे लगाया। जब तक वह गीला रहा, तब तक तो ठंडक पहुँचाता रहा लेकिन सूखने के बाद चमड़ी को जकड़ने लगा। इससे दर्द और बढ़ गया था। उसे तुरंत साफ कराया और घी और चंदन का तेल लगाया। आहार चर्या को निवास वाले स्थान से भगवान के दर्शन करके उठे, आहार ठीक हुआ। हमारे कमरे में आचार्यश्री लेटे थे। मैं भी जल्दी आहार करके आ गया था। सर्दी-जुकाम, खाँसी से कुछ लिया नहीं जाता था। गरम-गरम पानी लेकर थोड़ा दलिया, रोटी लेकर आ गया। आचार्यश्री ने कहा- 'क्यों अजित अन्तराय हो गया?" मैंने कहा- 'नहीं आचार्यश्री, कुछ खाया ही नहीं जाता। इसलिए पानी और दलिया रोटी लेकर आ गया।' आचार्यश्री बोले- ‘यह शरीर भी बड़ा विचित्र है। इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए। कभी भी गड़बड़ कर सकता है। थोड़ी कुछ कमी हुई, कुछ हुआ यह नू-नच करने लगता है। इससे तो हमें काम लेना चाहिए, अधिक खींचना भी नहीं चाहिए। ये उपकरण भी है।' आचार्यश्री लेटे थे। हम पास बैठे थे। द्वार पर खड़े व्यक्ति ने कहा- जबलपुर से कुछ लोग आए। शायद कोई डॉक्टर हैं। मैं देखने गया। डॉ. पी.सी. जैन एवं डॉ. अशोक जैन, नरेशजी गढ़वाल और दो-तीन अन्य सज्जन थे। मैंने आचार्यश्री को बताया डॉ. पी.सी. जैन आदि आए हैं। दर्शन करना है। आचार्यश्री कहते हैं- दर्शन कराओ भैया। डॉक्टर हैं तो देखेंगे तो जरूर। उनको बुलाया। वे आए और बैठ गए। डॉक्टर ने पैर को देखा। डॉ. पी.सी. जैन बोले- बड़ी पीड़ा है। भयानक पीड़ा के दौर से गुजर रहे हैं आप। यह रोग भी ऐसा है, जिसका तात्कालिक इलाज भी नहीं है। इसकी दवा भी नहीं है। यह तो अपने समय से जाता है। ऐसे समय में हम लोग असमर्थ जैसे हो जाते हैं। क्या करें? हम तो कुछ कर नहीं सकते हैं। आचार्यश्री तो उनकी बात को सुनते रहे और मुस्कुराते रहे। धीरे से बोले- 'कर्म का उदय है।' नरेशजी गढ़वाल कहते हैं- ‘ऐसा कैसा कर्म का उदय है। इतने महान गुरुवर को नहीं छोड़ा। ये पीड़ाएँ आपको तो नहीं आना चाहिए। कैसे आ जाती है समझ में नहीं आता?' आचार्यश्री बोले- 'अरे भैया! कर्म छोटे-बड़े आदमी को साधु और स्वादु को नहीं देखता है, वह तो अपने समय से आता है। जैसे हमने किया होगा कर्मबंध तो अपना है, वह आया है। इसके उदय को शांति से सहन करना है।' कुछ समय तक सामान्य चर्चा हुई। 15 मिनट के करीब सभी बैठे। उन लोगों से कहा- चलो समय हो गया क्योंकि ज्यादा आचार्यश्री बैठते तो पैर में दर्द होने लगता था। कुछ समय बाद ईयपिथ प्रतिक्रमण हुआ। इसके बाद सामायिक हुई। दोपहर में महाराज लोग आचार्यश्री के पास रहते और वैय्यावृत्ति करते थे। शाम को आचार्य भक्ति हुई। बाद में आचार्यश्री कमरे में चले गए। रात्रि में कल की अपेक्षा आज स्थिति अच्छी रही, नींद भी लग गई थी। 13 जुलाई, 2000 (गुरुवार) आज पैर दर्द में कुछ हल्कापन था लेकिन चलने-फिरने में दर्द अभी था। एकदम तो ठीक नहीं था। प्रात:काल की आचार्य भक्ति हुई। पैर का जो उपचार था वह किया गया। 9.45 बजे आहार चर्या को आचार्यश्री उठे। आहार चर्या के बाद कुछ महाराज लोग बैठे। आचार्यश्री बोले- 'ये पैर चलने को तैयार नहीं हो रहा है और अमरकंटक तो चलना है।' हम लोगों ने कहा- 'आप चिंता नहीं करें। हम सभी लोग आपको सकुशल रूप से ले चलेंगे आपको तो मना किया है पैदल चलने को।' आचार्यश्री बोले- 'कैसे ले जाओगे?' हमने कहा- 'कैसे ले जाएँगे? ले जाने का हल तो एक ही है, डोली में आपको ले जाएँगे। आपको थोड़ा-सा भी दर्द नहीं होगा।' आचार्यश्री कुछ नहीं बोले, हँसने लगे। देखो क्या होता है? हम लोग चाहते थे कि आचार्यश्री की स्वीकृति मिल जाए तो अच्छा रहेगा। बहुत कहा लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। उत्तर में यदि मिलता तो मात्र एक शब्द। देखो....। हम लोगों ने तो एक पालकी तैयार करके रखी थी। रास्ते में क्या कैसी परिस्थिति बनती है? उसको लेकर तैयारी कर रखी थी। सारे दिन जो लोगों का आना-जाना बना रहता वह बना रहा जो भी सुनता वह अपने हिसाब से आता, और बहुत से लोग वैद्यों से दवा आदि लेकर आते। आचार्यश्री जल्दी स्वस्थ हों, सभी की एक यही भावना रहती थी। आज की रात्रि में कुछ दर्द कम था। 14 जुलाई, 2000 (शुक्रवार) आज प्रात:काल से ही आचार्यश्री विहार का मन बनाए थे। हम लोगों से चर्चा की। विहार तो करना है, क्योंकि चातुर्मास की स्थापना तो करनी है। अमरकंटक जाने के दो रास्ते थे। एक तो वही सीधा जंगल से कच्चा रास्ता। दूसरा पक्का रास्ता। पक्का रास्ता 13-14 किमी. अधिक था कच्चा रास्ता कम था। आचार्यश्री बोले- 'भैया हम तो मेनरोड से जाएँगे।" सभी को कहा, जिसको कच्चे रास्ते से जाना हो वे जा सकते हैं। बाद में बोले- यही ठीक रहेगा। जिनको साथ चलना हो 8-10 महाराज रुक जाओ, बाकी सीधे जा सकते हैं। रात्रि पकरिया ग्राम में रुककर प्रात:काल आहार अमरकंटक में कर सकते हैं। सभी ने कहा- ठीक है। हम तो स्वस्थ हैं। कोई चिंता की बात नहीं। लेकिन आप कैसे चलेंगे यह समझ में नहीं आ रहा है। आचार्यश्री का सीधा सा उत्तर था- कैसे चलेंगे? इन पैरों से चलेंगे और क्या? लेकिन पैर की हालत चलने जैसी नहीं है। आप कैसे चलेंगे? आचार्यश्री कहते- शरीर तो मना ही करेगा, इसको चलाना तो पड़ेगा ही। हम लोगों ने निवेदन किया- आपको पालकी में ले चलेंगे। उससे पैर में भी आराम रहेगा और समय पर पहुँच भी जाएँगे। आचार्यश्री हँसते हुए कहते हैं- चलो, भक्ति करना है। हम लोगों ने फिर आग्रह किया। फिर वही उत्तर- हाँ, देखो सोचते हैं। लेकिन आज तो विहार करना है। इसके बाद आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद वैय्यावृत्ति की। मैंने पूछा- मैं कौन से रास्ते से जाऊँ, क्योंकि बुखार आया था। आचार्यश्री बोले- देख लो। मैंने आचार्यश्री से कहा- मैं तो कच्चे रास्ते से जाता हूँ। आचार्यश्री बोले- देख लो। अभी बुखार आया था। सुबह 17-18 कि.मी. चलना होगा। मैंने कहा- महाराज एक झटका तो लगाना पड़ेगा, अमरकंटक पहुँच जाएँगे। वहाँ जो कुछ होना होगा देखेंगे। आपके साथ चलेंगे तो मौसम वैसे ही ठंडा हो रहा है। पानी आदि गिर गया रास्ते में और बीमार हो गया तो आपको और विकल्प का कारण बन जाऊँगा। इसलिए सीधा निकल जाता हूँ। आप तो आशीर्वाद दे दीजिये सुबह चलने के लिए। आचार्यश्री सिर पर हाथ रख दिया और बोले- देख लो सोच लो। जैसी अनुकूलता हो वैसा करो। मैंने नमोस्तु किया और कच्चे से ही जाने का पक्का किया। आहार चर्या हुई। सामायिक हो रही थी। इसी दौरान बादल चारों तरफ छा गए। अब कैसा होगा? आचार्यश्री के पैर में पानी नहीं लगे डॉक्टरों ने ऐसा कहा था। पानी गिरने की पूरी संभावना है। सामायिक में यही चिंतन सबका चलता रहा। ठीक 1.15 बजे आचार्यश्री उठे और विहार किया। पेन्ड्रा के मंदिर से आगे बढ़े और वर्षा प्रारंभ हो गई। क्या किया जाए, लोगों से कहा एक बड़ी प्लास्टिक को आचार्यश्री के ऊपर तानकर रखी। उनको पानी नहीं लग पाए। ऐसा ही किया। आचार्यश्री धीरे-धीरे चल रहे थे। हम सभी मुनिश्री समयसागर आदि 24 महाराज लोग जो कच्चे रास्ते से जाने वाले थे, आचार्यश्री को नमोस्तु करके आगे बढ़े। बोला- आचार्यश्री! हम लोग जा रहे हैं। आचार्यश्री हँसते हुए बोले- अच्छा तो हम फिर मिलेंगे। हमने कहा- महाराज! फिर नहीं बहुत जल्दी मिलेंगे। आचार्यश्री जोर से हँस पड़े। पीछे और महाराज लोग आ रहे थे उनसे भी यही कहा- अच्छा तो फिर मिलेंगे।लग नहीं रहा था आचार्यश्री के पैर में दर्द है। चेहरे पर ऐसी मुस्कान बिखेर रहे थे। अगर कोई गृहस्थ होता तो इतने दर्द में रोता। हम सभी 24 महाराज मुनि श्री समयसागरजी के साथ 19 किमी. चलकर पकरिया ग्राम पशु प्रजनन केन्द्र के खाली भवन में रुके। तभी समाचार मिला कि आचार्यश्री तो 11 किमी. चल गए। सोचा, जहाँ 2-4 किमी. चलना संभव नहीं था, 11 किमी. कैसे चल दिए। कितनी सहनशीलता है। इतना दर्द होते हुए भी बिना रुके, बिना बैठे 11 किमी. चल गए। और तरई ग्राम में रुके। पहले सोचा था 5-6 किमी. चलेंगे। बाद सुबह भी इतना चलकर आहार करेंगे। आचार्यश्री के साथ 13 महाराज थे। तरई ग्राम में विश्राम हुआ। सुना रात्रि में पैर का दर्द बढ़ गया था। 15 जुलाई, 2ooo (शनिवार) हम लोग प्रात:काल पकरिया से विहार करके सुबह 9.45 बजे के करीब 18 कि.मी. चलकर अमरकंटक पहुँच गए। वहीं आहार चर्या हुई। आचार्यश्री का सुना कि 8 कि.मी. चलकर क्वेची नामक ग्राम में आहार हो रहा है। आहार के पूर्व में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण आचार्यश्री एवं साथ वाले महाराज लोगों ने किया। बिलासपुर वाले एक डॉक्टर जैन साहब थे जो पेन्ड्रा भी आए थे। उन्होंने सुना कि महाराज ने पैदल विहार कर दिया। उन्होंने वहाँ कहा- असंभव। इतने दर्द में कैसे विहार किया होगा। वह नहीं माने। प्रात:काल क्वेची आये। आचार्यश्री को देखा और रोने लगे। महाराज! आप कैसा कर रहे हैं? अगर कुछ और हो गया, यह हर्पिस रोग और बढ़ गया तो संभालना मुश्किल हो जाएगा। आपका चलना ठीक नहीं है। पर आचार्यश्री हँसते रहे और धीरे से बोले- क्या करें? चातुर्मास की स्थापना भी तो करना है। आहार चर्या हुई। सामायिक के बाद फिर विहार हुआ। आज के दोपहर के विहार में तो और गजब कर दिया। क्वेची से सीधे आमडोवा ग्राम आ गए जो 15 कि.मी. था। वह बिना कहीं बैठे बिना रुके 15 कि.मी. चलकर सीधे आमडोवा के विश्राम गृह में रुके। जबकि लोगों ने 7-8 कि.मी. पर व्यवस्था की थी। यहाँ दूसरे दिन की आहार चर्या होना थी। हम लोग अमरकंटक सर्वोदय तीर्थ बैठे-बैठे सुनकर आश्चर्य करते थे। आखिर कैसे चलते होंगे। आज चतुर्दशी थी। हम लोगों ने चातुर्मासिक प्रतिक्रमण भी किया। 16 जुलाई 2000 (रविवार) प्रात:काल 9 बजे समाचार मिला कि 10 कि.मी. चलकर आचार्यश्री कबीर चबूतरा आ गए। वहाँ के रेस्ट हाउस में आहार चर्या हो रही है। दोपहर में यहाँ सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में आचार्यश्री प्रवेश करेंगे। आज गुरु पूर्णिमा और रविवार था। अजैन लोग इस दिन बड़ी संख्या में नर्मदा कुंड में स्नान के लिए आते हैं। गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। आचार्यश्री कबीर चबूतरा से 5-6 किमी. चलकर दोपहर 3.40 के करीब सर्वोदय तीर्थ पहुँचे। हम सभी महाराज लोग बैंडबाजे और भव्य जुलूस के साथ आचार्यश्री को लेने गए। आचार्यश्री आए, मंदिर में भगवान के दर्शन किए और प्रवचन हॉल में बैठी जनता के सामने मंच पर आकर बैठ गए। आसन पर एक पैर थोड़ा आगे करके बैठे थे। इसके बाद आचार्यश्री के प्रवचन हुए। इस दौरान उन्होंने एक विशेष काव्य पंक्ति लोगों को सुनाई 'ये पैर क्या चलते पहाड़ तो इरादों ने चडे हैं' सभी ने खूब तालियाँ बजाई। इसके बाद गुरुकृपा और जीवन में गुरु का क्या महत्व है, इसको लेकर करीब 20-25 मिनिट का प्रवचन हुआ। आचार्यश्री के प्रवचनांश : प्रभु दर्शन के साथ गुरु कृपा हमारे लिए बहुत जरूरी है। आज गुरु पूर्णिमा है। इन्द्रभूति के लिए आज गुरु मिले। हमारे लिए जगत गुरु की बात को बताने के लिए गणधर रूपी गुरु मिले। दीक्षा का संकल्प जो होता है वह आत्मकल्याण के लिए होता है। आज इन्द्रभूति ने दीक्षा ली और कल वीर शासन जयंती के दिन प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरी थी। आज का दिन आत्म पुरुषार्थ का दिन है। जब हम आत्म पुरुषार्थ की ओर लक्ष्य रखते हैं तो समीचीन संकल्प की ओर दृष्टि चली जाती है। वर्धमान स्वामी के चरण में बैठकर वर्धमान चारित्री बनकर अपने लक्ष्य को पाने के लिए कदम बढ़ाएँ। प्रभु के द्वारा सब कुछ काम हो सकता है, लेकिन सब उन्हीं के द्वारा हो यह नियम नहीं। जैसे हम किसी घड़े से पानी पीना चाहते हैं तो घड़े से नहीं पीते, लोटा आदि के माध्यम से ही पीते हैं। वैसे ही वीर भगवान का ज्ञान घड़े के समान था, लेकिन गणधरों ने उनके अनक्षरी ज्ञान को धारण किया फिर हमारे लिये दिया जिसे पाकर हम अपने कदमों को कल्याण पथ पर बढ़ा सकें। यहाँ से 2-4 दिन के लिए गए थे, लेकिन 12-14 दिन इस पैर के कारण लग गए। पैर तो मना करता था पर इरादा यहाँ आने का था, जो आज आ गए। इसीलिए तो कहा है | 'ये पैर क्या चलते पहाड़ तो इरादों ने चडे हैं' प्रवचन के बाद आचार्यश्री ऊपर चले गए। पैर की सिकाई आदि हुई। इसी दौरान आचार्यश्री ने कहा- भैया हम तो अब 20 तारीख को चातुर्मास की स्थापना करेंगे, और इसकी घोषणा कर दी गई। आज ही भाग्योदय तीर्थ सागर (म.प्र.) से ब्रह्मचारी दरबारीलालजी एक क्षुल्लकजी जिनका नाम नित्यानंदजी था, वृद्ध थे। करीब 75-80 वर्ष के। संल्लेखना हेतु आए थे। आचार्यश्री ने देखा और उस समय तो यही कहा- ब्रह्मचारीजी यहाँ का मौसम अभी संल्लेखना का नहीं है। दो दिन क्षुल्लकजी रहे, फिर वापस ले गए। आज रात्रि में पैर दर्द था। विहार करके आने से। 9 बजे फिर सिकाई आदि उपचार किया। 17 जुलाई 2000 (सोमवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति आदि हुई। इसके बाद आज बिलासपुर से डॉक्टर आए। उन्होंने आचार्यश्री के पैर को देखा और बोले- महाराज! न जाने आप लोगों का कैसा शरीर है। हम जैसे लोग तो चार कदम चलने के लिए सोचते हैं, पर आप 45-50 किमी. का रास्ता भी इतने दर्द में चलकर आ गए। बड़ी सहनशीलता है। ऐसी शक्ति हम लोगों के पास नहीं है। आचार्यश्री बोले- 'सहनशीलता तो सबके पास है। हम सब अपनी शक्ति को उद्धाटित नहीं करते हैं। यह हम लोगों की कमजोरी है। उस कमजोरी को निकाल दो तो शक्ति उद्घाटित हो जाएगी।' सभी डॉक्टर लोग चले गए। उन्होंने कहा- पैर में स्निग्धता हमेशा रहना चाहिए। सूखापन नहीं आ पाए। घी और चंदन का तेल मिलाकर लगा सकते हैं। इससे शीतलता भी बनी रहेगी, जलन कम होगी। 10 बजे आहार चर्या हुई। आज वीर शासन जयंती थी। कमेटी ने प्रवचन-पूजा का कार्यक्रम रखा था। आचार्यश्री तो मंच पर नहीं गए। मुनिश्री योगसागरजी, मुनिश्री उत्तमसागरजी, मुनिश्री निर्णयसागरजी मंच पर गए थे। वीर शासन जयंती के कार्यक्रम में इनके प्रवचन भी हुए। हम सभी महाराज अपना-अपना स्वाध्याय-ध्यान तो करते रहे, लेकिन आचार्यश्री की अस्वस्थता से किसी का मन अच्छे से नहीं लगता था। सभी के मुख पर आचार्यश्री के स्वास्थ्य की चर्चा रहती थी। हम सभी अपनी तरफ से मंत्र जाप एवं स्वस्थ होने की निरंतर भावना/कामना करते रहते थे। शाम को वैय्यावृत्ति करने के बाद हम से एक पुड़िया में थोड़ी राख लेकर रखने को कहा। हमने कहा कि केशलोंच करना है? आचार्यश्री ने चुप रहने को कहा- 'राख रख दो बस'। ज्ञात हुआ- कल प्रात:काल आचार्यश्री केशलोंच करेंगे। हम सभी महाराजों ने निवेदन किया अभी पैर सीधा करके बैठने में दर्द है, आप कैसे आसन लगाकर केशलोच करेंगे? इस बार ढाई महीने में केशलोच कर लें तब तक दर्द भी ठीक हो जाएगा। आचार्यश्री ने कहा- 'जितना कहा उतना करो।' फिर कहा महाराज 20 तारीख को स्थापना का उपवास भी है, और डॉक्टर उपवास को मना कर रहे हैं। "हाँ, मुझे ज्ञात है।" इतना कहा और सामायिक में बैठ गए। सभी को यही चिंता, पैर में दर्द और केशलोच कैसे होगा? उपवास भी करना है। सभी सामायिक में बैठ गए। रात्रि में वैय्यावृत्ति हुई। पैर में दर्द तो कुछ कम था, पर नींद नहीं आई। 18 जुलाई 2000 (मंगलवार) आचार्यश्री ने साढ़े चार बजे केशलोच प्रारंभ कर दिये। एक पैर आसन की तरह था दूसरा मोड़कर बैठे-बैठे केशलोच कर रहे थे। आगे-आगे के सब हो गए, पीछे मस्से भी थे और बाल भी बहुत थे और पैर के कारण आसन सही नहीं होने से ऐसा लग रहा था कि आचार्यश्री को बाल खींचने में कष्ट-सा हो रहा है। मैंने कहा- महाराजजी! बाल थोड़े से हैं, मैं धीरे-धीरे निकाल देता हूँ। पर गुरुदेव ने मौन में अस्वीकार कर दिया। मैंने हाथ बढ़ाया तो सिर दूर कर लिया। आँखों में मेरे थोड़े आँसू झलक आए। क्या करता? मैं खड़ा रहा। दो-चार महाराज लोग और भी थे और करीब डेढ़ घंटे में केशलोच हो गये। हम लोगों ने थोड़ी-थोड़ी सफाई की। घी लगाया। बाकी महाराज भी वैय्यावृत्ति कर रहे थे। आचार्यश्री सोचते हुए बोले- 'इस शरीर के अंग और उपांगों का फोल्डिंग सिस्टम होता तो खराब होने पर बदल लेते और दूसरा अच्छा वाला लगा लेते। लेकिन होता कैसे? हम ऐसे काल में ही उत्पन्न हुए हैं। हमने जैसे कर्म किये वैसा ही शरीर मिला है। और कर्मोदय से ही सुख-दुख का अनुभव इसके माध्यम से होता रहता है। इसलिए जैसा मिला उसी में संतोष रखना चाहिए।' वैय्यावृत्ति हुई हम लोग आहार चर्या को 10 बजे के करीब उठे। सामायिक के पूर्व आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति की, सामायिक हुई। दोपहर में सामान्य रहा। जनता का आना-जाना लगा रहा क्योंकि जो भी सुनते, गुरु दर्शन को चले आते। जैसा-जैसा सुना, बता जाते थे। शाम को सिंकाई आदि की और घी-चंदन तेल लगाया। 19 जुलाई 2000 (बुधवार) आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद आचार्यश्री के पैर का उपचार हुआ। 10 बजे आहार चर्या हुई। आचार्यश्री के आहार ठीक हुए। यह आहार पारणा और धारणा दोनों साथ हुई क्योंकि कल चातुर्मास स्थापना करना जरूरी थी। आज मुनिश्री पवित्रसागरजी को बहुत तेज बुखार आ गया। कल उपवास कैसे करेंगे? इससे बड़ी चिंता गुरुदेव की थी सभी को। हम लोग तो उपवास अस्वस्थता होने के कारण बाद में कर लेंगे लेकिन आचार्यश्री तो मानने वाले नहीं हैं। कहा भी तो उत्तर था- ऐसा कहीं होता है। सभी मौन हो गए और सारे दिन की चर्या सामान्य रही। 20 जुलाई 2000 (गुरुवार) श्रावण कृष्ण चतुर्थी का दिन। प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। इसके उपरांत आचार्यश्री के पैर का उपचार हुआ। आज सभी का उपवास था। मुनिश्री पवित्रसागरजी को आचार्यश्री ने मना कर दिया, स्वस्थ होने के बाद कर लेना। दोपहर में 2 बजे से चातुर्मास स्थापना का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। आचार्यश्री के साथ हम सभी चालीस मुनिराजों ने भी चातुर्मास की स्थापना का संकल्प किया। चातुर्मास कलश की स्थापना श्री आनंद कुमार जैन, मेरठ (उ.प्र.) वालों ने अपने चारों भाइयों एवं परिवार के साथ मुख्य कलश-चाँदी के कलश की स्थापना क्षेत्र कमेटी को 11 लाख रुपयों का दान देकर की। दो अन्य कलशों की स्थापना सिंघई प्रमोदजी जैन बिलासपुर ने एवं डॉ. एस.के. जैन बुढार वालों ने की। आचार्यश्री का मांगलिक प्रवचन भी हुआ। मंच पर अधिक बैठना तो संभव नहीं था, फिर भी दो घंटे तक स्थापना का कार्यक्रम चला। इस बार चातुर्मास की स्थापना मुनिश्री योगसागरजी, श्री उत्तमसागरजी, श्री सुमतिसागरजी ने बेला उपवास के साथ की। आज शाम से फिर पैर में दर्द आचार्यश्री का बढ़ गया। सभी को फिर चिंता का विषय बन गया। जयपुर वैद्यजी को फोन के माध्यम से समाचार दिया। उनका समाचार मिला, उपवास आदि के कारण औषधि नहीं जाने के कारण से हो रहा है। औषधि लेने से आराम होगा और 4-6 दिन में आने को कहा। रात्रि में भी बहुत दर्द रहा। नींद नहीं आई। अंदर जलन-सी होती थी। बाहर से सिंकाई आदि उपचार चलता रहा। जब तक बाह्य उपचार होता तब तक ठीक रहता, बाद में दर्द फिर पूर्व स्थिति पर आ जाता। जैसे-जैसे रात हुई, दर्द बढ़ता गया। सूर्योदय होते ही दर्द अपने आप कम हो गया। जयपुर वाले वैद्य अशोकजी ने कहा था-यह संक्रामक रोग है। इसे निशाचर कहते हैं। यह रात में ही पीड़ा देता है। 21 जुलाई 2000 (शुक्रवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। पैर का बाह्य उपचार जो होता था वही किया। इसके बाद आहार चर्या हुई। आचार्यश्री की पारणा ठीक हुई। दर्द के कारण से आहार तो कम हुए लेकिन ठीक हो गए। सारे दिन की दिनचर्या सामान्य रही। आचार्यश्री को पूर्ण रूप से विश्राम करने को कहा। कोई भी आचार्यश्री तक न पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। एक न एक महाराज उनके पास रहते। कोई विशेष कार्य है तो आचार्यश्री से अनुमति लेकर कमेटी वालों को या किसी व्यक्ति को आचार्यश्री तक जाने देते थे। 22 जुलाई (शनिवारं) से 30 जुलाई 2000 (रविवार) तक प्रतिदिन आचार्य भक्ति, इसके बाद वैयावृत्ति, पैर का उपचार। आहार चर्या, सामायिक। दर्शनार्थियों के लिए 2 बजे से 3-4 बजे तक दर्शन आचार्यश्री एवं संघ के। इसके बाद प्रतिक्रमण, नीचे पांडल में आचार्य भक्ति होती। सामान्य श्रावक को ऊपर जाने के लिए रोक देते थे। शाम को एवं रात्रि में प्रतिदिन सिंकाई आदि वैय्यावृत्ति आचार्यश्री की होती थी। पैर के दर्द में थोड़ी कमी होती जा रही थी। हर्पिस के जो फफोले थे वे धीरे-धीरे सभी मिटते जा रहे थे। 31 जुलाई 2ooo (सोमवार) प्रात:काल 6 बजे आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्री अपने कमरे में आकर बैठे। तभी रीवा से वैद्यश्री राजेन्द्र कुमारजी अपने छोटे भाई डॉ. सुरेन्द्र कुमारजी टीकमगढ़ वालों के साथ आए क्योंकि आचार्यश्री के पैर में हर्पिस हो गया है, सभी लोग सुनते तो चिंतित जरूर हो जाते थे। राजेन्द्रजी ने आचार्यश्री के पैर को देखा और बताया- महाराज यह एक ऐसा रोग है, जो लाइलाज जैसा है। एलोपैथी में तो इसका उपचार है ही नहीं। आयुर्वेद में जरूर इसका उपचार है, लेकिन वह भी बाहरी इन्फेक्शन को रोक सकता है। भीतर का दर्द तो अपने समय से जाएगा। इस रोग की पीड़ा बहुत होती है। इसको तो अनुभव करने वाला ही समझ सकता है। इसी दौरान राजेन्द्रजी ने पैर के ऊपर हर्पिस के जो फफोले थे उनको लैंस के माध्यम से बहुत सूक्ष्म रूप से देखा और बोले- यह तो बड़ी सफलता मिल गई जो बहुत जल्दी ठीक कर लिया। नहीं तो इसको ठीक करने में लोगों को 6 माह और दो-दो वर्ष तक लग जाते हैं। यह रोग इतनी जल्दी और इस तरह ठीक हो जाना बड़ा ही आश्चर्य का विषय है। इसी दौरान राजेन्द्रजी ने एक चुटकी ली। बोले- 'रोग भी सोचता होगा मुझे बहुत अच्छा पैर मिल गया। बड़ी दुर्लभता से ऐसे चरण मिलते हैं।' आचार्यश्री ने राजेन्द्र की इस चुटकी का जवाब भी अपने आध्यात्मिक लहजे में तुरंत हँसते हुए दिया- 'भैया, उसे अच्छा पैर मिल गया था, तो हमें भी अच्छा कर्म निर्जरा का साधन मिल गया था। हमने भी उसको अपनी कर्म निर्जरा का साधन बना लिया था और प्रतिक्षण कर्म निर्जरा इसके दर्द के साथ करता रहा। सहना तो हमें ही था। 'राजेन्द्रजी ने कहा- 'बस महाराज ! आपका यही मनोबल काम कर गया। अगर हम जैसे गृहस्थों को यह रोग हो जाता तो इतनी जल्दी ठीक नहीं होता। जबकि आप एक ही बार में औषध आदि लेते हैं और हम लोग बार-बार दवा पानी लेने वाले इतनी जल्दी ठीक नहीं कर पाते।' आचार्यश्री बोले- 'आत्मबल के साथ सबकी भावनाओं का भी तो प्रभाव पड़ता है। कैसे जल्दी ठीक नहीं होता, जरूर होता।' 1 अगस्त 2000 (मंगलवार) यह दिन सामान्य रहा। प्रतिदिन की तरह सभी की चर्या रही और आचार्यश्री भी धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहे थे। शौच आदि के लिए थोड़ी दूर जाने लगे। प्रात:काल समाचार आया कि आज शाम तक या कल प्रातःकाल जयपुर से वैद्य श्री अशोककुमारजी आने वाले हैं लेकिन आज नहीं आ पाए। पैर दर्द का उपचार रोज की तरह चलता रहा। 2 अगस्त 2000 (बुधवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। इसके बाद सारे दिन की चर्या सामान्य रही। पैर का उपचार दिन में प्रतिदिन की तरह किया। आज रात्रि में 8 बजे के करीब वैद्य श्री अशोक कुमार जी जयपुर वाले आए और रात्रि में ही आचार्यश्री को देखा। उपचार किया और बोले 'बहुत अच्छी सफलता मिली है। यह रोग का जल्दी शमन हो गया। इसको इतनी जल्दी शमन कर देना आसान नहीं है। यह तो आचार्यश्री के मनोबल का परिणाम है जो इसे जल्दी ठीक होना पड़ा।” इसी दौरान गरम पानी में हल्दी उबालकर उसमें कपड़ा डालकर उसको निचोड़कर उसकी भाप से सिंकाई करीब 20 मिनट तक की और ऐसी ही सिंकाई प्रतिदिन करते थे। इसके बाद घी-चंदन के तेल का लेप पैर पर करते थे, वह किया। 3 अगस्त 2000 (गुरुवार) प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई। उसके बाद वैद्य श्री अशोक कुमारजी जयपुर ने प्रात:काल अपना उपचार किया। पैर की मालिश की। इसके बाद चर्चा प्रारंभ की। वैद्य अशोक कुमारजी ने। आचार्यश्री को बताया- 'आचार्यश्री, जयपुर में ही हम एक वैष्णव साधुजी को देखने गये थे। उन्हें डायबिटीज की बीमारी बढ़ी हुई थी। उनको देखा। उनसे कहा- आपको शक्कर नहीं लेना चाहिए। लेते हैं क्या?’ साधु बोले- नहीं लेता हूँ। थोड़ा प्रसाद के रूप में लेता हूँ।' 'कितना लेते हो?' 'बस कोई तीन-चार लड्डू।' 'महाराज यह तो ठीक नहीं है।' साधु बोले- 'क्या करें, लेना जरूरी है। क्या करें भक्त लोग प्रसाद लाते हैं, उनसे थोड़ा-थोड़ा लेना पढ़ता है। हम चातुर्मास में आलू-प्याज, लहसुन आदि नहीं लेते हैं।' 'आप आलू-प्याज-लहसुन क्यों नहीं लेते हैं?' साधुजी बोले- "ये तामसी प्रकृति के होते हैं।' हम बोले- 'महाराज आपको तामसिक आहार तो करना ही नहीं चाहिए।' तो साधु बोले- 'भैया, हम जैन साधुओं की तरह साधना, त्याग-तपस्या नहीं कर सकते हैं। हमने श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शन किये हैं। उनकी बड़ी कठिन साधना है। हम तो उनकी पाँव की धूल भी नहीं हैं। हम विद्यानंदजी महाराज से भी मिले। सभी की कठोर साधना है। हम जैन साधुओं की तरह साधना नहीं कर सकते हैं।' ऐसे ही एक श्वेतांबर साधु दयानंदजी ने आचार्यश्री के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया- 'महान साधु के रूप में श्री साधना हम नहीं कर सकते हैं।' ऐसी ही कुछ संबंधित विषयों पर चर्चा हुई और भी आयुर्वेद की औषधि संबंधी चर्चा हुई। दिन भर की चर्या सामान्य रही। कुछ दिनों के बाद महाराज ने अपनी चर्या पूर्व की तरह प्रारंभ कर दी। अपना स्वाध्याय, ध्यान-चिंतन लेखन भी प्रारंभ कर दिया। सिंकाई आदि बंद करके कुछ दिन तक घी चंदन का तेल ही लगाते रहे। इसके साथ ही 8 अगस्त 2000 मंगलवार से सवर्थ सिद्धि की क्लास भी हम लोगों को प्रारंभ कर दी। इस प्रकार ये कुछ दिनों की चर्या आचार्यश्री जी की जो विषम परिस्थिति में अपनी समता की परिणति को कैसे बनाए रखते थे, यह हम सभी साधकों के लिए प्रेरणास्पद थी। दर्द भी जिनके सामने नतमस्तक हो गया, और अपनी मनोबल की वृत्ति से अपने कर्मोदय का कैसे सामना किया? दर्द में भी अपने कदमों को मंजिल तक पहुँचाया। धन्य हैं! गुरुदेव के कदम जो दर्द में चले। यह महान साधक और दृढ़ संकल्पी गुरु महाराज का एक विशेष प्रसंग है। इससे बहुतों को प्रेरणा मिली |
  4. बहोरीबंद, 5 अप्रैल 2001 गुरुवार की शाम को आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति करके हम 2-3 महाराज लोग पास में ही खड़े थे,। आचार्यश्री भी उठे और तखत पर खड़े होकर चारों दिशाओं में आवर्त करके आसन लगाकर बैठ गए। फिर बोले- गर्मी बहुत हो रही है। इस तखत को थोड़े दरवाजे के पास कर दिय जाए तो हवा आएगी। ऐसा कहके उठने लगे। हम लोगों ने कहा आप बैठे रहिए हम लोग उठाकर कर वहाँ रख देते हैं और आचार्यश्रीजी बैठे रहे। हम महाराज लोगों ने आचार्यश्री जी के तखत को दरवाजे के पास कर दिया। आचार्यश्रीजी से एक महाराज ने कहा। आपका वजन अधिक थोड़े ही है। हम 3-4 जन आराम से उठा सकते हैं। आचार्यश्रीजी ने सटीक उत्तर दिया- 'हाँ! हमारा वजन नहीं है, लेकिन हमारे ऊपर तो संघ का वजन है।' हम महाराज लोगों ने कहा- 'हम साधकगण इतने वजनदार थोड़े ही हैं, आप वजन समझते हैं।' आचार्यश्रीजी मौन रहते हुए कुछ सोचते रहे फिर जोर से हँस दिए और 'सामायिक करो, चलो ! हमें निर्देशित कर बाद में ओम्। शांति कहते हुए ध्यान में लीन हो गए।
  5. आचार्य का लक्षण जैनागम में कैसा कहा है? जो शिष्यों का अनुग्रह और संग्रह करने में कुशल होते हैं। उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। परम पूज्य आचार्यश्री जी में ये दोनों गुण बहुत ही अच्छी तरह से पाये जाते हैं- शिष्यों का उपकार करना और संग्रह उन्होंने कैसे किया इस बुंदेलखंड की धरा पर इस प्रसंग से ज्ञात होता है। 23 मार्च 2001 शुक्रवार पटेरिया सागौना से विहार किया। धूप बहुत थी। गर्मी से पसीना-पसीना हो रहे थे। 7 किमी. चल चुके थे। रास्ते में जंगल दोनों तरफ था, लेकिन पतझड़ के कारण चारों तरफ वीरान-सा था। कहीं पर छाया नहीं दिख रही थी। मार्ग में एक नाला सूखा मिला। उसकी ओट में छाया थीं, वहाँ पर हमने आचार्यश्री को बैठने का निवेदन किया। आचार्यश्री ने स्वीकृति दे दी, वे वहाँ पर एक छोटे पत्थर पर बैठ गए। बैठे-बैठे चर्चा चली बुंदेलखंडी लोग कैसे दुकान चलाते हैं और ग्राहक को कैसे पटाते हैं। दुकान पर एक ग्राहक आता है। बाप-बेटा दुकान पर है। लड़का ग्राहक पर नाराज हो जाता है, पिता ग्राहक को समझाता है। ये लड़का जल्दी नाराज हो जाता है। ऐसे में ग्राहकी मिटा देगा। दूसरे महाराज ने दुकानदार की बात कही कि ग्राहक से बाप बोला। भैया लड़के की बात का बुरा नहीं मानना बोलो कितने में लेना है। वह इतने पैसा बताता है। वह 2-4 रुपया बढ़ाकर देने में तैयार हो गया। चलो घाटा तो...। लड़का चिल्लाया भी, फिर भी वह दे देता है। उसमें भी कमा लेता है। वैसे ही भैया हमें भी अपनी दुकानदारी चलाना है, बुंदेलखंडी लोगों से ही चलाना सीखे हैं। जब तो अपनी इतनी बड़ी दुकान हो गई है। अब तो ग्राहकी बहुत हो गई है। मना करना पड़ता है। आचार्यश्रीजी भी बोले- हम भी बुंदेलखंड में आकर ही अच्छे से दुकान चलाना सीखे हैं। हमने (मुनि अजितसागर) कहा कैसे आचार्यश्री जी ने कहा- कोई हमारे पास व्रत लेने को आता है, तो पहले हम कहते हैं माता-पिता को लाओ, जब हम व्रत देते हैं, यह नियम है। लेकिन जब भाव देखते हैं, तो उसको फिर छोड़ते नहीं। उससे कहते- किसी से कहना नहीं अपने तक सीमित रखनाअभी दो साल का ले लो फिर बाद में देखेंगे....। हम सबने जोर से हॅस दिया.।
  6. विरागी संत अपना अनुशरण करने वाले व्यक्ति के साहस और आत्म शक्ति निरंतर जाग्रत करता रहता है। उसके मनोबल को जगाकर सम्यक् साधना पथ पर अग्रसर करता है। उसी प्रकार हमारे परम गुरु आचार्यश्री हम सभी साधकों को निरंतर आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करते रहते हैं। 15 जून 1998 सोमवार की शाम 4 बजे के करीब आर्यिकाश्री दृढ़मति माताजी सहित 20 आर्यिकाओं का आगमन हुआ। आचार्यश्री आर्यिका संघ को समझा रहे थे। बोले- प्राय: सभी लोग भगवान पार्श्वनाथ को याद करते हैं, पर स्वामी समंतभद्र महाराज ने तो सुपार्श्वनाथ भगवान को याद करते हुए कहा है। उन्होंने कहा- यह शरीर तो अजंगम है, और आत्म जंगम है। लेकिन हम लोग इस शरीर को ही सब-कुछ मान लेते हैं। इसके छूटने को अपना मरण कहने लगते हैं। जबकि आत्मा का कभी मरण नहीं होता है। वह तो अजर-अमर है। ये बात आचार्यश्री जी ने जब कही- तब आर्यिका जिनमतिजी ने कहा- आचार्यश्री जी! हम तो मौत के मुँह में से निकल कर आए हैं। विहार के दौरान डायरिया हो गया था, डॉक्टरों ने तो बॉटल आदि लगाने को कहा था? आप तो हमें आशीवाद दे दो....। आचार्यश्री जी बोले- मोक्षमार्ग पर चलने वाले के लिए परिषह और उपसर्ग तो उसके साथी हैं, मोक्षमार्गी के लिए इनके आने पर घबराना नहीं चाहिए, इनके माध्यम से तो हमारी असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होने वाली है। आचार्यश्री आर्यिका संघ को समझा रहे थे। मैं (ऐ प्रज्ञासागर) आचार्यश्री जी के पास बैठकर उसे जल्दी-जल्दी लिख रहा था। तभी आचार्यश्री मेरी तरफ देखकर के बोले- ये भी लिख रहा है। अधिक लिखकर नोट्स बनाकर रख लेने से काम नहीं चलता है। इन बातों को अपने अंदर उतारने की कोशिश करो। मैंने (ऐ प्रज्ञासागर) कहा- महाराजजी! ऐसी बातों को बारबार पढ़ने से बुद्धि पर असर पड़ता है। जैसे पत्थर पर से जब बार-बार रस्सी जाती है, तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है। आचार्यश्री बोले- पत्थर पर रस्सी जब एक स्थान पर बारबार जाती है तब निशान पड़ता है। यदि एक स्थान पर से ही नहीं जाती तो रस्सी भी टूट जाती है, और पत्थर पर निशान नहीं पड़ पाता है, और बहुत सी रस्सियाँ टूट जाती हैं। हम सभी को आचार्यश्री का कहना था, हमारा मार्ग के प्रति दृढ़ निश्चय होना चाहिए। एक लक्ष्य होना चाहिए। बाहर की बाधाओं को आने पर मार्ग से हटना नहीं चाहिए। उनका सामना करते हुए अपने लक्ष्य की ओर, मंजिल की ओर दृढ़ता से आगे बढ़ते जाना चाहिए।
  7. वीतराग मुद्रा मोक्षमार्ग में कितनी कार्यकारी है, इसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। इस मुद्रा को देखकर बहुत पापी व्यक्ति भी वीतरागी के चरणों में आकर सारे पापों का त्याग कर अपने आपको सद् मार्ग में लगा लेता है। कैसे लगाता है? आचार्यश्री के दर्शन से एक सैनिक का जीवन बदल गया। इस प्रसंग को पढ़ें बात 24 अप्रैल 1998 की शाम के समय की है। 18 अप्रैल को आचार्यश्री एवं संघ का दर्शन आर्मी के एक रिटायर्ड सैनिक ने किए। उस दिन वह सैनिक आचार्य संघ के साथ-साथ भाग्योदय तीर्थ तक आया पर जनसमूह बहुत होने से वापस चला गया। आज वह फिर आया। आचार्य भक्ति के बाद हम और 2 ब्रह्मचारीगण बैठे हुए थे। वह व्यक्ति आया उसका नाम महेंद्रसिंह था। जाति का जाट था। हरियाणा का रहने वाला था। यहाँ सागर की आर्मी का था। वह आचार्यश्री के दर्शन करके रोने लगा। आचार्यश्रीजी से बोला- 'बाबा मुझे शांति नहीं है। कुछ ऐसा बताओ या कोई मंत्र दे दो जिससे मुझे शांति मिले। 'आचार्यश्री ने उससे पूछा- 'माँस-मदिरा, अंडा आदि खातेपीते हो।' वह बोला- 'हाँ महाराज! मैं तो सेना में था, वहाँ तो सब चलता है।' उसने बताया कि '18 अप्रैल 1998 के दिन यहाँ पर जब आप आए थे, मैं उस दिन माँस खरीदने ही जा रहा था, जैसे ही आप सभी बाबा लोगों को देखा। सब भूल गया और आपके साथसाथ यहाँ तक चला आया था। लेकिन व्यवस्थापकों ने आप तक नहीं आने दिया था। आज आप जो आज्ञा करें। मैं सब कुछ छोड़ दूँगा। मुझे तो बस शांति चाहिए। मैं वचन का पक्का हूँ मर जाऊँगा पर आपका वचन नहीं जाने दूँगा।' आचार्यश्री ने कहा ठीक है। अब तुम माँस-मदिरा, अंडा आदि खाना छोड़ दो और पामोकार मंत्र का ध्यान करना, इसको अच्छे से पढ़ना और भूल-चूक निरादर न हो इसका ध्यान रखना। मेरी तरफ इशारा करते हुए ये महाराज (ऐलक प्रज्ञासागर) आपको मंत्र लिख देंगे, पढ़ा देंगे। उसको ध्यान से पढ़ना। मैंने उसे पामोकार मंत्र लिखकर उच्चारण कराया। आचार्यश्री का एक फोटो भी उसको दे दिया। बड़ी आस्था के साथ उसने कहा- अब मुझे निश्चित रूप से शांति मिलेगी। वह व्यक्ति फिर पूरे परिवार को लाया, सबको माँस आदि का त्याग करा दिया। सभी ने णमोकार मंत्र सीख लिया था। पूरे ग्रीष्मकाल एवं चातुर्मास के काल में अपनी साइकिल से 6-7 किमी. दूर से प्रायः करके रोज आता, आहार चर्या देखता चला जाता या शाम को आता, महाराज लोगों की वैय्यावृत्ति करता। रात्रि में घर चला जाता था। अब वह पूरे संघ का चहेता बन गया। उसका छोटा बेटा था, वह पिताजी से और आगे निकला। प्रतिदिन पिताजी के साथ शाम को आता था। वैय्यावृत्ति आदि करता था। ठीक ही है, जिसका भविष्य सुधरना होता है वह अहिंसक वृत्ति भी अपनाता है और तदनुसार धर्म में श्रद्धा-भक्ति भी करने लगता है।
  8. प्रमाद हुआ और कोई उसको बता दे तो उसमें सुधार हो सकता है। यदि कोई बताने वाला न हो तो वह प्रमाद का कार्य बढ़ता जाता है। इसलिये गुरुजन सदा अप्रमत्त योगी बने रहते हैं, कोई भूल करता है तो तत्काल उसमें सुधार करा देते हैं। कैसे कराते हैं? तो यह प्रसंग पढ़ें। शाम के समय हम लोग वैय्यावृत्ति कर रहे थे। मैंने सोचा चलो आचार्यश्री जी के सिर पर घी लगाएँ, डिब्बी में से घी निकाला। पिघला हुआ था हाथ से थोड़ा घी तखत पर गिर गया। मैंने उसे साफ करने लगा- तभी आचार्यश्री जी बोले हँसते हुए- 'प्रज्ञा! कहाँ गई तेरी प्रज्ञा, सावधानी नहीं रखता, प्रमाद करता है।' मैंने धीरे से कहा- 'थोड़ा-सा ही गिरा है।' आचार्यश्री जी बोले- 'बात थोड़े-बहुत घी गिरने की नहीं है। बात आपके प्रमाद की है। कोई भी कार्य करते हैं, सावधानी से करना चाहिए। वैय्यावृत्ति में और सावधानी रखना चाहिए। प्रमाद के साथ वैय्यावृत्ति करते हैं, तो वह वैय्यावृत्ति कर्म निर्जरा का कारण नहीं होती है। वैय्यावृत्ति तप है। उसमें यदि प्रमाद हुआ तो वह कर्म निर्जरा का कारण नहीं हो सकती है। हमें बात समझ में आ गई।' हमने मौन रहकर सिर हिला दिया। आचार्यश्री- 'सदा ध्यान रखो, वैय्यावृत्ति या मुनि चर्या में कहीं भी प्रमाद नहीं होना चाहिए।'
  9. गुरु अपने शिष्यों को कब कौनसी शिक्षा दे दें यह कोई जान नहीं सकता है। आचार्यश्रीजी किस समय हम सभी साधकों को नई दिशा दे दें, कौनसा रहस्य बता दें इसका पता नहीं इसलिए गुरु की संगति हरक्षण हमें एक नयी दिशाबोध पाने की ओर लालायित रखती है। वह कैसे? उसी प्रसंग का यह संदर्भ है :- बीना बारहा से सागर की ओर विहार चल रहा था। 15 अप्रैल 1998 बुधवार। देवरी से विहार हुआ और गोपालपुरा ग्राम के विश्राम गृह में विश्राम हुआ। प्रतिक्रमण आदि करके सामायिक के पूर्व आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति हेतु मैने और दो ब्रह्मचारी जी ने आचार्यश्री से निवेदन किया। आचार्यश्री ने मौन स्वीकृति दे दी, हम लोगों ने वैय्यावृत्ति प्रारंभ कर दी। थोड़ी देर बाद धीरे से बोले- 'अब तो 'ये बहुत वैय्यावृत्ति कराने लगा है।' मैंने आश्चर्यभरी दृष्टि से आचार्यश्री की ओर देखा और सहज में पूछ बैठा- 'कौन कराने लगा?" आचार्यश्री बोले- 'अरे! कौन कराएगा। ये ‘शरीर' कराने लगा है, और बहुत सेवा कराने की भावना रखता है। अरे! महाराजजी (आचार्यश्री ज्ञानसागरजी) वृद्ध थे, 80 वर्ष की आयु, परंतु इतनी सेवा नहीं कराते थे।' तभी मैंने कहा- 'आप तो थे, आप वैय्यावृत्ति तो करते होंगे?' आचार्यश्री बोले- 'करता तो था। लेकिन वो अधिक कराते कहाँ थे! वो अपना समय ध्यान-अध्ययन में लगाते, थोड़ी बहुत करा लेते थे और धीरे से कह देते थे कि जाओ, स्वाध्याय अध्ययन करो। बहुत से लोग आते हैं।' 'आप इतने में मान जाते थे?" मैंने कहा। 'अरे भैया! डर भी तो लगता था। एक बार मना कर दिया तो फिर दूसरी बार आग्रह करने की हिम्मत नहीं होती थी। तुम लोगों जैसी जबर्दस्ती तो हम कर नहीं सकते थे। महाराज ने एक बार मना कर दिया तो फिर आग्रह नहीं कर सकता था। तो हमारी वैय्यावृत्ति आदि सब छूट गई।' इतना कह करके आचार्यश्री उठ गए। सामायिक करने के लिए आवर्त करने लगे।
  10. सामने वाला गलती करता है तो उसे देखकर महान व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति उसकी भूल पर दुख का वेदन करते हैं, पर उसका वेदन करने के बाद क्रोध नहीं अपने उपयोग को आत्मबोध के कार्य में लगा देते हैं, ऐसा ही प्रसंग यह आचार्यश्रीजी के साथ का है। बीना बारहजी में आचार्यश्री के हाथ में सूजन आ गई थी। बाह्य उपचार के रूप में गरम पानी में नमक-फिटकरी डालकर सिकाई प्रात:काल एवं शाम को (आचार्य भक्ति के बाद) करता था। प्रात:काल आचार्यश्री के हाथ की सिकाई के लिए हम गर्म पानी लाये, उसे ठीक से देखा नहीं और नमक-फिटकरी मिलाकर सिकाई करने लगा। पानी अधिक गरम था, हाथ में पानी लगते ही आचार्यश्री ने हाथ एकदम खींच लिया जो गर्म पानी होने से जल गया था। मैं पश्चाताप करने लगा, मेरे प्रमाद के कारण से हाथ जला था। मैंने जल स्पर्शकर देखा नहीं था, मेरा चेहरा फीका पड़ गया और मैं निराश हो गया। तभी आचार्यश्री बोले- 'कैसा शरीर है, थोड़ी सी भी प्रतिकूलता को सहन नहीं कर सकता है। थोड़ा कुछ हुआ और नू-नच करने लगता है। इसको तो उतना ही वेतन देना चाहिए जितना ये काम करता है, अधिक वेतन (भोजन) देंगे तो ये आलसी हो जाएगा। इसलिए ये तन जो कहता है, उसके अनुसार हमें नहीं करना चाहिए। शरीर के लिए जितना करो उसे उतना ही कम अनुभव होता है।' बाद में कहते हैं- 'वो शरीर संहनन जो शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में सरोवर या नदी के तटों पर एवं पहाड़ की चोटी पर बैठकर आतापन योग करते थे, आज वो संहनन कहाँ गया? हम भी काश वैसा तप करके कर्म निर्जरा करते।' अंत में धीरे से कहते हैं- 'अरे! भैया, हम लोग हीन पुण्य लेकर आए हैं, जब तो इस पंचमकाल में उत्पन्न हुए। आज हमें साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। अच्छी विशुद्धि बढ़ाओ जिससे आगे जब मनुष्य भव मिले तो उत्तम संहनन मिले।' 'मैं तो उसी दिन की प्रतीक्षा में हूँ जब हम स्वाधीन वृत्ति वाले होंगे, पराधीन होना ही न पड़े, बस यही सदा सोचा करता हूँ।' मेरी आँखें थोड़ी नम हो गई थीं। हमने आचार्यश्रीजी से कहा' क्षमा करना ! हमारी गलती थी। हमें देखना चाहिये था। पर आपने तो कितना सारा चिंतन हम लोगों को दे दिया। हमारे प्रमाद को दूर करने के लिये। धन्य हैं गुरुदेव आप विषमता में समता रखकर तत्व चिंतन कर लेते हैं। आचार्यश्रीजी- 'विषमता में ही तत्व चिंतन अच्छा होता है, बहुत कर्म की निर्जरा भी होती है।" हम सभी नमोस्तु करके अपने स्थान पर चले गये। अपना अहोभाग्य समझा....।
  11. महापुरुषों की संगति का परिहास्य भी हमारे लिए एक इतिहास बन जाता है, उनकी वाणी एक उदास व्यक्ति के जीवन में एक आस बन जाती है। बस उनके साथ समर्पण, श्रद्धा के साथ चलते रहो। वे हमेशा हमें जगाते रहते हैं। ऐसा ही एक यह प्रसंग है पूज्य गुरुवर के साथ का। 8 जनवरी 1998, गुरुवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र से करीब 7 माह बाद विहार हुआ, सभी सोच रहे थे कि हरदा जाएँगे। लेकिन आचार्यश्री को किसी ने बताया नहर वाले कच्चे रास्ते से सीधे भादूगाँव जा सकते हैं, हरदा छूट जाएगा। आचार्यश्री तो कच्चे रास्ते से ही विहार कर दिया। मैं (ऐलक प्रज्ञासागर) एवं क्षुल्लक चंद्रसागर, ऐ निर्भयासागर और एक-दो महाराज साथ थे। पगडंडी थी। मैं और ऐलकश्री निर्भयसागरजी दोनों बहुत तेज गति से आचार्यश्री के आगेआगे चल रहे थे। आचार्यश्री हम लोगों के पीछे तेजी से आ रहे थे। पर थोड़ी देर में हम लोगों के पास आकर बोले- 'क्या हमें बूढ़ा समझ रखा है?' हम लोगों ने हँस दिया। तभी आचार्यश्री ने हम लोगों को हँसी के तौर पर छेड़ा और बोले- 'भैया जवानों के साथ में हमें भी जवान होना पड़ता है।' हम सभी उनके साथ हँसने लगे। मैंने आचार्यश्री से बोला- 'आप अभी बूढ़े थोड़े हुए हैं। आप भी तो अभी जवान हैं।' आचार्यश्री जी बोले 'ये बात अलग है, पर आप लोगों जैसे जवान तो नहीं हैं।' हमने कहा- 'आचार्यश्री जी! जवानों के साथ जो रहता है, वह कभी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर से बूढ़ा होना बूढ़ा नहीं माना जाता, मन से बूढ़ा होना ही बूढ़ापन माना जाता है, आप तो मन से सदा जवान रहते हैं।' आचार्यश्री हँसने लगे और बोले- 'हाँ, चलो मेरे भाई जवानों। सभी ने फिर एक स्वर में हँस दिया। और कदमों को तेज गति दी। शाम होने के पूर्व गंतव्य स्थान पर पहुँच गए।
  12. तत्व चर्चा करने से तत्व की अनुभूति नहीं होती है। तत्वों को जानकर आचरण में लाने से ही तत्वों की अनुभूति होती है। यह सिद्धान्त हमारे आचार्यों का है। बस इसी बात को आज वर्तमान में परम पूज्य आचार्यश्रीजी चर्या में हमें देखने को मिलता है। वे हमेशा तत्व चर्चा पर नहीं अर्चा पर अधिक विश्वास करते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग आचार्यश्रीजी ने सुनाया :- ईसरी में जिनेन्द्र वणजी की सल्लेखना चल रही थी। कुछ विद्वान लोग आए और बोले- 'हमें कुछ तत्व चर्चा करनी है।' आचार्यश्री ने कहा- 'कैसी चर्चा करनी है?" विद्वान बोले- 'उपयोग से संबंधित चर्चा करनी है।' आचार्यश्री- 'कौनसे उपयोग की चर्चा करनी है?' विद्वान बोले- 'हमें शुद्धोपयोग की चर्चा करनी है।' आचार्यश्री- 'अरे भाई! शुद्धोपयोग की चर्चा करने से उसकी अनुभूति तो होगी नहीं और उसकी चर्चा करने से आप लोगों को अशुभोपयोग और हो जाता है।" विद्वान बोले- 'नहीं, हमें चर्चा जरूर करना है।' आचार्यश्री बोले- 'आप चर्चा करेंगे पर आपको मानना तो है नहीं, फिर चर्चा करने से क्या फायदा है? अपना समय खराब करना है। यदि चर्चा करना है तो पहले अपना मन उसको ग्रहण करने का बनाओ तो कुछ फायदा है।' विद्वान बोले- ‘जो ग्रहण करने योग्य होगी हम करेंगे।' आचार्यश्री बोले- 'श्रद्धानरहित चर्चा से कोई मतलब नहीं है। आप लोगों को अभी हम पर और भगवान की वाणी पर श्रद्धान नहीं है। पहले उसे अच्छा बनाओ, फिर बाद में चर्चा करेंगे।' इतना कहकर आचार्यश्री अपना प्रतिक्रमण करने बैठ गए। वो लोग चले गए। ऐसे ज्ञानी, तत्व की बात को अपने जीवन में चरितार्थ करने वाले गुरुदेव धन्य हैं।
  13. मार्ग की बाधाएँ भी साधन बन जाती है, यदि साधक का मन श्रद्धा-विश्वास और भक्ति से भरा है। मंजिल की ओर ठोस कदम, तन नहीं, मन की संकल्प शक्ति ही बढ़ाया करती है। संकल्प शक्ति जिसकी सुदृढ़ है तो समझो मार्ग की बाधाएँ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। पहले आगे स्वयं कदम बढ़ाए जाते हैं। कल के बारे में सोचने वाला अपने हाथ से आज को भी खो देता है। पूज्य आचार्यश्री को देखते हैं तो वे कल के बारे में सोचने के लिए समय नहीं गवाते हैं। आज के बारे में सोचकर सारा कार्य करते हैं। उनकी दृष्टि में आज अच्छा है, कल तो एक कल्पना का विस्तार है। प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिवर्तित कर अपने कदमों को गतिमान करने वाले महान साधक योगी, संतों में महासंत, पूज्य गुरुवर का प्रसंग याद आता है। प्रसंग : बात कुंडलपुर 22 मार्च 2001 गुरुवार के दिन की है। प्रात:काल आहार चर्या को निकले, आहार थोड़े ही हुए थे और अंतराय आ गया। दोपहर में हम सब निश्चिंत बैठे थे, विहार की कोई संभावना जो नहीं थी। दोपहर के 2.30 बजने को थे, हमने देखा कि आचार्यश्री ने अपना कमण्डल उठाया और चल दिए बड़े बाबा के मंदिर की ओर। एक महाराज ने पूछा- दर्शन करने चलना है? आचार्यश्री- 'हाँ दर्शन करके विहार भी करना है।' तब हम सभी साधुओं ने बैग में पुस्तकें, ग्रंथ आदि रखें और आचार्यश्री के पीछे-पीछे चल दिए। चर्चा करते चल रहे थे अंतराय में कैसे विहार कर दिया? कुछ आहार में लेते नहीं, और अंतराय में विहार कर दिया थोड़ी देर में आचार्यश्री के पास पहुँच गए। तभी कुंडलपुर से 6-7 कि.मी. दूर कटनी रोड पर बर्रठ ग्राम पहुँचे। तेज धूप तो थी ही, अचानक एक छोटी सी बादल की टुकड़ी आई और बड़ी-बड़ी बूंदों के साथ पानी गिरने लगा, सभी महाराज भीग गए। हम आचार्यश्री के बाजू में चल रहे थे, तभी अचानक मुँह से निकल गया। 'बड़े बाबा अपने छोटे बाबा का बड़ा ध्यान रखते हैं। आज अंतराय है, गर्मी न बढ़ जाए इसलिए ठंडक की व्यवस्था कर दी। देखो यहाँ के अलावा आगे पीछे और कहीं बादल-पानी नहीं दिख रहा है।' आचार्यश्री थोड़ी देर बाद बोले- 'अरे भैया! बड़े बाबा का जो ध्यान करता है, उसकी व्यवस्था अपने आप हो जाती है।' हमने तभी कहा- 'आचार्यश्री आप ही तो कहते हैं कि बड़े बाबा की रेंज बहुत बड़ी है। वे वहाँ पर बैठे-बैठे सब काम कर देते हैं। फिर छोटे बाबा के लिए भी तो बड़े बाबा बहुत अच्छे लगते हैं तो बड़े बाबा भी छोटे बाबा का पूरा ध्यान रखते हैं।' पानी बंद हो चुका था तभी एक श्रावक कुंडलपुर से आए वाहन से उतरे तो उनसे पूछा 'क्यों? कुंडलपुर में पानी गिरा है?" वे सजन बोले- 'दो किमी. दूर भी पानी नहीं है.कुंडलपुर में तो एक बूंद पानी नहीं गिरा।' आचार्यश्री ने तभी कहा- 'जो मोक्षमार्ग में आगम के अनुसार चलता है उसकी व्यवस्था सहज में हो जाती है। इसलिए हमें मार्ग से विपरीत नहीं चलना चाहिए, उसके अनुकूल ही चलना चाहिए।' यह प्रसंग सुदृढ़ संकल्प शक्ति का परिणाम है, जिससे बाधाएँ भी साधक-कारण बन कर साधना करने वाले की सहायता करती है |
  14. संसार की गति बहुत तेज है, इसमें प्रगति की संभावना कम होती है। जब इसकी गति स्थिति में बदलती है तब कल्याण की परिस्थिति बनती है। संसार का मार्ग मोह का मार्ग है जो कषायों की सामग्री से भरा पड़ा है। कदम-कदम पर विषमताओं का भंडार है संसार से यदि हम जीव के संबंध की बात कहें, तो नदी-नाव का संयोग ही है जो अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि जीव का आसक्ति भाव ही संसार निर्माण करता है। परंतु जब यह जीव संसार के स्वरूप को समझ जाता है तब इससे बचने का प्रयास भी करता है। आचार्यश्री का जीवन एक आत्मदृष्ण साधक की तरह है जो हमेशा आत्मचिंतन की ओर अपने आपको लगाए रखते हैं। उनका यह एक प्रसंग हम सबको संसार की असारता का बोधक है। प्रसंग : बात 14 नवंबर 1997 शुक्रवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर की है। शाम को आचार्य भक्ति के बाद हम कुछ मुनिगण आचार्यश्री की वैयावृत्ति करने प्रतिदिन जाते थे। प्रतिदिन की तरह आज भी गए। मैंने देखा कि आचार्यश्री कुछ-कुछ उदास से लग रहे हैं। क्या बात है मन ही मन सोचने लगा। हमने पूछा- 'आचार्यश्री, क्या आपके सिर में दर्द हो रहा है?" आचार्यश्री- 'नहीं भैया, कुछ सोच रहा हूँ।' हमने सहज में पूछ लिया- 'क्या सोच रहे हैं आप?' आचार्यश्री- 'अरे! संसार की असारता के बारे में सोच रहा हूँ। जहाँ देखो वहाँ यह संसार विचित्रताओं से भरा पड़ा है। जहाँ देखो वहाँ पर कषाय की सामग्री भरी पड़ी है। कभी राग-द्वेष तो कभी क्रोध, मान आदि के रूप में विस्फोट होता ही रहता है।' हमने पूछा- 'ऐसी परिस्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए?' आचार्यश्री- 'हमें अपने वैराग्य को देखना चाहिए। उसको सुरक्षित रखने का सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। अपने सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखने का पुरुषार्थ करना चाहिए। नहीं तो इस संसार की ओर हम थोड़े से भी गए या इसकी ओर झुके, तुरंत ही इस संसार के और गहरे गर्त में गिर जाएँगे। अपनी दुर्गति भी संभवतया हो जाएगी, इसलिए अपने वैराग्य को दृढ़ करते रहना चाहिए और संसार की विचित्रता से बचते रहना चाहिए।'
  15. एक नीतिकार ने लिखा है- 'तुम किसी को शक्तिशाली या संपन्न बनाना चाहते हो तो उसे बाहरी बल देने की अपेक्षा उसके मनोबल को जाग्रत करने के निमित्त बनो।' बात सत्य है, व्यक्ति मात्र तन से बलशाली नहीं बनता है, पहले मन से बलशाली बना करता है। मन से ही जीत है तो मन से ही पराजय है। तन से आदमी कम थकता है, मन से अधिक। आचार्यश्री कभी भी अपना मनोबल कमजोर नहीं करते हैं। और साधकों को भी उसी दिशा में लगाते हैं। साधकों में आत्मशक्ति जाग्रत कराते रहते हैं। परम पूज्य गुरुदेव ‘कैसे' साधक की आत्मशक्ति का परिचय कराते हैं यह प्रसंग मेरे जीवन का है, जिसकी वजह से आज मैं इस रूप में हूँ। प्रसंग : बात 8 दिसंबर 1997 सोमवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी की है। ठंड बहुत थी, मैं अपने कमरे में बैठकर कुछ लिख रहा था। दोपहर के 1.40 बजे थे। आचार्यश्री मेरे कमरे में आए और बोले- क्यों प्रज्ञा क्या हो रहा है? हमने सहज में कहा- कुछ नहीं बस थोड़ा लिख रहा था। आचार्यश्री बोले- अच्छ ठीक है। शौच हेतु चलना है क्या? हमने अपना दुपट्टा उठाया, आचार्यश्री जी का कमण्डल हाथ में लिया और चल दिया आचार्यश्री के साथ। नर्मदा किनारे शौच के लिए गए। लौटते समय बारिश होने लगी और हवा भी चल पड़ी। मुझे ठंड लगी सो अपना दुपट्टा खोला और ओढ़ लिया। तब आचार्यश्री ने देखा और बोले- 'अरे ठंड लगने लगी क्या?' हमने धीरे से कहा- 'हाँ लग तो रही है।' आचार्यश्री ने कहा- 'सामने कुछ मजदूर पानी में भींगते हुए पत्थर तराश रहे हैं। (मंदिर का काम हो रहा था। उसके पत्थरों को आकार दे रहे थे) आचार्यश्री पुनः बोले- 'देखो ये मजदूर लोग ठंड सहते पानी में भी काम करते हैं, यह उनकी मजबूरी है- पेट के लिए करना जरूरी है।' आचार्यश्री बोले- 'प्रज्ञा! हम भी तो कर्म की मजदूरी कर रहे हैं, और मजबूरी बनाते जा रहे हैं। ये आदमी भी तो हमारे जैसे आदमी हैं, क्या इन्हें ठंड नहीं लगती है? लगती है न, पर इनका मनोबल कमजोर नहीं होता है। अपना मनोबल अच्छा करो, पहले मन की ठंड दूर करो। थोड़ी सहन करने की बात किया करो। अभी बहुत आगे बढ़ना है। जैसे ये मजदूर पेट के लिए ठंडी-गर्मी सब सहन करते हैं, वैसे हमें भी कर्मों की निर्जरा करने के लिए ठंडीगर्मी, भूख-प्यास सब कुछ सहन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।' आचार्यश्री की यह महान बात मन में बैठ गई। सो सतत् प्रयास में लग गया और 5 जनवरी 1998 को दुपट्टे का त्यागकर दिया, ऐलक पद पर आ गया।
  16. समत्व की गोद में रहने वाला श्रमण, कभी भी अपनी समता को नहीं भूलता है। विषमता पूर्ण वातावरण में भी समता को बनाए रखता है। श्रमण समता को साथी बनाता है और जीवन को साधना में लगाता है। ऐसे साधक के पास यदि कोई अशांत आदमी आ जाए तो वह भी उस श्रमण की समीप्यता पाकर अपने आप में शान्ति का अनुभव करने लगता है। समदर्शी बनकर आत्मदर्शी बन जाता है। अपने अन्दर की दृष्टि को समदृष्टि बना लेता है। दिव्य दृष्टि के धनी महानात्माओं के समागम में रहने वालों की 'दिव्य दृष्टि' न बनने पर भी 'द्रव्य दृष्टि' तो बन ही जाती है। दृष्टि दो प्रकार की होती है- एक द्रव्यदृष्टि और दूसरी पर्याय दृष्टि। जिसकी द्रव्यदृष्टि होती है, वह अपने अंदर की दिव्यदृष्टि समझ जाता है। परम पूज्य आचार्य गुरुवर ऐसे ही एक साधक, श्रमण हैं जो हमेशा पर्याय दृष्टि से दूर रहकर द्रव्यदृष्टि को देखने वाली दिव्य दृष्टि सदा जागृत रखते हैं। बात 9 मई 1997 शुक्रवार सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट की है। उस दिन अक्षय तृतीया थी। ठीक एक वर्ष पूर्व इस दिन हमारी क्षुल्लक दीक्षा हुई थी। प्रात:काल हम आचार्य- भक्ति के पूर्व आचार्यश्री के पास गए। आचार्यश्री के चरणों को स्पर्श किया, नमोस्तु करके कहा'आचार्यश्री! आज हमारी दीक्षा को एक वर्ष हो गया, पता नहीं चला कैसे एक वर्ष निकल गया?" आचार्यश्री बोले- 'अरे भैया! आत्मा की कोई उम्र नहीं होती है, वह तो शाश्वत है।' 'महाराज! इस क्षुल्लक की तो उम्र होती है।' आचार्यश्री- 'अरे! पर्याय की ओर दृष्टि क्यों रखते हो, आत्मा की ओर दृष्टि रखो, तभी मोक्षमार्ग बन पाएगा। अपनी आत्मा को देखो पर्याय को नहीं।' आचार्यश्री की द्रव्यमयी दिव्यदृष्टि को देखकर ऐसा लगा कि वस्तुत: हमारी दृष्टि पर्याय में लगी रहती है। पर्याय के आश्रित द्रव्य है, उसको देखने का प्रयास करने की प्रेरणा पूज्य गुरुदेव से मिलती है। जिनकी दृष्टि द्रव्यमयी दिव्यदृष्टि है।
  17. जो गतिमान होता है वह प्रगति करता है। समय के साथ जो अपनी गति बनाता है वही अपने लक्ष्य तक पहुँच पाता है। समय की गति ही एक ऐसी गति है जिसे रोका नहीं जा सकता। यदि आदमी समय की गति को अपने अंतरंग से जान जाता है, तो वह फिर बाहरी परिवर्तन पर विश्वास नहीं करता है, अपने अभ्यंतरजगत् की ओर निहारा करता है। व्यवहारिक जीवन में प्राय: लोग बाहरी- परिवर्तन को ही अपना परिवर्तन मान बैठते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी भूल है। आचार्यश्री के विचारों की दिशा में हम लोगों ने जाने का प्रयास किया और भविष्य के बारे में उनके विचारों को जानना चाहा तो एक ही उत्तर मिलता है- 'देखो! यानि कल की न सोचो, आज को अच्छे से देखो।' एक प्रसंग ऐसा ही बना। प्रसंग : बात 31 दिसंबर 1997 की है। हरदा से आचार्यश्री ने सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी की ओर विहार किया। रास्ते में हम साथ थे– चर्चा चली। नेमावर जी पहुँचने पर एक इतिहास बनने वाला है। सन् 1995 का समापन सन 1996 का प्रारंभ यहीं पर हुआ और अब सन् 1997 का समापन और कल 1998 का प्रारंभ भी यहीं पर होने जा रहा है। आचार्यश्री बोले- 'पल का भरोसा नहीं है, कल की बात कर रहे हो।' हमने कहा- 'महाराज जी इतना तो काल पर भरोसा करना पड़ता है।' आचार्यश्री- 'करना पड़ता है ना? पर होता नहीं है।' हम आचार्यश्री के अभिप्राय को समझ गए और हँसने लगे। आचार्यश्री ने फिर कहा- 'संसारी प्राणी की यही तो कमजोरी है कि 'सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं' यह आदमी अपने लिए वर्षों का इंतजाम करने की सोचता है, जबकि अगले 'पल' क्या होने वाला है, इसे ज्ञात नहीं है, फिर भी आने वाले 'वर्षों' पर भरोसा कर बैठता है। भरोसे की जिंदगी जीता रहता है। यही व्यक्ति का सबसे बड़ा अज्ञान है।'
  18. भूल को भूल मानना यह तो सच्चाई स्वीकारना और सुधार करने का एक श्रेष्ठ पहलू है। लेकिन आजकल व्यक्ति अपनी भूल को स्वीकार नहीं करता है, बल्कि उसे झुठलाना भी चाहता है। प्राय: देखा जाता है कि व्यक्ति बुराई का तो जल्दी अनुकरण कर लेता है, लेकिन अच्छाई को जल्दी स्वीकार नहीं कर पाता है। यह आज के मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है। परम पूज्य आचार्यश्री की विशेषता है जब कभी कोई साधक गलती करता है, तो पहले उसे उसकी गलती का अहसास कराते हैं। फिर सुधार को प्रेरित करते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग बना। प्रसंग किसी दूसरे का नहीं मेरा अपना ही है। प्रसंग : बात 20 मई 1997 की है। आचार्य भक्ति के बाद शाम के समय आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति करने गए। निवेदन किया कि हम वैय्यावृत्ति करना चाहते हैं। उन्होंने पहले तो मना कर दिया, बाद में पुनः आग्रह किया तो स्वीकृति दे दी। मैंने हाथ में घी निकाला, पिघला हुआ था। उसकी दो-तीन बूंद तखत पर गिर गई। तभी आचार्यश्री ने मेरी ओर देखा, थोड़े डाँटते हुए बोले 'प्रज्ञा प्रमाद करता है? कैसे गिरा ये घी?” मैंने सहज में उतर दिया- पता नहीं कैसे गिर गया.? आचार्यश्री हँसने लगे, और कहते हैं- 'सामने तो गिरा रहा है और कहता है पता नहीं कैसे गिर गया.?' मैंने भी हँसते हुए कहा- 'क्षमा करें महाराज! यही तो आदमी की कमजोरी है कि वह अपनी गलती को गलती नहीं मानता।' आचार्यश्री बोले- 'प्रज्ञा! तुम्हारी तरह बहुत से लोग ऐसा कहते हैं, लेकिन अपने आपको सुधारने का प्रयास नहीं करते।' इसी दौरान आचार्यश्री ने अपने बचपन की घटना सुनाई। ‘जब हम छोटे थे, स्कूल नहीं जाना होता तो बहाना बनाना चालू कर देते थे। हमारी स्लेट पट्टी फूटी है, हम नहीं जाएँगे स्कूल। तब मल्लपाजी पूछते- स्लेट पट्टी कैसे फूट गई? तब हम कहते थे- 'पता नहीं कैसे फूट गई। हमें तो नई लाओ तब स्कूल जाएँगे।' हमें अच्छी तरह पता भी है स्लेट फूटी कैसे है, लेकिन बताएँ कैसे? लेकिन आज यदि कोई गलती हो भी जाती है तो स्वीकार करने का साहस हम सब में आ गया है और आना भी चाहिए। यह हमें और हमारे चिंतन को ऊँचाई देता है।
  19. जब साधक का लक्ष्य "परमपद" को प्राप्त करने का होता है तब वह 'आत्म स्वरूप' की आराधना करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर क्रमश: बढ़ने लगता है। जिसने अपना लक्ष्य तय कर लिया है वह बड़ी से बड़ी बाधा के सामने आने पर भी राह में रुकना पसंद नहीं करता। वह अपनी दृढ़ निश्चयी साधना के बल पर अपने आपको साधता हुआ कुछ इस तरह आगे बढ़ता है कि बहुत से अनुगामी साधकों को प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। जब कभी उसके अनुगामी साधक अपनी किसी शारीरिक-मानसिक दुर्बलता के कारण उसका अनुगमन करने में पिछड़ने लगते हैं तब वह उन साधकों की आत्मशक्ति का भान कराकर उत्साहपूर्वक अनुगमन करने को तैयार कर लेता है। ऐसे ही महान साधकों में से एक 'मुक्ति पंथी' परम साधक आचार्यश्री विद्यासागरजी हमारे शिक्षा-दीक्षा गुरु हैं जिनके सानिध्य का एक-एक क्षण जीवन पर्यत अविस्मरणीय बन जाता है। वे अपने शिष्यों का उत्साह और आत्मबोध किस तरह जगाते हैं इसका एक प्रेरक प्रसंग यहाँ प्रस्तुत है। संस्मरण : बात 9 जनवरी 1997 दिन गुरुवार की है। गिरनार यात्रा से लौटते समय आचार्यश्री ने हम सभी साधकों सहित विहार करते हुए प्रात: काल गुजरात राज्य के नडियाद नगर में प्रवेश किया। उस समय ठंड बहुत थी। ऊपर से तेज बारिश भी हो रही थी। आहार चर्या के पूर्व आचार्यश्री के पास एक कमरे में मैं (उस समय क्षुल्लक अवस्था में था) और कुछ महाराज लोग साथ में बैठे थे। मुझे ठंड बहुत लग रही थी, शरीर काँप रहा था। वैसे भी मुझे सर्दी ज्यादा लगती है। आचार्यश्री ने हमारी तरफ देखा और बोले- 'क्यों प्रज्ञा क्या हो रहा है?' मैंने कहा 'आचार्यश्री! बहुत ठंड लग रही है। वैसे तो आज ठंड अधिक है और ऊपर से बारिश भी हो रही है।' मंद-मंद मुस्कान के साथ आचार्यश्री बोले 'हाँ’, सो तो है। पर अब क्या करना चाहिए?" मैंने तुरंत कहा- 'महाराज आज ठंड में विहार नहीं हो तो अच्छा है।' आचार्यश्री बोले- 'अरे भैया! कौन कहता है तुमसे विहार करने को? और विहार तो सिर्फ तन से करना है, मन से तो स्थिर रहना है।" मैंने हँसते हुए कहा- 'महाराज! बहुत कठिन काम है।' आत्मीयता से भरी मंद मुस्कान के साथ आचार्यश्री बोले 'अरे! जो श्रमण होता है वह तन से विहार करता है मन से तो सदा स्थिर रहता है।' उन्होंने उदाहरण दिया कि जो गृहस्थ लोग होते हैं वे तन से भले ही स्थिर रहते हों, पर मन से सदा विहार करते रहते हैं। तुम गृहस्थ नहीं हो। साधक हो, डरने से साधना नहीं होती, कदमों को आगे बढ़ाने से होती है।' बस! हमारे मन की दुर्बलता दूर हो गई और हम यात्रा को तत्पर हो गए। पूज्य गुरुदेव का यह प्रसंग जब भी याद आता है तब यह प्रेरणा मिलती है कि बड़ी से बड़ी कठिनाइयों में हारना नहीं, उनका सामना करना प्रत्येक साधक का स्वतः स्फूर्त सहज कार्य होना चाहिए। साधना की कसौटी पर ही साधक अपने आपको कसता है और अपने आपको परखता है। वह मन की मनमानी करने के कठिन पलों में उस पर अंकुश लगाता है, नियंत्रित मन बड़ी-बड़ी साधनाओं को सहज उपलब्धि में बदल देता है।
  20. एक बार एक संत श्री गुलाब बाबा जी जो प्राय: करके आचार्यश्री जी के दर्शन लाभ हेतु आया करते थे। वे अपने मुख से विद्यासागर नहीं विद्या महासागर कहा करते थे। एक बार उन संत जी का आगमन अमरकंटक सर्वोदय तीर्थ में हुआ। उस समय आचार्यश्री जी अपने स्थान पर नहीं थे। बाहर दो तखत खाली रखे थे जो बराबरी के थे। उन बाबा जी से एक तखत पर बैठने को कहा गया। पर वे उस तखत पर नहीं बैठे। बाबाजी बोले- ‘यह तो भगवान का आसन है। उनकी आसन की बराबरी से मैं नहीं बैठता।' और सामने जाकर चटाई पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद आचार्यश्री जी आए। बाबा जी बोलते हैं बोलो श्री विद्यासागर भगवान की जय ...' और लेट गये और अष्टांग नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने कुशल क्षेम पूछी। फिर बस मौन बैठे-बैठे आचार्यश्री को देखते रहे।
  21. 29 अप्रैल 2001, बहोरीबंद रविवार शाम को सामायिक में बैठने के पूर्व आचार्यश्री जी के पास बैठते तो चर्चा के दौरान या उनकी चर्या के दौरान ऐसा देखने को, सुनने को मिलता है जिसे हम अगर अपने अंदर उतार लें तो संसार की आसारता का भान हो जाता है। ऐसा ही आज की बात थी। सामायिक को बैठने के लिए आर्वत करके आसन लगाकर आचार्यश्री जी बैठे और बोले'और कितनी सामायिक करना पड़ेगी। उसी सामायिक को प्राप्त करना है, जिस सामायिक में केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। मैं ऐसी ही सामायिक का इंतजार कर रहा हूँ।' सुनकर लगा- इतना बड़ा कार्य होते हुए संघ का निर्वाह करते हुए आचार्यश्री निर्विकल्प दशा का सदा अनुभव करते हैं और आत्म कल्याण की सतत् भावना करते रहते हैं। इतना ही नहीं वह अपना अनुभूत ज्ञान सभी शिष्यों को भी बाँटते रहते हैं।
  22. आदमी के जीवन में बहुत से प्रसंग ऐसे देखने को मिलते हैं जिनमें उसको उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। बात सत्य है। जहाँ अधिक अपेक्षा होती है और वह पूरी नहीं होती है तो उसे अपनी उपेक्षा सी लगने लगती है। यही समय होता है अपने आपको सावधान रखने का। ऐसे समय में अपने गंभीर स्वभाव को नहीं छोड़ना चाहिए। सबको देखो, सोचो, पर कहो मत। 3 अप्रैल 2001, मंगलवार बहोरीबंद की बात है। शाम को आचार्य भक्ति के बाद हम सब लोग आचार्यश्री के पास बैठे थे। ऐलक जी भी बैठे थे। ऐलक जी राजस्थान बागड़ प्रांत में रहे, वहाँ पर दूसरे संघ के कोई महाराज की चर्या के बारे में बता रहे थे। और अपने संघ से एकदम हटकर चर्या उन लोगों की रहती है। बोले- हम लोग जहाँ जाते वहाँ के लोग हमारी चर्या से ही प्रभावित हो जाते थे और उन महाराजों की चर्या को देखते हैं तो पसंद नहीं करते थे। आचार्यश्री जी ने सुना और धीरे से कहा- अरे! भैया किसी की निंदा मत करो। हमें तो ज्ञान मार्गणा को जानकर अपने आपके ज्ञान में उतारना है। यह संसार है, इसमें तरह-तरह की विचित्रता आप लोगों को देखने को मिलती है। सबको देखते हुए अपने आपको देखो इसी में सार है। बाकी सब निस्सार है। इस संसार की विचित्र को समझ लो यही हमारा ज्ञानीपन है, किसी की निन्दा करना ज्ञानीपना नहीं अज्ञानीपना है। हम अपने ज्ञान स्वभाव का सदुपयोग करें!!
  23. किसी के प्रति आक्रोश भाव तब स्वाभाविक है, जब कोई उनकी चर्चा में व्यवधान डालता हो। लेकिन कुछ लोग ऐसे व्यवधान में भी अपने आपको सावधान रखते हैं और व्यवधान उत्पन्न करने वाले को भी ऐसा संबोधन देते हैं जिससे वह भी सावधान हो जाता है और उसको सही समाधान मिल जाता है। इसी का एक साक्षात उदाहरण पूज्य आचार्यश्रीजी के इस संस्मरण में है। एक दिन प्रातःकाल आचार्यश्री स्वयंभू स्तोत्र का पाठ करने के बाद अपने कमरे में बैठे थे। उनके पास महाराज लोग कोई गंभीर चर्चा कर रहे थे। दरवाजे बंद थे। तभी संघ के एक ऐलकजी ने दरवाजा खटखटाया। 2-3 बार खटखटाने के बाद दरवाजा खोला गया तब जैसे ही वे अंदर गए तो आचार्यश्री जी ने ऐलकजी से पूछा- 'क्यों ऐलकजी महाराज! जेल में कौन है? जेलर कौन है?' ऐलक जी कुछ समझ नहीं पाए और सोचा आखिर आचार्यश्री जी क्या कहना चाहते हैं। ऐलकजी बोले- महाराज मैं आपका आशय नहीं समझा। आचार्यश्रीजी- मैं तो अंदर था, मुझे कोई आकुलता नहीं थी, लेकिन आप बाहर थे और बहुत ही आकुल व्याकुल हो रहे थे। आकुलता किसे होती है। जिसे बंधन का अनुभव हो। मैं अंदर होते हुए भी निराकुलता का अनुभव कर रहा था और तुम बाहर रहकर भी व्याकुलता का अनुभव कर रहे थे। जैसे कैदी होता है, वह अंदर होकर भी एक निश्चित समय के लिए निराकुलता का अनुभव करता है, लेकिन जेलर बाहर रहकर भी आकुलता का अनुभव करता है। यह सब क्या है? तो अध्यात्म को सही रूप में नहीं समझने का परिणाम है। हम निराकुलता को समझें, थोड़ा धैर्य रखें!!
  24. अध्यात्म के रहस्य को समझने के पहले कर्तव्य, भोगतृत्व और स्वामित्व को पहले समझना अनिवार्य है। अध्यात्म को जिसने जीवन में समझा तो उसमें पहले तीन को पृथक् करके ही समझा है। हम किसी के कर्ता बताते हैं, या अपने कर्तृत्व का उपयोग करते हैं, तो हस्तक्षेप करते हैं। उस हस्तक्षेप से सामने वाले को तकलीफ तो होती है, लेकिन वह उसे कहता नहीं है, इसलिए हस्तक्षेप किसी को पसंद नहीं होता है। हम किसी के स्वामी बनना चाहते हैं यानि दूसरे पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं, उसे बंधन में डालना चाहते हैं। कोई भी व्यक्ति बंधन में नहीं रहना चाहता और हम उसे बंधन में रखना चाहते हैं। यदि हम अपने स्वामित्व का बल दिखाकर अपने अधीन रखते हैं तो यह भी चोरी है। आज प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है और हम उनको यदि बंधन में रखना चाहेंगे तो यह चोरी कहलाएगी। प्रश्न (शंका)- महाराज! कोई साथ रहना चाहता है, उसे फिर क्यों भगाना चाहते हैं? आचार्यश्री- इसमें भी उसका स्वार्थ है। इसके कारण से वह रहना चाहता है। निस्वार्थ भाव से नहीं जुड़कर हमें और बंधन में डाल देता है। हम किसी को अपना लेते हैं तो हमें उसकी चिंता हो जाती है। अब इसकी व्यवस्था करनी है। इन्हें भेजना है। इसलिए कहा- 'आचार्य महाराज को 'आचार्य' पद पर रहते मुक्ति कभी नहीं होती है। पहले इस पद पर से मुक्ति होगी, अर्थात्- आचार्य पद छोड़ना पड़ेगा तभी मुक्ति मिलती है। हम सबके लिए किसी दूसरे के नियंत्रण में नहीं अपने आपके नियंत्रण में रहना चाहिए। भीतर ही है। यह जो बाहर देखने में आ रहा है, इसे पहले हमने भीतर बनाया है, तब यह बाहर दिख रहा है। इस संसार के निर्माण के मुख्य तीन ही कारण हैं- कर्तृत्व, भोगतृत्व, स्वामित्व बुद्धियाँ। जैसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों बातों पर मोक्षमार्ग है। यह शरीर भी वात-पित्त-कफ पर आधारित है। वैसे संसार कर्तृत्व, भोगतृत्व, स्वामित्व पर टिका है। सारांश इतना ही है कि अध्यात्म वाद को समझने के पूर्व कर्तृत्व, भोगतृत्व और स्वामित्व को समझना जरूरी है।
  25. ज्ञानी का जीवन हमेशा ज्ञान चेतनामय रहता है। वह सदा अपना उपयोग तत्व ज्ञान के चिन्तन में लगाए रखता है। यह पूरी क्रिया हमने परम पूज्य आचार्यश्री की दिनचर्या में देखी। वे चर्चा करते करते स्वाध्याय करा देते हैं : कैसे? प्रसंग है। 24 मार्च 2001, शनिवार की प्रातःकाल विहार करके संघ बाकल जिला जबलपुर (म.प्र.) की ओर गमन कर रहा था। आचार्यश्री के साथ में हम 4-5 मुनिगण चल रहे थे। आचार्यश्री जी ने पूछा- बताओ गर्मी-सर्दी किस कर्म के उदय से लगती है? उत्तर दिया- हम लोगों के नामकर्म के उदय से। आचार्यश्री जी ने कहा- नामकर्म जो है वह पुद्गल है। पुद्गल रूप हमारा स्वभाव नहीं है। इसलिए हमें सर्दी-गर्मी की ओर दृष्टि नहीं देकर अपने आपकी ओर दृष्टि रखना चाहिए। हम लोगों ने कहा आप तो विहार करते हुए भी स्वाध्याय करते-कराते रहते हैं। आज किताब को रखकर, पढ़ने को स्वाध्याय मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं स्वाध्याय तो वह स्वभाव का अनुभव जिसको हो, आत्मा की बात है। वह स्वाध्याय हम विहार-आहार करते समय भी कर सकते हैं।
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