एक नीतिकार ने लिखा है- 'तुम किसी को शक्तिशाली या संपन्न बनाना चाहते हो तो उसे बाहरी बल देने की अपेक्षा उसके मनोबल को जाग्रत करने के निमित्त बनो।' बात सत्य है, व्यक्ति मात्र तन से बलशाली नहीं बनता है, पहले मन से बलशाली बना करता है। मन से ही जीत है तो मन से ही पराजय है। तन से आदमी कम थकता है, मन से अधिक। आचार्यश्री कभी भी अपना मनोबल कमजोर नहीं करते हैं। और साधकों को भी उसी दिशा में लगाते हैं। साधकों में आत्मशक्ति जाग्रत कराते रहते हैं। परम पूज्य गुरुदेव ‘कैसे' साधक की आत्मशक्ति का परिचय कराते हैं यह प्रसंग मेरे जीवन का है, जिसकी वजह से आज मैं इस रूप में हूँ।
प्रसंग : बात 8 दिसंबर 1997 सोमवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी की है। ठंड बहुत थी, मैं अपने कमरे में बैठकर कुछ लिख रहा था। दोपहर के 1.40 बजे थे। आचार्यश्री मेरे कमरे में आए और बोले- क्यों प्रज्ञा क्या हो रहा है? हमने सहज में कहा- कुछ नहीं बस थोड़ा लिख रहा था। आचार्यश्री बोले- अच्छ ठीक है। शौच हेतु चलना है क्या?
हमने अपना दुपट्टा उठाया, आचार्यश्री जी का कमण्डल हाथ में लिया और चल दिया आचार्यश्री के साथ। नर्मदा किनारे शौच के लिए गए। लौटते समय बारिश होने लगी और हवा भी चल पड़ी। मुझे ठंड लगी सो अपना दुपट्टा खोला और ओढ़ लिया। तब आचार्यश्री ने देखा और बोले- 'अरे ठंड लगने लगी क्या?'
हमने धीरे से कहा- 'हाँ लग तो रही है।' आचार्यश्री ने कहा- 'सामने कुछ मजदूर पानी में भींगते हुए पत्थर तराश रहे हैं। (मंदिर का काम हो रहा था। उसके पत्थरों को आकार दे रहे थे) आचार्यश्री पुनः बोले- 'देखो ये मजदूर लोग ठंड सहते पानी में भी काम करते हैं, यह उनकी मजबूरी है- पेट के लिए करना जरूरी है।' आचार्यश्री बोले- 'प्रज्ञा! हम भी तो कर्म की मजदूरी कर रहे हैं, और मजबूरी बनाते जा रहे हैं। ये आदमी भी तो हमारे जैसे आदमी हैं, क्या इन्हें ठंड नहीं लगती है? लगती है न, पर इनका मनोबल कमजोर नहीं होता है। अपना मनोबल अच्छा करो, पहले मन की ठंड दूर करो। थोड़ी सहन करने की बात किया करो। अभी बहुत आगे बढ़ना है। जैसे ये मजदूर पेट के लिए ठंडी-गर्मी सब सहन करते हैं, वैसे हमें भी कर्मों की निर्जरा करने के लिए ठंडीगर्मी, भूख-प्यास सब कुछ सहन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।' आचार्यश्री की यह महान बात मन में बैठ गई। सो सतत् प्रयास में लग गया और 5 जनवरी 1998 को दुपट्टे का त्यागकर दिया, ऐलक पद पर आ गया।