29 अप्रैल 2001, बहोरीबंद रविवार शाम को सामायिक में बैठने के पूर्व आचार्यश्री जी के पास बैठते तो चर्चा के दौरान या उनकी चर्या के दौरान ऐसा देखने को, सुनने को मिलता है जिसे हम अगर अपने अंदर उतार लें तो संसार की आसारता का भान हो जाता है। ऐसा ही आज की बात थी।
सामायिक को बैठने के लिए आर्वत करके आसन लगाकर आचार्यश्री जी बैठे और बोले'और कितनी सामायिक करना पड़ेगी। उसी सामायिक को प्राप्त करना है, जिस सामायिक में केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। मैं ऐसी ही सामायिक का इंतजार कर रहा हूँ।' सुनकर लगा- इतना बड़ा कार्य होते हुए संघ का निर्वाह करते हुए आचार्यश्री निर्विकल्प दशा का सदा अनुभव करते हैं और आत्म कल्याण की सतत् भावना करते रहते हैं। इतना ही नहीं वह अपना अनुभूत ज्ञान सभी शिष्यों को भी बाँटते रहते हैं।