समत्व की गोद में रहने वाला श्रमण, कभी भी अपनी समता को नहीं भूलता है। विषमता पूर्ण वातावरण में भी समता को बनाए रखता है। श्रमण समता को साथी बनाता है और जीवन को साधना में लगाता है। ऐसे साधक के पास यदि कोई अशांत आदमी आ जाए तो वह भी उस श्रमण की समीप्यता पाकर अपने आप में शान्ति का अनुभव करने लगता है। समदर्शी बनकर आत्मदर्शी बन जाता है। अपने अन्दर की दृष्टि को समदृष्टि बना लेता है। दिव्य दृष्टि के धनी महानात्माओं के समागम में रहने वालों की 'दिव्य दृष्टि' न बनने पर भी 'द्रव्य दृष्टि' तो बन ही जाती है।
दृष्टि दो प्रकार की होती है- एक द्रव्यदृष्टि और दूसरी पर्याय दृष्टि। जिसकी द्रव्यदृष्टि होती है, वह अपने अंदर की दिव्यदृष्टि समझ जाता है। परम पूज्य आचार्य गुरुवर ऐसे ही एक साधक, श्रमण हैं जो हमेशा पर्याय दृष्टि से दूर रहकर द्रव्यदृष्टि को देखने वाली दिव्य दृष्टि सदा जागृत रखते हैं।
बात 9 मई 1997 शुक्रवार सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट की है। उस दिन अक्षय तृतीया थी। ठीक एक वर्ष पूर्व इस दिन हमारी क्षुल्लक दीक्षा हुई थी। प्रात:काल हम आचार्य- भक्ति के पूर्व आचार्यश्री के पास गए। आचार्यश्री के चरणों को स्पर्श किया, नमोस्तु करके कहा'आचार्यश्री! आज हमारी दीक्षा को एक वर्ष हो गया, पता नहीं चला कैसे एक वर्ष निकल गया?" आचार्यश्री बोले- 'अरे भैया! आत्मा की कोई उम्र नहीं होती है, वह तो शाश्वत है।' 'महाराज! इस क्षुल्लक की तो उम्र होती है।'
आचार्यश्री- 'अरे! पर्याय की ओर दृष्टि क्यों रखते हो, आत्मा की ओर दृष्टि रखो, तभी मोक्षमार्ग बन पाएगा। अपनी आत्मा को देखो पर्याय को नहीं।' आचार्यश्री की द्रव्यमयी दिव्यदृष्टि को देखकर ऐसा लगा कि वस्तुत: हमारी दृष्टि पर्याय में लगी रहती है। पर्याय के आश्रित द्रव्य है, उसको देखने का प्रयास करने की प्रेरणा पूज्य गुरुदेव से मिलती है। जिनकी दृष्टि द्रव्यमयी दिव्यदृष्टि है।