आदमी के जीवन में बहुत से प्रसंग ऐसे देखने को मिलते हैं जिनमें उसको उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। बात सत्य है। जहाँ अधिक अपेक्षा होती है और वह पूरी नहीं होती है तो उसे अपनी उपेक्षा सी लगने लगती है। यही समय होता है अपने आपको सावधान रखने का। ऐसे समय में अपने गंभीर स्वभाव को नहीं छोड़ना चाहिए। सबको देखो, सोचो, पर कहो मत।
3 अप्रैल 2001, मंगलवार बहोरीबंद की बात है। शाम को आचार्य भक्ति के बाद हम सब लोग आचार्यश्री के पास बैठे थे। ऐलक जी भी बैठे थे। ऐलक जी राजस्थान बागड़ प्रांत में रहे, वहाँ पर दूसरे संघ के कोई महाराज की चर्या के बारे में बता रहे थे। और अपने संघ से एकदम हटकर चर्या उन लोगों की रहती है। बोले- हम लोग जहाँ जाते वहाँ के लोग हमारी चर्या से ही प्रभावित हो जाते थे और उन महाराजों की चर्या को देखते हैं तो पसंद नहीं करते थे।
आचार्यश्री जी ने सुना और धीरे से कहा- अरे! भैया किसी की निंदा मत करो। हमें तो ज्ञान मार्गणा को जानकर अपने आपके ज्ञान में उतारना है। यह संसार है, इसमें तरह-तरह की विचित्रता आप लोगों को देखने को मिलती है। सबको देखते हुए अपने आपको देखो इसी में सार है। बाकी सब निस्सार है। इस संसार की विचित्र को समझ लो यही हमारा ज्ञानीपन है, किसी की निन्दा करना ज्ञानीपना नहीं अज्ञानीपना है। हम अपने ज्ञान स्वभाव का सदुपयोग करें!!