महापुरुषों की संगति का परिहास्य भी हमारे लिए एक इतिहास बन जाता है, उनकी वाणी एक उदास व्यक्ति के जीवन में एक आस बन जाती है। बस उनके साथ समर्पण, श्रद्धा के साथ चलते रहो। वे हमेशा हमें जगाते रहते हैं। ऐसा ही एक यह प्रसंग है पूज्य गुरुवर के साथ का।
8 जनवरी 1998, गुरुवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र से करीब 7 माह बाद विहार हुआ, सभी सोच रहे थे कि हरदा जाएँगे। लेकिन आचार्यश्री को किसी ने बताया नहर वाले कच्चे रास्ते से सीधे भादूगाँव जा सकते हैं, हरदा छूट जाएगा। आचार्यश्री तो कच्चे रास्ते से ही विहार कर दिया। मैं (ऐलक प्रज्ञासागर) एवं क्षुल्लक चंद्रसागर, ऐ निर्भयासागर और एक-दो महाराज साथ थे। पगडंडी थी। मैं और ऐलकश्री निर्भयसागरजी दोनों बहुत तेज गति से आचार्यश्री के आगेआगे चल रहे थे। आचार्यश्री हम लोगों के पीछे तेजी से आ रहे थे। पर थोड़ी देर में हम लोगों के पास आकर बोले- 'क्या हमें बूढ़ा समझ रखा है?' हम लोगों ने हँस दिया। तभी आचार्यश्री ने हम लोगों को हँसी के तौर पर छेड़ा और बोले- 'भैया जवानों के साथ में हमें भी जवान होना पड़ता है।' हम सभी उनके साथ हँसने लगे।
मैंने आचार्यश्री से बोला- 'आप अभी बूढ़े थोड़े हुए हैं। आप भी तो अभी जवान हैं।' आचार्यश्री जी बोले 'ये बात अलग है, पर आप लोगों जैसे जवान तो नहीं हैं।' हमने कहा- 'आचार्यश्री जी! जवानों के साथ जो रहता है, वह कभी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर से बूढ़ा होना बूढ़ा नहीं माना जाता, मन से बूढ़ा होना ही बूढ़ापन माना जाता है, आप तो मन से सदा जवान रहते हैं।' आचार्यश्री हँसने लगे और बोले- 'हाँ, चलो मेरे भाई जवानों। सभी ने फिर एक स्वर में हँस दिया। और कदमों को तेज गति दी। शाम होने के पूर्व गंतव्य स्थान पर पहुँच गए।