प्रमाद हुआ और कोई उसको बता दे तो उसमें सुधार हो सकता है। यदि कोई बताने वाला न हो तो वह प्रमाद का कार्य बढ़ता जाता है। इसलिये गुरुजन सदा अप्रमत्त योगी बने रहते हैं, कोई भूल करता है तो तत्काल उसमें सुधार करा देते हैं। कैसे कराते हैं? तो यह प्रसंग पढ़ें।
शाम के समय हम लोग वैय्यावृत्ति कर रहे थे। मैंने सोचा चलो आचार्यश्री जी के सिर पर घी लगाएँ, डिब्बी में से घी निकाला। पिघला हुआ था हाथ से थोड़ा घी तखत पर गिर गया। मैंने उसे साफ करने लगा- तभी आचार्यश्री जी बोले हँसते हुए- 'प्रज्ञा! कहाँ गई तेरी प्रज्ञा, सावधानी नहीं रखता, प्रमाद करता है।' मैंने धीरे से कहा- 'थोड़ा-सा ही गिरा है।'
आचार्यश्री जी बोले- 'बात थोड़े-बहुत घी गिरने की नहीं है। बात आपके प्रमाद की है। कोई भी कार्य करते हैं, सावधानी से करना चाहिए। वैय्यावृत्ति में और सावधानी रखना चाहिए। प्रमाद के साथ वैय्यावृत्ति करते हैं, तो वह वैय्यावृत्ति कर्म निर्जरा का कारण नहीं होती है। वैय्यावृत्ति तप है। उसमें यदि प्रमाद हुआ तो वह कर्म निर्जरा का कारण नहीं हो सकती है। हमें बात समझ में आ गई।' हमने मौन रहकर सिर हिला दिया। आचार्यश्री- 'सदा ध्यान रखो, वैय्यावृत्ति या मुनि चर्या में कहीं भी प्रमाद नहीं होना चाहिए।'