आचार्य का लक्षण जैनागम में कैसा कहा है? जो शिष्यों का अनुग्रह और संग्रह करने में कुशल होते हैं। उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। परम पूज्य आचार्यश्री जी में ये दोनों गुण बहुत ही अच्छी तरह से पाये जाते हैं- शिष्यों का उपकार करना और संग्रह उन्होंने कैसे किया इस बुंदेलखंड की धरा पर इस प्रसंग से ज्ञात होता है।
23 मार्च 2001 शुक्रवार पटेरिया सागौना से विहार किया। धूप बहुत थी। गर्मी से पसीना-पसीना हो रहे थे। 7 किमी. चल चुके थे। रास्ते में जंगल दोनों तरफ था, लेकिन पतझड़ के कारण चारों तरफ वीरान-सा था। कहीं पर छाया नहीं दिख रही थी। मार्ग में एक नाला सूखा मिला। उसकी ओट में छाया थीं, वहाँ पर हमने आचार्यश्री को बैठने का निवेदन किया। आचार्यश्री ने स्वीकृति दे दी, वे वहाँ पर एक छोटे पत्थर पर बैठ गए। बैठे-बैठे चर्चा चली बुंदेलखंडी लोग कैसे दुकान चलाते हैं और ग्राहक को कैसे पटाते हैं। दुकान पर एक ग्राहक आता है। बाप-बेटा दुकान पर है। लड़का ग्राहक पर नाराज हो जाता है, पिता ग्राहक को समझाता है। ये लड़का जल्दी नाराज हो जाता है। ऐसे में ग्राहकी मिटा देगा। दूसरे महाराज ने दुकानदार की बात कही कि ग्राहक से बाप बोला। भैया लड़के की बात का बुरा नहीं मानना बोलो कितने में लेना है। वह इतने पैसा बताता है। वह 2-4 रुपया बढ़ाकर देने में तैयार हो गया। चलो घाटा तो...।
लड़का चिल्लाया भी, फिर भी वह दे देता है। उसमें भी कमा लेता है। वैसे ही भैया हमें भी अपनी दुकानदारी चलाना है, बुंदेलखंडी लोगों से ही चलाना सीखे हैं। जब तो अपनी इतनी बड़ी दुकान हो गई है। अब तो ग्राहकी बहुत हो गई है। मना करना पड़ता है। आचार्यश्रीजी भी बोले- हम भी बुंदेलखंड में आकर ही अच्छे से दुकान चलाना सीखे हैं। हमने (मुनि अजितसागर) कहा कैसे आचार्यश्री जी ने कहा- कोई हमारे पास व्रत लेने को आता है, तो पहले हम कहते हैं माता-पिता को लाओ, जब हम व्रत देते हैं, यह नियम है। लेकिन जब भाव देखते हैं, तो उसको फिर छोड़ते नहीं। उससे कहते- किसी से कहना नहीं अपने तक सीमित रखनाअभी दो साल का ले लो फिर बाद में देखेंगे....। हम सबने जोर से हॅस दिया.।