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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • उत्तम संहनन की मनुष्य - पर्याय

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    सामने वाला गलती करता है तो उसे देखकर महान व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति उसकी भूल पर दुख का वेदन करते हैं, पर उसका वेदन करने के बाद क्रोध नहीं अपने उपयोग को आत्मबोध के कार्य में लगा देते हैं, ऐसा ही प्रसंग यह आचार्यश्रीजी के साथ का है।

     

    बीना बारहजी में आचार्यश्री के हाथ में सूजन आ गई थी। बाह्य उपचार के रूप में गरम पानी में नमक-फिटकरी डालकर सिकाई प्रात:काल एवं शाम को (आचार्य भक्ति के बाद) करता था। प्रात:काल आचार्यश्री के हाथ की सिकाई के लिए हम गर्म पानी लाये, उसे ठीक से देखा नहीं और नमक-फिटकरी मिलाकर सिकाई करने लगा। पानी अधिक गरम था, हाथ में पानी लगते ही आचार्यश्री ने हाथ एकदम खींच लिया जो गर्म पानी होने से जल गया था। मैं पश्चाताप करने लगा, मेरे प्रमाद के कारण से हाथ जला था। मैंने जल स्पर्शकर देखा नहीं था, मेरा चेहरा फीका पड़ गया और मैं निराश हो गया।

     

    तभी आचार्यश्री बोले- 'कैसा शरीर है, थोड़ी सी भी प्रतिकूलता को सहन नहीं कर सकता है। थोड़ा कुछ हुआ और नू-नच करने लगता है। इसको तो उतना ही वेतन देना चाहिए जितना ये काम करता है, अधिक वेतन (भोजन) देंगे तो ये आलसी हो जाएगा। इसलिए ये तन जो कहता है, उसके अनुसार हमें नहीं करना चाहिए। शरीर के लिए जितना करो उसे उतना ही कम अनुभव होता है।' बाद में कहते हैं- 'वो शरीर संहनन जो शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में सरोवर या नदी के तटों पर एवं पहाड़ की चोटी पर बैठकर आतापन योग करते थे, आज वो संहनन कहाँ गया? हम भी काश वैसा तप करके कर्म निर्जरा करते।'

     

    अंत में धीरे से कहते हैं- 'अरे! भैया, हम लोग हीन पुण्य लेकर आए हैं, जब तो इस पंचमकाल में उत्पन्न हुए। आज हमें साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। अच्छी विशुद्धि बढ़ाओ जिससे आगे जब मनुष्य भव मिले तो उत्तम संहनन मिले।' 'मैं तो उसी दिन की प्रतीक्षा में हूँ जब हम स्वाधीन वृत्ति वाले होंगे, पराधीन होना ही न पड़े, बस यही सदा सोचा करता हूँ।' मेरी आँखें थोड़ी नम हो गई थीं। हमने आचार्यश्रीजी से कहा' क्षमा करना ! हमारी गलती थी। हमें देखना चाहिये था। पर आपने तो कितना सारा चिंतन हम लोगों को दे दिया। हमारे प्रमाद को दूर करने के लिये। धन्य हैं गुरुदेव आप विषमता में समता रखकर तत्व चिंतन कर लेते हैं। आचार्यश्रीजी- 'विषमता में ही तत्व चिंतन अच्छा होता है, बहुत कर्म की निर्जरा भी होती है।" हम सभी नमोस्तु करके अपने स्थान पर चले गये। अपना अहोभाग्य समझा....।


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