अध्यात्म के रहस्य को समझने के पहले कर्तव्य, भोगतृत्व और स्वामित्व को पहले समझना अनिवार्य है। अध्यात्म को जिसने जीवन में समझा तो उसमें पहले तीन को पृथक् करके ही समझा है। हम किसी के कर्ता बताते हैं, या अपने कर्तृत्व का उपयोग करते हैं, तो हस्तक्षेप करते हैं। उस हस्तक्षेप से सामने वाले को तकलीफ तो होती है, लेकिन वह उसे कहता नहीं है, इसलिए हस्तक्षेप किसी को पसंद नहीं होता है।
हम किसी के स्वामी बनना चाहते हैं यानि दूसरे पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं, उसे बंधन में डालना चाहते हैं। कोई भी व्यक्ति बंधन में नहीं रहना चाहता और हम उसे बंधन में रखना चाहते हैं। यदि हम अपने स्वामित्व का बल दिखाकर अपने अधीन रखते हैं तो यह भी चोरी है। आज प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है और हम उनको यदि बंधन में रखना चाहेंगे तो यह चोरी कहलाएगी।
प्रश्न (शंका)- महाराज! कोई साथ रहना चाहता है, उसे फिर क्यों भगाना चाहते हैं? आचार्यश्री- इसमें भी उसका स्वार्थ है। इसके कारण से वह रहना चाहता है। निस्वार्थ भाव से नहीं जुड़कर हमें और बंधन में डाल देता है। हम किसी को अपना लेते हैं तो हमें उसकी चिंता हो जाती है। अब इसकी व्यवस्था करनी है। इन्हें भेजना है। इसलिए कहा- 'आचार्य महाराज को 'आचार्य' पद पर रहते मुक्ति कभी नहीं होती है। पहले इस पद पर से मुक्ति होगी, अर्थात्- आचार्य पद छोड़ना पड़ेगा तभी मुक्ति मिलती है। हम सबके लिए किसी दूसरे के नियंत्रण में नहीं अपने आपके नियंत्रण में रहना चाहिए। भीतर ही है। यह जो बाहर देखने में आ रहा है, इसे पहले हमने भीतर बनाया है, तब यह बाहर दिख रहा है।
इस संसार के निर्माण के मुख्य तीन ही कारण हैं- कर्तृत्व, भोगतृत्व, स्वामित्व बुद्धियाँ। जैसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों बातों पर मोक्षमार्ग है। यह शरीर भी वात-पित्त-कफ पर आधारित है। वैसे संसार कर्तृत्व, भोगतृत्व, स्वामित्व पर टिका है। सारांश इतना ही है कि अध्यात्म वाद को समझने के पूर्व कर्तृत्व, भोगतृत्व और स्वामित्व को समझना जरूरी है।