किसी के प्रति आक्रोश भाव तब स्वाभाविक है, जब कोई उनकी चर्चा में व्यवधान डालता हो। लेकिन कुछ लोग ऐसे व्यवधान में भी अपने आपको सावधान रखते हैं और व्यवधान उत्पन्न करने वाले को भी ऐसा संबोधन देते हैं जिससे वह भी सावधान हो जाता है और उसको सही समाधान मिल जाता है। इसी का एक साक्षात उदाहरण पूज्य आचार्यश्रीजी के इस संस्मरण में है।
एक दिन प्रातःकाल आचार्यश्री स्वयंभू स्तोत्र का पाठ करने के बाद अपने कमरे में बैठे थे। उनके पास महाराज लोग कोई गंभीर चर्चा कर रहे थे। दरवाजे बंद थे। तभी संघ के एक ऐलकजी ने दरवाजा खटखटाया। 2-3 बार खटखटाने के बाद दरवाजा खोला गया तब जैसे ही वे अंदर गए तो आचार्यश्री जी ने ऐलकजी से पूछा- 'क्यों ऐलकजी महाराज! जेल में कौन है? जेलर कौन है?' ऐलक जी कुछ समझ नहीं पाए और सोचा आखिर आचार्यश्री जी क्या कहना चाहते हैं।
ऐलकजी बोले- महाराज मैं आपका आशय नहीं समझा। आचार्यश्रीजी- मैं तो अंदर था, मुझे कोई आकुलता नहीं थी, लेकिन आप बाहर थे और बहुत ही आकुल व्याकुल हो रहे थे। आकुलता किसे होती है। जिसे बंधन का अनुभव हो। मैं अंदर होते हुए भी निराकुलता का अनुभव कर रहा था और तुम बाहर रहकर भी व्याकुलता का अनुभव कर रहे थे। जैसे कैदी होता है, वह अंदर होकर भी एक निश्चित समय के लिए निराकुलता का अनुभव करता है, लेकिन जेलर बाहर रहकर भी आकुलता का अनुभव करता है। यह सब क्या है? तो अध्यात्म को सही रूप में नहीं समझने का परिणाम है। हम निराकुलता को समझें, थोड़ा धैर्य रखें!!