Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तन से चलो मन को कसो

       (0 reviews)

    जब साधक का लक्ष्य "परमपद" को प्राप्त करने का होता है तब वह 'आत्म स्वरूप' की आराधना करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर क्रमश: बढ़ने लगता है। जिसने अपना लक्ष्य तय कर लिया है वह बड़ी से बड़ी बाधा के सामने आने पर भी राह में रुकना पसंद नहीं करता। वह अपनी दृढ़ निश्चयी साधना के बल पर अपने आपको साधता हुआ कुछ इस तरह आगे बढ़ता है कि बहुत से अनुगामी साधकों को प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। जब कभी उसके अनुगामी साधक अपनी किसी शारीरिक-मानसिक दुर्बलता के कारण उसका अनुगमन करने में पिछड़ने लगते हैं तब वह उन साधकों की आत्मशक्ति का भान कराकर उत्साहपूर्वक अनुगमन करने को तैयार कर लेता है।


    ऐसे ही महान साधकों में से एक 'मुक्ति पंथी' परम साधक आचार्यश्री विद्यासागरजी हमारे शिक्षा-दीक्षा गुरु हैं जिनके सानिध्य का एक-एक क्षण जीवन पर्यत अविस्मरणीय बन जाता है। वे अपने शिष्यों का उत्साह और आत्मबोध किस तरह जगाते हैं इसका एक प्रेरक प्रसंग यहाँ प्रस्तुत है।

     

    संस्मरण : बात 9 जनवरी 1997 दिन गुरुवार की है। गिरनार यात्रा से लौटते समय आचार्यश्री ने हम सभी साधकों सहित विहार करते हुए प्रात: काल गुजरात राज्य के नडियाद नगर में प्रवेश किया। उस समय ठंड बहुत थी। ऊपर से तेज बारिश भी हो रही थी। आहार चर्या के पूर्व आचार्यश्री के पास एक कमरे में मैं (उस समय क्षुल्लक अवस्था में था) और कुछ महाराज लोग साथ में बैठे थे। मुझे ठंड बहुत लग रही थी, शरीर काँप रहा था। वैसे भी मुझे सर्दी ज्यादा लगती है।

     

    आचार्यश्री ने हमारी तरफ देखा और बोले- 'क्यों प्रज्ञा क्या हो रहा है?' मैंने कहा 'आचार्यश्री! बहुत ठंड लग रही है। वैसे तो आज ठंड अधिक है और ऊपर से बारिश भी हो रही है।' मंद-मंद मुस्कान के साथ आचार्यश्री बोले 'हाँ’, सो तो है। पर अब क्या करना चाहिए?" मैंने तुरंत कहा- 'महाराज आज ठंड में विहार नहीं हो तो अच्छा है।' आचार्यश्री बोले- 'अरे भैया! कौन कहता है तुमसे विहार करने को? और विहार तो सिर्फ तन से करना है, मन से तो स्थिर रहना है।" मैंने हँसते हुए कहा- 'महाराज! बहुत कठिन काम है।' आत्मीयता से भरी मंद मुस्कान के साथ आचार्यश्री बोले 'अरे! जो श्रमण होता है वह तन से विहार करता है मन से तो सदा स्थिर रहता है।' उन्होंने उदाहरण दिया कि जो गृहस्थ लोग होते हैं वे तन से भले ही स्थिर रहते हों, पर मन से सदा विहार करते रहते हैं। तुम गृहस्थ नहीं हो। साधक हो, डरने से साधना नहीं होती, कदमों को आगे बढ़ाने से होती है।'

     

    बस! हमारे मन की दुर्बलता दूर हो गई और हम यात्रा को तत्पर हो गए। पूज्य गुरुदेव का यह प्रसंग जब भी याद आता है तब यह प्रेरणा मिलती है कि बड़ी से बड़ी कठिनाइयों में हारना नहीं, उनका सामना करना प्रत्येक साधक का स्वतः स्फूर्त सहज कार्य होना चाहिए। साधना की कसौटी पर ही साधक अपने आपको कसता है और अपने आपको परखता है। वह मन की मनमानी करने के कठिन पलों में उस पर अंकुश लगाता है, नियंत्रित मन बड़ी-बड़ी साधनाओं को सहज उपलब्धि में बदल देता है।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...