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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • संसार : निस्सार

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    संसार की गति बहुत तेज है, इसमें प्रगति की संभावना कम होती है। जब इसकी गति स्थिति में बदलती है तब कल्याण की परिस्थिति बनती है। संसार का मार्ग मोह का मार्ग है जो कषायों की सामग्री से भरा पड़ा है। कदम-कदम पर विषमताओं का भंडार है संसार से यदि हम जीव के संबंध की बात कहें, तो नदी-नाव का संयोग ही है जो अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि जीव का आसक्ति भाव ही संसार निर्माण करता है। परंतु जब यह जीव संसार के स्वरूप को समझ जाता है तब इससे बचने का प्रयास भी करता है। आचार्यश्री का जीवन एक आत्मदृष्ण साधक की तरह है जो हमेशा आत्मचिंतन की ओर अपने आपको लगाए रखते हैं। उनका यह एक प्रसंग हम सबको संसार की असारता का बोधक है।

     

    प्रसंग : बात 14 नवंबर 1997 शुक्रवार सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर की है। शाम को आचार्य भक्ति के बाद हम कुछ मुनिगण आचार्यश्री की वैयावृत्ति करने प्रतिदिन जाते थे। प्रतिदिन की तरह आज भी गए। मैंने देखा कि आचार्यश्री कुछ-कुछ उदास से लग रहे हैं। क्या बात है मन ही मन सोचने लगा। हमने पूछा- 'आचार्यश्री, क्या आपके सिर में दर्द हो रहा है?" आचार्यश्री- 'नहीं भैया, कुछ सोच रहा हूँ।' हमने सहज में पूछ लिया- 'क्या सोच रहे हैं आप?' आचार्यश्री- 'अरे! संसार की असारता के बारे में सोच रहा हूँ। जहाँ देखो वहाँ यह संसार विचित्रताओं से भरा पड़ा है। जहाँ देखो वहाँ पर कषाय की सामग्री भरी पड़ी है। कभी राग-द्वेष तो कभी क्रोध, मान आदि के रूप में विस्फोट होता ही रहता है।' हमने पूछा- 'ऐसी परिस्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए?'

     

    आचार्यश्री- 'हमें अपने वैराग्य को देखना चाहिए। उसको सुरक्षित रखने का सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। अपने सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखने का पुरुषार्थ करना चाहिए। नहीं तो इस संसार की ओर हम थोड़े से भी गए या इसकी ओर झुके, तुरंत ही इस संसार के और गहरे गर्त में गिर जाएँगे। अपनी दुर्गति भी संभवतया हो जाएगी, इसलिए अपने वैराग्य को दृढ़ करते रहना चाहिए और संसार की विचित्रता से बचते रहना चाहिए।'


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