गुरु अपने शिष्यों को कब कौनसी शिक्षा दे दें यह कोई जान नहीं सकता है। आचार्यश्रीजी किस समय हम सभी साधकों को नई दिशा दे दें, कौनसा रहस्य बता दें इसका पता नहीं इसलिए गुरु की संगति हरक्षण हमें एक नयी दिशाबोध पाने की ओर लालायित रखती है। वह कैसे? उसी प्रसंग का यह संदर्भ है :-
बीना बारहा से सागर की ओर विहार चल रहा था। 15 अप्रैल 1998 बुधवार। देवरी से विहार हुआ और गोपालपुरा ग्राम के विश्राम गृह में विश्राम हुआ। प्रतिक्रमण आदि करके सामायिक के पूर्व आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति हेतु मैने और दो ब्रह्मचारी जी ने आचार्यश्री से निवेदन किया। आचार्यश्री ने मौन स्वीकृति दे दी, हम लोगों ने वैय्यावृत्ति प्रारंभ कर दी। थोड़ी देर बाद धीरे से बोले- 'अब तो 'ये बहुत वैय्यावृत्ति कराने लगा है।' मैंने आश्चर्यभरी दृष्टि से आचार्यश्री की ओर देखा और सहज में पूछ बैठा- 'कौन कराने लगा?"
आचार्यश्री बोले- 'अरे! कौन कराएगा। ये ‘शरीर' कराने लगा है, और बहुत सेवा कराने की भावना रखता है। अरे! महाराजजी (आचार्यश्री ज्ञानसागरजी) वृद्ध थे, 80 वर्ष की आयु, परंतु इतनी सेवा नहीं कराते थे।' तभी मैंने कहा- 'आप तो थे, आप वैय्यावृत्ति तो करते होंगे?' आचार्यश्री बोले- 'करता तो था। लेकिन वो अधिक कराते कहाँ थे! वो अपना समय ध्यान-अध्ययन में लगाते, थोड़ी बहुत करा लेते थे और धीरे से कह देते थे कि जाओ, स्वाध्याय अध्ययन करो। बहुत से लोग आते हैं।' 'आप इतने में मान जाते थे?" मैंने कहा। 'अरे भैया! डर भी तो लगता था। एक बार मना कर दिया तो फिर दूसरी बार आग्रह करने की हिम्मत नहीं होती थी। तुम लोगों जैसी जबर्दस्ती तो हम कर नहीं सकते थे। महाराज ने एक बार मना कर दिया तो फिर आग्रह नहीं कर सकता था। तो हमारी वैय्यावृत्ति आदि सब छूट गई।' इतना कह करके आचार्यश्री उठ गए। सामायिक करने के लिए आवर्त करने लगे।