चातुर्मास स्थापना का समय समीप आ गया था। सभी की भावना थी कि इस बार आचार्य महाराज नैनागिरि में ही वर्षाकाल व्यतीत करें। वैसे नैनागिरि के आसपास डाकुओं का भय बना रहता था, पर लोगों को विश्वास था कि आचार्य महाराज के रहने से सब काम निर्भयता से सानन्द सम्पन्न होंगे। सभी की भावना साकार हुई। चातुर्मास की स्थापना हो गई।
एक दिन हमेशा की तरह जब आचार्य महाराज आहार-चर्या से लौटकर पर्वत की ओर जा रहे थे तब रास्ते में समीप के जंगल से निकलकर चार डाकू उनके पीछे-पीछे पर्वत की ओर बढ़ने लगे। सभी के मुख वस्त्रों से ढके थे, हाथ में बंदूकें थीं। लोगों को थोड़ा भय लगा, पर आचार्य महाराज सहज भाव से आगे बढ़ते गए। मन्दिर में पहुँचकर दर्शन के उपरान्त सभी लोग बैठ गए। आचार्य महाराज के मुख पर बिखरी मुस्कान और सब ओर फैली निर्भयता व आत्मीयता देखकर वह डाकुओं का दल चकित हुआ। सभी ने बंदूकें उतारकर एक ओर रख दीं और आचार्य महाराज की शान्त मुद्रा के समक्ष नतमस्तक हो गए।
आचार्य महाराज ने आशीष देते हुए कहा कि-‘निर्भय होओ और सभी लोगों को निर्भय करो। हम यहाँ चार माह रहेंगे, चाहो तो सच्चाई के मार्ग पर चल सकते हो।” वे सब सुनते रहे, फिर झुककर विनय भाव से प्रणाम करके धीरे-धीरे लौट गए। फिर लोगों को नैनागिरि आने में जरा भी भय नहीं लगा। वहाँ किसी के साथ कोई दुर्घटना भी नहीं हुई। आचार्य महाराज की छाया में सभी को अभय-दान मिला।
नैनागिरि (१९७८)