Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • साधु-संगति

       (0 reviews)

    मैंने देखा ईर्यापथ-प्रतिक्रमण का समय होने वाला है। उनके पास हमारी तरह कलाई पर बँधी कोई घड़ी नहीं है, पर लग रहा है कि हर घड़ी उनकी है। समय की नब्ज पर उनका हाथ है। सभी शिष्यगण विनत भाव से आकर बैठते जा रहे हैं। थोड़ी देर में प्रतिक्रमण के स्पष्ट मधुर मंद स्वर गूंजने लगे। सभी साधुजनों का मन आकाश में चमकते सूरज की तरह अत्यन्त उज्ज्वल और निर्मल होकर चमक उठा है। मैं भी सोच रहा हूँ कि मेरे जीवन का प्रतिक्षण इतना ही पवित्र हो सके, ताकि जीने का भरपूर आनन्द मैं भी ले सकूं।

     

    उन्हें प्रतिक्रमण से गुजरते और दोपहर की सामायिक में जाते देख रहा हूँ। प्रतिक्रमण, मानो सामायिक के लिए प्रवेश द्वार है। सामायिक से पहले उन्होंने खड़े होकर पूर्व से उत्तर दिशा की ओर क्रमश: चारों दिशाओं में प्रणाम निवेदित किया है। णमोकार महामंत्र पढ़ा है और दो बार जमीन पर बैठकर माथा टेककर नमन किया है। इस बीच अंजुलिपुट चार बार मुकुलित हुए हैं। घड़ी की सुई के घूमने की दिशा में हाथ की अंजुलि को तीन बार घुमाकर तीन आवर्त पूरे किए गए हैं। मनवचन-काय सब एकाकार होने की है। इस बीच उनके होठों पर हल्कीसी मुस्कान के साथ मंद स्वरों में ‘ओम् नम: सिद्धेभ्य:' उच्चरित होते सुन रहा हूँ। पद्मासन में बैठ कर अब वे अपने में अविचल हैं। मैं सोच में डूबा गुमसुम-सा खड़ा रह गया हूँ। पल भर को लगा कि जैसे हम नदी के साथ-साथ/सागर की ओर गए/नदी सागर में मिली/हम किनारे पर खड़े रह गए।

     

    सामायिक पूरी होते-होते दोपहर ढल चुकी है। वे अब चिन्तन मनन में लग गए हैं। सुखासीन हैं। बाहर-भीतर सब एक सार मालूम पड़ता है। उनके सब ओर उजलापन है। सुनता आया हूँ कि जब कभी कविता उनके श्रीमुख से बहती है तो हवाओं में रस भर जाता है। आज सभी के साथ मैं भी उनके श्रीमुख से कुछ सुन पाने के लिए उत्सुक हूँ। शायद मेरे मन की पुकार उन तक पहुँच गई है। तभी तो मानो मेरी ओर देखकर वे मुस्कुरा रहे हैं। मुस्कुराना कोई उनसे सीखे। एकदम बच्चों की तरह सरल, तरल और निर्मल।

     

    उस दिन पहली बार मैंने किसी साधु के निश्छल हृदय से झरते काव्य-रस का स्वाद लिया। छंदबद्ध होकर भी कविता को मुक्त होते देखा। तब लगा कि स्वरों में राग और भावों में वीतराग, अद्भुत है आत्म-संगीत से उनका यह अनुराग। देखते-देखते वहाँ सब संगीतमय हो गया। तन-मन-प्राण सब विरक्ति के रस में भीग गए। श्रद्धा और भक्ति से विगलित सबके हृदय भर गए। यही उपलब्धि इन क्षणों की थी, जो आज भी अपने होने का एहसास कराती है। सचमुच, यह संगति साधु की, हरे कोटि अपराध।”

    कुण्डलपुर(१९७६)


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...