अचानक खबर मिली की आचार्य महाराज अत्यधिक अस्वस्थ हैं। तीव्र ज्वर है। तमाम बाह्य-उपचार के बावजूद भी लाभ नहीं हो पा रहा। सुनकर मन बैचेन हो उठा। तुरन्त ही उनके समीप पहुँचने का निश्चय कर लिया। जीवन भर व्यक्ति अपने ऊपर आने वाली सैकड़ों आपदाएँ सहन कर लेता है, पर किसी रोज जब उसे यह मालूम पड़ता है कि वे चरण पीड़ा से गुजर रहे हैं जिन चरणों में उसने स्वयं को समर्पित किया है, तब वह पीड़ा असह्य हो जाती है। स्वयं को सँभालना मुश्किल हो जाता है। जैसे-तैसे अपने को सँभालकर रात्रि के अँधेरे में उन तक पहुँचने के लिए यात्रा प्रारम्भ कर दी।
रात के सन्नाटे में नैनागिरि के उस सुनसान जंगल से गुजरते वक्त जरा भी भय नहीं लगा। एक समय था जब इस जंगल में दस्यु-दल के आतंक की छाया डोलती थी और आदमी दिन के उजाले में भी इस ओर यात्रा करने से डरता था। आज सब ओर अभय की स्वच्छ, शीतल और पवित्र चाँदनी फैली हुई है। यह सब उनकी चरण-रज का प्रताप है। वहाँ पहुँचकर जब समीप जाकर उन्हें देखा तो लगा मात्र उनकी देह ही रुग्ण है, वे तो आत्मस्थ हैं, स्वस्थ हैं। सेवा में लगे लोगों ने बताया- अभी कुछ देर पहले ज्वर की असह्य पीड़ा से जकड़ी उनकी तप्त श्लथ देह की सहारा देकर उठाते वक्त उनकी सजागता देखते ही बनती थी। करवट बदलने से पहले उन्होंने बड़ी तत्परता के साथ पिच्छिका से स्थान परिमार्जित किया और पुनः लेट गए। मैं जितनी देर उनके समीप रहा यही सोचता रहा कि ऐसी शारीरिक पीड़ा के बावजूद भी इतनी आत्म-जागृती कैसे रह पाती है ?
इसी बीच यह भी मालूम पड़ा कि कल वेदना की तीव्रता इतनी रही कि रोग असाध्य मानकर आचार्य महाराज ने बहुत संयत और शान्त भाव से अपने सभी शिष्यों को बुलाकर अपना आचार्य-पद त्याग करने और सल्लेखना लेने की बात सामने रखी। सभी शिष्य चकित और हतप्रभ हो गए। आँखों से आँसू भरे, सिर झुकाए सब एक ओर हाथ जोड़े खड़े रह गए। सब इस सोच में डूब गए कि जाने अब क्या होगा ? उन क्षणों में आचार्य महाराज की पद के प्रति अलिप्तता और आत्म-कल्याण के लिए स्तुत्य सजगता उनकी उत्कृष्ट-साधना का परिचय दे रही थी।
धीरे-धीरे रात बीत गई। सभी ने सुबह उगते सूरज के साथ-साथ उन्हें भी बाहर रोशनी में आते देखा। मैंने चाहा कि आगे बढ़कर उन्हें थाम लू, पर उनकी मुस्कान में झलकते आत्म-बल के सामने मैं स्वयं ही थम गया। वे देह के विकार को विसर्जित करने जंगल की ओर जा रहे थे। मैं उनके पीछे कमंडलु लिए चलते-चलते सोचता रहा कि क्या कभी ऐसे ही अपने अंतस के तमाम विकारों को विसर्जित करके आत्मशुद्धि के लिए मैं भी प्रयत्न कर पाऊँगा ? जो भी हो उनका सहारा पाकर लग रहा है कि सब संभव है। जंगल से वापस आते ही मैंने उनके श्री-चरणों में अपना माथा रखा और स्वयं को समर्पित कर दिया।
आज उनकी अस्वस्थता का यह तीसरा दिन था। ज्वर की वेदना और अन्तराय कर्म की प्रबलता के कारण पिछले दो दिन निराहार ही बीत गए । इन दिनों पीड़ा के जिस दौर से वे गुजरे हैं उसे देख/सुनकर सभी लोग चिंतित थे। सैकड़ों लोग मन्दिर के बाहर प्रांगण में बैठकर णमोकार-मंत्र का स्मरण कर रहे थे । आहार-चर्या से पूर्व शुद्धि कराने के लिए कुछ लोगों ने उन्हें सहारा देना चाहा, पर वे अकेले ही शुद्धि के लिए आगे बढ़ गए। मुझे लगा कि सचमुच, आत्म-शुद्धि के लिए ऐसे ही एकाकी होना होगा। हमें स्वयं ही अपने आत्म-शोधन की तैयारी करनी होगी।
अगले ही क्षण जैसे ही उन्होंने आहार-चर्या के लिए मन्दिर के बाहर पहला पग रखा, मैंने देखा सभी का मन भर गया। देह रुग्ण होने के बावजूद भी उनका मुस्कुराते हुए आगे बढ़ना, चौके में पहुँचना, और नवधा-भक्ति पूरी होने पर पाणिपात्र में शान्त भाव से आहार ग्रहण करना-सभी कुछ सहजता से हुआ, पर लोग साँस थामे, अपलक खड़े देखते रहे और एणमोकार जपते रहे। उन संवेदनशील क्षणों में हम सभी ने यह महसूस किया कि हमारा मनुष्य जन्म सार्थक हो गया है। इस महामुनि के खड्ग-धार पर चलते कदम हमें जीवन भर सच्चाई के रास्ते पर चलने का साहस दे रहे हैं।
नैनागिरि (१९७८)