सागर के वर्ण भवन, मोराजी में आचार्य महाराज के सानिध्य में ग्रीष्मकालीन वाचना चल रही थी। गर्मी पूरे जोर पर थी। नौ बजे तक इतनी कड़ी धूप हो जाती थी कि सड़क पर निकलना और नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता था। आहार-चर्या का यही समय था। आचार्य महाराज आहार-चर्या के लिए प्राय: मोराजी भवन से बाहर निकल कर शहर में चले जाते थे। मोराजी भवन में ठहरना बहुत कम हो पाता था। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य का निवास मोराजी भवन में ही था और वे पड़गाहन के लिए रोज खड़े होते थे। उनके यहाँ आहार का अवसर कभी-कभी आ पाता था।
एक दिन जैसे ही दोपहर की सामायिक से पहले ईयपिथ प्रतिक्रमण पूरा हुआ, पं. जी, आचार्य महाराज के चरणों में पहुँच गए और अत्यन्त सरलता और विनय से सहज ही कह दिया कि-‘महाराज! अब ततूरी (कड़ी धूप से जमीन गर्म होना) बहुत होने लगी है, आप आहार चर्या के लिए दूर मत जाया करें।” सभी लोग उनका आशय समझ गए। आचार्य महाराज भी यह सुनते ही हँसने लगे। आज भी इस घटना की स्मृति से मन आचार्य महाराज के प्रति अगाध श्रद्धा से झुक जाता है। उनके आचरण की निर्मलता और अगाध ज्ञान का ही यह प्रतिफल है कि विद्वान् जन उनका सामीप्य पाने के लिए आतुर रहते हैं।
सागर (१९८o)