रात बहुत बीत गई थी। सभी लोगों के साथ मैं भी इंतजार कर रहा था कि आचार्य महाराज सामायिक से उठे और हमें उनकी सेवा का अवसर मिले। कितना अद्भुत है जैन मुनि का जीवन कि यदि वे आत्मस्थ हो जाते हैं तो स्वयं को पा लेते हैं और आत्म-ध्यान से बाहर आते हैं तो हम उन्हें पाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होने का मार्ग जान लेते हैं।
उस दिन दीपक के धीमे-धीमे प्रकाश में उनके श्रीचरणों में बैठकर बहुत अपनापन महसूस हुआ, ऐसा लगा कि मानो अपने को अपने अत्यन्त निकट पा गया हूँ। उनके श्रीचरणों की मृदुता मन को भिगो रही थी। हम भले ही उनकी सेवा में तत्पर थे, पर वे इस सबसे बेभान अपने में खोये थे। अद्भुत लग रहा था इस तरह किसी को शरीर में रहकर भी शरीर के पार हेाते देखना।
दूसरे दिन सूरज बहुत सौम्य और उजला लगा। आज मुझे लौटना था। लौटने से पहले जैसे ही उनके श्री-चरणों को छुआ और उनके चेहरे पर आयी मुस्कान को देखा, तो लगा मानो उन्होंने पूछा हो कि क्या सचमुच लौट पाओगे ? मैं क्या कहता ? कुछ कहे बिना ही चुपचाप लौट आया और अनकहे ही मानो कह आया कि अब कभी, कहीं और, जा नहीं जाऊँगा। उनकी आत्मीयता पाकर मेरा हृदय ऐसा भीग गया था जैसे उगते सूरज की किरणों का मृदुल-स्पर्श पाकर धरती भीग जाती है।
कुण्डलपुर(१९७६)