उस दिन शाम का समय था। आचार्य महाराज मन्दिर के बाहर खुली दालान में विराजे थे। थोड़ी देर तत्व-चर्चा होती रही। उस पवित्र और शान्त वातावरण में आचार्य महाराज का सामीप्य पाकर हम सभी बहुत खुश थे। फिर सामायिक का समय हो गया। आचार्य महाराज वहाँ से उठकर भीतर मन्दिर में चले गए। बाहर किसी ने मुझसे कहा कि भीतर की बिजली जला आओ। आचार्य श्री ने यह बात सुन ली। मैंने जैसे ही भीतर कदम रखा कि भीतर से वे बोल उठे - ‘हाँ भाई, भीतर की बिजली जला लो।'
उनका आशय आन्तरिक आत्म-ज्योति के प्रकाश से था। मैं अवाक् खड़ा रह गया। उनके द्वारा कही गई वह बात बोध-वाक्य बन गई, जो हमें आज भी आत्म-ज्योति जलाए रखने के लिए निरन्तर प्रेरित करती है।
कुण्डलपुर(१९७७)