मैंने देखा कि मन्दिर के प्रांगण में बैठकर आचार्य महाराज अपने सामने रखे ग्रन्थ के अबूझ/बंद रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं। उनका स्वयं निग्रन्थ होना और ग्रन्थ में गुम्फित रहस्यमय गुत्थियों को एक-एक कर अपने ज्ञान व आचरण से सुलझाते जाना मुझे अच्छा लगा। असल में, ग्रन्थ के गूढ़ रहस्यों को समझने की विनम्र कोशिश में कभी धीरे से मुस्कराना, मन ही मन कुछ कहना और क्षण भर में फिर ग्रन्थ की अतल गहराई में खो जाना, मेरे लिए एकदम नया है। सोचता हूँ कि जैन-धर्म और दर्शन का नित-नूतन और अप-टू-डेट रूप ऐसे ही विरले स्वानुभवी साधकों द्वारा संभव है।
स्वानुभूति के इन क्षणों में आचार्य महाराज सागर की तरह अपार और अथाह दिखाई दे रहे थे। जैसे सागर की असीम और अतल जलराशि अनजाने ही हमें अपनी ओर आकृष्ट करती है, मानो स्वयं सागर होने का निमंत्रण देती है; ऐसे ही आचार्य महाराज का सानिध्य हमें स्वानुभव के महासागर में प्रवेश पाने को प्रेरित करता है।
अपने में सभी को समाकर भी जैसे सागर शान्त है, कितनी भी नदियाँ आकर उसमें समाती जाएँ, वह अपनी मर्यादा में रहता है; ऐसे ही आचार्य महाराज के चरणों में कितनी भी आत्माएँ समर्पित होती जाएँ, वे सबके बीच निलिप्त और शान्त हैं। सीमा में रहकर भी असीम है |
अपनी सतह पर पड़े हुए कचरे को जैसे सागर की लहरें उठाकर/ धकेलकर किनारे पर फेंक आती हैं, ऐसे ही वे भी प्रतिक्षण सजग रहकर आने वाले समस्त विकारों को हटाकर सहज ही निर्मल हो जाते हैं। सागर की तरह वे भी रत्नाकर हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र जैसे श्रेष्ठ रत्नों को वे अनन्त आत्म-गहराई में छिपाए हुए हैं। सागर की तरह वे बाहर मानी सतह पर क्षण भर को आहारविहार-निहार में प्रवृत्त होते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भीतर कहीं गहरे में वे अत्यन्त गम्भीर और अपने आत्मस्वरूप में अकम्प हैं।
मैंने अनुभव किया कि जैसे सागर के समीप पहुँचकर किसी की प्यास नहीं बुझती, बल्कि और ज्यादा बढ़ जाती है; ऐसे ही उनका सामीप्य पाकर अपने को/अपने आत्म-आनंद को पाने की प्यास बढ़ जाती है। सचमुच, वे आत्मविद्या के अगाध सागर हैं।
कुण्डलपुर(१९७६)