वर्षाकाल चल रहा था। हम लोग आचार्य महाराज के दर्शन करने पहुँचे थे। देापहर में हमेशा की तरह आचार्य महाराज के प्रवचन हुए। प्रवचन के बाद पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रवेश-द्वार से बाहर निकलते समय सभी ने देखा कि दीवार के सहारे एक छिद्र में दो सर्प बैठे हैं। आचार्य महाराज की भी नजर पड़ गई। वे क्षण भर वहाँ ठहर गए और बोले - ‘सर्पराज! शांत भाव से निर्द्धन्द्ध होकर विचरण करो। पूर्व में किए किन्हीं अशुभ कर्मों के उदय से यह पर्याय मिली है। इसका सदुपयोग करो। अपना आत्म-कल्याण करो। किसी का अहित न हो, इस बात का ख्याल रखो।' यह उनकी अत्यन्त प्रेम-पगी वाणी थी। मानो यह पावन संदेश था |
दिन बीतते रहे। कई बार लोगों ने प्रवचन के समय उन सर्पो को बैठे देखा। किसी का अहित उन सर्पो के द्वारा नहीं हुआ। यह सब देखकर मेरा विश्वास दृढ़ हो गया कि सचमुच, इसी तरह तीर्थंकर की समवसरण सभा में सभी प्राणी आते होंगे और अपनी-अपनी भाषा में धर्म की बात समझकर आत्महित में लग जाते होंगे। यह नैनागिरि क्षेत्र भी पार्श्वनाथ भगवान् की समवसरण स्थली रहा है जो आज आचार्य महाराज के उपदेशों से अनुप्राणित होकर प्राणिमात्र के कल्याण में सहायक हो रहा है।
नैनागिरेि (१९७८)