मैं उस दिन पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन करने कुण्डलपुर गया था। आचार्य महाराज छोटे से कमरे में बैठे थे। इतना बड़ा व्यक्तित्व इतने छोटे से स्थान में समा गया, इस बात ने मुझे चकित ही किया। आकाश उस दिन पहली बार बहुत अच्छा लगा। खिड़की से आती रोशनी में दमकती आचार्य-महाराज की निरावरित देह से निरन्तर झरते वीतरागसौन्दर्य ने मेरा मन मोह लिया।
क्षण भर के लिए मैं वीतरागता के आकर्षण में खो गया और कमरे के बाहर ही ठिठक कर खड़ा रह गया। फिर लगा कि भीतर जाना चाहिए। दर्शन तो भीतर से ही संभव है। बाहर से दर्शन नहीं हो पाता, पर भीतर पहुँचना आसान भी नहीं था। दरवाजे पर तो भीड़ बहुत थी ही पर मैं स्वयं भी तो भीड़ से घिरा था। यह सोचकर कि कभी संभव हुआ तो एकाकी होकर आऊँगा, मैं वापस लौट आया। कहने को तो उस दिन में वापस लौट आया, लेकिन सचमुच मैं आज तक लौट नहीं पाया। अब तो यही चाहता हूँ कि जीवन भर उन श्री-चरणों में बना रहूँ, वहाँ से कभी दूर न होऊँ। उनके दर्शन करके मुझे वीतरागता के जीवन्त सौंदर्य की जो अनुभूति हुई है वह सदा बनी रहे, यही मेरे प्रथम दर्शन की उपलब्धि है।
कुण्डलपुर (१९७६)