सारा संघ मुक्तागिरि की ओर जा रहा था। सुबह का समय था। सभी ने सोचा कि समीपस्थ मोसी ग्राम तक विहार होगा, सो आसानी से चलकर नौ-दस बजे तक पहुँच जाएँगे। जब दस बजे हम मोसी गाँव पहुँचे तो मालूम पड़ा आचार्य महाराज लगभग आधा घण्टे पहले यहाँ से आगे निकल गए हैं।
सचमुच, आचार्य महाराज अतिथि हैं। कब/कहाँ पहुँचेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनका यह अनियत विहार कठिन भले ही है, लेकिन बड़ा स्वाश्रित है। विहार की बात पहले से कह देने में दो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। यदि किसी कारण निर्धारित समय पर विहार नहीं कर पाए तो झूठ का दोष लगा और जब तक विहार नहीं किया तब तक विहार का विकल्प बना रहा। इससे अच्छा यही है कि क्षण भर में निर्णय लिया और हवा की तरह नि:संग होकर निकल पड़े। आगे क्या होगा इसकी जरा भी चिन्ता नहीं है। यही तो निर्द्धन्द्र-साधना है।
हम सभी आचार्य महाराज को अनुसरण करते हुए आगे बढ़ने लगे। गंतव्य दूर था। सामायिक से पहले पहुँचना संभव नहीं था, सो रास्ते में ही एक संतरे के बगीचे में सामयिक के लिए ठहर गए। सामायिक करके हम लोग लगभग ढाई-तीन बजे अपने गंतव्य पर पहुँचे। आचार्य महाराज के चरणों में प्रणाम किया। वे हमारी स्थिति से अवगत थे, सो अत्यन्त स्नेह से बोले-‘‘थक गए होगे, थोड़ा विश्राम कर लो, अभी आहार-चर्या के लिए सभी एक साथ उटेंगे।' हम समझ गए कि आचार्य महाराज स्वयं समय से आ जाने पर भी आहार चर्या के लिए हम सब के आने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके इस असीम वात्सल्य का हम पर गहरा प्रभाव हुआ, जो आज भी है।
मुक्तागिरि (१९८o)