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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आदि, आदि... सूक्ष्माति-सूक्ष्म स्थान एवं समय की सूचना सूचित होती रहती है सहज ही शूलों में। अन्यथा, दिशा-सूचक यन्त्रों और समय-सूचक यन्त्रों-घड़ियों में काँटे का अस्तित्व क्यों ? इस बात को भी हमें नहीं भूलना है कि घन-घमण्ड से भरे हुए उद्दण्डों की उद्दण्डता दूर करने दण्ड-संहिता की व्यवस्था होती है और शास्ता की शासन-शय्या फूलवती नहीं शूल-शीला हो, अन्यथा, राजसत्ता वह राजसता की रानी राजधानी बनेगी वह! इसीलिए...तो...ऐसी शिल्पी की मति-परिणति में परिवर्तन-गति वांछित है सही दिशा की ओर…! और क्षत-विक्षत काँटा वह पुनः कहता है- कम-से-कम शिल्पी Some on, and so forth... The subtlest and minutest Indication of place and time Is communicated Through the thorns easily. Otherwise, Why do the needles exist Within the mariner's compass And The time-indicators - the watches ? This point too shouldn't be forgotten by us That To alleviate the impertinence of those Who are filled with hot pride, A penal code is adopted And The royal throne of the rulers shouldn't be flowery It should rather be thorny, Otherwise, That royal majesty shall become The ‘queen’- the kingdom of ornamentation ! That is...why... In such a bent of mind of the Artisan, A change-move is desirable Towards the right direction...! And That wounded thorn Adds again- The Artisan should, at least,
  2. सब कुछ तज कर, वन गये नग्न, अपने में मग्न बन गये उसी ओर... उन्हीं की अनुक्रमणिका-निर्देशिका भारतीय संस्कृति है सुख-शान्ति की प्रवेशिका है यह। शूलों की अर्चा होती है, इसलिए फूलों की चर्चा होती है। फूल अर्चना की सामग्री अवश्य हैं ईश के चरणों में समर्पित होते वह परन्तु फूलों को छूते नहीं भगवान् शूल-धारी हो कर भी काम को जलाया है प्रभु ने तभी...तो... शरण-हीन हुए फूल शरण की आस ले प्रभु-चरणों में आते वह। और सुनो! प्रभु का पावन सम्पर्क पा कर फूलों से विलोम परिणमन शूलों में हुआ है कहाँ से यहाँ तक और यहाँ से कहाँ तक ? कब से अब तक और अब से कब तक ? Having renounced all belongings, Took to the track towards forest- Being immersed deep within themselves- Adopted nakedness; -Towards that very direction... Is found Indian Culture- An indication of their following Which provides entrance for happiness and peace. The thorns are revered, Hence The flowers are talked-of. Certainly, the flowers are the articles for adoration They are dedicated upon the feet of gods, But The God doesn't touch the flowers Despite being the bearer of the Trident. The Lord has reduced the Cupid to ashes That is...why... These flowers, being shelterless, Come to the feet of the Lord With a hope for protection; And, listen ! On getting the holy contact with the Lord The thorns have transmuted Contrary to the flowers, From where upto here And From here upto where ? From what time upto this hour And From this hour upto what futurity ?
  3. एक में विराग है अनघ त्याग है जिसका फल पार मिलता है। एक औरों का दम लेता है बदले में मद भर देता है, एक औरों में दम भर देता है। तत्काल फिर निर्मद कर देता है। दम सुख है, सुख का स्रोत मद दु:ख है, सुख की मौत! तथापि यह कैसी विडम्बना है, कि सब के मुख से फूलों की ही प्रशंसा की जाती है, और शूलों की हिंसा की जाती है। यह क्या सत्य पर आक्रमण नहीं है? पश्चिमी सभ्यता आक्रमण की निषेधिका नहीं है। अपितु! आक्रमण-शीला गरीयसी है जिसकी आँखों में विनाश की लीला विभीषिका घूरती रहती है सदा सदोदिता और महामना जिस ओर अभिनिष्क्रमण कर गये There is renunciation in the other- The sinless resignation The fruit of which is Emancipation. The first one almost takes away the breath of others And, in return, Fills only with arrogance, The second fills others with self-restraint Then, instantly, Makes them pridelessly sensible, Self-restraint is joy, the source of happiness Arrogance is pain, the death of joy! Even then, What a mockery is it That Only flowers are lauded By every lip, And The thorns are crushed Is it not An assault against the Truth ? The Western culture Is not a prohibitor of aggression, But ! It is largely aggressive In whose eyes Stares the sport of destruction, a terrible sight, Always staging a show of itself, And - The direction towards which, the magnanimous ones Moved their renunciatory steps.
  4. चराचरों का संकुल चलाचलों का कुल यह निखिल खुल, खिल पल, पल अविरल अविकल गल-गल नव-नूतन अधुनातन आकार-प्रकारों में निर्विकार विकारों में प्रतिफलित हो रहा है स्वयं था/होगा/त्रैकालिक जो रहा है पर ! इस प्रतिफलन की गोपनता मोहाकुल व्याकुल चेतन के आचार-विचारों में फलित कब हुई है ? इसलिए तो यह साधारण जन-गण-मन निर्णय कर लेता है कि विशाल निखिल का आखिर! स्रष्टा कौन होगा ? सकल साक्षात्कार द्रष्टा मौन होगा वही ईश्बर, अविनशवर ना ! शेष सब गौण होगा किन्तु यह निर्णय सत्य रहित है तथ्य रहित है पूर्ण अहित है केवल कल्पना है केवल जल्पना है क्योंकि चेतन से अचेतन का उद्भव...! कैसा हो सम्भव...! क्या सम्भव है ? कभी...! बोकर बीज बबूल पाना रसाल… .....रसपूर भरपूर और क्या कारण है ? ये ईश्वर। किसी को बनाते नर किसी को बनाते किन्नर मतिवर, धीवर, वानर जबकि वे अदय नहीं है सदय ‘हृदय’ अभय निधान हैं भगवान्। सबको बनाते ...! एक समान या भगवान अपने समान जिसका जैसा हो परिणाम धर्म-कर्म-काम तदनुसार ही ये ईश्वर इन चराचरों को दिखाते हैं। नरक-निवास स्वर्ग-विलास नर-पशु-गति का त्रास...! यह कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है। कारण ! कर्म-मात्र से काम हो रहा ईश्वर फिर किस काम आ रहा ? ‘माता-पिता तो सन्तान के कर्ता हैं यह धारणा भी नितान्त भ्रान्त है केवल ये भी 'विभाव-भाव के काम-भाव के कर्ता हैं... अन्यथा कभी-कभी कुछेक सन्तानहीन क्यों ? वन्ध्या… रोती क्यों ? त्रिसन्ध्या...? सही बात यह है। कि, जननी-जनकज रज-वीरज के मिश्रण-निर्मित नूतन तन तब धरता है। आयु-पूर्ण कर जीरण शीरण पूरव तन जब तजता है। निज कृत विधि-फल पाता प्राणी अज्ञानी ! यथार्थ में। प्रति पदार्थ में सृजन-शीलता द्रवण-शीलता परनिरपेक्ष शक्ति-निहित है। जिसके अवबोधन में हित निहित है इसलिए विगत-भाव का विनाश वाला सुगत-भाव का प्रकाश वाला सतत शाश्वत ध्रौव्य-भाव का विलासशाला सत् है। चेतन हो या अचेतन तन, मन हो या अवचेतन सब ये सत् हैं। स्वयं सत् हैं सत् ही धाता विधाता है… पालक-पोषक निज का निज ही सत् ही विष्णु त्राता.....है। प्रलय-पताका सत् ही शिव संघाता है। इसलिए अब तन से, मन से और वचन से सत् का सतत स्वागत है, सुस्वागत है।
  5. पृथुल नभ-मण्डल में अकाल-विप्लव-धर्मी सघन, श्यामल बादल-दल पिघल-पिघल कर उज्ज्वल शीतल धवलिम जल में बदल गया है । इसे निरख कर धरती दिल हिल गया है, मन में विचार । भविष्य का विषय गहल-भाव में ढला भला-बुरा अज्ञात यह युग मुझे तिरस्कृत करेगा पद दलित करेगा दल-दल आ गया है
  6. प्रेषित करती रहतीं पर, पर क्या इस नासा में वह कहाँ आस जगा पातीं ? विस्मित लोचन वाली सस्मित अधरों वाली वह इन लोचनों तक कुछ मादकता, कुछ स्वादकता सरपट सरकाती रहती हैं हाव-भाव-भंगों में नाच नाचती रहती हैं हमारे सम्मुख सदा सलील! प्रायः यही देखा गया है कि ललाम चाम वाले वाम-चाल वाले होते हैं बाहर से कुछ विमल-कोमल रोम वाले होते हैं और भीतर से कुछ समल-कठोर कौम वाले होते हैं लोक-ख्याति तो यही है कि कामदेव का आयुध फूल होता है और महादेव का आयुध शूल एक में पराग है सघन राग है जिस का फल संसार मिलता है। Is communicated by them, But, but do they Succeed in awakening hope Within these nostrils ? Having wonder-struck eyes, Having smiling lips, They push on rapidly Some fascination, some deliciousness Upto these eyes, They keep on dancing sportively In front of us, always In coquettish manner, with graceful motions! Generally it has been found That Those, having lovely skins, Are used to show crooked moves, Appear from outside Having some clean and soft bristles And Appear from inside Bearing some impure rough tribe. Indeed, the universal opinion goes That The weapon of the Cupid is Flower And The weapon of Lord Siva is Trident. There is pollen in the one The dense passion is there - The fruit of which is worldliness.
  7. हे अपरिमेय ! अजेय सत्ता ! इस नादान असुमान को ऐसी शक्ति प्रदान कर दो इस में ज्ञान-विज्ञान प्रमाण भर दो जागृत प्राण कर दो लोकालोक दिव्यालोक विगतागत का संभावित का सिंहावलोकन कर सकें युगपत् युगों - युगों तक कण-कण के परिचय का अणु-अणु के अतिशय का अनुपान कर सकूँ जी भर ! अन्यथा इसमें ऐसा मान स्वाभिमान आविर्माण कर दो जिससे वह किसी भी काल में किसी भी हाल में तन से, मन से और वचन से पर का अनुचर नहीं बने निज का सहचर सही बने, अमर बने। आगामी अनन्त काल तक निजी मान के आस्वादन में रहे सने ! मोद घने! ओ! अपरिमेय... अजेय सत्ता !
  8. ज्ञान ही दुःख का ......मूल है, ज्ञान ही भव का ....कूल है। राग सहित सो प्रतिकूल है, राग रहित सो अनुकूल है, चुन चुन इन में ......समुचित तू मत चुन अनुचित भूल है। सब शास्त्रों का सार यही समता बिन सब धूल है।
  9. अरी! वासना यथा नाम तथा काम है तेरा तुझमें सुख का निवास वास ना! तुझमें गहराई है कहाँ ? और मैं गहराई में उतरने का हामी हूँ चंचल अंचल में केवल लहराई है तेरे आलिंगन में मोहन इंगन में सुख की गन्ध तक नहीं मात्र सुख की वासना है जो ओढ़ रखी है तूने जिस में सारी माया ढकी है इसलिए इसे अपनी उपासना की अनन्त सत्ता में खो जाने दो ओ ! वासना !
  10. समय-समय पर शून्य में से अनागत का अपना निरा सन्देश प्रचारित-प्रसारित हो रहा है..... गुप्त रूप से! कि ‘ज्ञात रहे’ ऐसा कोई नहीं है आवास! मेरे पास! नहीं पा सकोगे मुझ में अवकाश ! हो विश्वास! नहीं कर सकोगे मुझ में पलभर भी वास! विलास!... मेरा कोई विधिरूप-जीवन नहीं है निषेध की सत्ता से निर्मित... ..... जीवन जीता हूँ मेरे पैरों के नीचे धरती नहीं है निराधार ‘हूँ' / था, कैसे दे सकता हूँ ? निराधार हो आधार औरों को ! नीचे की ओर लम्बायमान ...दण्डायमान दोनों हाथ नहीं है मेरे मस्तक पर अवकाशदाता आकाश का हाथ ना है कोई साथ .......मैं अनाथ! चारों ओर निरालम्ब सब अनाथ सनाथ बनते हैं मेरी उपेक्षा करने से अनाथ बनते हैं अपेक्षा करने से मेरा दर्शन किसी को होता नहीं होता भी हो .....तो व्यवहार! उपचार!... दिव्य ज्ञानी को भी मेरा साक्षात्कार नहीं मैं एक अथाह गर्त हूँ मुझ में भरा है केवल अभावात्मक आर्त ही आर्त पिपासा बुझाने जिसमें आशा झाँकती है बार! बार!! खाली हाथ लौटती निराश हुई आशा की पीठ अनिमेष निहारता रहता हूँ यही मेरी विशेषता है मैं अनागत, नहीं तथागत! और विगत की घटना मौन किन्तु तुझे इंगित कर रही है अपने इंगनों से अरे! मन ! उसकी चपेट में आकर मत पिटना अमित बल को खोकर अनेक भागों में मत बँटना! संवेदन से शून्य है वह भाव की परिणति अभाव में परिवर्तित वह अपना बन चुका है सपना असंभव बन चुका है अनुभव से उसका नपना! संभव है केवल अब उसका शब्दों में जपना! जिस जपन की वेला में अनुभूति का स्रोत ढक जाता है सहज अघ के कणों से अवचेतन के रजोगुणों से और यही हुआ है भवों-भवों से युगों-युगों से अरे! मन विगत की घटना से पल भर तो हट ना! हट ना !! हट ना !!! विगत में समता रस से आपूरित क्लान्ति निवारक शान्ति प्रदायक ओ ‘घट' ना! ओ ‘घट' ना!! ओ ‘घट' ना!!! अरे मन भूल जा ओ घटना! ओ घटना !! ओ घटना !!! इसलिए हो जा अरे मन! विगत से, अनागत से पूर्ण रूप उपराम!... अन्यथा और कहीं खोजा सत् चित् आनन्द-धाम यदि अनुभूत होगा तो वह है निश्चित एक ललित ललाम ....पूर्ण काम! विरत काम! आगत! आगत!! आगत!!! यही है मुख्य अतिथि महा अभ्यागत! सदा जागृत चिर से अब तक तुझ से अनपेक्षित है अनादृत। प्रतीक्षा से भिक्षा से शिक्षा से भी परे अप्रमत्त ईक्षा की पकड़ में केवल आता है आगत! आगत!! आगत!!! इसी का आज स्वागत! स्वागत!! स्वागत!!!
  11. यह यथार्थ नहीं है इसलिए परमार्थ भी नहीं है आर्त है केवल पर का आलम्बन पर का सम्बल ! ऐसी स्थिति में कैसे उपलब्ध हो स्वार्थ ! यही एक परिणाम हुआ है कि शिर पर ले अघ मटका भव वन में मन भटका चहुँ गतियों में अटका मिला नहीं सुख घटका कब तक तू जीयेगा पराश्रित जीवन कब तक ना पीयेगा पीयूष पी बन... ..... संजीवन जीना क्या ? ना चाहेगा .....चिरंजीवन कब तक पय में विष घोलेगा कब तक चंचल ........डोलेगा जहाँ खड़ी है शाम वहीं खड़े निजशाम! विगतकाम... घनशाम कब तो इन पर दृग खोलेगा ? कब इन से सरस बोल वे ..... बोलेगा ? उनकी दृष्टि तुला पर अपनी समग्र सत्ता कब तौलेगा कब तो उन के... .....पीछे-पीछे हौले-हौले हो लेगा !! हो लेगा !! हो लेगा !! हो लेगा तो निश्चित है यह अपना मल सब धो लेगा!! धो लेगा !! धो लेगा !!!
  12. हे आकाश ! काश !... नहीं देता तू इस लघुतम सत्ता को अपने में अवकाश!... अपने पास!! किस विध सम्भव था ? चिदाकाश का अप्रत्याशित सौम्य-सुगंधित मृदुतम विलास परम विकास!... रूप रसातीत स्फीत प्रतीत परम प्रकाश ! हे महदावास! हे आकाश !
  13. श्री मज्जिनेन्द्र वेदी प्रतिष्ठा, जिनबिम्ब स्थापना, कलशारोहण एवं विश्वशांति महायज्ञ स्थान - श्री 1008 श्री महावीर दिगम्बर जैन मंदिर, सन्मति विहार, मंगला, बिलासपुर (छ.ग.) दिनांक - 20, 21, 22 फरवरी 2018 तक मूल नायक - श्री 1008 महावीर भगवान नवीन जिनालय - श्री 1008 महावीर जिनालय पावन सानिध्य - संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज धर्मानुरागी, महानुभाव ... जय जिनेन्द्र!, अत्यंत हर्ष के साथ सभी भक्तजीवों को सूचित किया जाता है कि बिलासपुर नगर स्थित सभी भव्य आत्माओं के सातिशय पुण्यउदय से संतशिरोमणि आचार्य भगवन 108 श्री विद्यासागर जी महामुनीराज के 50वे संयम स्वर्ण महोत्सव के पावन अवसर पर वेदीप्रतिष्ठा का महामहोत्सव का मांगलिक कार्यक्रम प्रतिष्ठाचार्य बालब्रम्हचारी सुनील भैया (अनंतपुरा) के मार्गदर्शन में संपन्न होने जा रहा है इस प्रतिष्ठाचार्य महामांगलिक कार्यक्रम में आप सपरिवार सम्मिलित होकर सातिशय, पुण्यार्जन करें ।
  14. कब से आ रहा हूँ अपार सागर में तैरता-तैरता हाथ भर आये हैं श्लथ! नैर्बल्य की अनुभूति अब ओर नहीं छोर मिले! चारों ओर भ्रमर-तिमिर फैला है फैलता जा रहा है चरण चल रहे साथ आस्था है साफ रास्ता है पर धृति कहती है अब घोर नहीं .....भोर मिले !!!
  15. जहाँ तक आभा की बात है वह निश्चित प्रकृति की गन्ध है, जो... पुरुष की पकड़ में इन्द्रियों के आधार से आज तक आई है, चाहे नीलाभ हो या हीराभ! चाहे हरिताभ हो या रक्ताभ, किन्तु आज यह इस पुरुष को पकड़ना चाहती है जो सब अभावों से अतीत हो जी रहा है ।
  16. मृदु मंजुलता ललित लता पर कल तक थी मुकुलित कली आज उषा में खुली खिली है और सुषमा सुरभि लेकर! कल रहेगी काल-गाल में कवलित होकर! किन्तु सत् की कमनीयता वह सातत्य ले साथ सब में ढली है उसकी छवि किसे मिली है ?
  17. वह कौन-सा मानस है जिसके भीतर कुछ अपूर्व घट रहा है जिसका उद्घाटन उठती हुई लहरों पर लहरें करती जा रही हैं, हर लहर पर हास्य के कण बिखरे हैं..... बिखरते जा रहे हैं और यह भी मानस जिसके नस-नस जल रहे हैं इसके भीतर बड़वानल उबल रहा अभाव का, तभी तो जीवन सत्त्व राख बने, काले काले बाल के मिष बाहर आ उभरे हैं जिन पर मोहित हैं शाम सबेरे जहरीली नजरें
  18. इसे निर्दयता कहना अनुचित होगा अपनी चरम - सीमा सूँघती हुई निरीहता नितान्त है निरभ्र-नभ में, पूत-प्रतिमा सी पीठ प्रतिफलित है ध्रुव की ओर उठते चरण दिख रहे किन्तु सारी करुणा सिमट कर आँखों में चली गई है, वे आँखें कहाँ दिखतीं और कहाँ देखतीं मुड़ कर इसे नीली आँखें! और ईहा की सीमा पर आकुल अकुलातीं इसकी दोनों पीली-पीली हो आती गीली आँखें।
  19. संयम स्वर्ण जयंती वर्ष में परमपूज्य आचार्यश्री ससंघ के सानिध्य में छतीसगढ़ के तृतीय पंचकल्याणक रायपुर में सानन्द सम्पन्न हुए अभी कुछ ही मिनट हुए थे लेकिन आचार्यश्री के इन विशिष्ट भक्तों ने दो तीन पहले तैयारी कर रखी थी वह भला हो जो सूरजदादा के रौद्र रूप को देख चुप हो जाते थे। आज ज्योहीं वृषभ रथ पर भगवान आदिनाथ की फेरी का समापन हुआ श्रीजी पांडाल में पहुचे थे वैसे ही इंद्रदेव हर्षित होकर तांडव नृत्य जिसे हम आम बोलचाल में भांगड़ा कहते है के लिए एक पैर पर खड़े थे पवनदेव अपने संग काली, कजरारी, अल्हड़, बदलियों की टोली को संग ले आये इन सबकी योजना देख आज सूरजदादा समझ गये थे कि होसकता है आचार्यश्री मंच पर नही आ रहे है सो इनको मेरी तो मानना ही नही है अपन यहा से हट चलो। इनकी संगत में अपन क्यो बदनाम हो। परमपूज्य मुनिश्री निर्लोभसागरजी, पूज्य सम्भवसागर जी महाराज के प्रवचन के बाद ज्येष्ठ श्रेष्ठ मुनिराज योगसागरजी महाराज ने संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित उपदेश दिए जैसे ही समस्त मुनिराज पांडाल से सन्त भवन की ओर बढ़ रहे थे वैसे ही पवनदेव के संग मूकमाटी की वंशज धूल भी इठलाती संग हो ली इन इन्द्र परिवार के टोले में पेड़ो वृक्षो ने भी खूब झूम झूम कर नृत्य किया कई अल्हड़ वृक्षो के बेढंगे नृत्य ने बड़े बुजुर्ग पेड़ो को या तो उन्हें घायल कर दिया या धराशाई कर दिया । हम सभी श्रावक परिवार इनके हुड़दंग मन मसोस कर देख रहे थे कब ये शांत हो और कब हम सन्ध्या भोजन कर अपने नगरो की ओर प्रस्थान करें। कुछ भी कहे आचार्यश्री के ये विशिष्ट भक्त भी बहुत शरारती बच्चों जैसे है जब सन्ध्या गुरुभक्ति के समय आचार्यश्री अस्थाई जिनालय में आये उस समय ऐसा बिल्कुल नही लग रहा था कि यहां इन भक्तो ने आनन्द मनाया होगा। हम श्रावकगण भी खैर मनाते आश्वस्त रहे कि इन भक्तो की होली मात्र एक से डेढ़ घण्टे ही रही वरना बेमौसम रंगोत्सव से भीगते और सन्ध्या भोजन से भी चूक जाते लेकिन यह हम सभी के मन का भ्रम था कुछ भी कहे आचार्यश्री के ये विशिष्ट भक्त सब कर सकते है लेकिन गुरुभक्तों को परेशानी कष्ट हो ऐसा वे सोच भी नही सकते रायपुर पंचकल्याणक महोसत्व के समापन पर इस रंगोत्सव की आंखों देखी की झलक के साथ -राजेश जैन भिलाई
  20. ग्वालियर. ११ फरवरी २०१८ । भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ११ फरवारी २०१८ जीवाजी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह और चौथे डॉ रामनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान में भाग लेने हेतु आज ग्वालियर पधारे, इस अवसर उन्होंने सर्किट हाउस में विशिष्ट लोगों से भेंट की, जिसमें राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति के मुख्य कार्यकारी श्री प्रबोध जैन और मप्र शासन के अल्पसंख्यक आयोग के माननीय सदस्य डॉ अमरजीत सिंह भल्ला ने राष्ट्रपति जी को उनकी रामटेक यात्रा की तस्वीरें भेंट कीं, जब उन्होंने संत शिरोमणि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के दर्शन किए थे. चित्र और सामग्री देखकर राष्ट्रपति जी की स्मृतियाँ ताज़ा हुईं और उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की. इसके पश्चात् भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), ग्वालियर जिला (ग्रामीण) के अध्यक्ष श्री वीरेन्द्र जैन ने गुरुदेव की दीक्षा के स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर आयोजित संयम स्वर्ण महोत्सव के अंतर्गत संचालित पत्राचार पाठ्यक्रम की दूसरी पुस्तक “अनिर्वचनीय व्यक्तित्व” की एक प्रति महामहिम राष्ट्रपति जी को भेंट की । केन्द्रीय मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर, राज्य शासन से माननीया नगरीय विकास एवं आवास मंत्री श्रीमती माया सिंह और उच्च शिक्षा, लोक सेवा प्रबंधन व जन शिकायत निवारण मंत्री श्री जयभान सिंह पवैया भी उपस्थित थे । इस संक्षिप्त कार्यक्रम की संयोजना राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति के मुख्य कार्यकारी श्री प्रबोध जैन (ग्वालियर) ने की।
  21. भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव सोल्लास मनाया गया केबिनेट मंत्री अमर अग्रवाल जी ने लिया आचार्य श्री से आशीर्वाद - आज छत्तीसगढ़ शासन के केबिनेट मंत्री श्री अमर अग्रवाल जी ने आचार्य श्री से आशीर्वाद प्राप्त किया। श्री अग्रवाल ने आचार्य श्री से बिलासपुर आगमन की विनती की । माननीय मंत्री जी के साथ समिति के स्वागताध्यक्ष सुरेन्द्र पाटनी व राजेश रज्जन उपस्थित थे। रायपुर । लाभांडी पंचकल्याण के मध्य आज भगवान के जन्मकल्याणक महोत्सव के अवसर पर भगवान के जन्म, बधाईयाँ, शोभायात्रा, पांडुक शिला पर भगवान का अभिषेक, अयोध्या नगरी वापस आना आदि मनमोहक क्रियाओं के मंचन के साथ धार्मिक क्रियाएं भी संपन्न हुई । प्रतिदिन की भांति आचार्य श्री ने अपनी अमृत वाणी से सभी को संबोधित करते हुए कहा। कि - शब्दों में ऐसी क्षमता होती है । वह किसके लिये रूढ़ है, किस व्यक्ति को अर्थ बताने में महत्वपूर्ण है । ‘‘मैं करबद्ध प्रार्थना करता हूँ" ऐसा कहते ही हमारे सामने एक आकृति आ जाती है । कर यानि हाथ, बद्ध यानि बंधे हुए । करबद्ध के साथ ही उसमें नम्रता आ जाती है । मान घट जाता है । इसके विपरीत जब बाजार आदि में जाते हैं तो वस्त्र आदि संभालकर । दर्पण में स्वयं नहीं अपने प्रतिबिंब को संवारकर देखते हैं । निकलते ही यही देखता है कि मेरी ओर किसी का ध्यान है या नहीं। यहां आचार्य श्री ने आधुनिक खान पान संस्कृति पर कहा कि हमने फास्ट फूड छोड़ दिया । हमने तो कभी नाम भी नहीं सुना था । आप का सौभाग्य है जो आप सुन रहे हैं । फास्ट फूड जीवन को फास्ट बना देता है । जिसका जीवन बहुत गतिशील हो, मृत्यु की तरफ जा रहा हो उसके लिये ये टॉनिक है । दादाजी भी फास्ट फूड ले रहे हैं । हम उनसे नहीं छात्र-छात्राओं से कहेंगे कि फास्ट फूड को छोड़ो, ‘‘पास्ट फूड'' को याद करो | अतीत काल में क्या भोजन होता था, उसको तैयार करना है । ताकि जिन्होंने केवल ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वो याद आ जाएं । उनके उस केवल ज्ञान में वह "पास्ट फूड' ही काम आया । जो आहार आप हमें देते हो वह होटल में नहीं मिलता । होटल के सामने आप खड़े हो जाओगे तो हम नहीं आएंगे । वहां तो अति फास्ट फूड है । हम फास्ट लाईफ नहीं चाहते, न ही । लंगड़ाता हुआ जीवन । एक-एक कदम, श्वास - श्वास में संकल्प लेते हुए चलते जाओ । जब कभी ये छात्राएं जिनका जीवन प्रारंभ भी नहीं हुआ वो कहते हैं हम जीवन भर के लिये फास्ट फूड का त्याग करते हैं । हम मौन रहते हैं, फिर भी ग्राहक आया है तो छोड़ कैसे दें । वैसे फास्ट फूड का अर्थ होता है उपवास । उपवास को जो फूड बनाए सच में वही फास्ट फूड है । अब तो केवल श्रावक के हाथ से आहार लेंगे । वह चाहता है मुझे भी इसी तरह रत्नशय की प्राप्ति हो, केवलज्ञान की प्राप्ति हो । तभी आश्चर्य होते हैं उसके घर में । फास्ट फूड के द्वारा सब आश्चर्य खत्म हो गए । आप लोगों के घर की स्थिति क्या है आप ही जानें । इतना अवश्य है। कि आज जो आहार ले रहे हैं वह खतरनाक होता जा रहा है । दिन-प्रतिदिन भयंकर रोग होते जा रहे हैं । प्रवचन के पश्चात आचार्य श्री की आहार चर्या संपन्न हुई जिसमें उन्हें आहार देने का सौभाग्य श्री नरेन्द्र जैन गुरूकृपा परिवार एवं श्री प्रदीप जैन विश्व परिवार को संयुक्त रूप से प्राप्त हुआ । इसी अवसर पर दोनों परिवारों ने संध्या समय भक्ति का आयोजन किया । पंचकल्याणक में आज के कार्यक्रम - प्रातः 6 बजे जाप्यानुष्ठान, प्रात: 6:30 बजे- श्री जिनाभिषेक, नित्यमह पूजन, जन्मकल्याणक पूजन, हवन, प्रातः 8:45 बजे आचार्य श्री के पाद प्रक्षालन एवं पूजन, प्रातः 9:00 बजे आचार्य श्री की दिव्यदेशना, प्रातः 11:30 बजे युवराज आदिकुमार की बारात का प्रस्थान, अपरान्ह 12:30 बजे नंदासुनंदा के साथ पाणिग्रहण संस्कार, अपरान्ह 1 बजे महाराजा नाभिराय का दरबार, युवराज आदिकुमार का राज्याभिषेक, महामण्डलेश्वर आदि राजाओं द्वारा भेंट समर्पण, वंश स्थापना, शटकर्म शिक्षा, ब्राम्ही-सुंदरी द्वाराशिक्षा ग्रहण, नीलांजना द्वारा नृत्य, वैराग्य, वन गमन, अपरान्ह 4 बजे आचार्य श्री द्वारा दीक्षा संस्कार, अंकन्यास विधि, अपरान्ह 4:30 बजे आचार्य श्री की मंगल देशना, 6:45 महाआरती, रात्रि 7:30 बजे शास्त्र सभा, रात्रि 8 बजे संयम स्वर्ण सुर संगम भजन प्रतियोगिता (छत्तीसगढ़ स्तर पर)।
  22. प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है चिल - चिलाती धूप है निदाघ का अवसर है भरसक प्रयास चल रहा है सरपट भागना चाह रहा है, पर! भाग नहीं पा रहा है भानु सरक रहा है धीमे-धीमे अस्ताचल की ओर, और इधर सरफट रहा है फल भार ले झुका है तपी धरा पर नग्न-पाद आम्र - पादप खड़ा है अपने प्रांगण में, दाता के रूप में पात्र की प्रतीक्षा है लो! पुण्य का उदय आया है कठिन परिश्रमी हरदम उद्यमी पदयात्री पथिक पथ पर चलता - चलता रुकता है निस्संकोच सघन छाँव में घाम - बचाव में किन्तु यकायक दाता का मन पलटता है विकल्प - विकार से लिपटता है कि पात्र के मुख से वचन तो मिले मीठे-मीठे मिश्री मिले प्रशंसा के रूप में, महान दाता हो तुम प्राण-प्रदाता हो तुम और दान-शास्त्र की जीवन गाथा हो तुम! आदि, आदि अथवा कम से कम खड़े-खड़े दीन-हीन से याचना तो करे दोनों हाथ पसार अपना माथ सँभार और दाता को मान-सम्मान से पुरस्कृत करे, कुछ तो करें दाता कुछ देता है तो, प्रतिफल के रूप में कुछ लेना भी चाहता है लेन-देन का जोड़ा है ना! लो! संतों की वाणी भी यही गाती है ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ अस्तु! और! मौन सघन होता जा रहा है अपना-अपना कर्त्तव्य गौण, नगन होता जा रहा है इस स्थिति में कौन ? रोक सकता है इस प्रश्न को, कि कौन ? विघन होता जा रहा है दाता की मुख-मुद्रा हृदय का अनुसरण कर रही है और भाव-प्रणाली ललाट-तल पर आ तरल तरंगायित है भ्रमित भंगायित है जो कुछ है वितरण कर रही है, और इसी बीच अयाचक-वृत्ति का पालक पात्र मौन मुद्रा से समयोचित भावाभिव्यक्ति सहज-भाव से करता है, कि, हे आर्य! दान देना दाता का कार्य है प्रतिदिन अनिवार्य है यथाशक्ति तथाभक्ति मान-सम्मान के साथ, पाप को पुण्य में ढलना है ना! और यह भी सत्य है पात्र मान-सम्मान के बिना दान स्वीकार नहीं करेगा, कारण विदित ही है दान क्रिया में दाता प्रायः मान करता है अहं का पोषक बनता है, और पात्र यदि दीनता की अभिव्यक्ति करता है स्वाधीनता का शोषक बनता है किन्तु! मोक्ष-मार्ग में यह अभिशाप सिद्ध होता है इससे विरुद्ध चलना वरदान सिद्ध होता है, इसलिए समुचित विधान यही है दान से पूर्व मान-सम्मान हो वह भी भरपेट हो बाद में दान भले ही अल्प..... अधपेट हो सहर्ष स्वीकार है और यह भी ध्यान रहे याचना, यातना की जनी है कायरता की खनी है इस पात्र को कैसे छू सकती है वह, यह वीरता का धनी है सदा-सदा के लिए इसमें धीरता आ ठनी है लो! और यह कैसा विस्मय! फलों की भीड़ से घिरा नीड़ में बैठा-बैठा निस्संग तोता इस मौन वार्ता को पीता है जो मांसाहार से रीता...है ...............जीवन जीता है, स्वैरविहारी है फलाहारी है अतिथि की ओर निहारता है अनिमेष! मन ही मन विचारता है अभूतपूर्व घटना है मेरे लिए प्रभूत पुण्य मिलना है मेरे लिए और सुरभि से निरा महकता सुन्दरता से भरा चहकता पक्व रसाल चुनता है अतिथि के लिए दान हेतु, किन्तु तत्काल क्या हुआ सुनो तुम! मनोविज्ञान में निष्णात जो है अतिथि की ओर से मौन-भाषा की शुरुआत और होती है कि यह भी दान स्वीकार नहीं है इसे यद्यपि इसमें पूर्व की अपेक्षा मान-सम्मान का पुट है और भरपूर है, किन्तु! दाता दान को मजबूर है पात्र को देखकर और! पर-पदार्थ को लेकर पर पर-उपकार करना दान का नाटक है चोरी का दोष आता है यदि अपनत्व का दान करते हो श्रम का बलिदान करते हो स्वीकार है, अन्यथा यह सब वृथा है तथा स्व - पर के लिए सर्वथा व्यथा है दान की कथा सुनकर मूक रह जाता तोता भीतर ही भीतर उसका मन व्यथित होता है अकर्मण्य जीवन पर रोता है तन भी मथित होता है उसका, और! सजल-लोचन कर निजी आलोचन कर प्रभु से प्रार्थना करता है अगला जीवन इसका श्रम - शील बने शम - झील बने और! बहुत विलम्ब करना उचित नहीं अतिथि लौट न जाये खाली हाथ! ऐसा सोचता हुआ उसी पल एक पका फल अननुभूत भाव से अपने आपको भरा हुआ-सा अभिभूत अनुभूत करता है पूत-सफलतीभूत बनाने जीवन को दान-दूत बनाने जिसमें नव-नवीन भाव प्रसूत होता है कर्त्तव्य के प्रति प्रस्तुत करता है अतिथि का रूप निरख कर अतिथि का स्वरूप परख कर जीवन को दिशा मिल गई, चिर से तनी और घनी निशा टल गई दान की उपासना .........जागृत हुई मान की वासना .......निराकृत हुई राग, विराग से मिलने ...........आकुल है पंक, पराग से मिलने .........आतुर है, और बन्द अधर खुलते हैं शब्द ‘अधर’ डुलते हैं आगत का स्वागत हो अभ्यागत आद्रत हो सेवा स्वीकृत हो सेवक अनुगृहीत हो हे स्वामिन् ! हे स्वामिन् ! हे स्वामिन्! और दान कार्य सम्पादन हेतु सहयोग के रूप में पवन को आहूत करता है वन-उपवन-विचरणधर्मा तत्काल आता है पवन फल से पूर्व-भूमिका विदित होती है उसे कि ये पिता हैं (वृक्ष की ओर इंगन) इनका पित्त प्रकुपित है तभी मुझ पर कुपित हैं आँगन में अतिथि खड़े हैं ये अपनी धुन पर अड़े हैं स्वयं दान देते नहीं देने देते नहीं, मान प्रबल है इनका ज्ञान समल है इनका मेरे प्रति मोह है पर के प्रति द्रोह है क्या ? पूत को कपूत बनाना चाहते हैं ये पूत-पवित्र नहीं, और पवन को इंगित करता है पका फल मैं बन्धन तोड़ना चाहता हूँ इस कार्य में सहयोग आपेक्षित है ‘समझदार को इशारा काफी है' सूक्ति चरितार्थ हुई, और पवन ने एक हल्का-सा झोंका दे दिया प्रकारान्तर से वृक्ष को धोखा दे दिया रसाल फल डाल से खिसक कर शून्य में दोलायित हुआ अर्पित होने, लालायित हुआ चिर के लिए बन्धन / क्रन्दन पलायित हुआ, पुनः पवन को समझाता है मुझे इधर-उधर नहीं गिराना सीधा बस! पात्र के पाणि-पात्र में गिराना और एक झोका देने पर डाल के गाल पर! फल, कर में आ पात्र के अर्पित होता है, स्वप्न साकार होता है और सत्कार्य में भाग लेकर पवन भी बड़भागी बनता है पाप-त्यागी बनता है सज्जन समागम से रागी विरागी बनता है नीर, क्षीर में गिरता है शीघ्र क्षीर बनता है, और पथ पर सहज चाल से पूर्ववत् चल पड़ा वह अतिथि उधर डाल के गाल पर लटकता अधपका फलों का दल बोल पड़ा कि कल और आना जी ! इसका भी भविष्य उज्ज्वल हो करुणा इस ओर भी लाना जी! अतिथि की हल्की-सी मुस्कान कुछ बोलती-सी! यह भविष्य में जीता नहीं अतीत का हाला पीता नहीं यही इसकी गीता है सरगम-संगीता है, देखो! क्या होता है जिसके बीच में रात उसकी क्या बात ? और वह देखता रह जाता फलों का दल सुदूर तक दिखती अतिथि की पीठ पुनरागमन की प्रतीक्षा में...!
  23. क्यों मुग्ध हुआ है शुक्तिका पर शुक्ति का खोल एक बार तो झाँक ले और! आँक ले, भीतर की मुक्तिका पर सदा-सदा के लिए अवश्य मुग्ध होगा! कहाँ भटकता तू बीहड़ जंगल में बाहर नहीं हे सन्त! बसन्त बहार भीतर मंगल में है।
  24. धरती को प्यास लगी है नीर की आस जगी है मुख - पात्र खोला है कृत - संकल्पिता है, कि दाता की प्रतीक्षा नहीं करना है दाता की विशेष समीक्षा नहीं करना है अपनी सीमा अपना आँगन भूल कर भी नहीं लाँघना है, क्योंकि पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्मान कराती है पाप की पालड़ी भारी पड़ती है, और! स्वतन्त्र स्वाभिमान पात्र में परतन्त्रता आती है कर्तव्य की धरती धीमी-धीमी नीचे खिसकती है, तब! लटकते दोनों अधर में तभी तो काले-काले मेघ सघन ये अर्जित पाप को पुण्य में ढालने जो सत्पात्र की गवेषणा में निरत हैं पात्र के दर्शन पाकर गद्गद् हो गड़गड़ाहट ध्वनि करते सजल - लोचन सावन की चौंसठ - धार पात्र के पाद - प्रान्त में प्रणिपात करते हैं फिर तो धरती ने बादल की कालिमा धो डाली अन्यथा वर्षा के बाद बादल - दल विमल होते क्यों ?
  25. ओ री मानवती मृदुल मालती क्यों न मानती, मुड़-मुड़ कर.... मोहक-मादक मदिरा भर कर प्याला ले कर मेरे सम्मुख आती है, अपना ही गीत गाती है तू रागिनी है.... स्वैर विहारिणी है विरागिनी यह मति बाध्य होकर बाहर आती है नाक फुलाती - सी नासिका कहती यूँ तभी मालती भी गूढ़ तत्त्व का उद्घाटन करती है मौन रूप से कि ज्ञेय तत्त्व भिन्न है ज्ञान तत्त्व भिन्न है ज्ञेय का अपना रूप ......स्वरूप है, क्रिया-कर्म है ज्ञान का अपना भाव-स्वभाव है गुण धर्म है यद्यपि ज्ञेय - ज्ञायक सम्बन्ध है हम दोनों में ज्ञान जानता है ज्ञेय जाना जाता है किन्तु ज्ञान जब तक निज को तज कर पर को अपना विषय बनाता है निश्चित ही वह सराग है सदोष तब तक पर का आदर करता है अपना अनादर, तब, ‘पर' पर आरोप आता है कि पर ने राग जमाया ज्ञान में दाग लगाया मैं तो अपने में थी हूँ..... रहूँगी चिर काल .....! किन्तु......तू ओ री नासिका ! तू ज्ञान की उपासिका कहाँ है ज्ञान की उपहासिका है अपनी सुरभि भूल जाती है पर सुगन्धि पर फूल आती है यह कौन-सी विडम्बना है स्वयं को धोखा देना |
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