इसे निर्दयता कहना
अनुचित होगा
अपनी चरम - सीमा सूँघती हुई
निरीहता नितान्त है
निरभ्र-नभ में,
पूत-प्रतिमा सी पीठ
प्रतिफलित है
ध्रुव की ओर उठते चरण दिख रहे
किन्तु सारी करुणा सिमट कर
आँखों में चली गई है,
वे आँखें कहाँ दिखतीं
और कहाँ देखतीं
मुड़ कर इसे
नीली आँखें!
और ईहा की सीमा पर
आकुल अकुलातीं
इसकी दोनों
पीली-पीली
हो आती
गीली आँखें।