वह कौन-सा मानस है
जिसके भीतर
कुछ अपूर्व घट रहा है
जिसका उद्घाटन
उठती हुई लहरों पर लहरें
करती जा रही हैं,
हर लहर पर
हास्य के कण
बिखरे हैं..... बिखरते जा रहे हैं
और यह भी मानस
जिसके नस-नस
जल रहे हैं
इसके भीतर
बड़वानल उबल रहा अभाव का,
तभी तो जीवन सत्त्व
राख बने,
काले काले बाल के मिष
बाहर आ उभरे हैं
जिन पर मोहित हैं
शाम सबेरे
जहरीली नजरें