धरती को प्यास लगी है
नीर की आस जगी है
मुख - पात्र खोला है
कृत - संकल्पिता है,
कि
दाता की प्रतीक्षा नहीं करना है
दाता की विशेष समीक्षा नहीं करना है
अपनी सीमा
अपना आँगन
भूल कर भी नहीं लाँघना है,
क्योंकि
पात्र की दीनता
निरभिमान दाता में
मान का आविर्मान कराती है
पाप की पालड़ी भारी पड़ती है,
और!
स्वतन्त्र स्वाभिमान पात्र में
परतन्त्रता आती है
कर्तव्य की धरती
धीमी-धीमी नीचे खिसकती है,
तब!
लटकते दोनों अधर में
तभी तो
काले-काले
मेघ सघन ये
अर्जित पाप को
पुण्य में ढालने
जो सत्पात्र की गवेषणा में निरत हैं
पात्र के दर्शन पाकर
गद्गद् हो
गड़गड़ाहट ध्वनि करते
सजल - लोचन
सावन की चौंसठ - धार
पात्र के पाद - प्रान्त में
प्रणिपात करते हैं
फिर तो
धरती ने बादल की कालिमा
धो डाली
अन्यथा
वर्षा के बाद
बादल - दल
विमल होते क्यों ?