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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तोता क्यों रोता ?

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    प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है

    चिल - चिलाती धूप है

    निदाघ का अवसर है

    भरसक प्रयास चल रहा है

    सरपट भागना चाह रहा है,

     

    पर! भाग नहीं पा रहा है भानु

    सरक रहा है धीमे-धीमे

    अस्ताचल की ओर,

    और इधर  

    सरफट रहा है

    फल भार ले झुका है

    तपी धरा पर नग्न-पाद

    आम्र - पादप खड़ा है

    अपने प्रांगण में,

     

    दाता के रूप में

    पात्र की प्रतीक्षा है

    लो! पुण्य का उदय आया है

    कठिन परिश्रमी

    हरदम उद्यमी

    पदयात्री पथिक

     

    पथ पर चलता - चलता

    रुकता है निस्संकोच

    सघन छाँव में

    घाम - बचाव में

    किन्तु यकायक  

    दाता का मन पलटता है

    विकल्प - विकार से लिपटता है

    कि

     

    पात्र के मुख से

    वचन तो मिले  

    मीठे-मीठे

    मिश्री मिले

    प्रशंसा के रूप में,

    महान दाता हो तुम

    प्राण-प्रदाता हो तुम

    और दान-शास्त्र की

    जीवन गाथा हो तुम!

    आदि, आदि

    अथवा

     

    कम से कम खड़े-खड़े

    दीन-हीन से

    याचना तो करे

    दोनों हाथ पसार

    अपना माथ सँभार

    और दाता को

    मान-सम्मान से पुरस्कृत करे,

     

    कुछ तो करें

    दाता कुछ देता है

    तो, प्रतिफल के रूप में

    कुछ लेना भी चाहता है

    लेन-देन का जोड़ा है ना!

    लो! संतों की वाणी भी

    यही गाती है

    ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’

    अस्तु!

     

    और!
    मौन सघन होता जा रहा है

    अपना-अपना कर्त्तव्य

    गौण, नगन होता जा रहा है

    इस स्थिति में

    कौन ? रोक सकता है इस प्रश्न को,

    कि

    कौन ? विघन होता जा रहा है

    दाता की मुख-मुद्रा

    हृदय का अनुसरण कर रही है

    और भाव-प्रणाली

    ललाट-तल पर आ

    तरल तरंगायित है

    भ्रमित भंगायित है

    जो कुछ है वितरण कर रही है,

     

    और इसी बीच

    अयाचक-वृत्ति का पालक पात्र

    मौन मुद्रा से

    समयोचित भावाभिव्यक्ति

    सहज-भाव से करता है,

    कि,

    हे आर्य!

    दान देना

    दाता का कार्य है

    प्रतिदिन अनिवार्य है

    यथाशक्ति

    तथाभक्ति

    मान-सम्मान के साथ,

    पाप को पुण्य में ढलना है ना!

    और यह भी सत्य है

    पात्र मान-सम्मान के बिना

    दान स्वीकार नहीं करेगा,

     

    कारण विदित ही है

    दान क्रिया में दाता

    प्रायः मान करता है

    अहं का पोषक बनता है,

    और पात्र यदि  

    दीनता की अभिव्यक्ति करता है

    स्वाधीनता का शोषक बनता है

    किन्तु!

    मोक्ष-मार्ग में

    यह अभिशाप सिद्ध होता है

    इससे विरुद्ध चलना

    वरदान सिद्ध होता है,

     

    इसलिए

    समुचित विधान यही है

    दान से पूर्व मान-सम्मान हो

    वह भी भरपेट हो

    बाद में दान

    भले ही अल्प..... अधपेट हो

    सहर्ष स्वीकार है

    और यह भी ध्यान रहे

    याचना, यातना की जनी है

    कायरता की खनी है

    इस पात्र को

    कैसे छू सकती है वह,

     

    यह वीरता का धनी है

    सदा-सदा के लिए

    इसमें धीरता आ ठनी है

    लो! और यह कैसा विस्मय!

    फलों की भीड़ से घिरा

    नीड़ में बैठा-बैठा

    निस्संग तोता

    इस मौन वार्ता को पीता है

    जो मांसाहार से रीता...है

    ...............जीवन जीता है,

    स्वैरविहारी है

    फलाहारी है

    अतिथि की ओर निहारता है अनिमेष!

    मन ही मन विचारता है

    अभूतपूर्व घटना है मेरे लिए

    प्रभूत पुण्य मिलना है मेरे लिए

    और सुरभि से निरा महकता  

    सुन्दरता से भरा चहकता

    पक्व रसाल चुनता है

    अतिथि के लिए

    दान हेतु,

     

    किन्तु

    तत्काल क्या हुआ

    सुनो तुम!

    मनोविज्ञान में निष्णात जो है

    अतिथि की ओर से

    मौन-भाषा की शुरुआत और होती है

    कि

    यह भी दान स्वीकार नहीं है इसे

    यद्यपि इसमें

    पूर्व की अपेक्षा

    मान-सम्मान का पुट है

    और भरपूर है,

     

    किन्तु!

    दाता दान को मजबूर है

    पात्र को देखकर

    और!

    पर-पदार्थ को लेकर

    पर पर-उपकार करना

    दान का नाटक है

    चोरी का दोष आता है

    यदि अपनत्व का दान करते हो

    श्रम का बलिदान करते हो

    स्वीकार है,

     

    अन्यथा यह सब वृथा है

    तथा स्व - पर के लिए

    सर्वथा व्यथा है

    दान की कथा सुनकर

    मूक रह जाता तोता

    भीतर ही भीतर

    उसका मन व्यथित होता है

    अकर्मण्य जीवन पर रोता है

    तन भी मथित होता है उसका,

    और!

    सजल-लोचन कर

    निजी आलोचन कर

    प्रभु से प्रार्थना करता है

    अगला जीवन इसका

    श्रम - शील बने  

    शम - झील बने

    और! बहुत विलम्ब करना उचित नहीं

    अतिथि लौट न जाये

    खाली हाथ!

     

    ऐसा सोचता हुआ

    उसी पल एक

    पका फल  

    अननुभूत भाव से

    अपने आपको

    भरा हुआ-सा

    अभिभूत अनुभूत करता है

    पूत-सफलतीभूत बनाने

    जीवन को दान-दूत बनाने

    जिसमें नव-नवीन भाव

    प्रसूत होता है

    कर्त्तव्य के प्रति

    प्रस्तुत करता है

    अतिथि का रूप निरख कर

    अतिथि का स्वरूप परख कर

    जीवन को दिशा मिल गई,

     

    चिर से तनी

    और घनी निशा टल गई

    दान की उपासना

    .........जागृत हुई

    मान की वासना

    .......निराकृत हुई

    राग, विराग से मिलने

    ...........आकुल है

    पंक, पराग से मिलने

    .........आतुर है,

    और बन्द अधर खुलते हैं

    शब्द ‘अधर’ डुलते हैं

    आगत का स्वागत हो

    अभ्यागत आद्रत हो

    सेवा स्वीकृत हो

     

    सेवक अनुगृहीत हो

    हे स्वामिन् ! हे स्वामिन् ! हे स्वामिन्!

    और दान कार्य सम्पादन हेतु

    सहयोग के रूप में पवन को

    आहूत करता है

    वन-उपवन-विचरणधर्मा

    तत्काल आता है पवन  

    फल से पूर्व-भूमिका विदित होती है उसे

    कि

    ये पिता हैं (वृक्ष की ओर इंगन)

    इनका पित्त प्रकुपित है

    तभी मुझ पर कुपित हैं

    आँगन में अतिथि खड़े हैं

    ये अपनी धुन पर अड़े हैं

    स्वयं दान देते नहीं

    देने देते नहीं,

     

    मान प्रबल है इनका

    ज्ञान समल है इनका

    मेरे प्रति मोह है

    पर के प्रति द्रोह है

    क्या ? पूत को कपूत बनाना चाहते हैं ये

    पूत-पवित्र नहीं,

    और पवन को इंगित करता है पका फल

    मैं बन्धन तोड़ना चाहता हूँ

    इस कार्य में सहयोग आपेक्षित है

    ‘समझदार को इशारा काफी है'

     

    सूक्ति चरितार्थ हुई,

    और पवन ने

    एक हल्का-सा

    झोंका दे दिया

    प्रकारान्तर से

    वृक्ष को धोखा दे दिया

    रसाल फल

    डाल से खिसक कर

    शून्य में दोलायित हुआ

    अर्पित होने, लालायित हुआ

    चिर के लिए बन्धन / क्रन्दन

    पलायित हुआ,

     

    पुनः पवन को समझाता है

    मुझे इधर-उधर नहीं गिराना

    सीधा बस!

    पात्र के पाणि-पात्र में गिराना

    और एक झोका देने पर

    डाल के गाल पर!

    फल, कर में आ पात्र के

    अर्पित होता है,

    स्वप्न साकार होता है

    और सत्कार्य में भाग लेकर

    पवन भी बड़भागी बनता है

    पाप-त्यागी बनता है

    सज्जन समागम से

    रागी विरागी बनता है

     

    नीर, क्षीर में गिरता है

    शीघ्र क्षीर बनता है,

    और पथ पर  

    सहज चाल से पूर्ववत्

    चल पड़ा वह अतिथि

    उधर डाल के गाल पर

    लटकता अधपका  

    फलों का दल

    बोल पड़ा

    कि

     

    कल और आना जी !

    इसका भी भविष्य उज्ज्वल हो

    करुणा इस ओर भी लाना जी!

    अतिथि की हल्की-सी मुस्कान

    कुछ बोलती-सी!

    यह भविष्य में जीता नहीं

    अतीत का हाला पीता नहीं

    यही इसकी गीता है

    सरगम-संगीता है,

    देखो! क्या होता है

    जिसके बीच में रात

    उसकी क्या बात ?

    और वह देखता रह जाता फलों का दल

    सुदूर तक दिखती

    अतिथि की पीठ

    पुनरागमन की प्रतीक्षा में...!


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