चराचरों का संकुल
चलाचलों का कुल
यह निखिल
खुल, खिल
पल, पल
अविरल अविकल
गल-गल
नव-नूतन
अधुनातन
आकार-प्रकारों में
निर्विकार विकारों में
प्रतिफलित हो रहा है
स्वयं
था/होगा/त्रैकालिक
जो रहा है
पर !
इस प्रतिफलन की गोपनता
मोहाकुल व्याकुल चेतन के
आचार-विचारों में
फलित कब हुई है ?
इसलिए तो
यह साधारण
जन-गण-मन
निर्णय कर लेता है
कि
विशाल निखिल का
आखिर!
स्रष्टा कौन होगा ?
सकल साक्षात्कार
द्रष्टा मौन होगा
वही ईश्बर, अविनशवर ना !
शेष सब गौण होगा
किन्तु यह निर्णय
सत्य रहित है
तथ्य रहित है
पूर्ण अहित है
केवल कल्पना है
केवल जल्पना है
क्योंकि
चेतन से अचेतन का
उद्भव...!
कैसा हो सम्भव...!
क्या सम्भव है ?
कभी...!
बोकर बीज बबूल
पाना रसाल…
.....रसपूर
भरपूर
और क्या कारण है ?
ये ईश्वर।
किसी को बनाते नर
किसी को बनाते किन्नर
मतिवर, धीवर, वानर
जबकि वे
अदय नहीं है
सदय ‘हृदय’
अभय निधान
हैं भगवान्।
सबको बनाते ...!
एक समान
या भगवान
अपने समान
जिसका जैसा हो परिणाम
धर्म-कर्म-काम
तदनुसार ही
ये ईश्वर
इन चराचरों को
दिखाते हैं।
नरक-निवास
स्वर्ग-विलास
नर-पशु-गति का त्रास...!
यह कहना भी
युक्ति-युक्त नहीं है।
कारण !
कर्म-मात्र से काम हो रहा
ईश्वर फिर किस काम आ रहा ?
‘माता-पिता तो
सन्तान के कर्ता हैं
यह धारणा भी
नितान्त भ्रान्त है
केवल ये भी 'विभाव-भाव के
काम-भाव के
कर्ता हैं...
अन्यथा कभी-कभी
कुछेक
सन्तानहीन क्यों ?
वन्ध्या…
रोती क्यों ?
त्रिसन्ध्या...?
सही बात यह है।
कि,
जननी-जनकज
रज-वीरज के
मिश्रण-निर्मित
नूतन तन तब धरता है।
आयु-पूर्ण कर
जीरण शीरण
पूरव तन जब तजता है।
निज कृत विधि-फल
पाता प्राणी
अज्ञानी !
यथार्थ में।
प्रति पदार्थ में
सृजन-शीलता
द्रवण-शीलता
परनिरपेक्ष
शक्ति-निहित है।
जिसके अवबोधन में
हित निहित है
इसलिए
विगत-भाव का
विनाश वाला
सुगत-भाव का
प्रकाश वाला
सतत शाश्वत
ध्रौव्य-भाव का
विलासशाला
सत् है।
चेतन हो या अचेतन
तन, मन हो या अवचेतन
सब ये सत् हैं।
स्वयं सत् हैं
सत् ही धाता विधाता है…
पालक-पोषक निज का निज ही
सत् ही विष्णु त्राता.....है।
प्रलय-पताका
सत् ही शिव संघाता है।
इसलिए अब
तन से, मन से
और वचन से
सत् का सतत
स्वागत है, सुस्वागत है।