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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जलधि 'जड़धी' है इसका भाव बुद्धि का अभाव नहीं परन्तु, जड़ यानी निर्जीव- चेतना-शून्य घट-पट पदार्थों से धी यानी बुद्धि का प्रयोजन और चित् की अर्चना-स्वागत नहीं करना है। सागर में परोपकारिणी बुद्धि का अभाव, जन्मजात है उसका वह स्वभाव। वही बुद्धिमानी है हो हितसम्पत्-सम्पादिका और स्व-पर-आपत्-संहारिका...! सागर के संकेत पा कर सादर सचेत हुई हैं सागर से गागर भर-भर अपार जल के निकेत हुई है गजगामिनी भ्रम-भ्रामिनी दुबली-पतली कटि वाली गगन की गली में अबला-सी तीन बदली निकल पड़ी हैं। दधि-धवला साड़ी पहने पहली वाली बदली वह ऊपर से... साधनारत साध्वी-सी लगती है। रति-पति-प्रतिकूला-मतिवाली पति-मति-अनुकूला गतिवाली The ocean is imbibed with ‘Dullness of intellect? It doesn't mean that it is devoid of intellect But, Dullness implies ‘materialistic”, that is, senseless’- It means not to make proper usage of ‘dhi’ i.e. intellect, With the life-less objects like pot and cloth etc., And Not to adore and receive supreme spirit. The benevolent wisdom lacks with the ocean, It is its inborn nature. The wisdom is really that Which is the executor of well-being and fulfilment And Destroys the disaster of ourselves and that of the others too...! Like wandering women with an elephant-like gait Like, frail females in the lane of sky With a lean and thin waist, Which have become respectfully alert Which have pooled a huge store of water By filling up their pitchers from the sea – -The three cloudlets have set themselves out On receiving the signals from the ocean. Wrapped into a white curd-like sādi That first one cloudlet In its appearance... Looks like a devoted nun. The one, whose heart is opposed to cupidity The one, who acts according to her husband's mind –
  2. तीन-चार दिन हो गये किसी कारणवश विवश हो कर जाना पड़ा बाहर कुम्भकार को। पर, प्रवास पर तन ही गया है उसका, मन यहीं पर बार-बार लौट आता आवास पर! तन को अंग कहा है मन को अंगहीन अन्तरंग अनंग का योनि-स्थान है वह सब संगों का उत्पादक है सब रंगों का उत्पातक...! तन का नियन्त्रण सरल है और मन का नियन्त्रण असम्भव तो नहीं, तथापि वह एक अवश्य उलझन है कटुक-पान गरल है वह...। कुम्भकार की अनुपस्थिति होना कुम्भ में सुखाव की उपस्थिति होना यह स्वर्णावसर है मेरे लिए- यूँ जलधि ने सोचा। और हर-हर कहती लहरों के बहाने बादलों को सूचित किया अपनी कूट...नीति...से जो पहले से ही प्रशिक्षित थे। Three or four days elapse, Due to some reason The Artisan Has to set out under compulsion. But, on sojourn Travels only his body, The inner mind once and again Turns back there at the residence ! The body, has been described as sense-organs The inner mind has been told as an unembodied Conscience It is the birth-place of the Cupid The generator of all types of attachments The spring-board of all the colours of emotions...! It is easy to control the body And It is not impossible to control the inner mind, Yet It is certainly an intricacy A bitter-drink poison is it.... The absence of the Artisanal The presence of dryness into the holy pitcher (kumbha) Is a golden chance for me – Thus ponders the ocean. And On the pretext of the splashing waves, With its...diplomatic...move Intimates the clouds Which are really trained beforehand.
  3. क्षति पहुँचाने हेतु दल-दल पैदा करने लगा! दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना! जितने विचार, उतने प्रचार उतनी चाल-ढाल हाला घुली जल-ता क्लान्ति की जननी है ना! इसी का यह परिणाम है कि अतिवृष्टि का, अनावृष्टि का और अकाल-वर्षा का समर्थन हो रहा यहाँ पर! तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए सब कुछ अनर्थ घट सकता है। वह प्रार्थना कहाँ है प्रभु से, वह अर्चना कहाँ है प्रभु की परमार्थ समृद्धि के लिए! इसी बीच विशाल आँखें विस्फारित खोल खड़ी लेखनी यह बोल पड़ी कि- “अधःपातिनी, विश्वघातिनी इस दुर्बुद्धि के लिए धिक्कार हो, धिक्कार हो! आततायिनी, आर्तदायिनी दीर्घ गीध-सी इस धन-गृद्धि के लिए धिक्कार हो, धिक्कार हो!’’ The unity and integrity of the earth Starts setting in the lagoon! The factional multiplicity is indeed the killer of peace! As many heads, as many tongues As many moves and manners, The wateriness flushed with wine Is the mother of weariness, indeed! That is the reason Why the heavy outpour of rains, want of rains And The untimely rains are being hereat justified ! For the petty selfish ends For some futile fame All offences can take place ! Where is there that prayer for the Lord Where is there that adoration to the Lord Which is meant for the wealth of the most Sublime Truth ? Meanwhile, standing with its Large eyes widespread The writing pen speaks out thus – “ Fie once and again To this evil-mindedness Which forges downfall, universal killings ! Curse once and again To this tyrannous, oppressive Huge vulture-like Greediness for wealth !”
  4. बदले में फिर सुरीले स्वर-संगीत सुनते हैं श्रवणों से मन्त्र-मुग्ध हो, खो कर अपने को दैनिक-रात्रिक सपने को! इसी भाँति, धरती माँ की आज्ञा पालने में रत हैं। नाग, सूकर, मच्छ, गज, मेघ आदि जिनके नाम से मुक्ता प्रचलित हैं- वंश-मुक्ता, सीप-मुक्ता नाग-मुक्ता, सूकर मुक्ता मच्छ-मुक्ता, गज-मुक्ता और मेघ-मुक्ता! मेघ-मुक्ता बनने में भी धरती का ही हाथ है सो...स्पष्ट होगा यहीं... इन सब विशेषताओं से सातिशय यश बढ़ता गया धरती का, चन्द्रमा की चन्द्रिका को अतिशय ज्वर चढ़ता गया। धरती के प्रति तिरस्कार का भाव और बढ़ा धरती को अपमानित-अपवादित करने हेतु चन्द्रमा के निर्देशन में जलतत्त्व वह अति तेजी से शतरंज की चाल चलने लगा, यदा-कदा स्वल्प वर्षा करके। दल-दल पैदा करने लगा धरती पर। धरती की एकता-अखण्डता को Then, in return Hears melodious musical notes with his ears Being enchanted, forgetting himself And his day-to-day nightly dreams ! In this very way, In obedience of the order of Mother-Earth are occupied The serpents, boars, milters, elephants, clouds etc. After whose names the pearls are prevalent- The bamboo pearls, the oyster-pearls The snake-pearls, the boar-pearls The fish-pearls, the elephant-pearls And the cloud-pearls ! In the formation of the cloud-pearls too the earth plays its role So...it shall be explained here under… Due to all these characteristics The pre-eminent fame of earth augments, The fever of the Moon-beam Goes up excessively high. The sense of disregard towards the earth Increases more and more, In order to Insult and defame the earth That watery element, very swiftly, Starts its chess-like moves Under the directions of the moon, By making some sporadic rains to fall Occasionally Begins to create morass over the earth. In order to damage –
  5. विघ्न का विचार तक नहीं किया मन में। निर्विघ्न जीवन जीने हेतु कितनी उदारता है धरती की यह! उद्धार की बात ही सोचती रहती सदा - सदा सबकी। देखो ना! बाँस भी धरती का अंश है धरती ने कह रखा है बाँस को कि वंश की शोभा तभी है जल को मुक्ता बनाते रहोगे युगों-युगों तक... संघर्ष के दिनों में भी दीर्घश्वास लेते हुए भी हर्ष के क्षणों में भी। फिर क्या कहना! धरती माँ की आज्ञा पा बड़े घने जंगलों में गगन-चूमते गिरिकुलों पर बाँस की संगति पा जलदों से झरा जल वंशमुक्ता में बदलने लगा... तभी...तो... वंशी-धर भी मुक्त-कण्ठ से वंशी की प्रशंसा करते हैं मुक्ता पहनते कण्ठ में और अपने ललित - लाल अधरों से लाड़-प्यार देते हैं वंशी को। It did not even brood In its mind over creating some hindrance. For leading an unhampered life What broad-heartedness of the Earth is this ! It keeps on thinking, indeed, Constantly about the means of deliverance for all. Look here, please! The bamboo too is a part of the earth The earth has told the bamboo (bānsa) That The posterity/bamboo/ that is, 'vansa’ is aggrandized only when It shall go on converting water into pearls For ages to come… Even in the days of struggles While taking a heavy sigh too In the moments of joy also. Then, how wonderful ! On being ordered by the Mother Earth - Inside the huge dense forests Above the sky-kissing mountain-chains After coming in company with the bamboo, The water fallen from the clouds Starts transforming into bamboo-pearls... That is...why… Even Lord Krishna too. Bestows his full-throated praise upon the flute While wearing the pearls around the neck, And Caresses the flute With his lovely ruby lips.
  6. एक-दो बूंदें मुख में गिरते ही तत्काल बन्द-मुखी बना कर सागर उन्हें डुबोता है, कोई उन्हें छीन न ले, इस भय से। और, अपनी अतल-अगम गहराई में छुपा लेता है। वहाँ पर कोई गोताखोर पहुँचता हो सम्पदा पुनः धरा पर लाने हेतु वह स्वयं ही लुट जाता है। खाली हाथ लौटना भी उसका कठिन है… दिन-रात जाग्रत रहती है यहाँ की सेना भयंकर विषधर अजगर मगरमच्छ, स्वच्छन्द सम्पदा के चारों ओर विचरण करते हैं, अपरिचित-सा कोई दिखते ही साबुत निगलते हैं उसे! यदि वह पकड़ में नहीं आता हो तो...तो...क्या? वातावरण को विषाक्त बनाया जाता है तुरन्त, विष फैला कर। यही कारण है कि सागर में विष का विशाल भण्डार मिलता है। पूरी तरह जल से परिचित होने पर भी आत्म-कर्तव्य से चलित नहीं हुई धरती यह। कृतघ्न के प्रति विघ्न उपस्थित करना तो दूर, As and when one or two drops enter the lips The ocean, having mouthed them, Instantly makes them sink, Due to the fear of being snatched away by Someone. And, conceals them Into its bottomless unfathomable depths. The diver who endeavours to reach there To bring up the wealth again on the earth Is himself really sacked. It is difficult for him to come back empty-handed Even… The army there remains at alert day in and day out The dreadful venomous dragons, crocodiles Move around the wealth fancifully, They, at once in entirety, swallow up any one Whosoever appears them to be a new-comer ! If he escapes their grip Then...then...what ? The atmosphere is made poisonous At once by diffusing the poison. That is why there is found A huge storage of poison into the ocean. Despite being fully acquainted with water The earth did not budge From its self-obligation. Far from creating an obstacle For the one who is thankless,
  7. तथापि इस विषय पर विचार करने से विदित होता है कि इस कार्य में धरती का ही प्रमुख हाथ है। जल को मुक्ता के रूप में ढालने में शुक्तिका-सीप कारण है और सीप स्वयं धरती का अंश है। स्वयं धरती ने सीप की प्रशिक्षित कर सागर में प्रेषित किया है। जल को जड़त्व से मुक्त कर मुक्ता-फल बनाना है, पतन के गर्त से निकाल कर उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है। यही दया-धर्म है यही जिया कर्म है। फिर भी! सबकी प्रकृति सही-सुलटी हो यह कैसा सम्भव है ? जल की उलटी चाल मिटती नहीं वह जल का स्वभाव छल-छल उछलना नहीं है उछलना केवल बहाना है उसका उसका स्वभाव तो...छलना है। मुक्तमुखी हो, ऊर्ध्वमुखी हो सागर की असीम छाती पर अनगिन शुक्तियाँ तैरती रहती हैं जल-कणों की प्रतीक्षा में। Nevertheless It we ponder over it It is found that This achievement is obtained mainly due to the earth-factor. In transforming water into the shape of a pearl The pearl-oyster is an eminent cause, And The pearl-oyster in itself is a part of the earth. Having trained the pearl-oyster, the Earth itself Has sent it into the ocean. Having relieved the water of its stupor And to mould it into a pearl form, Having taken it out of the pit of decline And to place it on an elevated position, Is the objective of the patience-retaining Earth. This is the real nature of compassion This is the kārmic action of the Sentient Being. - Even then ! How is it possible That every body’s nature is honest and upright ? The reverse move of water can never be uprooted The nature of water is not that of gurgling with a leap The leaping forward is only an excuse Its nature is really...that of hoodwinking. Being open-mouthed, supine-faced, Countless pearl-oysters keep floating Upon the broad chest of the ocean, Waiting for the drops of water.
  8. अन्यथा, दिन में क्यों नहीं रात्रि में क्यों निकलता है घर से बाहर ? वह भी चोर के समान-सशंक छोटा-सा मुख छुपाता हुआ अपना...! और धरती से बहुत दूर क्यों रहता है ? जब कि भानु धरती के निकट से प्रवास करता है अपना! खेद है ! चन्द्रमा का ही अनुसरण करती हैं ताराएँ भी। इधर सागर की भी यही स्थिति है चन्द्र को देख कर उमड़ता है और सूर्य को देख कर उबलता है। ‘‘यह कटु सत्य है कि अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं सकतीं, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को निर्लज्ज बनाया है।” यह बात निराली है, कि मौलिक मुक्ताओं का निधान सागर भी है कारण! मुक्ता का उपादान जल है, यानी-जल ही मुक्ता का रूप धारण करता है। Otherwise, Why does she set out from home at night, Why not at the day-time ? And that too, suspicious like a thief Hiding her tiny face...! And Why does she dwell at a very long distance from the earth? While the Sun Performs his sojourn at close quarters with the earth ! It's a matter of regret ! The stars too Follow the footsteps of the Moon. Hither, the position of the ocean too is the same, On beholding the Moon, it rises and rolls with joy And On seeing the Sun, It boils. ‘It is a bitter truth that The eyes of wealth and money Are unable to see the transcendental reality, The greedy desires for wealth Have made shameless even the high-ups.’ It's a peculiar point, that The ocean too is the treasure of genuine pearls, The reason is that The material cause behind a pearl is water, That is, the water really transforms into a pearl -
  9. जलद बना जल बरसाता रहा और अपने दोष-छद्म छुपाता रहा जलधि को बार-बार भर-भर कर...! कई बार भानु को घूस देने का प्रयास किया गया पर न्याय-मार्ग से विचलित नहीं हुआ ...वह परन्तु, इस विषय में चन्द्रमा विचलित हुआ और उसने जलतत्त्व का पक्ष लिया, लक्ष्य से च्युत हो, भर-पूर घूस ले लिया। तभी...तो चन्द सम्पदा का स्वामी भी आज सुधाकर बन गया चन्द्रमा ! वसुधा की सारी सुधा सागर में जा एकत्रित होती फिर प्रेषित होती...ऊपर... और उस सुधा का सेवन करता है। सुधाकर, सागर नहीं सागर के भाग्य में क्षार ही लिखा है। ‘‘यह पदोचित कार्य नहीं हुआ- मेरे लिए सर्वथा अनुचित है” यूँ सोच कर चन्द्रमा को लज्जा-सी आती है उज्वल भाल कलंकित हुआ उसका Being moulded into the clouds, keeps on raining And Goes on concealing its faults and frauds By filling up the ocean once and again...! An effort is made on many occasions To bribe the Sun But, from the path of justice, does not flinch ...He But, On the other side, the Moon gets distracted And Having taken the side of the watery substance, She, deviating from her aim, Takes the bribe to her heart's fill. That is...why The owner even of a little of wealth, the Moon Becomes the ‘mine of nectar' to-day! All the nectar of the Earth Flows into the ocean and gets deposited there, Then, it is remitted...upwards… And It is utilized By the moon, and not by the ocean, Only salty element is fated for the ocean. It has not been a deed according to the dignity- it is improper for me by all means’ – Thinking thus, the Moon feels ashamed Her brighter fore-head gets stained -
  10. अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करने का संकल्प लिया है धरती ने, इसीलिए...तो...धरती सर्वं-सहा कहलाती है सर्व-स्वाहा नहीं… और सर्वं-सह्य होना ही सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है। न्याय-पथ का पथिक बने सूर्यनारायण से यह अन्याय देखा नहीं गया, सहा नहीं गया और अपने मुख से किसी को कहा नहीं गया! फिर भी, अकर्मण्य नहीं हुआ वह बार-बार प्रयास चलता रह्म सूर्य का, अन्याय पक्ष के विलय के लिए न्याय पक्ष की विजय के लिए। लो! प्रखर-प्रखरतर अपनी किरणों से जलधि के जल को जला-जला कर सुखाया, चुरा कर भीतर रखा हुआ अपार धन-वैभव दिख गया सुरों, सुराधिपों को! इस पर भी स्वभाव तो...देखो, जला हुआ जल वाष्प में ढला The Earth has taken a vow Not to retaliate On being even ill-treated, That is...why...the Earth Has been called all-enduring And not all-destroying… And To be all-enduring, indeed, Is to attain the whole substance in life - The path of the saints sings really thus. Being the way-farer of the path of justice The Sun-god can not see, Can not bear this injustice And Can not give out, indeed, His tongue to none else ! Even then, he does not become inactive The endeavour of the Sun goes on continually, For the dismissal of the side of injustice, For the victory to the side of justice. Lo! through his hot and hotter rays The water of the ocean Is heated on to get dried up, The endless wealth and splendour Which is stealthily hidden inside Comes in view of the gods, the celestial chiefs ! Despite this all, behold... the real nature, The burnt up water turns into vapour
  11. जब कभी धरा पर प्रलय हुआ यह श्रेय जाता है केवल जल को धरती को शीतलता का लोभ दे इसे लूटा है, इसीलिए आज यह धरती धरा रह गई है। न ही वसुन्धरा न वसुधा रही ! और वह जल रत्नाकर बना है- बह्म-बहा कर धरती के वैभव को ले गया है। पर-सम्पदा की ओर दृष्टि का जाना अज्ञान को बताता है, और पर सम्पदा हरण कर संग्रह करना मोह-मूच्र्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है स्व-पर को सताना है, नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है। इस निन्द्य कर्म करके जलधि ने जड़-धी का, बुद्धि-हीनता का परिचय दिया है। अपने नाम को सार्थक बनाया है। Whenever the universal destruction descends upon the earth The concern goes only to water By extending the allurement of coolness to earth, It has been plundered, That very is, indeed, the reason Why this earth has remained bare ground to-day Neither could it become rich nor wealth - sustaining earth ! And That water has become an ocean -a mine of jewels - It has carried away with its rolling waves The splendour of the earth. The turning of one's eye towards the other’s wealth Is an indication of ignorance, And The amassing of fortune through the seizure of other's wealth Is the excess of illusion and infatuation. It is a deed of very low quality, It is to torture one's own self as well as that of the others, It is to lead a life down into the hellish regions. By doing this derogatory deed The ocean has acquainted us with its Senseless mind and irrational intellect, It has proved the significance of its own name.
  12. १३-०२-२०१६ ध्यान डूंगरी, भिण्डर (उदयपुर राजः) आत्ममल को धोने वाले आत्मबली गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में संख्यातीत नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.... हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के बाल सखा, युवा सखा और शिक्षक के द्वारा विद्याधर के व्यक्तित्व पर लिखे गए गुणानुवाद पत्रों का अंकन कर भेज रहा हूँ । जिनको पढ़ने से आपको अपने शिष्य पर गौरव होगा और होगा आत्मसंतोष। जिसको आपने जिनस्वरूप प्रदान किया है, वह कोई सामान्य पुरुष नहीं अपितु महापुरुषत्व मय एक भव्य अन्तरात्मा है। जो शीघ्र ही परमात्मा बनकर जिनशासन की ध्वजा को चूडान्त तक फहरायेंगे। प्रथम पत्र आत्मीय मित्र मारुति (ग्राम-सदलगा, जिला-बेलगाँव) का है। श्रेष्ठ सहचर : विद्याधर "आत्मीय विद्याधर से मैं पहली क्लास से परिचित हूँ। हम दोनों एक साथ पहली कक्षा से सातवीं कक्षा तक बराबर साथ रहे। तभी से हमारी मित्रता हुई। मैं उनसे चार साल बड़ा हूँ। कक्षा में जैसे रोल नम्बर आता था उसी अनुसार बैठते थे, इसलिए साथ नहीं बैठता था किन्तु कक्षा के बाहर साथ रहता था। जब हम दोनों चौथी कक्षा में थे तब विद्याधर के साथ गाँव शेडवाल गया था वहाँ पर आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का संघ विराजमान था, वहाँ हम दोनों ने आचार्य श्री के प्रवचन सुने थे। मैं अजैन हूँ, मेरी जाति लिंगायत (शिव भक्त) है। आचार्य महाराज के प्रवचनों से प्रभावित होकर मित्र विद्याधर की बातों से मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई और मैंने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। विद्याधर की सत्संगति से मेरा जीवन उज्वल बन गया। विद्याधर के प्रेम के कारण मैं उसके साथ सदा रहने लगा। उसके साथ उसके खेत पर जाता था, उसके साथ शाम को हर रोज जैन मंदिर जाया करता था और वहाँ स्वाध्याय में हम दोनों बैठा करते थे। जब पण्डित जी (अन्ना साहिब पाटिल जिन्होंने विद्याधर की दीक्षा से प्रेरणा लेकर १९८१ में महामस्तकाभिषेक गोम्मटेश्वर के बाद मुनि विद्यानंद जी से कोथली में क्षुल्लक दीक्षा ली थी और उनकी समाधि सदलगा में हुई।) गैर हाजिर रहे तो विद्याधर शास्त्र गादी पर बैठकर शास्त्र पढ़ता था, सभी लोग सुनते थे। उसकी वाणी बहुत मीठी लगती थी। सभी लोग विद्याधर से ही शास्त्र सुनना चाहते थे। शास्त्र स्वाध्याय में जिनगोंड़ा से मित्रता हो गई थी। जिनगोंणा उम्र में हम लोगों से बड़े थे। विद्याधर को देश के बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुनने की इच्छा होती थी तो हम दोनों सुनने जाया करते थे। वह मुझे छोड़कर कहीं भी नहीं जाया करते थे। नजदीक के गाँव बेडकीहाल में मुनि श्री आदिसागर जी महाराज की सल्लेख़ना को देखने गए थे। फिर एक बार पंचकल्याणक देखने गये थे। फिर दो साल बाद मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज की सल्लेखना देखने का सौभाग्य मिला। तब विद्याधर बोले-' अपने को भी। ऐसे ही सल्लेखना लेकर मरण करना है, तब मैंने कहा मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ कैसे होता है? तो विद्याधर बोले-‘साधु संगति मत छोड़ना, सब हो जायेगा। ऐसे ही एक बार हम दोनों बोरगाँव में मुनि श्री नेमिसागर जी की समाधि होने तक ६-७ दिन तक वहीं रुके रहे और उनकी सेवा में लगे रहे। उनकी समाधि देखकर विद्याधर का वैराग्य बहुत ही चरम सीमा तक बढ़ गया था। तब एक दिन जिनगोंड़ा, विद्याधर और मैं तीनों ने मिलकर चर्चा की और अंतिम फैसला हो गया कि जयपुर राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषण जी के पास जाना है। अब घर पर नहीं रहना है। उस समय मैं एक छोटा-सा व्यापार मूंगफली का करता था, किसी कारणवश मैं जाने को तैयार नहीं हो सका। उन दोनों के पास पैसे कम थे तो मैंने उन्हें १०० रुपये दे दिए और वो दोनों वहाँ चले गए। सन् १९६८, ३० जून को विद्याधर की मुनि दीक्षा हो गई तब मैं विद्याधर के परिवार के साथ अजमेर गया था तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने हम सभी के सामने बोला-‘मारुति के सहयोग से मैं यहाँ तक आ पाया हूँ' तब महावीर जी ने मुझे सौ रुपया दे दिया। मैंने मुनि विद्यासागर जी से कहा-आप तो अपना कल्याण कर लिए, अब मेरा क्या होगा? तब मुनि विद्यासागर जी ने कहा-‘तुम विवाह के फंदे में मत पड़ना' और गुरु श्री ज्ञानसागर जी के पास ले जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला दिया। मैं धन्य हो गया। तब से आज तक मैं एक-दो साल बाद आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शनार्थ जाया करता हूँ। मेरा जीवन इनकी संगति से उज्ज्वल बन गया। बस अंतिम इच्छा है कि उनके आशीर्वाद से मेरा भी समाधिमरण णमोकार मंत्र के साथ हो जाए, यही भावना है। उनके आशीर्वाद से मेरे सारे करम कट जायेंगे और दुःख कम होंगे। मैं यहीं भावना भाता हूँ वो सदा मेरी स्मृति में बने रहें।" द्वितीय मित्र पुण्डलीक (सदलगा, जिला- बेलगाँव, कर्नाटक) ने विद्याधर का मित्र होना सुकृत (पुण्य) का फल मानते हुए प्रशंसा-पत्र इस प्रकार लिखा है मित्र बना विश्वगुरु "किस जन्म का सुकृत फल मुझे मिला जो परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज व उनके बड़े भाई महावीर जी अष्टगे के समकाल में मेरा जन्म हुआ, उस सुकृत फल के ही कारण हम बाल सखा होकर बड़े हुए। हम सभी मिलकर वन महोत्सव के निमित्त खेत पर भोजन लेकर जाया करते थे। उस वक्त विद्याधर की चतुराई देखा करते थे। विद्याधर को किसी का जूठा खाना या अपने खाने में से दूसरे को खिलाना पसंद नहीं था। वो बड़े ही साफ-सफाई से रहते थे। स्कूल की छुट्टी के दिन मेला या सरकस देखने जाया करते थे। जब खाली समय मिलता था तो हम लोग जैन मंदिर जाया करते थे। विद्याधर को ध्यान करने में बहुत रुचि थी और ज्यादातर समय ध्यान में ही बिताता था। उसको हमने कभी नाराज होते नहीं देखा, क्रोध करते नहीं देखा, झूठ तो उसके मुँह से कभी निकला ही नहीं और किसी के साथ मात्सर्य भाव नहीं रखता था। क्रोध, मान, माया, लोभ से बहुत दूर अपने आप में ही खोया रहता था। ऐसे मित्र को पाकर हम सभी गौरवान्वित थे। बचपन में उस वक्त हम लोग अनुमान ही नहीं कर पाये कि विद्याधर संन्यास स्वीकार कर लेगा। इतने ज्ञानी कि विश्वगुरु, विश्वमानव, विश्वपुरुष हो जायेंगे ऐसा हमने कभी सोचा नहीं था। ऐसे देवमानव मित्र को शतशत प्रणाम करने में आनंद की अनुभूति हो रही है। तृतीय प्रशस्ति-पत्र आत्मीय मित्र शिवकुमार (सदलगा, जिला-बेलगाँव, कर्नाटक) का आपके समक्ष वाचन कर रहा हूँ होशियार सर्वप्रिय मित्र : विद्याधर ‘विद्याधर से मेरी मित्रता पहली कक्षा में हुई थी। हम लोग कक्षा में एक साथ कभी नहीं बैठते थे, रोल नम्बर के अनुसार बैठते थे। जब कभी मैं विद्याधर के साथ बैठ जाता था तो वो मुझे उठा देता था, रोल नम्बर के अनुसार बैठने को कहता था। सभी मास्टर उसे बहुत नजदीक से देखते थे यानि उससे बहुत प्रेम करते थे क्योंकि विद्याधर अनुशासन से रहता था, साफ-सुथरा रहता था और गृहकार्य (होमवर्क) करने में सबसे आगे रहता था। उसकी हैंडराइटिंग भी बहुत सुंदर थी और पढ़ाई में बहुत अभिरुचि थी। गणित, विज्ञान, भाषा के विषय में अच्छे नंबर आते थे। इतिहास विषय भी बहुत अधिक रुचता था। क्लास में सदा प्रथम से तीन नम्बर के बीच में ही उसकी रैंक होती थी और क्लास में सभी विद्यार्थियों के साथ अच्छा व्यवहार था। इस कारण सभी शिक्षकों का प्रेम पात्र विद्याधर था। हम दोनों कैरम, शतरंज, बैडमिंटन खेलते थे। जब कभी विद्याधर हारता तो चुनौती देता था कि अगले खेल में मैं ही निश्चितरूप से जीतूंगा। वह किसी के साथ भी कलह या झगड़ा नहीं करता था एवं कभी भी हमने उसके मुख से गालियाँ नहीं सुनी। गुरुजी से विद्याधर को कभी-कभी डाँट खाना पड़ती थी और एक बार बेंच के ऊपर खड़ा भी होना पड़ा था। विद्याधर कभी भी गंदे कपड़े नहीं पहनता था हमेशा प्रेस के कपड़े ही पहना करता था और अपनी किताब-कापियाँ साफ-सुंदर रखता था। शाम को हर रोज मंदिर जाया करता था और लौटते समय अपने घर लेखन करने के लिए आया करता था। गृहकार्य होते ही हम दोनों कैरम खेला करते थे। विद्याधर दुकान से खरीदकर कोई अन्य चीज पाठशाला में नहीं लाते थे मात्र मूंगफली लाया करते थे। मूंगफली खाना उसे बहुत पसंद था। विद्याधर के साथ हर साल नजदीक के गाँव जनवाड़ में मेला देखने जाया करते थे। मेला में फिल्म नागिन एवं देवता देखी थी और सर्कस भी देखा करते थे। उस समय दो आने का सर्कस का टिकट था। सर्कस देखने के बाद विद्याधर खिलाड़ियों की बहुत प्रशंसा किया करता था। एक बार स्कूल में एक नाटक का प्रदर्शन हुआ था। नाटक का नाम था ‘‘मरा जो आखिर तक रहे। इसमें विद्याधर ने सूत्रधार का रोल अदा किया था। उसकी एक्टिंग अच्छी थी इसके कारण उसे पारितोषिक भी मिला था। उसको बड़े महान् पुरुषों का भाषण सुनना बहुत अच्छा लगता था। एक बार प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी शहर सांगली आए थे तब हम सभी मित्र विद्याधर के साथ उनका भाषण सुनने गए थे। और जब आचार्य विनोबा भावे जी गाँव निप्पानी में आए थे तब विद्याधर के साथ हम लोग भाषण सुनने गए। विनोबा जी के भाषण से विद्याधर के परिणाम बहुत उज्ज्वल हुए थे और वो सदा उनके बारे में बहुत प्रशंसा किया करता था। तब विद्याधर ने कहा था- ‘देखो देश की सेवा एवं गरीबों की सेवा के लिए विनोबा जी ने सर्वस्व का त्याग कर दिया था, हमें भी ऐसा ही करना चाहिए। विद्याधर को रेडियो सुनना बहुत रुचता था, उसमें भी न्यूज प्रतिदिन बड़े ही आतुरता के साथ सुनता था। एक बार वह साईकिल चला रहा था तो जैसे सर्कस में हाथ छोड़कर देखा था वैसे ही वह हाथ छोड़कर चला रहा था। तब वह बैलेन्स बिगड़ने से गिर पड़ा, घुटने में मार लग गई तो पन्द्रह दिन तक उनके पिताजी (मल्लप्पा जी) गरम पानी से सेक करके उसके बाद मोनी संस बाम लगाकर पट्टी बाँध देते थे। तब जाकर वह ठीक हुआ था। हम लोग जब भी साथ होते तो विद्याधर महापुरुषों की बात याद करता था- ‘देखो उन्होंने कैसे पुरुषार्थ किए होंगे और अपने जीवन को कैसे सार्थक किया है, हमारे हाथ से ऐसा पुरुषार्थ होगा क्या?’ ऐसे विचार अपने जीवन के बारे में किया करते थे। इसी विषय पर एक बार एक ज्योतिषी ने कहा था कि यह विद्याधर भी एक दिन महापुरुष बनेगा। इसमें रत्तीभर भी शंका करने की जरुरत नहीं है, यह मैं ज्योतिषी कह रहा हूँ क्योंकि विद्याधर के हाथ की उगंली पर त्रिशूल का चिह्न है। विद्याधर हमेशा खाली समय में देश के महापुरुष आदि के रेखाचित्र बनाते थे। जैसे-गाँधी जी, नेहरु जी, सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय जी, चन्द्रशेखर आजाद, विनोबा भावे जी, भगवान् रामचन्द्र जी, भगवान् कृष्ण जी, भगवान महावीर स्वामी जी, भगवान् बाहुबली स्वामी जी, सिपाही, हाथी, घोड़ा, पक्षी आदि। चित्रों को बनाते समय राष्ट्रगीत या जैन भजन गुनगुनाते रहते थे। कभी-कभी तो हँसी खुशी में नृत्य भी करते थे और कन्नड़ भाषा में चुटकुले भी सुनाया करते थे। इसलिए मित्रों को विद्याधर सर्वप्रिय लगता था। विद्याधर पैर में कभी भी बूट नहीं पहनते थे और चमड़े की कोई वस्तु उपयोग में नहीं लेते थे। वह बहुत ही धार्मिक वृत्ति के विद्यार्थी थे। ऐसे मित्र को हम आज तक भूल नहीं पाए हैं।" हे गुरुवर! विद्याधर का कोई भी मित्र बिरले अनूठे अदम्य साहसी कलाविज्ञ सर्वप्रिय मित्र के गुणानुवाद करने में अपने आपको पीछे नहीं रखना चाहता। इसी क्रम में मित्र अण्णा साब खोत (समनेवाड़ी, जिला बेलगाँव) ने भी विश्ववंदनीय गुरुवर श्री विद्यासागर जी की विनयांजली स्वरूप पत्र लिख भेजा है। वह आपको प्रेषित कर रहा हूँ- कृतज्ञ मित्र : विद्याधर विद्याधर,आचार्य विद्यासागर बने। ऐसे महापुरुष का जन्म सदलगा में हुआ तो सदलगा जन्म तीर्थ स्थान हो गया। आपने सदलगा गाँव में सातवीं तक पढ़ाई कन्नड़ में की फिर पाँच किलोमीटर दूरी पर श्री लट्टे एज्यूकेशन सोसायटी, बेड़कीहाल के बी.एस.हाईस्कूल में माध्यमिक शिक्षा के लिए प्रवेश किया था। एक दिन विद्याधर अपने बड़े भाई के साथ हाईस्कूल आ रहे थे, मैंने उन दोनों को देखा और आश्चर्यचकित हुआ, अचरज की बात यह है कि एक ही ढाचे में तैयार दो सुन्दर गुड़िया यानि दोनों भाईभाई, समान गोल-गोल मुख वाले, आकर्षक रंग, समान ऊँचाई, लाल होंठों वाले, हाथ-पाँव बराबर बराबर, मालूम हुआ कि सदलगा गाँव वाले हैं। बड़ा भाई महावीर है और छोटा भाई विद्याधर है, लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि कौन महावीर है और कौन विद्याधर। इस कारण मैं बहुत बार फँस जाता था, महावीर को विद्याधर कह देता था और विद्याधर को महावीर कह देता था। आप भी वहाँ होते तो आप भी जरूर फँसते। विद्याधर सादा शर्ट और हाफपेन्ट पहनते थे। सदा सरल सत्य व्यवहार करते थे। सदा प्रसन्न व हँसमुख रहते थे। बहुत मंदा जमाना था। करीब-करीब सत्तर बरस पुरानी बात है, लोग बहुत गरीब थे, लेकिन प्रामाणिक थे। खेती-बाड़ी करते थे, सीधे-साधे एवं भोले स्वभाव के थे। आर्थिक स्थिति बहुत गंभीर थी। यह सुनकर आश्चर्य होगा कि सौ रुपये का नोट जिंदगी में एक आध बार भी नहीं देख पाते थे। विद्याधर के पिताजी (मल्लप्पा जी) की खेती-बाड़ी और आर्थिक स्थिति मध्यम वर्ग की थी। हाई स्कूल में हर महीने पाँच रुपये फीस लगती थी। एक बार विद्याधर जी फीस देने के लिए पैसे नहीं लाए थे, तब मैंने पाँच रुपये दिए थे। बाद में दीक्षा लेने के भाव से शान्तिगिरी (कोथली-कर्नाटक) गए थे। उसके बाद उत्तर भारत की ओर विहार करते समय हमारे घर आकर पाँच रुपये देकर बोले-‘धन्यवाद, मैं भूल गया था, लेट हो गया, क्षमा करना' और चले गए। यह उनका कृतज्ञता का उदाहरण है। महापुरुष ऐसे ही होते हैं। हम लोग हाईस्कूल में हर रोज खो-खो, कबड्डी एवं रिंग खेलते थे। तब विद्याधर की चतुराई एवं स्फूर्ति देखते ही बनती थी। छोटी-सी वय में वैराग्य सम्पन्न हो जाने के कारण विद्यार्थी जीवन अधूरा ही रह गया। सातिशय सम्पन्न पुण्य उदय में आ गया और सम्यक् पुण्य के उदय से पुरुषार्थ करके अनंत संसार विच्छेदन करने विद्याधर से विद्यासागर हो गए। पुण्य और पुरुषार्थ के प्रभाव से अंतरंग निज वैभव में रमकर। आनंद का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे आपके चित्रों की भाषा बता रही है। भारत वर्ष को गौरवान्वित करने वाले विश्ववन्दनीय संयत सुंदर प्रात:स्मरणीय परमपूज्य, मित्र गुरुवर को हृदय में धारण कर बारम्बार नमोस्तु करता हुआ वन्दे तद्गुण लब्धये।" हे गुरुवर! आपको ज्ञात होगा कि विद्याधर ने अपनी दीक्षा रुकवायी थी कारण कि उन्होंने अपने मित्र जिनगौड़ा को वचन दिया था साथ-साथ जिनदीक्षा लेने का और उन्होंने जिनगौड़ा को पत्र लिखा था आने के लिए। जिनगौड़ा किस कारण नहीं आ पाये यह स्पष्टीकरण उन्होंने लिख भेजा। वर्तमान में वो महास्वामी जी मठ संस्थान नांदणी-कोल्हापुर के पट्टाचार्य स्वस्ति श्री जिनसेन भट्टारक के रूप में अपने मित्र को याद कर रहे हैं। वह पत्र मैं आपको प्रेषित कर रहा हूँ। कल्याण मित्र : विद्याधर "जुलाई १९६६ में हम एवं विद्याधर दोनों ही आचार्य देशभूषण जी महाराज के पास जयपुर गए थे। तब वे जयपुर चूलगिरि में चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ से आचार्य महाराज देशभूषण जी ने सन् १९६७ में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में होने वाले भगवान् गोम्मटेश्वर मूर्ति का महामस्तकाभिषेक महोत्सव में। सम्मिलित होने के लिए चातुर्मास के पश्चात् विहार किया। साथ में हम लोगों ने भी पैदल विहार किया। विहार में वैयावृत्य, आहारदान आदि सेवा में हम दोनों ही पूर्णतया जुट गए। इस कारण आचार्य महाराज से कोई शिक्षा, ज्ञान हमें प्राप्त न हो सका। संघ में रहने के कारण हम लोग आपस में यही चर्चा करते थे ज्ञान की शिक्षा कब मिलेगी? तत्त्वज्ञान कैसे प्राप्त होगा? विद्याधर तो मुनि दीक्षा लेने का पूर्णतया मन बना चुका था इस कारण दीक्षार्थी विद्याधर, स्वाध्याय की इच्छा रखने के कारण स्वाध्यायार्थी भी थे। वो विहार में भी मुनियों के समान आचार-विचार आहार-विहार करते थे। उनकी दिनचर्या मुनियों के साथ चला करती थी। पैदल विहार करते हुए संघ के साथ हम लोग गोम्मटेश्वर पहुँचे। वहाँ पर हम दोनों ने गोम्मटेश्वर स्वामी का मस्तकाभिषेक किया, फिर संघ के साथ स्तवनिधि आए। स्तवनिधि से हम दोनों विद्याभ्यास करने हेतु उत्तरभारत की ओर पुनः जाने वाले थे लेकिन मेरी प्रकृति ठीक नहीं होने के कारण मैं उत्तर भारत न जा सका। तीव्र उत्कण्ठा लेकर विद्याधर अकेला ही स्तवनिधि से चला गया। अजमेर-किशनगढ़ पहुँचकर विद्याधर ने कुछ समय बाद मुझे पत्र लिखे और टेलीग्राम से समाचार भेजा था। टेलीग्राम में लिखा था-‘‘मैं दीक्षा ले रहा हूँ, आप अजमेर-किशनगढ़ शीघ्र आ जाओ, हम दोनों मिलकर मुनि दीक्षा ले लेंगे।' यह संदेश मिला था, किन्तु मेरी प्रकृति अस्वस्थ्य होने के कारण मैं जा न सका। विद्याधर की मुनिदीक्षा होने के समाचार मिले, सुनकर मैं हर्षोल्लसित हो गया। विद्याधर से मेरी दोस्ती सदलगा ग्राम में हुई थी। सदलगा में श्रीमान् अण्णासो पायगड़ा पाटिल हर रोज जैन मंदिर में शाम को शास्त्र स्वाध्याय कराते थे, हम दोनों उनके प्रवचन सुनने मंदिर जाते थे तब मंदिर जी में मेरी व विद्याधर की पहचान हुई और यह पहचान दृढ़ दोस्ती में बदल गई। आज अपने दोस्त को महाव्रती मुनि-प्रभावक आचार्य के रूप में देखता हूँ तो मुझे उन पर गौरव होता है, प्रेरणा मिलती है। आज वो मेरे दिशादर्शक हैं, मेरी भी भावना उनके जैसे बनने की है। हे गुरुदेव! विद्याधर विद्यालय के छात्रों में श्रेष्ठ छात्र था। उसे विद्यालय के शिक्षक भी स्नेह करते थे। इस सम्बन्ध में बेड़कीहाल हाई स्कूल के भूगोल, इतिहास एवं शारीरिक शिक्षक श्रीमान् भुजबली हिप्परगी (शमनेवाड़ी, जिला-बेलगाँव) ने इस प्रकार प्रशस्ति-पत्र भेजा है आदर्श विद्यार्थी : विद्याधर जब विद्याधर आठवीं कक्षा में प्रवेश लेने बी.एस. हाई स्कूल (बेड़कोहाल, जिला-बेलगाँव) में गया था तब मैंने विद्याधर को भूगोल और इतिहास पढ़ाया था और हर रोज एक्सरसाइज (पी.टी.) कराता था। मुझे जहाँ तक याद है विद्याधर कभी भी गैरहाजिर नहीं रहा। उसे पढ़ाई के साथ-साथ व्यायाम करने में अभिरुचि थी। वह बड़ा निर्भीक, निडर, दृढ़संकल्पी बालक था। सदा अनुशासन में रहना, नियमित रूप से क्लास में हाजिर रहना, शिष्टबद्ध आचरण, हर बात को अच्छे से पालन करना, इस कारण वह निर्भीक रहता था। एक बार की बात मुझे याद है विद्यालय में लेट आया तो डाँटने से पहले ही उसने बड़े ही मासूमियत और निडरता से लेट आने का कारण बताया तो उसे गले लगाने का भाव हो गया था। पढ़ाई में अव्वल रैंक रहती थी। कभी कोई गलती नहीं करता था।गलती होने पर तत्काल बता देता था। असत्य बोलना तो वो जानता ही नहीं था। विद्यालय की हर एक्टीविटीज में भाग लेता था। एक बार विद्यालय में नाटक का मंचन हुआ उस नाटक का सूत्रधारक बनकर श्रेष्ठ पात्र का पारितोषिक जजों के हाथ से प्राप्त किया था। आज मुझे अपने महान् विद्यार्थी, महाकवि दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागर जी गुरु महाराज को स्मरण करके गौरव की अनुभूति हो रही है। इस प्रकार मित्रों ने अपने सर्वप्रिय मित्र जो आज महापुरुष बन गए हैं, उनके गुणानुवाद स्वरूप अपनी-अपनी विनयांजली अर्पित की। आपके श्रीचरणों में अपनी ओर से भावांजली अर्पित करता हुआ, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  13. व्यय से भी कोई चिन्ता नहीं परन्तु अपव्यय महा भयकर है। भविष्य भला नहीं दिखता अब भाग्य का भाल धूमिल है। अधर में डुलती-सी बादल-दलों की बहुलता अकाल में काल का दर्शन क्यों ? यूँ कहीं...निखिल को एक ही कवल बना एक ही बार में विकराल गाल में डाल ...बिना चबाये साबुत निगलना चाहती है ! No worry over the expenditure too But Extravagance is highly detrimental. The future doesn't appear to be good now The forehead of the Fate is gloomy ! As is hanging over the empty space The thickness of the band of clouds, Why this untimely appearance of death and destruction ? Thus, probably...turning the entire world Into only one single morsel, Wishes to gulp in its entirety Without chewing..., Indeed, at one stretch. Pushing the universe into the fierce jaws of annihilation !
  14. १२-०२-२०१६ ध्यान डूंगरी, भिण्डर (उदयपुर-राजः) जातरूप नग्न, अनावरित प्रकृति सम प्राकृतिक पुरुष गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सहज स्वरूप को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! आज मैं विद्याधर का गुणानुराग के सम्बन्ध में बताने जा रहा हूँ। जैसा कि विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया गुणानुरागी विद्याधर ‘‘एक बार की बात है सदलगा के पास में निप्पाणी शहर है, वहाँ चलने के लिए विद्याधर ने मुझसे कहा-तब मैंने पूछा क्यों जाना? तो बोला- ‘वहाँ पर आचार्य विनोबा भावे जी भाषण देने के लिए आ रहे हैं। मुझको उनके भाषण सुनना है। वो देश के लिए और देश के गरीबों के लिए बहुत अच्छा काम करते हैं। अच्छा भाषण देते हैं। इसलिए हमको उनका भाषण सुनना चाहिए।' तब हम दोनों पिताजी के पास गए और बोले हम लोगों को विनोबा भावे जी का भाषण सुनना है। तब पिताजी ने समझाते हुए ऊँचे स्वर में कहा-वह भू-दान के लिए भाषण देने आ रहे हैं। अपने पास अभी ज्यादा भूमि नहीं है, दान क्या दोगे? जाओ अभी स्कूल जाओ। यह सुनकर विद्याधर नाराज हो गया, उसे विनोबा भावे के भाषण सुनने की याद आ रही थी। तब मेरे पास पाँच रुपये थे मैंने उसे दे दिए और कहा तू मित्रों के साथ चला जा। तो वह मित्रों के पास गया मित्रों ने कहा एक शर्त पर चलेंगे। हम विनोबा जी का भाषण नहीं सुनेंगे। हम जैमिनी सर्कश देखेंगे, तुमको भाषण सुनना है तो सुन लेना। विद्याधर तैयार हो गया और चला गया। वहाँ से वापस आकर मुझे सब कुछ बताया। पूरा भाषण सुनाया और सुनाते समय उनकी बातों का समर्थन करते जा रहा था- ‘विनोबा जी गरीबों के लिए कितना अच्छा कार्य कर रहे हैं, देश का हित होगा और गरीबों को अभयदान मिलेगा।" इस तरह विद्याधर महापुरुषों और प्रसिद्ध नेताओं के भाषण सुनने सदलगा से बाहर जाया करता था। एक बार मेरे साथ पण्डित जवाहरलाल नेहरु का भाषण सुनने गया था। इस तरह विद्याधर बचपन से ही महापुरुषों की आदर्शता को अपने अंदर सहेजता जा रहा था। आज वो स्वयं लोकादर्श बन गए हैं। ऐसे आदर्श महापुरुषों के आदर्शों को सदैव नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  15. ११-०२-२०१६ सालेड़ा अतिशय क्षेत्र (उदयपुर-राजः) अंधियारे भवारण्य के ज्ञानप्रकाश गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ... हे गुरुवर! आज मैं आपको आपके शिष्य, पाक कलाकार विद्याधर के बारे में बताता हूँ। इस सम्बन्ध में विद्याधर की बहिनें ब्रह्मचारिणी सुश्री शान्ता जी, सुश्री सुवर्णा जी ने प्रश्न का जवाब लिखकर भिजवाया पाक कलाकार विद्याधर “भोजन करना अलग बात है, भोजन बनाना अलग। जिसे पाक कला के नाम से जाना जाता है। पाक कला से संस्कृति का परिचय सहज हो जाता है। इस कला में महिलाएँ निपुण होती हैं, किन्तु पुरुषों का निपुण होना कला संज्ञा को प्राप्त होता है। भाई विद्याधर जी माँ के साथ अक्सर भोजन बनाने में सहयोग करते रहते थे तो वो भी पाक कला निपुण बन गए थे। एक बार पर्युषण पर्व के दौरान विद्याधर ने माता-पिता को पूछा-आप आज विधान में कौनसा चरु (नैवेद्य) चढ़ायेंगे? आप बतायें। मैं आपको बनाकर दे दूंगा। तब विद्याधर जी ने मैदा और शुद्ध घी से करंजा (गुजिया), कमल पुष्प बनाकर माँ के हाथ में दे दिया था। उस सुन्दर और मनमोहक चरु को चढ़ाकर माँ पिताजी हर्षित हुए थे। त्योहार में अपने मनपसंद पकवान बनाकर सभी को खिलाते थे।" इस प्रकार विद्याधर माँ के साथ भोजन बनाने में सहयोग करता रहता था। तो अनायास ही पाक कला में निपुण हो गया था। आदिपुराण में भी आया है कि पुरुष की ७२ कलाएँ होती हैं और स्त्रियों की ६४ कलाएँ। विद्याधर बहुत-सी कलाएँ सीख चुका था। आज साधना से आत्म उद्धार की कला में निपुण बन गए हैं। ऐसे आत्मोद्धार कला विज्ञ को देख सहज ही नतमस्तक हो जाते हैं लोग, मेरा भी उन पावन चरणों को नमन... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. ११-०२-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव मंगलवाड़ा चौराहा (राजः) योगी वेश सुशोभित ज्ञान विभा से पहचाने जाने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि नमोस्तु... हे गुरुवर! विद्याधर बचपन से ही आगम युक्त आचरण पर सूक्ष्म दृष्टि रखता था। जिनवाणी स्वाध्याय से भाव श्रुत की उपलब्धि करना सम्यक्त्व का प्रतीक हैं, सम्यक्त्व को प्रगाढ़ बनाना है। इस सम्बन्ध में ब्रह्मचारिणी सुश्री शान्ता जी, सुश्री सुवर्णा जी ने लिखकर भेजा विद्याधर की धर्मक्रिया की समझ ‘‘माँ श्रीमन्ती ने हम दोनों पुत्रियों को ऐसी समझ दी थी कि अभी तुम छोटी हो तुमसे उपवास नहीं हो सकता है। इसलिए एकासन किया करो। एकासन का मतलब एक बार सुबह भोजन करना और शाम को तला हुआ पदार्थ जैसे पूड़ी, बूंदी, लाडू, जलेबी आदि। छोटे बच्चों को सब छूट होती है। माँ की ममता की झूठ समझ को सच समझकर हम बच्चे वैसा ही एकासन करने लगे। हम लोगों की उस समय उम्र ९ और १२ वर्ष की थी। एक दिन भैया विद्याधर ने ऐसा करते हुए देख लिया तब कहा-‘ऐसा भी कोई एकासन होता है क्या? ऐसा तो मैं हमेशा कर सकता हूँ। एक बार भोजन करना और शाम को मुँह में कुछ भी नहीं डालना वही एकासन कहलाता है। विद्याधर की इस समझाइस से हम दोनों बहिनों ने अपनी क्रिया सुधारकर सही एकासन व्रत करना शुरु किया था।" इस तरह विद्याधर बचपन से ही कोई भी क्रिया हो उसे आगम के आलोक में सम्यक्ररीति से करते थे। हे गुरुवर! ऐसी समझ मुझे भी प्राप्त हो इस भावना के साथ नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  17. स्वभाव से ही सुधारता है स्वपन...स्वपन...स्वपन… अब तो चेतें -विचारें अपनी ओर निहारें अपन...अपन...अपन। यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! वसन्त चला गया उसका तन जलाया गया, तथापि वन-उपवनों पर, कणों-कणों पर उसका प्रभाव पड़ा है प्रति जीवनों पर यहाँ, रंग-रग में रस वह रम गया है रक्त बन कर। रूप पर, गन्ध पर, रस पर, परिणाम जो हुआ है परस पर पर्त-पर-पर्त गहरा लेप चढ़ गया है। वह प्राकृत सब कुछ ढक चुका है वह विषय बहुत गूढ़ बन चुका है इसीलिए दाह-संस्कार के अनन्तर भी पूरा परिसर यह स्नपित-स्नात होना अनिवार्य है। परन्तु यह क्या! अतिथि होकर भी अति क्यों ? आय नहीं होता, नहीं सही Is reformed naturally through thy Own-self...own-self...own-self… Even now, be alert, be thoughtful Behold thy own self, - All of us...all of us...all of us...! Here there is going on only Heat...heat...heat...! The vernal season departed Its body was put to flames, Even then It has left behind its impact Upon forests, parks, on every particle Upon each and every form of life here; That flavour, having taken the form of blood, Has penetrated into each and every vein. As a result of coming in touch with it A deeper paint has affected strongly All the folds of beauty, smell and taste. All that was natural has been covered up That subject has assumed a deeper secrecy Therefore, Even after the funeral ceremony, The entire campus Has to be necessarily bathed and washed. But, how strange it is ! Despite being a guest, why this excess ? No matter if income is meagre -
  18. पत्र क्रमांक-४३ ०९-०२-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव भादसोड़ा (चित्तौड़-राजः) आत्माभा में लीन गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में सीमातीत वंदन... हे गुरुवर! आपने ज्ञानपिपासु ब्रह्मचारी विद्याधर में जो ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित की। जिसे आज तक मेरे गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज दिन-रात जलाये रखते हैं। किसी भी उपसर्ग-परिषह संकटों के झंझावातों में बुझने नहीं देते हैं। यह संस्कार बचपन से ही विद्याधर को प्राप्त हुए थे। इस सम्बन्ध में विद्याधर की गृहस्थावस्था की बहिनें ब्रह्मचारिणी सुश्री शान्ता, सुश्री सुवर्णा जी ने जब वो अशोकनगर (म.प्र.) प्रवास में थीं तब संस्मरण लिखकर भेजा था। वह आपको बता रहा हूँ विद्याधर का ज्ञानविनय "ज्योति जल-जलकर उजाला देती है, जगत् में उजाला फैलाती है, खुद उजाले में रहकर उजाले में रहने की शिक्षा देती हैं एवं अखण्ड जलकर अखण्डता का उपदेश देती रहती है। ऐसी अखण्ड ज्योति घर पर जिनवाणी शास्त्रों के समक्ष पिताजी (मल्लप्पाजी) ने १८ वर्ष तक प्रज्वलित कर रखी थी। तब विद्याधर उसे बुझने नहीं देते थे। सदा उसे सम्हालते रहते थे। रात में भी उठकर देखते थे और बाती बगैरह ठीक करके घी डालते थे।" इस प्रकार लौकिक सगुन से जीवन का मंगल बनाये रखने के लिए पारिवारिक रीति-रिवाजों का पालन किया करते थे। ज्ञानज्योति प्रज्ज्वलित करने हेतु नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु... आपका शिष्यानुशिष्य
  19. बोल-चाल की भाषा में इस सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है : आना, जाना, लगा हुआ है आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और है यानी चिर-सत् यही सत्य है, यही तथ्य...! इससे यह और फलित हुआ, कि देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं ये सर्व-द्रव्य पय-शक्कर से घुले हैं शोभें तथापि अपने-अपने गुणों से छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से। फिर कौन किसको कब ग्रहण कर सकता है? फिर कौन किसका कब हरण कर सकता है...? अपना स्वामी आप है अपना कामी आप है फिर कौन किसका कब भरण कर सकता है...? फिर भी, खेद है ग्रहण-संग्रहण का भाव होता है। सो...भवानुगामी पाप है। अधिक कथन से विराम हो आज तक यह रहस्य खुला कहाँ ? जो ‘है' वह सब सत् The interpretation of the aphorism Is presented thus in the colloquial wordings: ‘In-coming ’and ‘out-going' is in force In-coming, that is, birth - is ‘production Out-going, that is, death - is ‘destruction In force, that is, fixedness - is ‘continuation’ And 'Entity, that is, the eternal ‘Being’, is there This is the ‘Truth' indeed, this very the ‘Reality'...! The further resultant of this is, that, All these substances have mixed up, While bestowing shelter to each other Have dissolved like milk and sugar -Looked splendid, with their own qualities But did not shed off the inherent nature Since ages by gone ! Then who can catch up with Whom, and at what moment ? Then who can steal away Whom, and when...? Thou art the Lord of thy own self Thou art the Wisher of thy own self, Then, who can nourish whom And at what moment...? Even then, alas ! The feeling of seizure and collection exists – So...it is a sin, which remains with the next births. Enough of more narration, When has this mystery been revealed till today? The entire ‘Entity’ that exists –
  20. यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! किस वजह से आती है वस्तु में यह भंगुरता और किस जगह से आती है वस्तु में यह संगुरुता, कुछ छुपी-सी लगती है यहाँ सहज-स्वाभाविक ध्रुवता वह कौन है? क्यों मौन है? उसका रूप-स्वरूप कब दिखेगा ? वह भरपूर रसकूप कब मिलेगा ? और यह मिलन-मिटन की तरलिम छवि यह क्षणिक स्फुरण की सरलिम छवि पकड़ में क्यों नहीं आती ? इन सब शंकाओं का समाधान अस्थियों की मुस्कान है! ‘‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है, जिसमें भूत, भावित और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है, ...तैर रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से ! Here, there is going on only, Heat... heat...heat...! What is that which causes This ephemeralness into a thing And From what corner does appear This dignity into a thing, Innate naturality, fixedness Seems to be some-what concealed here Who is He ? Why is He silent ? When shall His image and identity be manifested ? When shall that brimful juicy well be attained ? And This dewy grace of joining and separating This innocent grace of momentary throbbing - Why it doesn't come within the grasp? The smile of the skeleton Is the answer to all these doubts ! The sages have expounded this aphorism – “ Utpāda-vyaya-dhrauvya-yuktaṁ sat." -"The entire Entity is imbibed with birth-decay fixity” The present reality (Existence) of the infinite Has almost been condensed herein. This is that mirror, In which The past, the present and the future - All is being reflected, ...Is appearing afloat, Is visible on seeing through the ‘Eye of Faith' !
  21. कभी-कभी खुशी-हँसी कभी निशि मषि दिखी कभी सुरभि कभी दुरभि कभी सन्धि दुरभिसन्धि कभी आँखें कभी अन्धी बन्धन-मुक्त कभी बन्दी कभी-कभी मधुर भी वह मधुरता से विधुर दिखा कभी-कभी बन्धुर भी वह बन्धुरता से विकल दिखा बन्धु कभी बन्धु-विधुर भावुकता की चाल चली बाल कभी आगे बढ़ा वबाल बढ़े, बढ़ते चले पालक बना चालक बना बाल हुए पलित कभी कभी दमन कभी शमन कभी-कभी सुख चमन कभी वमन कभी नमन कभी कुछ परिणमन...! अभी रुकती नहीं कहती थकती नहीं अस्थियाँ कुछ और कहती हैं, कि इन स्थितियों-परिस्थितियों को देख ये कुछ हैं भी या नहीं ऐसी धारणा मत बनाओ कहीं! ये सबके सब निशा के निरे, बस स्वपन...स्वपन...स्वपन... At times, rejoicings and laughter, At times is seen the deep dark night, Often fragrance, often bad-smell Often alliance, often a secret plot Sometimes eyes, sometimes blindness, -Free from fetters, again confined Occasionally, even the sweet one Was found devoid of sweetness, Ever and anon the crooked one Was seen distressed with crookedness, Now a kinsfolk, some time without kinship Who plays a trick of sentimentality, A young one who sometimes steps forward, The perplexities grow, and go on growing, Becomes protector, assumes guidance, In due course, his hair turn grey, At times, suppression, then pacification Occasionally, the garden of delights Now, the emittance from the mouth, then the show O of salutations Now and then some fulfilment..! Even now, without coming to a halt, Feeling no fatigue while relating, The bones add something more, That Keeping in view such situations and conditions Don't ever hold such opinion that Whether they possess some significance or not! All these are merely night-nourished Dreams ...dreams...dreams..!
  22. गणना करना सम्भव नहीं है, अनगिन बार धरती खुदी गहरी-गहरी वहीं-वहीं पर अनगिन बार अस्थियाँ दबीं ये! अब तो मत करो हमारा दफन...दफन...दफन... हमारा दफन ही यह आगामी वसन्त-स्वागत के लिए वपन...वपन...वपन.. यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! कभी कराल काला राहू प्रभा-पुंज भानु को भी पूरा निगलता हुआ दिखा, कभी-कभार भानु भी वह अनल उगलता हुआ दिखा- जिस उगलन में पेड़-पौधे पर्वत-पाषाण पूरा निखिल पाताल तल तक पिघलता गलता हुआ दिखा अनल अनिल हुआ कभी अनिल सलिल हुआ कभी और जल थल हुआ झटपट बदलता ढलता परस्पर में घुला-मिला कलिल हुआ कभी। सार-जनी रजनी दिखी कभी शशि की हँसी दिखी The counting is not possible, The earth got dug out on countless times On countless occasions, these bones got buried Deeper and deeper, into those very places ! At least now, don't arrange our Burial...burial...burial... This very burial of ours, For the future reception of Spring is The sowing...Sowing...Sowing… Here, there is going on only Heat...heat...heat...! Often the dreadful black Rahu Is seen swallowing fully Even the radiant sun, At times, that sun also Is noticed emitting out flames. The emission is such in which The trees, the plants, the mountain-cliffs The whole of the universe upto the lowest region of the underworld Appears to be melting and fusing Some times the flames turn into winds Sometimes the wind changes into water And The water is soon transformed into soil, Effecting exchange while rolling into each other Some times, is shaped, into an admixed marsh. The night full of nectar is seen Some times, the smiles of the moon are visible –
  23. और र...स...ना, ना...स... यानी वसन्त के पास सर नहीं था बुद्धि नहीं थी हिताहित परखने की, यही कारण है कि वसन्त-सम जीवन पर सन्तों का नाऽसर पड़ता है। दाह-संस्कार का समय आ ही गया वैराग्य का वातावरण छा-सा गया जब उतारा गया वह वसन्त के तन पर से कफन...कफन...कफन यहाँ गल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! देखते ही देखते, बस… दिखना बन्द हो गया, वसन्त का शव भी अतीत की गोद में समा गया वह शेष रह गया अस्थियों का अस्तित्व। और, यूँ कहती-कहती अस्थियाँ हँस रही हैं विश्व की मूढ़ता पर, कि जिसने मरण को पाया है उसे जनन को पाना है और जिसने जनन को पाया है उसे मरण को पाना है | यह अकाट्रय नियम है। And Ra...sa...nā, nā...sa...ra... That is, the Spring is without head It is without wisdom to examine the beneficial and the harmful, That is the reason why The preachings of the saints Fall flat upon the vernant lives. The moment of burning ceremony has arrived at last The atmosphere of non-attachment seems to be prevailing From the body of the Spring, When is withdrawn it- The shroud...shroud...shroud...! Here, there is melting merely Heat...heat...heat...! Before the very eyes, exactly… The sight fails, The deadbody of the Spring also Disappears into the lap of the past, Only remains the existence of the bones. And, While uttering these words The bones are smiling Upon the folly of the world, that- The one, who has embraced death, Must re-gain birth And The one, who has embraced birth Must obtain death, It is a lasting law, without exception !
  24. ०८-०२-२०१६ भादसोडा (चित्तौड़-राजः) देह के सारांश जन्मजात ज्ञानेश्वर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को संख्यातीत नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... । हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के सम्यक्त्व गुण की आभा का आभास कराता हूँ। इस सम्बन्ध में मुझे विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता दादा ने बताया विद्याधर का सम्यक्त्वाचरण "सदलगा में प्रतिवर्ष महावीर जयंती का जुलूस निकलता था, आज भी निकलता है। उस महोत्सव में रथ में श्री जिनेन्द्र भगवान् को विराजमान करके प्रभावना की जाती थी। पूरी समाज उसमें उत्साह से सम्मिलित होती थी। उस जुलूस में विद्याधर बड़े उत्साह के साथ मित्रों की टोली बना के चलते थे। विद्याधर नारे लगवाता था और भगवान् की पालकी भी उठाता था। एक बार हमने धर्म दण्ड उठाने की बोली ली थी। तो मैं और विद्याधर उस धर्मदण्ड को उठाकर जुलूस में चले थे और एक बार विद्याधर के कहने पर बँवर ढुराने की बोली ली थी, तो रथ पर एक तरफ मैं और दूसरी तरफ विद्याधर ने खड़े होकर चँवर ढुराये थे। पिताजी ने बोली का पैसा तत्काल दे दिया था।इसी तरह विद्याधर धर्म के आयोजनों में भाग लिया करता था और बड़े ही उत्साह एवं रुचि के साथ उसको पूरा देखा करता था। धर्म आयोजनों को पूरी तन्मयता से समझने की कोशिश करता था उनके बारे में कभी मुझसे, कभी पिताजी से, कभी माँ से पूछता था। सदलगा के आस-पास पंचकल्याणक माँगुर, शेड़वाल, बोरगाँव आदि में हुए तब पिताजी के साथ हम सभी लोग पंचकल्याणक देखने जाते थे। विद्याधर सुबह से लेकर रात्री तक के सभी कार्यक्रम देखने में रुचि रखता था। उसे थकान नहीं होती थी। दूसरे बच्चे तो खेलने में लगे रहते थे, किन्तु विद्याधर पाण्डाल से बाहर ही नहीं जाता था। पिताजी ने हमको कभी भी दान देने के लिए मना नहीं किया, बस इतना ही कहते थे कि अपने पास जितना पैसा है उससे ज्यादा का दान नहीं बोलना और दान का पैसा तत्काल देना।’’ इस तरह विद्याधर को श्रद्धा-भक्ति-समर्पण के संस्कार बचपन से ही मिलते रहे। परिवार में दान देने की परम्परा शुरु से ही चलती रही। इस सम्बन्ध में विद्याधर के बड़े भाई ने एक बात और बतलाई वसीयत में मिले दान संस्कार ‘‘हमारे दादा पारिसप्पा (पार्श्वनाथ) समाज में दोडुबसदि (बड़ा जैन मंदिर) के मुखिया थे। उनका स्वर्गवास होने पर उनकी स्मृति स्वरूप पिताजी (मल्लप्पा जी) ने केरल जाकर सागवान लकड़ी (टीकवुड)। लेकर आये और दोड्डबसदि के अभिषेक मण्डप (गर्भगृह के बाहर) में खड़े होकर लकड़ी पर कारीगरी कराकर शीलिंग पर लगवाई थी। सागवान की लकड़ी के साथ पिताजी एक मोटी चन्दन की लकड़ी भी लाए थे किन्तु वह घर पर रखी रही हम लोग कुछ समझ नहीं पाए कि क्यों लाए, किन्तु जब चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की समाधि हुई और उसका समाचार मिला तो तत्काल अन्नाजी वह चन्दन की लकड़ी लेकर कुन्थलगिरि गए और वहाँ चिता में लगा दी थी। तब हम लोग उस दिन समझ पाए थे कि अन्ना चन्दन की लकड़ी किसलिए लाए थे। इस परिवार में उदारता का गुण दादा-परदादा से ही चला आ रहा था। वह गुण मल्लप्पा जी में आया और फिर उनके पुत्रों में भी आया। इस सम्बन्ध में दो बातें और महावीर जी ने बताई वो आपको लिख रहा हूँ। पिता की सीख : सहायता करो एहसान मत दिखाओ "मल्लप्पा जी अपने बीस एकड़ के खेत में ज्वार, गेहूँ, मूंगफली, गन्ना, मिर्च आदि की फसल तैयार करते थे। घर पर परिवार के जीवन निर्वाह के खर्च के बाद पैसा बचता था। तो पिताजी दूसरे किसानों की सदा सहायता करते रहते थे, किन्तु ब्याज नहीं लेते थे और वापस पैसा भी नहीं लेते थे। फसल आने पर फसल ले लेते थे। उन्होंने कभी भी साहूकारी नहीं की। एक बार एक गरीब किसान जो हमारे खेत पर काम करता था। उसकी भैंस मर गई तो वह दु:खी था उसने विद्याधर को बोला-हमारी भैंस मर गई है और पैसों की बहुत तंगी है मुझे कुछ पैसे दे दो तो मैं भैंस खरीदकर उसके दूध को बेचकर धीरे-धीरे सारे पैसे लौटा देंगा। तब विद्याधर ने पिताजी को बोला-‘अन्ना उसको पैसे की आवश्यकता है। उसकी भैंस मर गई हैं। वो भैंस ख़रीदकर धीरे-धीरे पैसे वापस लौटा देगा। तब पिताजी ने मना नहीं किया पैसे विद्याधर को दिए और सलाह दी कि पैसे ये मानकर देना कि ये दे दिए। वापस आयेंगे या नहीं उससे बार-बार माँगना नहीं और वापस लेने का लोभ नहीं रखना, टोकना भी नहीं।’’ इसी प्रकार मल्लप्पा जी के बड़े पुत्र महावीर जी के उदारता गुण का एक उदाहरण जो उनसे चर्चा से ज्ञात हो सका, वह आपको बताता हूँ मल्लप्पा जी के ज्येष्ठ पुत्र की उदारता "आपके शिष्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के चारित्र एवं ज्ञान की प्रभावना से प्रभावित होकर उनके दिल्ली के भक्तों ने मल्लप्पा जी के जिस निवास स्थान पर विद्याधर का जन्म हुआ था उस निवास स्थान को एक पवित्र पूज्य स्मारक के रूप में जिनालय बनाने हेतु बड़े भाई महावीर जी अष्टगे से निवेदन किया तो उन्होंने बिना कुछ लिए तत्काल वह निवास स्थान खाली करके दे दिया।" यह उदारता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यहीं उदारता का गुण आज गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के जीवन में पग-पग पर प्रगट हो रहा है। ऐसे उदारमना गुरु की उदारता को पाने के लिए मोह को नष्ट कर सकें, इस भावना के साथ नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! भोग पड़े हैं यहीं भोगी चला गया, योग पड़े हैं यहीं योगी चला गया, कौन किसके लिए- धन जीवन के लिए या जीवन धन के लिए ? मूल्य किसका तन का क्या वेतन का, जड़ का क्या चेतन का ? आभरण आभूषण उतारे गये वसन्त के तन पर से वासना जिस ओट में छुप जाती वसन भी उतारा गया वह। वासना का वास वह न तन में है, न वसन में वरन् माया से प्रभावित मन में है। वसन्त का भौतिक तन पड़ा है निरा हो निष्क्रिय, निरावरण, गन्ध-शून्य शुष्क पुष्प-सा। उसका मुख थोड़ा-सा खुला है, मुख से बाहर निकली है रसना उसकी रसना थोड़ी-सी उलटी-पलटी है, कुछ कह रही-सी लगती है- भौतिक जीवन में रस ना ! Here, there is going on only Heat... heat...heat...! The objects of worldly pleasures have stayed behind The pleasure-seeker has passed away, The yogic observances have remained behind The ascetic has left the world, What stands stable, and for whom – The wealth for the sake of life Or the life for the sake of wealth ? What upholds the value – The corporeal or the incorporeal, The material or the spiritual ? The decorations and the ornaments have been put off From the body of the Spring, Under the cover of which, the sensuousness gets concealed That cloth too has been taken off. The abode of sensuousness Is neither there within the body, nor there in the dress But It is there within the conscience affected by fraudulence. Being utterly inert and unscreened The physical body of the Spring is lying, Like a dry flower without fragrance. Its mouth is gaping a bit, The tongue is protruding out of the mouth Somewhat turned and twisted, It seems as if she is almost uttering - - There is no real joy in the corporeal life indeed!
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