११-०२-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव
मंगलवाड़ा चौराहा (राजः)
योगी वेश सुशोभित ज्ञान विभा से पहचाने जाने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि नमोस्तु...
हे गुरुवर! विद्याधर बचपन से ही आगम युक्त आचरण पर सूक्ष्म दृष्टि रखता था। जिनवाणी स्वाध्याय से भाव श्रुत की उपलब्धि करना सम्यक्त्व का प्रतीक हैं, सम्यक्त्व को प्रगाढ़ बनाना है। इस सम्बन्ध में ब्रह्मचारिणी सुश्री शान्ता जी, सुश्री सुवर्णा जी ने लिखकर भेजा
विद्याधर की धर्मक्रिया की समझ
‘‘माँ श्रीमन्ती ने हम दोनों पुत्रियों को ऐसी समझ दी थी कि अभी तुम छोटी हो तुमसे उपवास नहीं हो सकता है। इसलिए एकासन किया करो। एकासन का मतलब एक बार सुबह भोजन करना और शाम को तला हुआ पदार्थ जैसे पूड़ी, बूंदी, लाडू, जलेबी आदि। छोटे बच्चों को सब छूट होती है। माँ की ममता की झूठ समझ को सच समझकर हम बच्चे वैसा ही एकासन करने लगे। हम लोगों की उस समय उम्र ९ और १२ वर्ष की थी। एक दिन भैया विद्याधर ने ऐसा करते हुए देख लिया तब कहा-‘ऐसा भी कोई एकासन होता है क्या? ऐसा तो मैं हमेशा कर सकता हूँ। एक बार भोजन करना और शाम को मुँह में कुछ भी नहीं डालना वही एकासन कहलाता है। विद्याधर की इस समझाइस से हम दोनों बहिनों ने अपनी क्रिया सुधारकर सही एकासन व्रत करना शुरु किया था।" इस तरह विद्याधर बचपन से ही कोई भी क्रिया हो उसे आगम के आलोक में सम्यक्ररीति से करते थे। हे गुरुवर! ऐसी समझ मुझे भी प्राप्त हो इस भावना के साथ नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु....
आपका
शिष्यानुशिष्य