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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ४२ विद्याधर का सम्यक्त्वाचरण, वसीयत में मिले दान संस्कार, पिता की सीख : सहायता करो एहसान मत दिखाओ, मल्लप्पा जी के ज्येष्ठ पुत्र की उदारता

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    ०८-०२-२०१६

    भादसोडा (चित्तौड़-राजः)

     

    देह के सारांश जन्मजात ज्ञानेश्वर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को संख्यातीत नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... ।

    हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के सम्यक्त्व गुण की आभा का आभास कराता हूँ। इस सम्बन्ध में मुझे विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता दादा ने बताया

     

    विद्याधर का सम्यक्त्वाचरण

    "सदलगा में प्रतिवर्ष महावीर जयंती का जुलूस निकलता था, आज भी निकलता है। उस महोत्सव में रथ में श्री जिनेन्द्र भगवान् को विराजमान करके प्रभावना की जाती थी। पूरी समाज उसमें उत्साह से सम्मिलित होती थी। उस जुलूस में विद्याधर बड़े उत्साह के साथ मित्रों की टोली बना के चलते थे। विद्याधर नारे लगवाता था और भगवान् की पालकी भी उठाता था। एक बार हमने धर्म दण्ड उठाने की बोली ली थी। तो मैं और विद्याधर उस धर्मदण्ड को उठाकर जुलूस में चले थे और एक बार विद्याधर के कहने पर बँवर ढुराने की बोली ली थी, तो रथ पर एक तरफ मैं और दूसरी तरफ विद्याधर ने खड़े होकर चँवर ढुराये थे। पिताजी ने बोली का पैसा तत्काल दे दिया था।इसी तरह विद्याधर धर्म के आयोजनों में भाग लिया करता था और बड़े ही उत्साह एवं रुचि के साथ उसको पूरा देखा करता था। धर्म आयोजनों को पूरी तन्मयता से समझने की कोशिश करता था उनके बारे में कभी मुझसे, कभी पिताजी से, कभी माँ से पूछता था। सदलगा के आस-पास पंचकल्याणक माँगुर, शेड़वाल, बोरगाँव आदि में हुए तब पिताजी के साथ हम सभी लोग पंचकल्याणक देखने जाते थे। विद्याधर सुबह से लेकर रात्री तक के सभी कार्यक्रम देखने में रुचि रखता था। उसे थकान नहीं होती थी। दूसरे बच्चे तो खेलने में लगे रहते थे, किन्तु विद्याधर पाण्डाल से बाहर ही नहीं जाता था।

     

    पिताजी ने हमको कभी भी दान देने के लिए मना नहीं किया, बस इतना ही कहते थे कि अपने पास जितना पैसा है उससे ज्यादा का दान नहीं बोलना और दान का पैसा तत्काल देना।’’ इस तरह विद्याधर को श्रद्धा-भक्ति-समर्पण के संस्कार बचपन से ही मिलते रहे। परिवार में दान देने की परम्परा शुरु से ही चलती रही। इस सम्बन्ध में विद्याधर के बड़े भाई ने एक बात और बतलाई

     

    वसीयत में मिले दान संस्कार

    ‘‘हमारे दादा पारिसप्पा (पार्श्वनाथ) समाज में दोडुबसदि (बड़ा जैन मंदिर) के मुखिया थे। उनका स्वर्गवास होने पर उनकी स्मृति स्वरूप पिताजी (मल्लप्पा जी) ने केरल जाकर सागवान लकड़ी (टीकवुड)। लेकर आये और दोड्डबसदि के अभिषेक मण्डप (गर्भगृह के बाहर) में खड़े होकर लकड़ी पर कारीगरी कराकर शीलिंग पर लगवाई थी। सागवान की लकड़ी के साथ पिताजी एक मोटी चन्दन की लकड़ी भी लाए थे किन्तु वह घर पर रखी रही हम लोग कुछ समझ नहीं पाए कि क्यों लाए, किन्तु जब चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की समाधि हुई और उसका समाचार मिला तो तत्काल अन्नाजी वह चन्दन की लकड़ी लेकर कुन्थलगिरि गए और वहाँ चिता में लगा दी थी। तब हम लोग उस दिन समझ पाए थे कि अन्ना चन्दन की लकड़ी किसलिए लाए थे। इस परिवार में उदारता का गुण दादा-परदादा से ही चला आ रहा था। वह गुण मल्लप्पा जी में आया और फिर उनके पुत्रों में भी आया। इस सम्बन्ध में दो बातें और महावीर जी ने बताई वो आपको लिख रहा हूँ।

     

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    पिता की सीख : सहायता करो एहसान मत दिखाओ

    "मल्लप्पा जी अपने बीस एकड़ के खेत में ज्वार, गेहूँ, मूंगफली, गन्ना, मिर्च आदि की फसल तैयार करते थे। घर पर परिवार के जीवन निर्वाह के खर्च के बाद पैसा बचता था। तो पिताजी दूसरे किसानों की सदा सहायता करते रहते थे, किन्तु ब्याज नहीं लेते थे और वापस पैसा भी नहीं लेते थे। फसल आने पर फसल ले लेते थे। उन्होंने कभी भी साहूकारी नहीं की। एक बार एक गरीब किसान जो हमारे खेत पर काम करता था। उसकी भैंस मर गई तो वह दु:खी था उसने विद्याधर को बोला-हमारी भैंस मर गई है और पैसों की बहुत तंगी है मुझे कुछ पैसे दे दो तो मैं भैंस खरीदकर उसके दूध को बेचकर धीरे-धीरे सारे पैसे लौटा देंगा। तब विद्याधर ने पिताजी को बोला-‘अन्ना उसको पैसे की आवश्यकता है। उसकी भैंस मर गई हैं। वो भैंस ख़रीदकर धीरे-धीरे पैसे वापस लौटा देगा। तब पिताजी ने मना नहीं किया पैसे विद्याधर को दिए और सलाह दी कि पैसे ये मानकर देना कि ये दे दिए। वापस आयेंगे या नहीं उससे बार-बार माँगना नहीं और वापस लेने का लोभ नहीं रखना, टोकना भी नहीं।’’ इसी प्रकार मल्लप्पा जी के बड़े पुत्र महावीर जी के उदारता गुण का एक उदाहरण जो उनसे चर्चा से ज्ञात हो सका, वह आपको बताता हूँ

     

    मल्लप्पा जी के ज्येष्ठ पुत्र की उदारता

    "आपके शिष्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के चारित्र एवं ज्ञान की प्रभावना से प्रभावित होकर उनके दिल्ली के भक्तों ने मल्लप्पा जी के जिस निवास स्थान पर विद्याधर का जन्म हुआ था उस निवास स्थान को एक पवित्र पूज्य स्मारक के रूप में जिनालय बनाने हेतु बड़े भाई महावीर जी अष्टगे से निवेदन किया तो उन्होंने बिना कुछ लिए तत्काल वह निवास स्थान खाली करके दे दिया।" यह उदारता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यहीं उदारता का गुण आज गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के जीवन में पग-पग पर प्रगट हो रहा है। ऐसे उदारमना गुरु की उदारता को पाने के लिए मोह को नष्ट कर सकें, इस भावना के साथ नमन करता हुआ...

     

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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