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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ४७ श्रेष्ठ सहचर : विद्याधर, मित्र बना विश्वगुरु, होशियार सर्वप्रिय मित्र : विद्याधर, कृतज्ञ मित्र : विद्याधर, कल्याण मित्र : विद्याधर, एवं आदर्श विद्यार्थी : विद्याधर,

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    १३-०२-२०१६

    ध्यान डूंगरी, भिण्डर (उदयपुर राजः)

     

    आत्ममल को धोने वाले आत्मबली गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में संख्यातीत नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु....

    हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के बाल सखा, युवा सखा और शिक्षक के द्वारा विद्याधर के व्यक्तित्व पर लिखे गए गुणानुवाद पत्रों का अंकन कर भेज रहा हूँ । जिनको पढ़ने से आपको अपने शिष्य पर गौरव होगा और होगा आत्मसंतोष। जिसको आपने जिनस्वरूप प्रदान किया है, वह कोई सामान्य पुरुष नहीं अपितु महापुरुषत्व मय एक भव्य अन्तरात्मा है। जो शीघ्र ही परमात्मा बनकर जिनशासन की ध्वजा को चूडान्त तक फहरायेंगे। प्रथम पत्र आत्मीय मित्र मारुति (ग्राम-सदलगा, जिला-बेलगाँव) का है।

     

    श्रेष्ठ सहचर : विद्याधर

    "आत्मीय विद्याधर से मैं पहली क्लास से परिचित हूँ। हम दोनों एक साथ पहली कक्षा से सातवीं कक्षा तक बराबर साथ रहे। तभी से हमारी मित्रता हुई। मैं उनसे चार साल बड़ा हूँ। कक्षा में जैसे रोल नम्बर आता था उसी अनुसार बैठते थे, इसलिए साथ नहीं बैठता था किन्तु कक्षा के बाहर साथ रहता था। जब हम दोनों चौथी कक्षा में थे तब विद्याधर के साथ गाँव शेडवाल गया था वहाँ पर आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का संघ विराजमान था, वहाँ हम दोनों ने आचार्य श्री के प्रवचन सुने थे। मैं अजैन हूँ, मेरी जाति लिंगायत (शिव भक्त) है। आचार्य महाराज के प्रवचनों से प्रभावित होकर मित्र विद्याधर की बातों से मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई और मैंने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया।

     

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    विद्याधर की सत्संगति से मेरा जीवन उज्वल बन गया। विद्याधर के प्रेम के कारण मैं उसके साथ सदा रहने लगा। उसके साथ उसके खेत पर जाता था, उसके साथ शाम को हर रोज जैन मंदिर जाया करता था और वहाँ स्वाध्याय में हम दोनों बैठा करते थे। जब पण्डित जी (अन्ना साहिब पाटिल जिन्होंने विद्याधर की दीक्षा से प्रेरणा लेकर १९८१ में महामस्तकाभिषेक गोम्मटेश्वर के बाद मुनि विद्यानंद जी से कोथली में क्षुल्लक दीक्षा ली थी और उनकी समाधि सदलगा में हुई।) गैर हाजिर रहे तो विद्याधर शास्त्र गादी पर बैठकर शास्त्र पढ़ता था, सभी लोग सुनते थे। उसकी वाणी बहुत मीठी लगती थी। सभी लोग विद्याधर से ही शास्त्र सुनना चाहते थे। शास्त्र स्वाध्याय में जिनगोंड़ा से मित्रता हो गई थी। जिनगोंणा उम्र में हम लोगों से बड़े थे।

     

    विद्याधर को देश के बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुनने की इच्छा होती थी तो हम दोनों सुनने जाया करते थे। वह मुझे छोड़कर कहीं भी नहीं जाया करते थे। नजदीक के गाँव बेडकीहाल में मुनि श्री आदिसागर जी महाराज की सल्लेख़ना को देखने गए थे। फिर एक बार पंचकल्याणक देखने गये थे। फिर दो साल बाद  मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज की सल्लेखना देखने का सौभाग्य मिला। तब विद्याधर बोले-' अपने को भी। ऐसे ही सल्लेखना लेकर मरण करना है, तब मैंने कहा मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ कैसे होता है? तो विद्याधर बोले-‘साधु संगति मत छोड़ना, सब हो जायेगा। ऐसे ही एक बार हम दोनों बोरगाँव में मुनि श्री नेमिसागर जी की समाधि होने तक ६-७ दिन तक वहीं रुके रहे और उनकी सेवा में लगे रहे। उनकी समाधि देखकर विद्याधर का वैराग्य बहुत ही चरम सीमा तक बढ़ गया था। तब एक दिन जिनगोंड़ा, विद्याधर और मैं तीनों ने मिलकर चर्चा की और अंतिम फैसला हो गया कि जयपुर राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषण जी के पास जाना है। अब घर पर नहीं रहना है। उस समय मैं एक छोटा-सा व्यापार मूंगफली का करता था, किसी कारणवश मैं जाने को तैयार नहीं हो सका। उन दोनों के पास पैसे कम थे तो मैंने उन्हें १०० रुपये दे दिए और वो दोनों वहाँ चले गए। सन् १९६८, ३० जून को विद्याधर की मुनि दीक्षा हो गई तब मैं विद्याधर के परिवार के साथ अजमेर गया था तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने हम सभी के सामने बोला-‘मारुति के सहयोग से मैं यहाँ तक आ पाया हूँ' तब महावीर जी ने मुझे सौ रुपया दे दिया। मैंने मुनि विद्यासागर जी से कहा-आप तो अपना कल्याण कर लिए, अब मेरा क्या होगा? तब मुनि विद्यासागर जी ने कहा-‘तुम विवाह के फंदे में मत पड़ना' और गुरु श्री ज्ञानसागर जी के पास ले जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला दिया। मैं धन्य हो गया। तब से आज तक मैं एक-दो साल बाद आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शनार्थ जाया करता हूँ। मेरा जीवन इनकी संगति से उज्ज्वल बन गया। बस अंतिम इच्छा है कि उनके आशीर्वाद से मेरा भी समाधिमरण णमोकार मंत्र के साथ हो जाए, यही भावना है। उनके आशीर्वाद से मेरे सारे करम कट जायेंगे और दुःख कम होंगे। मैं यहीं भावना भाता हूँ वो सदा मेरी स्मृति में बने रहें।" द्वितीय मित्र पुण्डलीक (सदलगा, जिला- बेलगाँव, कर्नाटक) ने विद्याधर का मित्र होना सुकृत (पुण्य) का फल मानते हुए प्रशंसा-पत्र इस प्रकार लिखा है

     

    मित्र बना विश्वगुरु

    "किस जन्म का सुकृत फल मुझे मिला जो परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज व उनके बड़े भाई महावीर जी अष्टगे के समकाल में मेरा जन्म हुआ, उस सुकृत फल के ही कारण हम बाल सखा होकर बड़े हुए। हम सभी मिलकर वन महोत्सव के निमित्त खेत पर भोजन लेकर जाया करते थे। उस वक्त विद्याधर की चतुराई देखा करते थे। विद्याधर को किसी का जूठा खाना या अपने खाने में से दूसरे को खिलाना पसंद नहीं था। वो बड़े ही साफ-सफाई से रहते थे। स्कूल की छुट्टी के दिन मेला या सरकस देखने जाया करते थे।

     

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    जब खाली समय मिलता था तो हम लोग जैन मंदिर जाया करते थे। विद्याधर को ध्यान करने में बहुत रुचि थी और ज्यादातर समय ध्यान में ही बिताता था। उसको हमने कभी नाराज होते नहीं देखा, क्रोध करते नहीं देखा, झूठ तो उसके मुँह से कभी निकला ही नहीं और किसी के साथ मात्सर्य भाव नहीं रखता था। क्रोध, मान, माया, लोभ से बहुत दूर अपने आप में ही खोया रहता था। ऐसे मित्र को पाकर हम सभी गौरवान्वित थे। बचपन में उस वक्त हम लोग अनुमान ही नहीं कर पाये कि विद्याधर संन्यास स्वीकार कर लेगा। इतने ज्ञानी कि विश्वगुरु, विश्वमानव, विश्वपुरुष हो जायेंगे ऐसा हमने कभी सोचा नहीं था। ऐसे देवमानव मित्र को शतशत प्रणाम करने में आनंद की अनुभूति हो रही है। तृतीय प्रशस्ति-पत्र आत्मीय मित्र शिवकुमार (सदलगा, जिला-बेलगाँव, कर्नाटक) का आपके समक्ष वाचन कर रहा हूँ

     

    होशियार सर्वप्रिय मित्र : विद्याधर

    ‘विद्याधर से मेरी मित्रता पहली कक्षा में हुई थी। हम लोग कक्षा में एक साथ कभी नहीं बैठते थे, रोल नम्बर के अनुसार बैठते थे। जब कभी मैं विद्याधर के साथ बैठ जाता था तो वो मुझे उठा देता था, रोल नम्बर के अनुसार बैठने को कहता था। सभी मास्टर उसे बहुत नजदीक से देखते थे यानि उससे बहुत प्रेम करते थे क्योंकि विद्याधर अनुशासन से रहता था, साफ-सुथरा रहता था और गृहकार्य (होमवर्क) करने में सबसे आगे रहता था। उसकी हैंडराइटिंग भी बहुत सुंदर थी और पढ़ाई में बहुत अभिरुचि थी। गणित, विज्ञान, भाषा के विषय में अच्छे नंबर आते थे। इतिहास विषय भी बहुत अधिक रुचता था। क्लास में सदा प्रथम से तीन नम्बर के बीच में ही उसकी रैंक होती थी और क्लास में सभी विद्यार्थियों के साथ अच्छा व्यवहार था। इस कारण सभी शिक्षकों का प्रेम पात्र विद्याधर था।

     

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    हम दोनों कैरम, शतरंज, बैडमिंटन खेलते थे। जब कभी विद्याधर हारता तो चुनौती देता था कि अगले खेल में मैं ही निश्चितरूप से जीतूंगा। वह किसी के साथ भी कलह या झगड़ा नहीं करता था एवं कभी भी हमने उसके मुख से गालियाँ नहीं सुनी। गुरुजी से विद्याधर को कभी-कभी डाँट खाना पड़ती थी और एक बार बेंच के ऊपर खड़ा भी होना पड़ा था। विद्याधर कभी भी गंदे कपड़े नहीं पहनता था हमेशा प्रेस के कपड़े ही पहना करता था और अपनी किताब-कापियाँ साफ-सुंदर रखता था। शाम को हर रोज मंदिर जाया करता था और लौटते समय अपने घर लेखन करने के लिए आया करता था। गृहकार्य होते ही हम दोनों कैरम खेला करते थे। विद्याधर दुकान से खरीदकर कोई अन्य चीज पाठशाला में नहीं लाते थे मात्र मूंगफली लाया करते थे। मूंगफली खाना उसे बहुत पसंद था। विद्याधर के साथ हर साल नजदीक के गाँव जनवाड़ में मेला देखने जाया करते थे। मेला में फिल्म नागिन एवं देवता देखी थी और सर्कस भी देखा करते थे। उस समय दो आने का सर्कस का टिकट था। सर्कस देखने के बाद विद्याधर खिलाड़ियों की बहुत प्रशंसा किया करता था। एक बार स्कूल में एक नाटक का प्रदर्शन हुआ था। नाटक का नाम था ‘‘मरा जो आखिर तक रहे। इसमें विद्याधर ने सूत्रधार का रोल अदा किया था। उसकी एक्टिंग अच्छी थी इसके कारण उसे पारितोषिक भी मिला था।
     

    उसको बड़े महान् पुरुषों का भाषण सुनना बहुत अच्छा लगता था। एक बार प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी शहर सांगली आए थे तब हम सभी मित्र विद्याधर के साथ उनका भाषण सुनने गए थे। और जब आचार्य विनोबा भावे जी गाँव निप्पानी में आए थे तब विद्याधर के साथ हम लोग भाषण सुनने गए। विनोबा जी के भाषण से विद्याधर के परिणाम बहुत उज्ज्वल हुए थे और वो सदा उनके बारे में बहुत प्रशंसा किया करता था। तब विद्याधर ने कहा था- ‘देखो देश की सेवा एवं गरीबों की सेवा के लिए विनोबा जी ने सर्वस्व का त्याग कर दिया था, हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।

     

    विद्याधर को रेडियो सुनना बहुत रुचता था, उसमें भी न्यूज प्रतिदिन बड़े ही आतुरता के साथ सुनता था। एक बार वह साईकिल चला रहा था तो जैसे सर्कस में हाथ छोड़कर देखा था वैसे ही वह हाथ छोड़कर चला रहा था। तब वह बैलेन्स बिगड़ने से गिर पड़ा, घुटने में मार लग गई तो पन्द्रह दिन तक उनके पिताजी (मल्लप्पा जी) गरम पानी से सेक करके उसके बाद मोनी संस बाम लगाकर पट्टी बाँध देते थे। तब जाकर वह ठीक हुआ था। हम लोग जब भी साथ होते तो विद्याधर महापुरुषों की बात याद करता था- ‘देखो उन्होंने कैसे पुरुषार्थ किए होंगे और अपने जीवन को कैसे सार्थक किया है, हमारे हाथ से ऐसा पुरुषार्थ होगा क्या?’ ऐसे विचार अपने जीवन के बारे में किया करते थे। इसी विषय पर एक बार एक ज्योतिषी ने कहा था कि यह विद्याधर भी एक दिन महापुरुष बनेगा। इसमें रत्तीभर भी शंका करने की जरुरत नहीं है, यह मैं ज्योतिषी कह रहा हूँ क्योंकि विद्याधर के हाथ की उगंली पर त्रिशूल का चिह्न है।

     

    विद्याधर हमेशा खाली समय में देश के महापुरुष आदि के रेखाचित्र बनाते थे। जैसे-गाँधी जी, नेहरु जी, सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय जी, चन्द्रशेखर आजाद, विनोबा भावे जी, भगवान् रामचन्द्र जी, भगवान् कृष्ण जी, भगवान महावीर स्वामी जी, भगवान् बाहुबली स्वामी जी, सिपाही, हाथी, घोड़ा, पक्षी आदि। चित्रों को बनाते समय राष्ट्रगीत या जैन भजन गुनगुनाते रहते थे। कभी-कभी तो हँसी खुशी में नृत्य भी करते थे और कन्नड़ भाषा में चुटकुले भी सुनाया करते थे। इसलिए मित्रों को विद्याधर सर्वप्रिय लगता था। विद्याधर पैर में कभी भी बूट नहीं पहनते थे और चमड़े की कोई वस्तु उपयोग में नहीं लेते थे। वह बहुत ही धार्मिक वृत्ति के विद्यार्थी थे। ऐसे मित्र को हम आज तक भूल नहीं पाए हैं।" हे गुरुवर! विद्याधर का कोई भी मित्र बिरले अनूठे अदम्य साहसी कलाविज्ञ सर्वप्रिय मित्र के गुणानुवाद करने में अपने आपको पीछे नहीं रखना चाहता। इसी क्रम में मित्र अण्णा साब खोत (समनेवाड़ी, जिला बेलगाँव) ने भी विश्ववंदनीय गुरुवर श्री विद्यासागर जी की विनयांजली स्वरूप पत्र लिख भेजा है। वह आपको प्रेषित कर रहा हूँ-

     

    कृतज्ञ मित्र : विद्याधर

    विद्याधर,आचार्य विद्यासागर बने। ऐसे महापुरुष का जन्म सदलगा में हुआ तो सदलगा जन्म तीर्थ स्थान हो गया। आपने सदलगा गाँव में सातवीं तक पढ़ाई कन्नड़ में की फिर पाँच किलोमीटर दूरी पर श्री लट्टे एज्यूकेशन सोसायटी, बेड़कीहाल के बी.एस.हाईस्कूल में माध्यमिक शिक्षा के लिए प्रवेश किया था। एक दिन विद्याधर अपने बड़े भाई के साथ हाईस्कूल आ रहे थे, मैंने उन दोनों को देखा और आश्चर्यचकित हुआ, अचरज की बात यह है कि एक ही ढाचे में तैयार दो सुन्दर गुड़िया यानि दोनों भाईभाई, समान गोल-गोल मुख वाले, आकर्षक रंग, समान ऊँचाई, लाल होंठों वाले, हाथ-पाँव बराबर बराबर, मालूम हुआ कि सदलगा गाँव वाले हैं। बड़ा भाई महावीर है और छोटा भाई विद्याधर है, लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि कौन महावीर है और कौन विद्याधर। इस कारण मैं बहुत बार फँस जाता था, महावीर को विद्याधर कह देता था और विद्याधर को महावीर कह देता था। आप भी वहाँ होते तो आप भी जरूर फँसते।

     

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    विद्याधर सादा शर्ट और हाफपेन्ट पहनते थे। सदा सरल सत्य व्यवहार करते थे। सदा प्रसन्न व हँसमुख रहते थे। बहुत मंदा जमाना था। करीब-करीब सत्तर बरस पुरानी बात है, लोग बहुत गरीब थे, लेकिन प्रामाणिक थे। खेती-बाड़ी करते थे, सीधे-साधे एवं भोले स्वभाव के थे। आर्थिक स्थिति बहुत गंभीर थी। यह सुनकर आश्चर्य होगा कि सौ रुपये का नोट जिंदगी में एक आध बार भी नहीं देख पाते थे। विद्याधर के पिताजी (मल्लप्पा जी) की खेती-बाड़ी और आर्थिक स्थिति मध्यम वर्ग की थी। हाई स्कूल में हर महीने पाँच रुपये फीस लगती थी। एक बार विद्याधर जी फीस देने के लिए पैसे नहीं लाए थे, तब मैंने पाँच रुपये दिए थे। बाद में दीक्षा लेने के भाव से शान्तिगिरी (कोथली-कर्नाटक) गए थे। उसके बाद उत्तर भारत की ओर विहार करते समय हमारे घर आकर पाँच रुपये देकर बोले-‘धन्यवाद, मैं भूल गया था, लेट हो गया, क्षमा करना' और चले गए। यह उनका कृतज्ञता का उदाहरण है। महापुरुष ऐसे ही होते हैं।

     

    हम लोग हाईस्कूल में हर रोज खो-खो, कबड्डी एवं रिंग खेलते थे। तब विद्याधर की चतुराई एवं स्फूर्ति देखते ही बनती थी। छोटी-सी वय में वैराग्य सम्पन्न हो जाने के कारण विद्यार्थी जीवन अधूरा ही रह गया। सातिशय सम्पन्न पुण्य उदय में आ गया और सम्यक् पुण्य के उदय से पुरुषार्थ करके अनंत संसार विच्छेदन करने विद्याधर से विद्यासागर हो गए। पुण्य और पुरुषार्थ के प्रभाव से अंतरंग निज वैभव में रमकर। आनंद का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे आपके चित्रों की भाषा बता रही है। भारत वर्ष को गौरवान्वित करने वाले विश्ववन्दनीय संयत सुंदर प्रात:स्मरणीय परमपूज्य, मित्र गुरुवर को हृदय में धारण कर बारम्बार नमोस्तु करता हुआ वन्दे तद्गुण लब्धये।"

     

    हे गुरुवर! आपको ज्ञात होगा कि विद्याधर ने अपनी दीक्षा रुकवायी थी कारण कि उन्होंने अपने मित्र जिनगौड़ा को वचन दिया था साथ-साथ जिनदीक्षा लेने का और उन्होंने जिनगौड़ा को पत्र लिखा था आने के लिए। जिनगौड़ा किस कारण नहीं आ पाये यह स्पष्टीकरण उन्होंने लिख भेजा। वर्तमान में वो महास्वामी जी मठ संस्थान नांदणी-कोल्हापुर के पट्टाचार्य स्वस्ति श्री जिनसेन भट्टारक के रूप में अपने मित्र को याद कर रहे हैं। वह पत्र मैं आपको प्रेषित कर रहा हूँ।

     

    कल्याण मित्र : विद्याधर

    "जुलाई १९६६ में हम एवं विद्याधर दोनों ही आचार्य देशभूषण जी महाराज के पास जयपुर गए थे। तब वे जयपुर चूलगिरि में चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ से आचार्य महाराज देशभूषण जी ने सन् १९६७ में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में होने वाले भगवान् गोम्मटेश्वर मूर्ति का महामस्तकाभिषेक महोत्सव में। सम्मिलित होने के लिए चातुर्मास के पश्चात् विहार किया। साथ में हम लोगों ने भी पैदल विहार किया। विहार में वैयावृत्य, आहारदान आदि सेवा में हम दोनों ही पूर्णतया जुट गए। इस कारण आचार्य महाराज से कोई शिक्षा, ज्ञान हमें प्राप्त न हो सका।

     

    संघ में रहने के कारण हम लोग आपस में यही चर्चा करते थे ज्ञान की शिक्षा कब मिलेगी? तत्त्वज्ञान कैसे प्राप्त होगा? विद्याधर तो मुनि दीक्षा लेने का पूर्णतया मन बना चुका था इस कारण दीक्षार्थी विद्याधर, स्वाध्याय की इच्छा रखने के कारण स्वाध्यायार्थी भी थे। वो विहार में भी मुनियों के समान आचार-विचार आहार-विहार करते थे। उनकी दिनचर्या मुनियों के साथ चला करती थी। पैदल विहार करते हुए संघ के साथ हम लोग गोम्मटेश्वर पहुँचे। वहाँ पर हम दोनों ने गोम्मटेश्वर स्वामी का मस्तकाभिषेक किया, फिर संघ के साथ स्तवनिधि आए। स्तवनिधि से हम दोनों विद्याभ्यास करने हेतु उत्तरभारत की ओर पुनः जाने वाले थे लेकिन मेरी प्रकृति ठीक नहीं होने के कारण मैं उत्तर भारत न जा सका। तीव्र उत्कण्ठा लेकर विद्याधर अकेला ही स्तवनिधि से चला गया।

     

    अजमेर-किशनगढ़ पहुँचकर विद्याधर ने कुछ समय बाद मुझे पत्र लिखे और टेलीग्राम से समाचार भेजा था। टेलीग्राम में लिखा था-‘‘मैं दीक्षा ले रहा हूँ, आप अजमेर-किशनगढ़ शीघ्र आ जाओ, हम दोनों मिलकर मुनि दीक्षा ले लेंगे।' यह संदेश मिला था, किन्तु मेरी प्रकृति अस्वस्थ्य होने के कारण मैं जा न सका। विद्याधर की मुनिदीक्षा होने के समाचार मिले, सुनकर मैं हर्षोल्लसित हो गया।

     

    विद्याधर से मेरी दोस्ती सदलगा ग्राम में हुई थी। सदलगा में श्रीमान् अण्णासो पायगड़ा पाटिल हर रोज जैन मंदिर में शाम को शास्त्र स्वाध्याय कराते थे, हम दोनों उनके प्रवचन सुनने मंदिर जाते थे तब मंदिर जी में मेरी व विद्याधर की पहचान हुई और यह पहचान दृढ़ दोस्ती में बदल गई। आज अपने दोस्त को महाव्रती मुनि-प्रभावक आचार्य के रूप में देखता हूँ तो मुझे उन पर गौरव होता है, प्रेरणा मिलती है। आज वो मेरे दिशादर्शक हैं, मेरी भी भावना उनके जैसे बनने की है। हे गुरुदेव! विद्याधर विद्यालय के छात्रों में श्रेष्ठ छात्र था। उसे विद्यालय के शिक्षक भी स्नेह करते थे। इस सम्बन्ध में बेड़कीहाल हाई स्कूल के भूगोल, इतिहास एवं शारीरिक शिक्षक श्रीमान् भुजबली हिप्परगी (शमनेवाड़ी, जिला-बेलगाँव) ने इस प्रकार प्रशस्ति-पत्र भेजा है

     

    आदर्श विद्यार्थी : विद्याधर

    जब विद्याधर आठवीं कक्षा में प्रवेश लेने बी.एस. हाई स्कूल (बेड़कोहाल, जिला-बेलगाँव) में गया था तब मैंने विद्याधर को भूगोल और इतिहास पढ़ाया था और हर रोज एक्सरसाइज (पी.टी.) कराता था। मुझे जहाँ तक याद है विद्याधर कभी भी गैरहाजिर नहीं रहा। उसे पढ़ाई के साथ-साथ व्यायाम करने में अभिरुचि थी। वह बड़ा निर्भीक, निडर, दृढ़संकल्पी बालक था। सदा अनुशासन में रहना, नियमित रूप से क्लास में हाजिर रहना, शिष्टबद्ध आचरण, हर बात को अच्छे से पालन करना, इस कारण वह निर्भीक रहता था। एक बार की बात मुझे याद है विद्यालय में लेट आया तो डाँटने से पहले ही उसने बड़े ही मासूमियत और निडरता से लेट आने का कारण बताया तो उसे गले लगाने का भाव हो गया था। पढ़ाई में अव्वल रैंक रहती थी।

     

    कभी कोई गलती नहीं करता था।गलती होने पर तत्काल बता देता था। असत्य बोलना तो वो जानता ही नहीं था। विद्यालय की हर एक्टीविटीज में भाग लेता था। एक बार विद्यालय में नाटक का मंचन हुआ उस नाटक का सूत्रधारक बनकर श्रेष्ठ पात्र का पारितोषिक जजों के हाथ से प्राप्त किया था। आज मुझे अपने महान् विद्यार्थी, महाकवि दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागर जी गुरु महाराज को स्मरण करके गौरव की अनुभूति हो रही है। इस प्रकार मित्रों ने अपने सर्वप्रिय मित्र जो आज महापुरुष बन गए हैं, उनके गुणानुवाद स्वरूप अपनी-अपनी विनयांजली अर्पित की। आपके श्रीचरणों में अपनी ओर से भावांजली अर्पित करता हुआ, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु....

     

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