Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! सबसे पहले तो आचार्य भगवान् के चरणों में अपना समाधिमरण करने की भावना के साथ में प्रश्न रख रही हूँ कि महाराज जी! आचार्य गुरुदेव ने तो अपने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की बहुत ही उत्कृष्ट समाधि करवाई थी। वैसे तो आचार्यश्री ने बहुत सारी समाधि करवाई हैं, पर महाराज जी ऐसा कोई संस्मरण सुनाइए जिसमें उन्होंने श्रावक की समाधि कराई हो। - डॉ. ज्योति जैन, उदयपुर समाधान - उनके सान्निध्य में अनेक समाधियाँ हुई और कुछ समाधियों में सहभागी होने का मुझे भी सौभाग्य मिला। 1978-79-80-81-82 में अनेक श्रावकों की समाधि कुण्डलपुर, खासकर नैनागिरि में बहुत समाधियाँ हुईं। जो व्रती श्रावक थे, उन्हें दस प्रतिमा के व्रत देकर बहुत योग्य रीति से सल्लेखना कराई। उसमें मैं उपस्थित नहीं था। लेकिन एक सज्जन थे दमोह के शायद लहरी जी (भगवानदास जी लहरी), वह कैंसर के शिकार थे। गुरुदेव के सान्निध्य में उनकी स्वर्णिम यात्रा समाधि हुई, बहुत उत्कृष्ट समाधि हुई । गुरुदेव एक अच्छे निर्यापक तो हैं ही एक बहुत अच्छे चिकित्सक भी हैं। कैंसर के शिकार लोगों की भी उन्होंने इतने अच्छे तरीके से सल्लेखना कराई कि मत पूछो। एक श्रावक की लघु शंका रुक गई थी, केथेनर लगा हुआ था। गुरुदेव ने सब हटवा दिया और कहा- ठण्डे-गर्म पानी की सेक करो, पट्टी दो, सब ठीक हो जाएगा। 15 मिनिट में उनका मूत्र-प्रसवन हो गया और बहुत अच्छे तरीके से उनकी सल्लेखना हुई। हमारे संघ में एक ऐलक जी थे - निशंकसागर जी महाराज। 1993 में उनके पिता जी राजधर लालजी, वह व्रती थे। अपेंडिक्स का दर्द उठा, वह समझे नहीं। वह पेट वगैरह को मसलकर देहात में जैसी क्रिया करते हैं वह सब कर लिए। नस बैठाने की क्रिया देहाती करते हैं, कर लीं। उससे उनकी आँतें उलझ गईं। मेजर ऑपरेशन हुआ पर कोई मामला सुलझा नहीं। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। गुरुचरणों में पेट में नली लगाकर आए थे। गुरुदेव ने उनको देखा। सारी नलियाँ हटवा दीं और उसके बाद 11 दिन तक जल पर रहे और बीनाबारहा में उनकी उत्कृष्ट समाधि हुई। बहुत सारी सल्लेखनाएँ हैं। जैसे राजधर जी के बड़े भाई की समाधि हुई। एक मुनि महाराज वैराग्यसागर जी महाराज की बहुत उत्कृष्ट समाधि हुई जो मैंने देखी। पपौरा जी में मैंने देखा। इस प्रकार समाधि के विषय में उनका बहुत अच्छा तजुर्बा है। और इतने अनुभव से उनके मार्गदर्शन में समाधि हुई जिसे बताया नहीं। जा सकता।
  2. शंका - आचार्यश्री के लघुनन्दन गुरुवर! आप में आचार्यश्री की ही तरह समीचीन समकित समग्रता, आपकी वाणी, चर्या व व्यक्तित्व के रोम-रोम से झलकती है। ऐसे गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! गुरुवर मेरी जिज्ञासा है कि आचार्यश्री ने 36 घण्टे लगातार साधना की है, ऐसी साधना उन्होंने कहाँ की? इसके बारे में थोड़ा बताइए। - डॉ. सीमा जैन समाधान - देखिए, गुरुदेव की साधना बहुत उच्च कोटि की रही और वह प्रारम्भ से ही साधक थे। अभी हम छतरी योजना में अजमेर में चातुर्मास किए, जो गुरुदेव की तपोभूमि है। अजमेर के चातुर्मास में जब तक ज्ञानसागर जी महाराज का सान्निध्य था, जब तक ज्ञानसागर जी के साथ रहे उन्होंने केवल अध्ययन व ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा की। समाधि के उपरान्त उन्होंने कठोर तपस्या व साधना का शुभारम्भ किया। अजमेर के विषय में मुझे मूलचन्द जी लुहाड़िया ने बताया और वहाँ अजमेर के लोगों ने भी मुझे बताया कि वह अजमेर में जब सोनीजी की नसियाँ में चातुर्मास करते थे तो आहार करके सीधे आँतेड़ की छतरी में आ जाते थे। वहीं स्वाध्याय करते थे, पूरा दिन बिताते थे, रात्रि रहते थे और फिर आ जाते थे। उपवास में कहीं कहीं बाहर 24-24 घण्टे या उससे ज्यादा खड़े रहकर या बैठकर उन्होंने तपस्या की। 36 घण्टे तक लगातार साधना करने का उनका जो उपक्रम था, वह फिरोजाबाद में था 1975 में। इसके अलावा और कहीं उन्होंने लगातार 36 घंटे तक साधना की, यह मेरे स्मरण में नहीं है, लेकिन 24 घंटे की साधना तो कई बार की और वह अक्सर करते रहते हैं। यह उनकी तपस्या है, यह उनकी साधना है, हम उसको प्रणाम करते हैं।
  3. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! आचार्यश्री का पञ्चम काल में जन्म लेना हमारे लिए तो पुण्य का कारण बन गया, परन्तु उनके लिए क्या है? - श्रीमती चन्द्रकला पाटनी, राँची समाधान - देखो, उनके लिए क्या है यह वे जानें, हमारे लिए क्या है यह हम पहचानें। निश्चित ही हम सबका महान् पुण्य है कि परमपूज्य गुरुदेव के युग में हमने जन्म लिया। आज से अगर 50 वर्ष और पीछे हम जन्मे होते तो शायद यह सौभाग्य नहीं मिलता। इसलिए हम बड़े भाग्यशाली हैं कि उनका सान्निध्य प्राप्त करने का हमें मौका मिल रहा है। आपने पूछा उनके लिए, मैं तो सोचता हूँ कि अच्छा किया कि उन्होंने अपनी साधना में कुछ कसर रख दी इसलिए यहाँ आचार्य बनकर जन्मे। अगर और थोड़ा अपग्रेड हो जाते तो विदेह में। होते, हम सब लोग कहाँ जाते। कहीं न कहीं, कोई न कोई नैमित्तिक सम्बन्ध उनके साथ जुड़ा था। उनके निमित्त इस पञ्चमकाल में भक्तों का कल्याण होना था, जिनधर्म की पताका फहरनी थी, श्रमण संस्कृति का उत्थान होना था। इसीलिए सारे संयोग बने, वे इस विषमकाल में रहे, हम सबके लिए भगवान् स्वरूप में प्रकट हुए और आज हम उनकी अर्चना कर रहे हैं।
  4. शंका - परमपूज्य गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! गुरुवर! आचार्यश्री को आचार्य पद हमारे नसीराबाद में मिला एवं गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि-स्थली भी नसीराबाद में है। यह हमारे नसीराबाद का परम सौभाग्य है कि आचार्यश्री को आचार्य पद व गुरुजी की समाधि दोनों नसीराबाद में है। गुरुवर! जिस प्रकार से आपने कई प्रसंग बताए, क्या कोई इस प्रकार का प्रसंग है, जिसमें नसीराबाद की कोई चर्चा आई हो या गुरूणां गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज की कोई चर्चा आई हो? - श्री सुजीत जैन, नसीराबाद समाधान - देखो, आचार्यश्री के साथ चर्चा में नसीराबाद का उल्लेख कई बार आया और गुरूणां गुरु ज्ञानसागर जी महाराज के बारे में भी कई बार चर्चा हुई। एक चर्चा जिसे कल ही उन्होंने अपने प्रवचन में सुनाया, ज्ञानसागर जी महाराज के व्यक्तित्व को रेखांकित स्वर्णिम यात्रा करती हुई बात है। एक बात और मैं बता रहा हूँ कि गुरुदेव जब भी चर्चा करते हैं अपनी बढ़ाई की बात कभी नहीं करते और गुरूणां गुरु ज्ञानसागर जी महाराज की बात आती है तो कभी चूकते नहीं। वह गुरूणां गुरु ज्ञानसागर जी महाराज की नि:स्पृहता का उल्लेख करते हुए कह रहे थे कि एक सज्जन, एक विद्वान् जो वाराणसी के विद्वान् थे, प्रतिष्ठित विद्वान् थे, उन्होंने ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा कि महाराज आपको दीक्षा लिए कितना समय हो गया है? तो ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा कि अभी-अभी दीक्षा लेकर ही बाहर आया हूँ, भीतर प्रतिक्रमण करके ही बाहर आया हूँ। यही मेरी दीक्षा है, यही मेरी उम्र है, यही मेरी जीवन की वास्तविकता है। वे ज्ञानसागर जी महाराज के विषय में बताते थे कि ज्ञानसागर जी महाराज बड़े ही नि:स्पृह, ज्ञान-आराधक साधक थे। उन्होंने अपनी दयोदय आदि कृतियों को भी लिखकर ऐसे ही छोड़ रखा था और जब किसी ने उनसे कुछ कहा तो उन्होंने कहा मैं साधक हूँ, प्रकाशक नहीं। नसीराबाद के सन्दर्भ में ऐसा कोई संस्मरण मेरे ध्यान में नहीं आ रहा, जो सीधा हमारे गुरुदेव से जुड़ा हो परन्तु ज्ञान सागर जी महाराज के बारे में कई बातें हैं।
  5. शंका - गुरुवर के चरणों में कोटि कोटि नमन। बात 1979 की है, प्रसंग मदनगंज किशनगढ़ के पञ्चकल्याणक का था, उसमें महाराज जी दो कल्याणक बीतने के बाद पहुँचे, इसका स्मरण है मुझे। वह दीक्षा कल्याणक के दिन वहाँ पहुँचे और उन्होंने दीक्षा कल्याणक के दिन जो प्रवचन दिए उसमें कहा कि उन दो दिनों में हमारा क्या काम था? वह तो आप लोगों का काम था, मेरा काम तो आज है। आज वैराग्य का दिन है मैं तो इसलिए आया हूँ। इसी बीच मैंने किशनगढ़ में उनके पञ्चकल्याणक की पुस्तक है वह पढ़ी, उन्होंने कहा कि उसमें भी एक रहस्य था कि मैं 2 दिन क्यों नहीं आया और आज क्यों आया। उन्होंने इसमें राग एवं वीतरागता का भाव बताया। पर महाराजश्री आज भी इतने पञ्चकल्याणक कराते हैं और सभी दिन रहते हैं। समाधान दीजिए। - श्रीमती सन्तोष गोधा, उदयपुर समाधान - देखिए, गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कई बार बोला है कि पञ्चकल्याणकों में दो दिन आपके और तीन दिन हमारे। गर्भ, जन्म राग की बात है। उसमें मुनि महाराज रहें या न रहें कोई जरूरी नहीं। लेकिन तप कल्याणक तो बिना मुनि महाराज के होगा नहीं। तप, ज्ञान और मोक्ष यह तीन कल्याणक हमारे। आपको स्मरण होगा कि गुरुदेव कितनी विषम परिस्थिति में किशनगढ़ पधारे थे। वह बीमार थे। जयपुर में गम्भीर रूप से बीमार थे और उस बीमारी की हालत में 1 दिन में, अन्तराय के बाद भी 80 किलोमीटर वे कैसे चले थे। उनकी तो स्थिति इतनी क्षीण हो गई थी कि लोग शंकित थे कि वे किशनगढ़ पहुँच पाएँगे कि नहीं। पञ्चकल्याणक का दिन तो घोषित है, पर वह अपने मनोबल के बल पर गए और ठीक दीक्षा कल्याणक के दिन पहुँच गए। उन्होंने हर बात को सकारात्मक बनाने का अपना स्वभाव बना लिया। आप लोगों को इस बात का कष्ट न हो कि गुरुदेव आए तो दो दिन लेट हो गए। उन्होंने अपनी बात की व्याख्या कर दी कि देखो मैं सही समय पर आया हूँ, मेरा काम तो आज ही है, बाकी दो दिन तो तुम रागियों का काम है। राग तुम रखो। शायद प्रकृति को यह इष्ट नहीं था कि मैं इसमें उपस्थित होऊँ, इसलिए मुझे विलम्ब हुआ। उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं गर्भ व जन्म कल्याणक में आता नहीं। उन्होंने कहा कि मैं आ नहीं पाया तो जो हुआ वह अच्छा हुआ।
  6. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु! आचार्यश्री के प्रवचन पूरे साल में 10 - 15 बार सुनने को मिल जाते हैं। साक्षात् उनके प्रवचन में देखा जाता है, हजारों की भीड़ होती है और प्रवचन भी इतने गूढ़ होते हैं। कि मेरे जैसे के तो ऊपर से चले जाते हैं। एक-आधी बात ही समझ में आती है, जैसे कि 'सुनते हो', 'समझ रहे हो', 'हओ'। फिर भी हजारों की संख्या वाली भीड़ में पिन ड्रॉप साइलेंस रहता है। ऐसा। क्यों? क्या आकर्षण है? - श्री अशोक जैन, झिरौता, किशनगढ़ समाधान - ऐसा सहज है, क्योंकि महान् आत्माओं की बात डायरेक्ट नहीं समझी जाती। झरने के पास पानी लेने जाना हो तो सीधे अंजलि नहीं भरी जाती, कोई बर्तन लेकर जाओगे तभी भर पाओगे। इनकी तो 'सुनते हो' समझ में आया। तीर्थंकरो की तो इतनी बातें भी समझ नहीं आतीं। उनकी तो ॐकारमय दिव्यध्वनि होती है। जब तक गणधर उनकी पुनर्व्याख्या न करें, किसी को कुछ समझ में नहीं आता। भले ही समझ में न आए, पर सुनने में आनन्द आता है। गुरुदेव की बात समझ में आए या न आए हमें अपने जीवन की बात समझ में आ जाती है। मैं समझता हूँ वह प्रवचन नहीं देते, आचार्य देशना देते हैं। प्रवचन तो हम लोग बोलते हैं। वह आचार्य देशना है और मुझे लगता है कि अभी वह आचार्य देशना दे रहे हैं। अगले भवों में वही देशना दिव्य-ध्वनि का रूप धारण करेगी। दूसरी बात केवल शब्दों से ही उपदेश नहीं होता मुद्रा से भी बहुत गहरा उपदेश होता है। वह मुँह से बोलते हैं और उसका क्या असर होता है, मुझे नहीं पता। मुझे नहीं मालूम, पर उनकी मुस्कानमय मुद्रा का जो असर होता है, सभी ने अनुभव किया है। यही असर जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है।
  7. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु! मेरी जिज्ञासा है कि आचार्यश्री बहुत करुणामय हैं, फिर भी ऐसा क्यों बोला जाता है कि गुरुवर जी कच्चे कान के हैं ? कृपया समाधान कीजिए। समाधान - देखिए, जो ऐसा बोलते हैं वे वही लोग हैं जिन्होंने आचार्यश्री को ठीक ढंग से समझा नहीं। महापुरुषों के सन्दर्भ में एक बात ध्यान रखना, उन तक सब बातें सीधी नहीं पहुँचती। जो बातें उन तक पहुँचती हैं, वे उन पर भी विचार करके उनका अर्थ निकालते हैं। हर किसी की अप्रोच ही नहीं तो कई बार देखने वाले को अनुभव में आने लगता है कि है तो कुछ और, वहाँ पहुँचा कुछ और एवं उनकी धारणा कुछ और। इसे लेकर ऐसा कह देते हैं। पर मैंने एक बात गुरुदेव में देखी है, वह कभी भी किसी की आलोचना नहीं करते और कभी किसी की आलोचना सुनते नहीं। यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता है। अगर किसी के बारे में कभी कोई कहने भी जाए तो कहते हैं। अपनी बात करो, दूसरों की नहीं। एक बार एक ऐसा प्रसंग आया कि जब किसी की आलोचना कर रहे थे तो गुरुदेव ने एक ही बात कही दूसरे के घर में बुहारी लगाने की आदत छोड़ो यह शब्द थे दूसरे के घर में बुहारी लगाओगे तो अपने घर का कचरा साफ नहीं होगा। कभी किसी की निन्दा, कभी किसी की आलोचना, बुराई वे सुनते नहीं थे। इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि वह आधी सुनी सुनाई बात पर धारणा बनाते हैं तो जो बात उनके सुनने में आएगी उसी पर तो वे धारणा बनाएंगे। लेकिन वह हर बात में जोड़ घटाव लगाते रहते हैं। वह सभी बातों का अपने हिसाब से आकलन करते हैं और जो सही होता है उसी के अनुरूप निर्णय लेते हैं। कभी कोई ऐसी बात उनके पास आ जाए जो वास्तविक न हो और जब उन्हें सच्चाई का पता पड़ता है तो अपनी धारणा को बदलने में एक पल का विलम्ब नहीं करते।
  8. शंका - आचार्यश्री व गुरुदेव के चरणों में नमोऽस्तु! आचार्यश्री के प्रति अगाध भक्ति और वात्सल्य का ऐसा क्या आकर्षण झलकता है कि दीक्षा लेने के भाव जाग जाते हैं और गुरु चरणों में झुक जाते | - श्री अनिल मेहता, उदयपुर | समाधान - देखो, ऐसा होता है कि जो पावरफुल चुम्बक होता है वह जहाँ रहता है, लोहा अपने आप खिंचा चला जाता है। उनका चुम्बकीय गुण है, उनके अन्दर एक अद्भुत चुम्बकीय शक्ति है, चुंबकीय आकर्षण है जो उनकी रेंज में एक बार पहुँच गया एकदम खिंच जाता है। सौभाग्य समझो उनके सम्पर्क में जाने के बाद भी अगर कुछ नहीं बन पाए तो समझना तुम अभी शुद्ध लोहा नहीं हो, उस पर कोई पेण्ट चढ़ा है। पूर्वाग्रह का, आसक्ति का, राग का सारा पेण्ट उतार दो फिर गुरु चरणों में जाओ पेन्ट (पहनने वाली) भी उतर जाएगी और शर्ट भी।
  9. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! महाराज जी! गुरु भगवन्तों के साथ में सबसे ज्यादा आनन्द भक्तों को जो आता है, वह उनके साथ विहार में चलने में आता है। आपने कई वर्षों तक आचार्यश्री के साथ विहार किया है। विहार से जुड़ा हुआ कोई संस्मरण यदि आपको याद है, तो हम सुनना चाहते हैं। - श्री अभिनन्दन जैन, पिडावा समाधान - देखो, गुरुदेव के साथ विहार करने का योग तो कई बार मिला, काफी लम्बे समय तक मिला। पाँच साल तक तो लगातार संघ के साथ ही विहार करने का सौभाग्य मिला। गुरुचरणों में ही रहने का अवसर मिला। विहार में कई तरह के अनुभव होते हैं लम्बी थकान, ऊबड़-खाबड़ सड़क और कभी-कभी सेवकों द्वारा दी गई गलत सूचना बड़ी उलझन पैदा कर देती है। उस घड़ी में मैंने गुरुदेव की जिस समता व सहजता को देखा, आज मैं अगर सिर्फ विहार के संस्मरण सुनाऊँ तो हो सकता है पूरा सत्र इसी में निकल जाए। इतनी सारी बातें आज मेरे मानस-पटल पर तैरने लगी हैं, मैं सुनाना शुरु करता हूँ। दो-तीन प्रसंग जरूर सुनाऊँगा जो बड़े प्रेरक एक बार चौबीस किलोमीटर चलना था। मेरे पाँव में फफोले थे, गुरुदेव के पाँव कट गए थे, खून की धारा बह रही थी। चर्चा-चर्चा में मुँह से निकल गया कि कैसी सड़क से ले आए, कितने कंकड़ हैं। गुरुदेव ने बात को काटते हुए कहा कि नाराज मत हो। उस पथिक की क्या परीक्षा जिसके पथ में शूल न हों। उस नाविक की क्या परीक्षा जिसमें धारा प्रतिकूल न हो। उसे मत कोसो, जिसने तुम्हें निर्जरा करने का मौका दिया है। मुस्कुराते चलो, आगे बढ़ो। सन् 1993 में जब बीनाबारहा से रामटेक की ओर विहार हो रहा था उसके मध्य सिवनी और खबासा के बीच में एक गाँव था। कुरई। घाटी पड़ती है, वहाँ चल रहे थे। सड़क नई बन रही थी। वहाँ मोटी-मोटी गिट्टियाँ थी। जून का महीना था और जो गिट्टियाँ थी वह नस्तर की तरह चुभ रही थीं। काफी लम्बा विहार करके वहाँ तक पहुँचे थे। आचार्य गुरुदेव, हमारे, समयसागर जी और कुछ मुनिराजों के पाँव छलनी हो गए थे। एक-एक कदम पर खून गिर रहा था। मैंने उस चुभन युक्त रास्ते पर चलते-चलते गुरुदेव से कहा कि तीर्थंकरों के लिए बहुत अच्छा सिस्टम है। उन्होंने पूछा क्या? हमने कहा उनके लिए फूल बिछ जाते हैं। उन्होंने कहा- चार अंगुल ऊपर चलने की क्षमता ले आओ, तुम्हारे लिए भी बिछ जाएँगे। सन् 1986 की बात है। मैं उन दिनों क्षुल्लक था। मड़ावरा से एक गाँव नैकोरा जाना था, सड़क मार्ग से दूरी 12 किलोमीटर बताई थी। गुरुदेव चले, 3-4 किलोमीटर चले कि कुछ भाई लोग मिले। वह बोले महाराज! इस तरफ से 3 किलोमीटर शॉर्ट है। उनकी बात सुनकर मूल रास्ते को छोड़कर साइड के रास्ते को पकड़ लिया। 3 किलोमीटर चलने के बाद एक गाँव आया 'लोहरा' उसके बाद 2 किलोमीटर और चले तो आया 'डोंगरा' दोनों जगह मंदिर के दर्शन किए, फिर वहाँ से चले, चलते ही जा रहे हैं नैकोरा का कोई पता ही नहीं। 12 किलोमीटर चलना था, 16 किलोमीटर से ज्यादा विहार हो गया। नैकोरा का पता नहीं, गुरुदेव देखें कि अब दिन अस्त होने वाला है, स्थान का कोई ठिकाना नहीं। वहाँ एक मैदान जैसा था, वहाँ जाकर बिना पाटा व चटाई के बैठ गए। मुर्मिला इलाका था, कंकड़ थे और बिना पाटा व बिना चटाई के बैठ गए। अप्रैल का पहला सप्ताह था, गर्मी बहुत थी, हल्की-फुल्की लू चल रही थी तो सभी लोगों ने घी लगा दिया। रातभर चीटियाँ उनके शरीर पर चढ़ गईं। सुबह होने पर सभी लोगों ने सोचा कि गुरुदेव 7-8 किलोमीटर दूर क्षेत्र है ‘नवागढ़ वहाँ आहार करेंगे और गुरुदेव सीधे चले तो 21-22 किलोमीटर चलकर सीधे अजनौर पहुँच गए। रात में इतनी थकान, पहले दिन इतने चले कि सो नहीं पाए, चीटियों ने कष्ट दिया। सब लोग कहने लगे कि किन लोगों ने रास्ता बता दिया? जिन लोगों ने रास्ता बताया उन्हें गालियाँ देने लगे। हम साधुओं में से भी कुछ को गुस्सा आ रहा था, कोस रहे थे, पर क्या करें। गुरुदेव ने कहा किसी को मत कोसो, उनको धन्यवाद दो कि उन्होंने हमें तपस्या करने का एक अवसर दे दिया। मैंने उन्हें देखा है कि वे सदा प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रसन्नता। रखने का स्वभाव रखते हैं, जब कभी कोई ऐसी बात होती है तो कभी भी उल्टी प्रतिक्रिया नहीं देते। सन् 1993 की बात है, बेलखेड़ा से तारादेही जाना था। एक सीधा रास्ता जो मुझे बताया कि लगभग 30 किलोमीटर का पड़ता है, बोले पहाड़ी के रास्ते से चलेंगे तो 18 किलोमीटर में हो जाएगा। फरवरी का महीना था, हमने पता किया और सोचा 30 किलोमीटर का रास्ता 18 किलोमीटर में होता है तो 1 दिन बचेगा। हमने वह रास्ता गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर फाइनल कर दिया। अब चले तो एक पहाड़ चढ़े, उतरे, फिर एक और पहाड़ चढ़े, उतरे। वह 18 किलोमीटर नहीं लगभग 25-26 किलोमीटर हो गया। उस दिन पूरा संघ कई हिस्सों में बँट गया। तीन महाराज ही तारादेही पहुँच पाए। गुरुदेव, हम और छह अन्य मुनिराज तारादेही से तीन किलोमीटर पहले एक गाँव में रुक गए, शाम होने को थी। एक सरकारी स्कूल मिला, जिसके दरवाजे खिड़कियाँ अन्दर से लगाने की व्यवस्था नहीं थी। बड़े-बड़े सेंध थे, रोशनदान टूटे हुए थे, अंग्रेजी खप्पर वाला मकान था और पाँच-सात खप्पर भी टूटे हुए थे। शीत लहर प्रचण्ड थी। हम छह महाराज थे, चारों के चारों ही बिना चटाई वाले। इधर सारे महाराज हमें कोसे कि हमने कैसा रूट तय किया। अब हम क्या बोलें? भाई गलती है, हमें मालूम तो था नहीं। समय बचे, शार्ट रास्ता है इस भाव से हमने बात कर ली। सुबह हुई गुरुदेव के चरणों में गए, उनको नमोऽस्तु किया। वैसे एक ही कमरा था, उसी में सब लोग थे तो गुरुदेव को थोड़ी सी ओट कर दी थी। उन्होंने पूछा कैसी कटी रात? मैंने कहा, सुबह की प्रतीक्षा में। उन्होंने एक शब्द कहा कि रास्ता बताने वाले पर गुस्सा तो नहीं आया? हमने कहा गुस्सा हमें तो नहीं आया पर यह मुनिराज हम पर गुस्सा कर रहे हैं, आप समझाइए इन्हें। उन्होंने कहा- देखो यहाँ तो अभावकाश योग है। हमें अच्छी भावना रखनी चाहिए, अभ्रावकाश योग यानी शीतकाल में खुले चौपाल पर रहना चाहिए। अरे इतना नहीं कर सकते हम, संहनन के निमित्त से कम से कम इन निमित्तों को स्वीकार करके योग धारण कर लिया करो। इसी में आनन्द है, जब भोगना ही है तो आनन्द से क्यों न भोगो? स्वर्णिम यात्रा ऐसे कितने प्रसंग मैं सुनाऊँ, बहुत सारे प्रसंग हैं। जब-जब ऐसे प्रसंग घटे, उनके प्रति हमारा मस्तक श्रद्धा से नम्रीभूत हुआ, क्योंकि वास्तव में वे एक महान् आध्यात्मिक पुरुष हैं, सन्त हैं। अध्यात्म को भी जीते हैं, उन्होंने अध्यात्म को आत्मसात किया है। कभी मैंने उनके मुख से ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखी जो कहें कि ऐसा क्यों हुआ। बल्कि हमारी तरफ से उन्होंने तरफदारी की। महाराजों को कहा कि इसमें इनका क्या दोष। हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, सहन करना चाहिए। हम जितना सहन करेंगे, हम उतना समर्थ बनेंगे।
  10. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि प्रशंसा सुनना सबको अच्छा लगता है। आचार्यश्री को अपनी प्रशंसा सुनना कैसा लगता होगा ? - श्री आशीष जैन, सतना समाधान - देखो, यह तो सम्भव है, प्रायः लोगों को अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है, निन्दा अच्छी नहीं लगती। लेकिन जो महापुरुष होते हैं वह अपनी प्रशंसा सुनना नहीं चाहते, सुनकर भी। अनसुना कर देते हैं। एक सन्दर्भ में मैं नेमावर में था। उस समय गुरुदेव चैतन्य-चन्द्रोदय की रचना कर रहे थे। कुछ छन्द उन्होंने सुनाए। मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने उनकी प्रशंसा के पुल बांधना शुरु कर दिया और कहा- महाराज जी! अभी तक यह कृति कहाँ छुपा रखी थी? उन्होंने कहा, हमें कभी अपनी प्रंशसा की चाह नहीं रखनी चाहिए और एक सूक्ति बताई- "महतां वृत्तिदुर्लक्ष्या।" महापुरुषों की वृत्ति देखने में नहीं आती। सामान्य व्यक्ति की प्रशंसा की जाती है तो उनके चेहरे से उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है, लेकिन मैंने गुरुदेव को देखा है, लोग खूब-खूब प्रशंसा करते हैं, पर वह नतशीश, नत-नैनों से जो बैठते हैं, पता ही नहीं लगता कि वह सुन भी रहे हैं। कि नहीं सुन रहे हैं। यह उनकी विशेषता है। यह वही कर सकते हैं। जो निन्दा-प्रशंसा की भूमिका से ऊपर उठ गए हैं, जिनके अन्दर आध्यात्मिक भाव छुपा होता है, उनके लिए यह सब बातें बहुत सहज होती हैं।
  11. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से कैसे बहुत सारा आशीर्वाद ले सकते। - कुमारी आर्या जैन, सतना समाधान - श्रद्धा से भरकर उन्हें प्रणाम करो, आशीर्वाद मिलेगा, बहुत मिलेगा। सबसे कहना चाहूँगा, उनसे जो आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं और चाहते हैं कि वह हमें नजदीक से मिलें, वह ऐसा न समझें कि उनका हाथ उठे तभी आशीर्वाद है। गुरु के चरणों में यदि आपने अपने श्रद्धा भाव को प्रकट कर दिया तो उतने मात्र से उनका आशीर्वाद मिल जाता है। श्रद्धा से प्रणाम करो, दूर बैठकर श्रद्धा से प्रणाम करने से भी उनका आशीर्वाद आपको मिल जाएगा। तुम लोग तो हम लोगों से भी ज्यादा भाग्यशाली हो कि जब चाहो तब जाकर प्रत्यक्ष दर्शन कर लेते हो और नमन करके उनका आशीर्वाद ले लेते हो। हम लोग तो कहीं जा ही नहीं पाते। मुझे 2004 के बाद दर्शन नहीं हुए। तेरह वर्ष हो गए, फिर तो मैं बड़ा अभागा महसूस करूंगा। लेकिन नहीं, मैं अपने आप को अभागा महसूस नहीं करता क्योंकि मैं जब चाहता हूँ उनका आशीर्वाद हर वक्त मुझ पर बरसता रहता है। क्योंकि मैं उन्हें श्रद्धा से नमन करता हूँ। दूर बैठकर भी यदि आपने प्रणाम कर लिया तो समझ लेना आशीर्वाद है। क्योंकि महापुरुषों व महात्माओं का हृदय सारे संसार के कल्याण के लिए सदैव उतावला रहता है। वह सब का हित चिन्तन करते हैं और जो हित चिन्तन करते हैं, उन सबको उनका आशीर्वाद अपने आप मिल जाता है।
  12. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न है कि आचार्यश्री कितनी देर विश्राम करते हैं? क्या वे दिन में भी सोते हैं? - श्री ऋतिक जैन, अजमेर समाधान - आचार्यश्री की जो चर्या है, बिल्कुल अलग है। वे बहुत कम सोते हैं, अल्प निद्रा लेते हैं, लगभग ढाई घंटा वे विश्राम करते हैं। दस बजे से पहले वे प्रायः शयन नहीं करते, उसके बाद भी मध्य रात्रि में उठकर वे सामायिक करते हैं। ढाई बजे के बाद मैंने उन्हें कभी सोते हुए नहीं देखा। चाहे कैसा भी विहार हो या वे कितने भी बीमार हों और जहाँ तक दिन में सोने की बात है, मैंने कभी उन्हें सोते हुए नहीं देखा। हाँ, अगर कभी तीव्र ज्वर-ग्रस्त हों तो वे लेटते तो हैं, लेकिन शयन कभी नहीं करते। वह सतत् अप्रमत्त रहते हैं। यही उनकी जागरूकता का प्रतीक है। योगी का एक लक्षण होता है, जो अल्प भोजन करे, अल्प निद्रा ले, नित्य प्रति जाग्रत रहे, वही योगी
  13. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! महाराजश्री! गुरुओं के मुख से ऐसा सुनते हैं कि आचार्यश्री अपने जीवन में अगर कोई खेल भी खेलते थे तो उसमें भी अपना अध्यात्म खोज लेते थे। जैसे वे गिल्ली डण्डा खेलते थे या साइकिल चलाते थे तो इन खेलों में भी वह कैसे अध्यात्म में डूब जाते थे? - श्रीमती शशि जैन, भोपाल समाधान - हम लोग कहते हैं कि हर जगह अध्यात्म है। मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक जौहरी का बेटा था 25 साल का जवान बेटा, कूड़े के ढेर में लोट रहा था। लोगों ने जाकर उसके पिता से शिकायत की कि तुम्हारे बेटे को कैसा पागलपन छाया है, कूड़े पर लोट रहा है। पिता को भी बुरा लगा और बेटा लथपथ शरीर, ऊपर से नीचे तक पूरा कूड़े से गन्दा हो गया और ऐसी दशा में घर आया। पिता ने बेटे से कहा- बेटा! तूने क्या हाल कर रखा है? अपनी कैसी हालत बना रखी है? क्या दिमाग खराब हो गया? बोला- नहीं, पिताजी कुछ वजह थी। पिताजी बोले क्या वजह थी? वह बोला पिताजी! आप अपना हाथ दिखाइए। पिता ने हाथ दिखाया, बेटे ने अपनी जेब में हाथ डाला और कुछ निकालकर पिता के हाथ में रख दिया। पिता देखकर भौंचक्का रह गया (हीरा था)। पिताजी बोले कहाँ से मिला? बेटा बोला- उसी कचरे के ढेर से। पिताजी बोले तो कचरे में लोटा क्यों? बेटा बोला- पिताजी! सीधे-सीधे उठाता तो। लोगों को संशय होता, इसलिए पहले लोटा फिर स्टाइल से उठा लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि जौहरी का बेटा कचरे के ढेर में भी हीरा खोजता है। इसी तरह जिनके संस्कार अच्छे होते हैं, वे लोग कोई भी क्रिया करें, उसमें अध्यात्म निकाल लेते हैं। अध्यात्म द्रष्टा। के जीवन के साथ ऐसा होता है। गुरुदेव के बचपन से ही सारे लक्षण थे, उनकी अन्तर्दृष्टि उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन करती थी।
  14. शंका - गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! गुरुवर! आचार्यश्री के वैराग्य का कारण बताइए। - श्रीमती उषा जैन, भोपाल समाधान - आचार्यश्री के वैराग्य का कोई कारण नहीं, पूर्व भव के संस्कार हैं। यह वैराग्य इस भव से नहीं, अनेक भवों से चला आ रहा है। उनके जीवन में ऐसी कोई घटना नहीं घटी, जिसके कारण उनको वैराग्य हुआ हो। लेकिन कहते हैं पूत के लक्षण पालने में ही दिख जाते हैं, वह बचपन से ही वैराग्यसम्पन्न थे। कहते हैं कि जब वह बड़ी नदियों में तैरा करते थे तो उसमें भी पालथी मारकर ध्यान किया करते थे। यह उनके अन्दर के संस्कार थे। भव-भवान्तरों का यह संस्कार जब किसी का एक साथ फलता है तभी ऐसी ऊँचाई की प्राप्ति होती है।
  15. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! आचार्यश्री अपने संघ में सिर्फ बाल ब्रह्मचारी बहिनों और भाईयों को ही दीक्षा देते हैं, हम गृहस्थों को दीक्षा नहीं देते। हम गृहस्थ अपना कल्याण कैसे कर सकेंगे ? - श्रीमती शशि जैन, भोपाल समाधान - वह कहते हैं, बाल ब्रह्मचारियों की ही इतनी लम्बी लाइन है तो हम इनको क्यों लें। जब फ्रेश माल मिल रहा है तो रिजेक्शन सेल वाले को क्यों अपनाएँ? इसलिए नहीं लेते। वह कहते हैं कि व्रती बनो, मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना करो और जीवन के अन्त में सल्लेखना ले लो, बेड़ा पार हो जाएगा।
  16. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! महाराज जी! हम हर साल आचार्यश्री के पास जाते हैं व उनसे नियम लेकर आते हैं। मेरे नियम बहुत अच्छे सधते हैं। मैं चार महीने के लेकर आती हूँ, सालभर के निभते हैं तो यह कैसा चमत्कार है? समझाइए। - श्रीमती साधना जैन, किशनगढ़ समाधान - यह उनका प्रभाव है। यह उनके प्रभाव का ही। चमत्कार है। ऐसे ही नियम लेते रहिए।
  17. शंका - परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी को कोटि-कोटि वन्दन करते हुए गुरुवर को नमोऽस्तु! महाराज जी! बचपन से आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का और विद्यासागर जी महाराज का खूब सान्निध्य रहा। घर का माहौल भी ऐसा ही था, जो प्रगाढ़ आस्था मन में जम गई, वह इतने गहरे तक उतर गई कि महाराज जी! अन्य साधु व आचार्यों के प्रति हमारी आस्था में कहीं कमी रह जाती है। कृपया समाधान दें। - श्रीमती सन्तोष गोधा, उदयपुर समाधान - देखिए, गुरु के प्रति श्रद्धा होनी अच्छी बात है एवं उसकी अमिट छाप होना और भी अच्छी बात है। लेकिन अन्यों के प्रति उपेक्षा का भाव करना सही नहीं है। यह बात सही है कि जो गुरु का स्थान हृदय में होगा वह अन्य का नहीं। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम अन्य किसी को कुछ समझे ही नहीं, ध्यान रखें- जैसे आपके घर में कोई बीमार होता है तो अच्छे से अच्छे विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाते हैं पर सबसे पहली सलाह किससे लेते हैं? फैमिली डॉक्टर से। फैमिली डॉक्टर की सलाह से ही सारी बातें तय करते हैं। मैं आप सभी से यही कहूँगा, जिनको मैंने अपने गुरु के रूप में स्वीकारा, उसका स्थान तो फैमिली डॉक्टर की तरह होगा ही होगा, पर इसका मतलब यह नहीं कि हम अन्य किसी को मानें ही नहीं। आज मेरे हृदय में जो स्थान मेरे गुरु का है, वह किसी के लिए नहीं। हो सकता और न होगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरे मन में किसी और के प्रति सम्मान ही नहीं रहे। सबका यथायोग्य सम्मान करना चाहिए। यही हमारे गुरु का संदेश है।
  18. शंका - हे गुरुवर! आपके चरणों में बारम्बार नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! गुरुवर! आचार्यश्री के बारे में यह कहा जाता है कि उनके आहार बड़े-बड़े लोगों के यहाँ होते हैं और उनके आहार के बाद उन्हें दान देना पड़ता है। इस चर्चा में कितनी सच्चाई है? - श्री जिनेन्द्र जैन, उदयपुर समाधान - आप कहते हो कि आचार्यश्री के आहार बड़े-बड़े लोगों के यहाँ होते हैं, दान देना पड़ता है। मैं इसे पलट कर बोलता हूँ- 'जो भी उनको आहारदान देता है, वह बड़ा हो जाता है और दान देने में सक्षम हो जाता है। मैं एक घटना सुनाता हूँ, सन् 2002 में गुरुदेव का पदार्पण बहोरीबन्द में हुआ। वहाँ अनेक चौके लगे। पहले ही दिन गुरुदेव का आहार वहाँ के पुजारी गोपीचन्द के यहाँ हुआ। गोपीचन्द वहाँ के पुजारी सह मैनेजर थे और सर्वेसर्वा थे। उस समय उनकी पगार साढ़े तीन हजार रुपया प्रति महीना थी। उस व्यक्ति ने स्वर्णिम यात्रा चौका लगाया, गुरुदेव का आहार हो गया। उन्होंने आहार के बाद ग्यारह हजार रुपये का दान किया। सन् 2003 में हमारा चातुर्मास हुआ। हमारे पूरे चातुर्मास में चार महीने उन्होंने चौका लगाया। चौके बहुत थे, दस-दस चौके थे, तब भी उन्होंने चौका लगाया। एक दिन चर्चा में उन्होंने कहा, महाराज! हमने ग्यारह हजार रुपये दान कर दिया। मैंने पूछा- गुरुजी ने कुछ बोला? वह बोला- कुछ नहीं बोला महाराज! हमारे घर में आहार हुआ, हमारे भाव उछल गए और हमने 11000 बोल दिया। महाराज क्या बताऊँ? गुरुजी ने खुद ही व्यवस्था बना दी, उस दिन चना में एक हजार रुपये की तेजी आ गई। बीस बोरा रखे थे, बीस हजार की व्यवस्था हो गई। 'तो यह भाव है, यह सब सवाल वे लोग करते हैं जो एक पैसा नहीं देते। गुरुदेव कभी किसी को एक पैसे के लिए इशारा नहीं करते। लोगों के खुद के हृदय का भाव होता है, जो हृदय खोलकर गुरु चरणों में अर्पित करते हैं। एक बात बताऊँ आपको- बुन्देलखण्ड का एक संस्कार है, जो हमें जानना चाहिए। वहाँ पाँच लाख की गाड़ी में घूमने वाला और पन्द्रह लाख के मकान में रहने वाला आदमी भी एक करोड़ का दान देने के लिए तत्पर हो जाता है। अपनी स्वयं की इच्छा से अगर एक रुपया कमाता है तो 50 पैसा दान दे देता है। यह संस्कार अगर आज सम्पूर्ण भारत में कहीं हैं तो सिर्फ बुन्देलखण्ड में हैं। इसलिए बुन्देलखण्ड समृद्धि के शिखर पर पहुँच रहा है।
  19. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! आज की इस पावन बेला में मैं आचार्य श्री विद्यासागर जी को नमन करता हूँ। गुरुवर मैं यह जानना चाहता हूँ कि आचार्यश्री द्वारा इतनी बड़ी संख्या में तीर्थों एवं संस्थाओं की स्थापना की गई। उनकी प्रेरणा से इतना कुछ हुआ है इससे उनकी साधना व सामायिक में विकल्प तो जरूर पड़ते होंगे। समाधान कीजिए। - श्री अरविन्द अजमेरा, उदयपुर समाधान - सामान्य आदमियों को ऐसे विकल्प होते हैं, महान् आत्माओं को विकल्प नहीं होते। मैंने उन्हें देखा है वह करते हुए भी नहीं करने जैसे हैं। सामान्य आदमी के अन्दर कर्तृत्व का भाव होता है। वह जो भी जितना कुछ भी मार्गदर्शन, जब जहाँ जितना देना होता है, दे देते हैं और तुरन्त उनका मन बदल जाता है। आचार्य महाराज बहुत उच्च भूमिका के हैं। मैं अपनी बात आपसे कहता हूँ, मैं अपने दिमाग में किसी भी बात को हावी नहीं होने देता जो फाइल जितनी देर के लिए खोलनी है, खोला। बन्द किया तो बन्द, अब वह फाइल तब ही खुलेगी जब मैं चाहूँगा। इसका अनुभव आप रोज के शंका समाधान में कर सकते हैं। एक प्रश्न कहीं का और दूसरा प्रश्न कहीं का, पर क्या कोई मिलावट दिखती है आपको? यह फाइल खुली तो यह फाइल चलेगी, वह फाइल खुली तो वह फाइल चलेगी। उनकी मेण्टल फाइलिंग बहुत ऊँची है। इसलिए इसको अपने दिमाग के लेवल से मत लो। वह महान् सन्त हैं, जो करते हुए भी नहीं करने जैसे
  20. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! महाराज जी! आचार्यश्री के जितने भी बार दर्शन किए उनके चेहरे पर एक बहुत मन्द सी मुस्कान रहती है और भगवान् के मंदिर में जब हम रोज प्रतिमा के दर्शन करते हैं तो प्रतिमा के चेहरे पर भी एकदम मन्द स्मित रहता है। महाराज जी! मेरा प्रश्न यह है कि यह आचार्यश्री के अन्दर की वीतरागता है। जो उनकी मुस्कान के माध्यम से झलकती है या उनका प्राणी मात्र के प्रति वात्सल्य है जो इस रूप में प्रकट होता है या उनकी ज्ञान की इतनी उच्चता है जो स्मित के माध्यम से हमें नजर आती है। महाराज जी जिज्ञासा शान्त करें। - डॉ. ज्योति जैन, उदयपुर समाधान - आपने जितनी बातें कहीं, वे सब उनमें हैं, क्योंकि वह एक आचार्य हैं और आचार्य के अन्दर यही सब होता है। मुझे लगता है आचार्य से ज्यादा ऊपर नहीं, बस आचार्य से थोड़ा ही ऊपर अरिहंत व सिद्ध परमेष्ठी हैं। रास्ता आने वाला है।
  21. हिंगोली मे प.पू. संतशिरोमणी आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के परम शिष्य मुनिश्री अक्षयसागरजी महाराज, मुनिश्री नेमीसागरजी महाराज और क्षुल्लक समताभुषण महाराज इनके पावन सान्निध्य मे संयम स्वर्ण किर्ती स्तंभ का लोकार्पण अत्यंत उत्साह के साथ हजारो लोगों की उपस्थिती मे शांती के साथ सानंद संपन्न हुआ । यह कार्य संपन्न कराने मे हिगोली के युवा कार्यकर्ताओं ने अहम भूमिका निभाई है संघर्षमय स्थिती मे भी शांती और संयम का परीचय देते हुए जो कार्य हिंगोली के कार्यकर्ताओं ने अत्याधिक परिश्रम के साथ पूरा किया है उसके लिए इन सब को धन्यवाद। कंदी परिवार शिरडशहापूरवालों ने इस स्तंभ निर्माण कार्य मे जो बहुत बडा सहयोग दिया उसके लिए इस परिवार के धन्यवाद। सभी अन्य दान दाताओं को भी धन्यवाद। सभी लोगों को निवेदन है की इस विषय पर सभी चर्चाएं बंद करे। जिन जिन लोगोंने इस निर्माण कार्य मे तन मन धन के साथ सहयोग दिया है उन सभी को बहुत बहुत धन्यवाद।
  22. शंका - महाराज श्री को नमोऽस्तु! महाराज जी! आपने क्या कभी आचार्यश्री को किसी भी धार्मिक क्रिया या किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी मन्त्र की साधना करते हुए देखा है ? - श्री मनोज जैन, जयपुर समाधान - हमारे गुरुदेव तो गुरुदेव हैं। (हँसते हुए) मुझे एक बात याद आ रही है, जब एक किसी विशेष निमित्त के लिए उनसे किसी ने कहा- महाराज! इसके लिए किसी मन्त्र की सिद्धि कर ली जाए तो गुरुदेव ने मुझसे कहा कि जिसका स्वयं आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी में स्थान है, जिसे लोग स्वयं मन्त्र के रूप में जपते हैं, उसे मन्त्र की क्या आवश्यकता है। वह खुद अपने आप में एक मन्त्र हैं। मैंने उन्हें कभी कोई मन्त्र-साधना करते हुए नहीं देखा। मैंने उनको अपने हाथ से माला फेरते भी नहीं देखा। अरे! दुनिया जिसके नाम की माला फेरती है, उसे माला फेरने की क्या जरूरत। उसके तो नजर मात्र से सामने वाला तर जाता है। वह कभी भी किसी भी मन्त्र अनुष्ठान की बात नहीं करते। कुण्डलपुर के महोत्सव की चर्चा मैंने सुबह की थी। मेरे पास सूचना थी कि कुछ लोग इस महोत्सव में खलल डालने के लिए अनुष्ठान कर रहे हैं, उसके लक्षण भी सामने दिख रहे थे। मैंने गुरुचरणों में जाकर यह बात कही कि महाराज आप आशीर्वाद दें, कुछ साधना बताएँ। उन्होंने एक ही शब्द कहा "चिन्ता मत करो, णमोकार मन्त्र जपो, बड़े बाबा का आयोजन है, बड़े बाबा स्वयं सब ठीक कर देंगे।" उन्होंने कभी किसी को इस तरह से मन्त्र की साधना, सिद्धि करने की प्रेरणा नहीं दी।
  23. भारतीय संस्कारों और सभ्यता की और लौटकर हम भारत को विश्व गुरु बना सकते हैं:
  24. शंका - महाराज जी ! नमोऽस्तु! महाराज जी! यह जिज्ञासा मेरी लाइफ पार्टनर की तरफ से है। महाराज जी! वर्तमान समय में पूरे दिगम्बर जैन समाज में आचार्यश्री को भगवान् महावीर के रूप में माना जाता है। महाराज जी! तीर्थंकर की माता को तीर्थंकर के जन्म से पूर्व सोलह स्वप्न आते हैं, इसी प्रकार आचार्यश्री की माताजी श्रीमंती को भी आचार्यश्री के जन्म से पूर्व स्वप्न दिखाई दिया था, जिसमें उन्होंने दो मुनिराजों को जाते हुए देखा और उनको आहार करवाया। महाराज जी ! मेरी लाइफ पार्टनर जानना चाहती हैं कि क्या वह पूर्व जन्म के संस्कार थे या आचार्यश्री का जन्म क्या कहता है ? - श्री प्रकाश पाटनी, अजमेर समाधान - देखिए, मैं आचार्यश्री को एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में देखता हूँ। मेरा मानना है कि लोकोत्तर पुरुष को जन्म देने वाली माँ भी लोकोत्तर होगी, क्योंकि लोकोत्तर माँ ही लोकोत्तर सन्तान को जन्म दे सकती है। वह माता श्रीमंती कोई ऐसी-वैसी माँ नहीं, आचार्य विद्यासागर, समयसागर और योगसागर जैसे रत्नों को जन्म देने वाली माँ है। उनके खुद के संस्कार बड़े अच्छे होंगे। कई भवों के संस्कार होंगे, वह संस्कार काम में आते रहे और साथ में जो जीव आने वाला है उसके नियोग से बहुत सारे संस्कार होंगे। आचार्य गुरुदेव आज जिस ऊँचाई तक पहुँचे हैं, मुझे ऐसा नहीं लगता कि इस ऊँचाई तक पहुँचने में केवल उनकी इस भव की साधना जुड़ी है। मुझे तो लगता है पिछले अनेक भवों से वह मुनि बन रहे होंगे और अब उनके ज्यादा भव नहीं बचे। अगर चौथा काल होता तो मैं इसे उपान्त भव बोलता। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके जाते और अगले भव में तीर्थंकर बन जाते। मुझे लगता है, अगले भव में वह एक बार मुनि बनेंगे, यही संस्कार उनके साथ जुड़ेंगे, किसी भी श्रुतकेवली के पादमूल में सोलह कारण-भावना भाएँगे, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करेंगे और उसके बाद के भव में तीर्थंकर बनकर मोक्ष चले जाएँगे। हमें ऐसी ही भावना भानी चाहिए। मैं यह भक्तिभाव से नहीं बोल रहा हूँ, यह उनके व्यक्तित्व का प्रभाव है। आज का जो दिन है, पूरे देश में जिस तरह का उत्साह प्रकट हुआ, देश ही नहीं विदेश में भी, सब तरह की बातों को दरकिनार करते हुए लोगों ने जो अपनी श्रद्धाभक्ति की अभिव्यक्ति की है, वह अपने आप में असाधारण है। मेरे पास काफी जगहों से लोगों के मैसेज आए कि आज जो उत्साह दिखा वह महावीर जयन्ती से भी बढ़कर दिखा तो मैं यह कहूँगा कि आज जो कुछ भी हुआ है वह इस युग के महावीर का ही हुआ है क्योंकि आचार्य विद्यासागर भगवान् महावीर के ही लघुनन्दन हैं। हमें इन सबसे सीख लेकर जिनधर्म की ऐसी ही प्रभावना के लिए आगे बढ़ते रहना चाहिए।
  25. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! आज सुबह प्रवचन में आपने कहा कि गुरुजी दीक्षा ही नहीं शिक्षा भी देते हैं, तो उस शिक्षा में मिलिट्री ट्रेनिंग जैसा अनुशासन होता है। इसका क्या आशय है ? - श्री अशोक जैन, किशनगढ़ समाधान - मिलिट्री ट्रेनिंग का मतलब होता है बिल्कुल कमर कसकर तैयार रहो, जैसा घोट-घोट के सिखाया जाता है वैसा गुरुदेव करते हैं।
×
×
  • Create New...