माटी स्वयं घट नहीं बनती,
कुम्भकार उसे बनाता है।
पाषाण की शिला स्वयं प्रतिमा नहीं बनती,
शिल्पी उसे तराशना है।
कागज स्वयं चित्र नहीं बनता,
चित्रकार उसे उकेरता है।
वैसे ही...
शिष्य स्वयं संयमी नहीं बनता,
सद्गुरु ही उसे दीक्षा संस्कार दे संयमी बनाते हैं।
यही उपहार दिया, मुझे भी मेरे गुरुवर ने...
शिष्यों के प्राणों के प्राण,
भक्तगण की भावनाओं के भगवान... गुरुदेव!
डूबे रहते हैं अपने ज्ञान सरोवर में!
उन्हें समय ही कहाँ है?
समय (आत्मा) से दूर रहने का, बाहर झाँकने का!
लगता है बाहरी जगत् में रहते हैं,
मगर हर पल अंतर्जगत् में रमते हैं।
भक्त तड़पते रहते हैं उनके दर्शन को,
और वे आत्मदर्शन में ही आनंदित रहते हैं।
ऐसी स्थिति में भक्त अनेकों संबोधन से संबोधित कर अपने भगवत् स्वरुप गुरु के नाम लिखता है पाती... लिखते ही लगता है उसे, उन तक मेरी भावना पहुँच गई है, होता भी ऐसा ही है। जैसे...आस्था की प्रगाढ़ता में बाजू की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे ही...भावों की समीपता होने पर भाषा की भी आवश्यकता नहीं रहती। असीम श्रद्धा के आगे सीमित शब्दों की अर्थवता कहाँ रहती हैं? फिर भी हृदय की श्रद्धा उमड़-उमड़ आती है। आँखें दर्शन को तरस-तस्स जाती है... इसीलिए इस बाल अल्पमति ने बालाघाट में जगत जननी मम जीवनदायिनी माँ के रूप में गुरुदेव विद्यासिंधु के दर्शन की बाट जोहते-जोहते कलम का सहारा लिया और अपनी दर्श की प्यास को कुछ समय के लिए शांत किया।
मेरा शुभ उपयोग गुरु सान्निध्य आपका जित चाहे।
क्योंकि आपकी सन्निधि मुझको बतलाती शिव की राहें।।
इक पल का भी विरह आपका, सहा नहीं अब जाता है।
गुरु तुम्हें बिन देखे मुझसे रहा नहीं अब जाता है।।
भावों से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती, यह अनुभूति हुई और तभी गुरु की आज्ञा मिली और संकेत पा सरिताएँ सागर को पाने आनंदित हो बह चलीं... लेखनी सेतु बन गुरु शिष्य के मिलन में सहायक बन गई। बालाघाट से विहार कर कटनी में गुरु दर्शन कर आँखें तृप्त हो गई। यह जो कुछ लिखा गुरु दर्शन कर स्वात्म को लरखने के लिए लिखा। गुरु दर्शन की भावना से, स्वात्म सिद्धि की कामना से गिज मिलन हो। यही भावना है।
तेरी भक्ति में अंतस् के नंत दीप जल उठते हैं।
तेरी चर्चा से हे गुरुवर! मौन मुखर हो जाते हैं।।
तेरे दर्शन से आतम के प्रदेश सुमनों सम खिलते।
आप मिलन से ऐसा लगता निज परमातम से मिलते।।
मुक्तिगागी श्रीचरणों में
नमोस्तु... नमोस्तु...नमोस्तु!
आर्यिका पूर्णमती माताजी