शंका - परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी को कोटि-कोटि वन्दन करते हुए गुरुवर को नमोऽस्तु! महाराज जी! बचपन से आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का और विद्यासागर जी महाराज का खूब सान्निध्य रहा। घर का माहौल भी ऐसा ही था, जो प्रगाढ़ आस्था मन में जम गई, वह इतने गहरे तक उतर गई कि महाराज जी! अन्य साधु व आचार्यों के प्रति हमारी आस्था में कहीं कमी रह जाती है। कृपया समाधान दें।
- श्रीमती सन्तोष गोधा, उदयपुर
समाधान - देखिए, गुरु के प्रति श्रद्धा होनी अच्छी बात है एवं उसकी अमिट छाप होना और भी अच्छी बात है। लेकिन अन्यों के प्रति उपेक्षा का भाव करना सही नहीं है। यह बात सही है कि जो गुरु का स्थान हृदय में होगा वह अन्य का नहीं। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम अन्य किसी को कुछ समझे ही नहीं, ध्यान रखें- जैसे आपके घर में कोई बीमार होता है तो अच्छे से अच्छे विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाते हैं पर सबसे पहली सलाह किससे लेते हैं? फैमिली डॉक्टर से। फैमिली डॉक्टर की सलाह से ही सारी बातें तय करते हैं। मैं आप सभी से यही कहूँगा, जिनको मैंने अपने गुरु के रूप में स्वीकारा, उसका स्थान तो फैमिली डॉक्टर की तरह होगा ही होगा, पर इसका मतलब यह नहीं कि हम अन्य किसी को मानें ही नहीं। आज मेरे हृदय में जो स्थान मेरे गुरु का है, वह किसी के लिए नहीं। हो सकता और न होगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरे मन में किसी और के प्रति सम्मान ही नहीं रहे। सबका यथायोग्य सम्मान करना चाहिए। यही हमारे गुरु का संदेश है।