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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. शंका - आचार्य महाराज कई बार बड़ी-बड़ी बीमारियों के शिकार हुए। उस वक्त उनकी मानसिकता कैसी रही? - श्रीमती चन्द्रकला पाटनी, रांची समाधान - देखो! बीमारी तो किसी को भी हो सकती है। महापुरुषों को बीमारियाँ ज्यादा होती हैं। आचार्यश्री अनेक बार गम्भीर रूप से बीमार पड़े, लेकिन उनका मनोबल कभी नहीं गड़बड़ाया। वह बीमारी की स्थिति में भी अपनी चर्या में जागरूक रहते हैं। मैंने उन्हें कभी भी शिथिल होते नहीं देखा। सन् १९८७ की बात है, गुरुदेव थूबौन जी में थे। उस वक्त वहाँ मलेरिया का बड़ा प्रकोप था। आचार्यश्री की तबीयत गड़बड़ा गई, उन्हें पिछले कई दिनों से बुखार का आभास हो रहा था। वे आहार में केवल सब्जी ले रहे थे। एक दिन उन्होंने उपवास कर लिया। उसी दिन उन्हें एक सौ। पाँच डिग्री बुखार आ गया। चौबीस घण्टे तक निरन्तर बुखार था। दूसरे दिन आहार के समय जो उन्हें औषधि दी गई, वह बहुत कड़वी थी, औषधि मुँह में डालते ही बाहर आ गई। आचार्यश्री का अन्तराय हो गया। बुखार तेज था, हालत खराब हो गई। बुखार उतर नहीं रहा था। मानसून की बारिश हुई नहीं थी, गर्मी प्रचण्ड थी। उन दिनों पण्डित जगन्मोहनलाल शास्त्री कटनी वाले गुरुदेव के चरणों में पधारे। गुरुदेव की वन्दना कर उन्होंने पूछा- महाराजश्री! कैसा लग रहा है? आचार्य श्री ने लेटे-लेटे ही सहज भाव से कहा- "औदयिक भाव (कर्म का उदय) है, जान रहा हूँ और देख रहा हूँ।" उस समय मैं वहीं पर था। आचार्यश्री का उत्तर सुनकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। प्रचण्ड गर्मी, एक सौ पाँच डिग्री बुखार, शरीर उत्तप्त, उस घड़ी में भी ऐसा भेदविज्ञान, यह कोई विरला योगी ही कर सकता है। मैं समझता हूँ इस घटना से आचार्यश्री की मानसिकता का अन्दाज लगाया जा सकता है।
  2. शंका - गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु! नमोऽस्तु! नमोऽस्तु! मेरी जिज्ञासा है कि आचार्यश्री के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत बड़े अष्टांगनिमित्त ज्ञाता हैं। क्या सही है? - डॉ. सीमा जैन समाधान - यह बात बिल्कुल सही नहीं है। अपने आपको निमित्तज्ञाता न कभी उन्होंने कहा, न कभी हममें से किसी ने कहा। वह किसी भी तरह का निमित्तज्ञान लगाते नहीं हैं। हाँ! बस इतना जानता हूँ कि उनके निमित्त से कई लोगों को ज्ञान मिल जाता है और जीवन का कल्याण हो जाता है। वह निमित्तज्ञाता नहीं हैं, लेकिन निमित्त से लोगों के त्राता तो जरूर बन गए हैं। वह ऐसे निमित्त बने हैं कि सारे जगत् के त्राता हो गए। ऐसे गुरुदेव के चरणों में हम लोग विनयाञ्जलि अर्पित कर रहे हैं।
  3. शंका - परमपूज्य मुनिश्री के चरणों में सादर नमोऽस्तु! अभी संयम स्वर्ण दिवस महोत्सव मनाया जा रहा है और आचार्यश्री के साक्षात् चरित्र को हम देख भी रहे हैं, सुन भी रहे हैं, पढ़ भी रहे हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के अन्तर्गत बहुत सारी चीजें हैं और उनकी अपनी साधना है। अगर मैं उनके द्वारा समाज को दिए गए अनुदान को संक्षेप में कहूँ तो धर्म प्रभावना, महिला शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था मुख्य है। मैं समझता हूँ कि इसमें महिला शिक्षा सबसे ज्यादा प्रभावी है, क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। मैं यह जिज्ञासा रखना चाहता हूँ कि इन तीन अवदानों से जहाँ समाज प्रभावित होता है, आपकी दृष्टि क्या होगी व आचार्यश्री क्या सोचते होंगे| - डॉ. जे. के. जैन, उदयपुर समाधान - मैं तो यह सोचता हूँ कि जो आचार्यश्री सोचते हैं, वही मैं सोचता हूँ और हम लोग तो कुछ सोचते नहीं। हम लोग तो बात को आगे बढ़ाते हैं। चीजें फॉरवर्ड हो जाती हैं, सारा काम हो। जाता है। गुरुदेव का दृष्टिकोण हमेशा यही रहा है उन्होंने समाज के सशक्तीकरण पर हमेशा ध्यान दिया है। संस्कारयुक्त, सक्षम और सशक्त समाज के निर्माण की बात वह सोचते हैं। जब ऐसा होगा तभी हम अपना व धर्म का वास्तविक उत्थान कर सकेंगे, प्रभावना कर सकेंगे इसलिए समाज को जगाते हैं। महिला शक्ति के बारे में उन्होंने एक दिन बहुत अच्छी बात कही। महिला शिक्षा के विषय में उन्होंने कहा- देखो! भगवान् ऋषभदेव ने शिक्षा की शुरुआत ब्राह्मी व सुन्दरी से की, भरत और बाहुबली से नहीं, यह एक बहुत बड़ी सीख है। उन्होंने अक्षर व अंक विद्या ब्राह्मी व सुन्दरी को दी। आज की महिलाओं को इस बात का गौरव होना चाहिए कि हम ऋषभदेव की सन्तान हैं, जिन्होंने हमें सबसे पहले शिक्षा दी और एक दिन उन्होंने चर्चा में आदिपुराण के सन्दर्भ का उल्लेख किया था कि ''नारी च गुणवती धत्ते सृष्टिरग्रे मम पदम्' तो कहते हैं कि नारी को शिक्षित होना चाहिए, पर एक बात वह सदैव जोड़ते हैं कि शिक्षित ही नहीं, संस्कारित भी होनी चाहिए। क्योंकि एक कन्या में व एक पुत्र में अन्तर है। पुत्र को कुलदीपक कहा है व कन्या को उभयकुलविवर्धिनी कहा है। उसके ऊपर दोहरा दायित्व है। पुत्र तो केवल एक कुल को रोशन करता है, कन्या दो कुलों को रोशन करती है- अपने पति के कुल को भी व अपने पिता के कुल को भी। इसके लिए उसकी दोहरी जिम्मेदारी है, इसलिए वह शिक्षित भी हो, संस्कारित भी हो।
  4. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य भगवन्त हम बच्चों के लिए क्या सोचते हैं? - नैनसी जैन समाधान - बहुत अच्छा प्रश्न पूछा कि बच्चों के लिए क्या सोचते हैं? मेरा तो अपना अनुभव है कि उनका चिन्तन हमेशा बच्चों पर रहता है। वह कहते हैं नींव को मजबूत बनाओ तो भवन अपने आप मजबूत होगा। प्रतिभास्थली जैसी संस्था बच्चों पर केन्द्रित होकर ही खुली है। वे कहते हैं कि समाज को बदलना है तो बच्चों से ही लो, छोटे-छोटे बच्चों को अगर प्रारम्भ से ही अच्छे संस्कार देंगे तो बच्चों का भविष्य अपने आप ही उज्ज्वल हो जाएगा इसलिए। प्रतिभास्थली में भी ऊपर की क्लासेस में बच्चों का एडमिशन नहीं लेते। वह कहते हैं कि नीचे से लो, ताकि उनके संस्कार अच्छे होते हैं। वह कहते हैं कि बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं, अगर उनका निर्माण ठीक ढंग से होगा तो हमारे देश का निर्माण होगा। आने वाले दिनों में हम अगर पूरे के पूरे देश व समाज को एक सशक्त व संस्कारित राष्ट्र व समाज के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, तो आज से जन्म लेने वाले बच्चों के प्रति हम अपना ध्यान केन्द्रित करें। अगर हम उन्हें संस्कारित करेंगे, सशक्त बनाएँगे तो हमारा देश व समाज सब परिवर्तित हो जाएगा। कभी बच्चे उनके पास आते भी हैं, तो बच्चों को उनका आशीर्वाद भी मिल जाता है। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि माँ-बाप को दर्शन नहीं मिले, बच्चे अन्दर घुस गए और बच्चों को आशीर्वाद मिल गया। यह उनकी करुणा है, यह उनकी कृपा है, बच्चों को कभी घबराना नहीं चाहिए। बस यह मानो कि वह हमारे आचार्य हैं, आचार्य भगवान् है और अपने हृदय में बसाओ, उनको अपने जीवन का आदर्श बनाओ और उसी अनुरूप अपने जीवन को आगे बढ़ाओ।
  5. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! आपने कल बताया था कि आचार्यश्री के सामने लोग बहुत-बहुत देर तक बैठते हैं, वह नजर उठाकर भी नहीं देखते हैं। मगर महाराज जी! ऐसा कौन सा सौभाग्य है कि मैंने जब बहुत पहले, पहली बार उन के दर्शन किए तो उनकी छवि मेरी आँखों में कैद हो गई। णमो आइरियाणं में मुझे आचार्यश्री ही नजर आते हैं और महाराज जी! जब भी मुझे मौका मिला, शायद 5 या 6 बार आचार्यश्री ने कर व नयन उठाकर आशीर्वाद दिया है, तो मैं सोचती हूँ कि मेरा यह कौन सा पुण्य है या ब्रह्मचारी जी साथ थे, उनका निमित्त था। समाधान कीजिए। - श्रीमती ज्योति जैन, उदयपुर समाधान - यह आपका बहुत अच्छा सौभाग्य है कि आपको आशीर्वाद दिया। उन्होंने आप पर कर भी उठाया और नयन भी उठाए। लेकिन मुझे इस बात का आश्चर्य है कि इतनी बार आशीर्वाद दे दिया, आप उठ क्यों नहीं पाए? आगे बढ़ो और अपने जीवन को व्रती बनाने के रास्ते पर चलो, लक्ष्य वही बनाओ।
  6. शंका - पूज्यश्री गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु! नमोऽस्तु! नमोऽस्तु! गुरुवर! मेरी शंका नहीं है, समझ है। बोलते हैं कि पञ्चम काल में शुद्धोपयोगी मुनि नहीं होते, परन्तु मैं जब भी विद्यासागर जी महाराज को देखती हूँ तो लगता है कि पञ्चमकाल में यह वही स्वरूप है| - श्रीमती इन्दिरा जैन, मुंबई समाधान - बिल्कुल, इसमें कोई संशय नहीं। जो लोग कहते हैं कि पञ्चमकाल में मुनि नहीं होते, वे गुरुदेव को देख लें, सब कुछ समझ में आ जाएगा कि मुनि क्या होते हैं? पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री इसी से तो बदले थे और उन्होंने कहा था कि मैं अपने सारे मित्रों से कहना चाहूँगा- 'जिनकी मुनियों से श्रद्धा उठ चली है, वह एक बार आचार्य महाराज के दर्शन कर लें। मुझे पक्का विश्वास है, उनकी धारणा अवश्य बदलेगी।' उन्होंने कहा कि पहले मैं णमोकार के शेष 3 पदों का उच्चारण नहीं करता था। जबसे मैंने आचार्य महाराज के दर्शन किए हैं, मुझे पाँचों पद सार्थक दिखने लगे। णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं व णमो लोए सव्वसाहूणं में तो आचार्य महाराज की मुद्रा ही मेरी आँखों में झलकती है।
  7. शंका - गुरुवर के चरणों में बुढ़ार जैन समाज का नमोऽस्तु! गुरुवर! मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि आचार्यश्री जब अमरकण्टक में थे, अमरकण्टक का कुआँ पहाड़ के ऊपर था और उनके आने के पहले उसमें पानी बिल्कुल नहीं था। जैसे ही गुरुवर के पहुँचने की सूचना पहुँची, इतना पानी उस कुएँ में आ गया कि पूरा चौका चला और सैकड़ों-हजारों लोगों ने उसका लाभ लिया। - श्री मनीष जैन समाधान - अभी आपको बताऊँ यदि आपने यह प्रसंग छेड़ा है, तो थोड़ा संशोधन कर दें। मैं उस समय वहाँ पर था। वहाँ की घटना कुछ और है। क्षेत्र में पानी की बहुत बड़ी समस्या थी। ऊपर बोरिंग हुई, 250 फीट बोरिंग के बाद सवा इंच, एक इंच पानी मिला। बोरिंग में भी पानी नहीं मिला। कुएँ के बिना तो क्षेत्र हो ही नहीं सकता और कुछ समय नीचे से पानी आता था तो उसमें 80 हाथ रस्सी लगती थी यानी पानी 120 फीट गहरा था। अपना जो स्थान है। अमरकण्टक का, वह रोड लेवल से 120 फीट ऊपर है। अमरकण्टक की सबसे ज्यादा हाइट पर है, सी-लेवल से 3600 फीट ऊँचाई है। वहाँ पर पानी चाहिए, कुआँ चाहिए, कैसे हो? कमेटी के लोगों ने सोचा कि चलो कुआँ खोदो, कुछ उपाय करेंगे। पूरी बॉक्साइट की पहाड़ी है। दिनभर में बमुश्किल एक फीट खुदता था। दस फरवरी से कुए की खुदाई शुरु हुई। अप्रैल का महीना आ गया, एक फीट खुदता था और खोदते-खोदते 47 फीट खुद गया। पानी की तो बात बहुत दूर थी, नमी तक नहीं आई। अमरकण्टक के संस्थापक अध्यक्ष थे, उदयचन्दजी कोतमा वाले। एक रोज वह मेरे पास आए, बोले महाराज कैसे काम होगा? बरसात आने वाली है कुआँ खुदा नहीं है। दिनभर में एक फीट खुदता है, पानी का कोई निशान नहीं। कमेटी का टारगेट था कि 70 फीट खोदेंगे व साइड की बोरिंग करेंगे तो शायद पानी आ जाए। कुआँ 70 फीट खोदना भी मुश्किल है। क्या किया जाए? उस दिन गुरुदेव के आहार उनके यहाँ ही हुए थे। मैंने पूछा- गुरुजी का आहार तुम्हारे यहाँ हुआ? उन्होंने बोला- हाँ महाराज! हमने बोला- गन्धोदक कहाँ है? उन्होंने कहा- महाराज! समझ गया। अब आप कमाल सुनिए। उन्होंने गन्धोदक लेकर उस गड्ढे में डाला, उस दिन दो फीट कुआँ खुदा। आगे 49वें फीट में पानी आ गया और इतना पानी निकला कि धीरे-धीरे खोदते-खोदते 70 फीट खोदने। का टारगेट था, पर 62 फीट में रोकना पड़ा और पानी का ऐसा स्रोत निकला कि भरपूर पानी था। पहला पानी अक्षय तृतीया के दिन निकला और जिस ठेकेदार ने कुआँ खोदा उसने कहा- मैंने पूरे इलाके में 200 से ज्यादा कुए खोदे हैं पर इस जैसा स्रोत और ऐसा पानी पूरे इलाके में कहीं नहीं है। आज भी वह कुआँ क्षेत्र को पुजा रहा है। जो भी हो, गुरुदेव का चमत्कार है और भगवान् का प्रताप है। यह हो रहा है तो अब से धारणा बदल देना। कुए की वास्तविकता यही है और यह पूरे अमरकण्टक में चर्चा का विषय है, जबकि गुरुजी ने कुछ नहीं किया। वह कभी देखे भी नहीं, किसी से पूछा भी नहीं कि कुए में पानी आया या नहीं आया? वह अपने में रहते हैं, अपने में रमते हैं। और उनके निमित्त से सारे काम अपने आप हो जाते हैं।
  8. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु! आचार्यश्री में वह सारे गुण, सारी शक्तियाँ मौजूद हैं, जो तीर्थंकरों में होती हैं, क्या गुरुदेव भावी तीर्थंकर हैं ? -श्री विकास जैन, मिर्जापुर समाधान - देखो, यह सब घोषणा करना तो भक्ति का अतिरेक होगा। वह तीर्थंकर हैं, होंगे, नहीं होंगे इससे मतलब नहीं है। मैं तो यह मानता हूँ कि वे हम सब के उद्धारक हैं, जो हमारे उद्धारक हैं वे भले ही तीर्थंकर न हों पर उनका उपकार तीर्थंकरों से कम नहीं। ऐसा नहीं है कि हमने कभी तीर्थंकरों के युग में जन्म नहीं लिया होगा। हो सकता है हमने अनेक बार तीर्थंकरों के युग में जन्म लिया हो, लेकिन फिर भी हमारा हृदय उनसे न जुड़ा हो, हमारा जीर्णोद्धार नहीं हुआ। मरीचि भगवान् ऋषभदेव के युग में जन्मा, अहंकार में अकड़ा, 363 पथ का जनक बन गया और वही मरीचि जब शेर की पर्याय में था तो अमितगुण व अमितञ्जय नाम के दो मुनिराजों के साधारण वचनों का उस पर असाधारण प्रभाव पड़ गया। मरीचि के लिए भगवान् ऋषभदेव उतने काम के नहीं थे, जितने वह मुनिराज थे। इसलिए हम कहेंगे मेरे लिए चौबीस तीर्थंकर का वह कमाल नहीं हुआ जो गुरुदेव का हुआ है, इसलिए मैं उनके लिए सतत प्रणत रहूँगा।
  9. शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! आचार्य महाराज जब आप लोगों को संघ में आदेश देते हैं, तो कभी शिष्यों के द्वारा आदेश का अनुपालन न होने पर आचार्यश्री को कैसा लगता है? - श्रीमती चन्द्रकला पाटनी, राँची समाधान - देखिए! वह आदेश देते हैं और ऐसा बहुत ही कम होता है कि आदेश का अनुपालन न हो। यदि किसी शिष्य ने उनके आदेश का अनुपालन नहीं किया, टाल दिया तो गुस्सा नहीं करते। एक ही स्टैंड रखते हैं कि दोबारा कोई आदेश नहीं करते और उनके द्वारा आदेश न देना भी एक बहुत बड़ा पनिशमेंट हो जाता है। जब तक पहले का आदेश पालन नहीं किया गया, तब तक वह कोई आदेश नहीं देते। जब मेरा आदेश मानो तो मैं आदेश दूँ। अगर मेरा आदेश ही नहीं मानो, तो आगे का आदेश क्यों दूँ? वह हमेशा कहते हैं- गुरुशिष्य का सम्बन्ध आज्ञा और अनुशासन का सम्बन्ध है। अगर मेरी आज्ञा मांग रहे हो, अनुशासन में चल रहे हो, तब तो मेरा तुम्हारा सम्बन्ध है और अगर तुम उसको मानने को तैयार नहीं तो मैं कौन होता हूँ? इसलिए जब भी उनका कोई आदेश होता है, सब सहर्ष स्वीकार करते हैं। कदाचित् मन के विरुद्ध भी कोई आदेश हो तो भी सारे शिष्यगण इस मनोभाव से उस आदेश को स्वीकार लेते हैं कि गुरु की छाया में रहने के लिए यही एक मार्ग है। वह जो भी आदेश देंगे वह हमारे मन के अनुकूल भले ही न हो, पर हमारे हित के लिए जरूर है और यही बुद्धि हमें मार्ग से जोड़े रखती है।
  10. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि आचार्यश्री बिल्कुल ही रसहीन आहार लेते हैं, इसका क्या कारण है? - श्री अशोक जैन, झिरौता, किशनगढ़ समाधान - एक ही पंक्ति में आपकी बात का जवाब दूंगा। जिन्हें भीतर का रस मिलने लगता है, उनको बाहर के रस में रस नहीं आता।
  11. शंका - गुरुवर के चरणों में कोटि कोटि वन्दन। आचार्यश्री के विहार के प्रसंग में आपने बहुत संस्मरण सुनाए। वह जब भी उनका मन करता है, पीछी कमण्डल उठाकर चल देते हैं। ऐसा भी प्रसंग आया है एक बार तारंगा जी में दस बजे के करीब जब चौके व आहार का टाइम होने वाला था, तब वह ऊपर से उतरकर नीचे जो तपोवन था उसकी तरफ निकल गए। तो क्या ऐसे और भी कुछ प्रसंग है उनके जीवन के? -डॉ.( श्रीमती ) सन्तोष गोधा, उदयपुर समाधान - देखिए ! ये प्रसंग तो कब घट जाएँ, कोई पता नहीं। यह उनका कर्म है। वह अपनी चर्या के विषय में कभी नहीं सोचते। जब निकलना होता है, निकल जाते हैं। वह यह भी नहीं देखते कि इतने बड़े संघ की व्यवस्था कैसे होगी? मैंने कल कहा था कि वह व्यवस्था की तो सोचते ही नहीं और हम लोगों से भी कहते हैं कि व्यवस्था को मत देखो, अवस्था देखो।व्यवस्था अपने आप बन जाएगी। ऐसे अनेक प्रसंग हैं। कई बार ऐसा हुआ कि लोग तो अपनी। तैयारी करते रहे और गुरुदेव चले गए, विहार कर गए। इसी तरह कई ऐसे प्रसंग हैं कि पूरा नगर सज गया दुल्हन की तरह। नगर सजा है। कि गुरुदेव इधर से निकल रहे हैं और गुरुदेव पूरे शहर को क्रॉस करके चले गए। वहाँ रुके नहीं, बाहर से ही निकल गए। उनका विहार, उनकी जो चर्या, उनकी जो क्रिया है, वह सब उनके हिसाब से होती है। उसमें किसी भी प्रकार का दबाव नहीं देखते हैं। मैंने स्वयं देखा, मण्डला शहर पूरा सजा हुआ था, गुरुदेव नहीं रुके, शहर को क्रॉस करके चले गए। उस समय तो मैं भी था। ऐसे ही तीन बार सिलवानी के बाजू से निकल गए, ऐसा होता है। यह उनकी चर्या है, यह उनकी अलौकिक वृत्ति का उदाहरण है। कई बार हम लोगों को भी उनके निकल जाने के बाद पूछना पड़ा कि गुरुजी किधर गए?
  12. शंका - गुरुदेव के चरणों में नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु! गुरुदेव! आचार्यश्री में एक अद्भुत कला है, वह अपने शिष्य को कैसे तराशते हैं? कृपया प्रसंग सुनाइए। - श्री अनिल मेहता, उदयपुर समाधान - देखिए! शिल्प को कैसे तराशते हैं? जैसे शिल्पी तराशता है, वह बहुत समय देते हैं। मैं औरों की बात नहीं कहता, मैं अपनी बात कहता हूँ। मेरा जिस दिन संघ में प्रवेश हुआ, ड्रेस बदली, मैं आशीर्वाद लेने गुरुचरणों में गया, उन्होंने तत्क्षण मेरे साथी ब्रह्मचारी से कहा कि इन्हें तत्त्वार्थ सूत्र दो और मुझे तत्त्वार्थ सूत्र से पढ़ाना शुरु कर दिया। मेरी जैनधर्म की शुरुआत तत्त्वार्थ सूत्र से हुई, उस समय मैं 24 भगवान् का नाम भी नहीं जानता था। प्रभु पतित पावन की विनती भी नहीं आती थी। पर जो भी हो, गुरुदेव ने मुझे पहले दिन चार सूत्र पढ़ाए। मैंने दूसरे दिन अर्थसहित गुरुदेव को सुना दिए। उसी समय विहार भी चलता था और पढ़ाते भी थे। वह समय देते हैं, संस्कार देते हैं, शिक्षा देते हैं और क्षमता बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उनके सम्बोधन से हम लोगों का मनोबल बहुत बढ़ता है और जितना वह बोलते हैं उससे ज्यादा खुद करते हैं, तो उनको देख-देखकर ही हम लोगों के मन में ऐसी उमंग हो जाती है और हम लोगों का काम हो जाता है। इसका परिणाम है कि संघ के सब साधु बहुत पक्के होते हैं। आपने पूछा है कैसे तैयार करते हैं? मुझे याद है, 1985 में नैनागिरि से संघ से पहली बार मेरी उपस्थिति में क्षमासागर जी, गुप्तिसागर जी, योगसागर जी का विहार हुआ सागर के लिए। गुरुदेव नैनागिरि में थे। पहली बार विहार हुआ, सागर के कुछ लोगों ने, जिनमें क्षमासागर जी महाराज के पिताश्री भी थे, और लोग भी थे, गुरुदेव के चरणों में रात में वैय्यावृत्ति करते-करते कहा- महाराज! आपने कैसे निकाल दिया इन लोगों को? अभी तो यह बहुत छोटे हैं, आपने विहार क्यों करा दिया? गुरुदेव ने रात में इशारा करके कहा- कब तक उंगली पकड़े रहेंगे? फिर कहा- ठोक बजाकर देख लो, मैंने तैयार किया है, तब भेजा है। और निश्चित ही उनके द्वारा जो भी निर्मित होता है, वह परिपक्व होता है और जहाँ परिपक्वता होती है वहाँ सारा काम अपने आप हो जाता है।
  13. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु! महाराजश्री! मेरी जिज्ञासा है कि आचार्यश्री के अपने शिष्य व माता-पिता की समाधि होने के पूर्व व बाद में क्या प्रतिक्रिया रही व उनके मनोभाव कैसे रहे? - श्रीमती सुषमा जैन समाधान - आचार्यश्री के माता-पिता की समाधि हुई, मल्लिसागर जी की और समयमती जी की। आपने पूछा- उस समय उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई? मुझे नहीं मालूम, क्योंकि मैं उस समय उपस्थित नहीं था। लेकिन जैसा मैंने सुना है, मल्लिसागर जी महाराज गुरुदेव के दर्शनार्थ ईसरी में आए थे। गुरुदेव ने उन्हें एक साधु की तरह ही देखा, यह नहीं देखा कि यह मेरे जन्मदाता हैं जो मुनि बनकर आए हैं। आपने पूछा है कि उस सल्लेखना की घड़ी में उनकी क्या प्रतिक्रिया रही होगी? क्योंकि मैं उस समय प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं था और न मैंने। किसी से कुछ प्रतिक्रिया के बारे में सुना, फिर भी आचार्य गुरुदेव को मैंने जितना समझा है उसके हिसाब से मैं केवल यही कह सकता हूँ। कि उनके अन्दर भी यही प्रतिक्रिया होगी, जो एक किसी सामान्य साधक की समाधि से होती है। उनके मन में उतनी ही प्रसन्नता होगी। कि इस जीवन में अपने जीवन के कल्याण का मार्ग खोज लिया है, शायद इससे अधिक प्रतिक्रिया आचार्यश्री के द्वारा तो नहीं हुई होगी।
  14. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! जब आचार्यश्री के संघस्थ मुनि, संघ से विदा होते हैं, तब आचार्यश्री की उनसे क्या अपेक्षा होती है? - श्रीमती पुष्पा गंगवाल, इन्दौर समाधान - देखिए! आचार्यश्री का जीवन बड़ा निरपेक्ष है। वह कोई अपेक्षा नहीं रखते, पर वह एक ही बात कहते हैं- जो तुम्हारा लक्ष्य है, जो तुम्हारा उद्देश्य है, उसकी पूर्ति करते रहना। उसमें किसी भी प्रकार की कमी न हो और वह अपने शिष्यों से एक ही बात कहते हैं- प्रभावना हो, यह बहुत अच्छी बात है, पर अप्रभावना न होना सबसे बड़ी बात है। ऐसा कोई काम न करना जिससे किसी प्रकार की अप्रभावना हो। हालांकि वह हम लोगों को बहुत उत्साहित भी करते हैं। भीतर-बाहर दोनों जगह से बड़ा स्ट्राँग करते हैं। उनका जो मोटिवेशन मिलता है, वह हम लोगों को बड़ा मजबूत बना देता है, परन्तु उनके अन्दर ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है कि तुम जाओ, बहुत धूम मचाओ, कोई बड़ा काम करो। ऐसा नहीं है, लेकिन हाँ! वह जानते हैं कि कौन क्या काम कर सकता है? कभी-कभी उनकी कुछ अपेक्षाएँ भी दिखी हैं, उन अपेक्षाओं में वह अपना वीटो लगा देते हैं। दो प्रसंग मैं आप लोगों को सुनाना चाहूँगा कि वह किस तरह से वीटो लगाते हैं। सन् 2005 में हमारा चातुर्मास हजारीबाग में था। चातुर्मास के उपरान्त नवम्बर माह तक हमारे कार्यक्रम सुनिश्चित थे। पिच्छीपरिवर्तन भी शेष था। उसकी डेट डिक्लेयर थी। हजारीबाग का वह चातुर्मास सिर्फ जैन समाज ने नहीं कराया, सर्व समाज ने कराया था। उसके संयोजक थे- बृजमोहन केसरी जैन। समाज ने आन्तरिक व्यवस्था की और सर्व समाज ने मिलकर चातुर्मास करवाया, जो एक अलग प्रकार का माहौल था। उन लोगों की योजना थी कि रामायण व गीता जैसे विषय पर हमारा प्रवचन छठ पर्व के बाद एक बहुत बड़े स्टेडियम में करवाएँ, जिसमें 50 से 60,000 लोगों की गैदरिंग हो। पूरी तैयारियाँ थीं, हमने भी इसके लिए आशीर्वाद दे दिया। इस बीच कोलकाता में एक पञ्चकल्याणक होना था। वह लोग मुनिसंघ का सान्निध्य चाहते थे, गुरुदेव के पास चले गए। गुरुदेव उस समय बीनाबारहा में थे। कोलकाता के लोग हमारे पास आए गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर। सच पूछो तो हमारी इच्छा कोलकाता जाने की नहीं थी, लेकिन गुरुदेव से तो कुछ बोल नहीं सकते। हमने अपने ब्रह्मचारी को गुरुचरणों में भेजा और कहा कि हमारे कार्यक्रम अभी तय हैं, बीच में कैसे जाएँ कोलकाता? गुरुदेव ने कहा- उनसे कहो, इस कार्यक्रम से ज्यादा जरूरी वह कार्यक्रम है और प्रमाणसागर जी जाएँगे, सब ठीक कर लेंगे। उस समय मैं था और मेरे साथ एक क्षुल्लक जी थे। अब जाना है तो कोई उपाय नहीं। मेरे पास 3 तारीख को मैसेज आया, 4 तारीख को केशलोंच किया, 5 तारीख को पिच्छी-परिवर्तन किया और उसी दिन विहार कर दिया। बिना सूचना के सारा कार्यक्रम निरस्त बोल दिया कि भाई अब नहीं हो सकता। 20 दिन में कोलकाता पहुँचा और कोलकाता में जो गुरुदेव के मन में भावना थी, वह सब साकार हो गई। वहाँ का पञ्चकल्याणक तो सानन्द सम्पन्न हुआ, लेकिन मुनियों का निर्बाध विचरण शुरु हो गया। जब मैं कोलकाता गया, सड़क पर चल रहा था, लोगों ने मुझे घेर लिया और घेरकर ले जाने लगे, क्योंकि उस समय कुछ मुनियों को सुबह चार बजे कपड़े के घेरे में निकलना पड़ा था। कोलकाता में ऐसी स्थिति थी कि दिगम्बर साधुओं का विहार ऐसे नहीं हो पाता था। मैं घेरे में खड़ा हो गया, मैंने कहा- मेरे आगे सिर्फ एक झण्डे वाला चलेगा। मेरे पीछे सब काँपने लगे, पर मैं उसी स्थिति में गया। गुरुदेव के आशीर्वाद से वहाँ कुछ भी गड़बड़ नहीं हुई। बहुत अच्छे से वहाँ हमारा प्रवास रहा। उस समय हम कोलकाता 25 नवंबर को पहुँचे थे और 19 अप्रैल को हम वहाँ से निकले। लगभग छह महीने का प्रवास हुआ और इस बीच कोलकाता में ऐसी प्रभावना हुई कि हमने ढाई ढाई किलोमीटर तक अंजलि लेकर अकेले विचरण किया। आज उसका यह सुपरिणाम है कि पूरे कोलकाता में कोई भी मुनि महाराज कहीं भी आ सकते हैं, जा सकते हैं। उन्होंने मुझे भेजा तो हमने कहा जरूर उनके मन में कोई बात है। हमने भी उसी तरीके से कोलकाता में सार्वजनिक प्रवचन माला की। पहली बार दिगम्बर मुनि के वहाँ के पार्को में, चाहे देशबन्धु पार्क हो, गुलमोहर पार्क हो या नवरत्न गार्डन हो, इन पार्को में हमारी प्रवचन-मालाएँ हुईं। उनमें जैन-अजैन हजारों की संख्या में आए। हमने आहारचर्या में भी इस तरह का कोई समझौता नहीं किया। वहाँ के कार्यकर्ता घबराए कि महाराज! कैसे होगा? हमने कहा- जो सामने है, वह तुम्हें दिख रहा है और जो होने वाला है, वह हमें दिख रहा है। चिन्ता मत करो, जो हम कह रहे हैं। वैसा करो, सब ठीक होगा और आज वह लोग मानते हैं। मैं तो यह समझता हूँ कि वह उनकी दूरदर्शिता थी। उन्होंने वीटो लगाकर हमें कोलकाता भेजा और उसका परिणाम आ गया। दूसरा, दो साल पहले जयपुर का ताजा प्रकरण सबको पता है। उन्होंने हमें फरवरी में ही संकेत दे दिया था, जयपुर की तरफ जाना है। अवधारणात्मक नहीं था, हम लोग निकले, सोचे, जयपुर है ठीक है चतुर्मास के बाद तक चले जाएँगे। हम लोग कानपुर आकर पहुँचे, गर्मी प्रचण्ड थी। खबर आ गई कि यहाँ रुकना नहीं है, आगे जाना है। चले, हम लोग सोचे, आगरा में चौमासा कर लेंगे, अगल-बगल कहीं भी कर लेंगे मानसिकता नहीं थी कि जयपुर जाना है और उनकी तरफ से हमारे पास ऐसा कोई आदेश भी नहीं था कि जयपुर जाना है। अगर जाना होता तो फिर बात ही नहीं थी। हम सोच रहे थे कि अभी गुंजाइश है। जब सम्पर्क किया तो उन्होंने एक ही वाक्य कहा कि जयपुर ही जाना है और एक लम्बे अन्तराल के बाद हमें एक स्थानविशेष का संकेत मिला। गुरुदेव प्रायः मुझे मेरे ऊपर ही छोड़ देते हैं। 12-13 साल झारखण्ड में रहा, एक-दो अपवाद को छोड़कर उन्होंने हमेशा मेरे ऊपर ही छोड़ा कि जहाँ अनुकूलता व उपयोगिता हो, वहाँ कर लो, पर इस बार कहा- जयपुर ही जाना है। हम जयपुर आए तो जयपुर आने के बाद जो कुछ हुआ, वह आप सबके सामने है। शायद उनके दिमाग में कुछ था कि जयपुर में इनके निमित्त से कुछ हो सकता है और सल्लेखना-संथारा के प्रकरण में धर्म बचाओ आन्दोलन की सफलता, मैं समझता हूँ उनके ही दूरदर्शी निर्णय का प्रताप है। वह इस तरह का वीटो भी कई बार लगा देते हैं और सब शिष्य सरल भाव से स्वीकार करते हैं। हमारे यहाँ जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का रिवीजन नहीं होता, वैसे ही हम लोग गुरुदेव के निर्णय को बदलने की भावना तक नहीं रखते। वह एक बार जो कह दें, सो कह दें। यह केवल धरती पर आचार्य विद्यासागर का कमाल है, और किसी का नहीं।
  15. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न है कि आचार्यश्री सभी मुनियों को चातुर्मास की आज्ञा देते हैं या महाराज अपने हृदय से करते हैं? - श्रीमती अनीता जैन समाधान - देखो, हमारे संघ के सभी साधु आचार्य महाराज की आज्ञा के बिना हिलते भी नहीं हैं। वह जहाँ की आज्ञा देते हैं, हम लोग वहीं जाते हैं। एक विशेषता और है उनकी कि वह कभी हम लोगों से पूछते भी नहीं हैं, राय भी नहीं मागते हैं कि तुम कहाँ करना चाहते हो? तुम्हारे पास कौन-कौन लोग आए थे? ऐसी कभी राय नहीं लेते। उनको जहाँ देना होता है, वहीं दे देते हैं और पूरा संघ उनकी बात को सिर माथे लेकर स्वीकारता है। एक उदाहरण है कि उनका आदेश आता है और उनके आदेश को हम किस प्रकार निर्वाह करते हैं। सन् 1991 की बात है, हम लोग मध्यप्रदेश के गोटेगांव में थे। गुरुदेव मुक्तागिरि में थे, चातुर्मास हेतु सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा- मैं 500 किलोमीटर दूर हूँ, तुम लोग समझदार हो, अपनी अनुकूलता, उपयोगिता देखकर जहाँ चाहो, कर लो। हम लोगों ने सोचा- चलो गुरुदेव ने हम लोगों पर छोड़ा है तो सिवनी के बगल में एक छोटा-सा गाँव है छपारा, वहाँ पचासी घर की समाज है। हमने सोचा कि यह लोग बहुत दिनों से लगे हैं, चलो इस बार छपारा में चातुर्मास करें। मन में एक लोभ यह भी था कि इसी बीच अगर गुरुदेव मुक्तागिरि से रामटेक आ जाएँ तो दर्शन का भी सौभाग्य मिल जाएगा। हम लोगों ने छपारा के लिए विहार किया। छपारा के लोग बड़े उत्साह के साथ विहार करा रहे थे और छपारा से 27 किलोमीटर पहले लखनादौन पहुँचे। इसी बीच एक ब्रह्मचारिणी बहिन जी आईं जो आर्यिका बन गई हैं-आदर्शमति जी। बोलीं महाराज आप लोग कहाँ जा रहे हैं? हमने पूछा- क्या बात है? हम लोग तो छपारा का विकल्प लेकर चल रहे हैं। तो वह बोलीं- छपारा को तो महाराजश्री ने प्रशान्तमति व पूर्णमति माताजी के लिए दिया है। हम लोग वहीं रुक गए। वह जबलपुर में थीं, वहाँ से 100 किलोमीटर पीछे, पर उनके लिए दिया है तो अब तो वही जाएँगी, हम लोग नहीं जाएँगे। हुआ यह था कि हम लोग अपनी बात गुरुदेव को कम्युनिकेट नहीं कर पाए थे कि हम लोग कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने सोचा होगा कि यह लोग छोटी जगह तो जाएँगे नहीं, तो उन लोगों को दे दिया। अब उनको दे दिया, हम एकदम नजदीक पहुँच गए। छपारा के लोगों को काटो तो खून नहीं, उनका सारा उत्साह खत्म। हमने कहा- भाई! हम गुरुदेव से उनके निर्णय को परिवर्तित करने के लिए सपने में भी नहीं कहेंगे। अगर गुरुदेव ने उनको छपारा दिया है तो छपारा वही जाएँगी। हम लोग वहीं रुके। संयोग से कटनी के लोग उसी दिन हमारे पास निवेदनपूर्वक आए। हमने अपने ब्रह्मचारी को साथ में भेज दिया। गुरुदेव को बताया कि हम लोग यहाँ तक आ गए थे। फिर मालूम पड़ा है कि माताजी को छपारा जाना है, तो हम लोगों को कहाँ जाना है? उन्होंने कहा- ठीक है, तुम लोग कटनी से सतना चले जाओ। 300 किलोमीटर रिवर्स हम लोगों का सतना चातुर्मास हुआ। ऐसा ही होता है और इसी प्रकार से पूरा संघ गुरु आज्ञा से बंधा हुआ होता है।
  16. शंका - महाराजश्री! मेरा नाम नन्दिनी जैन है, मैं फरीदाबाद से आई हूँ। मैं अपने दादाजी श्री स्वराज जैन एवं उनके पूरे परिवार की तरफ से आपको नमोऽस्तु करती हूँ। महाराजश्री! मेरे दादाजी बहुत धार्मिक हैं और उन्होंने नियम ले रखा है कि वह एक दिन में तीन बार से ज्यादा अन्न नहीं लेंगे और उन्होंने रात्रिभोजन का भी त्याग कर रखा है। परन्तु डायबिटिक पेशेंट होने के कारण डॉक्टर उनके हर चेकअप में उन्हें कहते हैं कि आपको रेगुलर इण्टरवेल्स में कुछ न कुछ खाना है और रात्रि भोजन भी करना है, पर वह नहीं सुनते। अगर हम उनके साथ जबरदस्ती करते हैं तो वह हमसे गुस्सा हो जाते हैं, नाराज हो जाते हैं। मेरी दो शंकाएँ हैं, पहली कि हम जो उन्हें रात में खाना खाने के लिए जिद करते हैं, क्या उससे हमें कोई पाप लगता है? और दूसरी कि हम और वे ऐसा क्या करें कि जिससे उनका धर्म भी चलता रहे और वह स्वस्थ भी रहें? - कु. नन्दिनी जैन, फरीदाबाद समाधान - बहुत अच्छा सवाल किया है। मैं आपसे कहूँगा कि डॉक्टरों से पूछो कि जो डायबिटीज के पेशेण्ट हैं, वह डॉक्टरों की सलाह के अनुसार दिनभर खाते रहते हैं, दवाइयाँ भी खाते हैं, वे ज्यादा स्वस्थ हैं या नियम से खाने वाले तुम्हारे दादाजी ज्यादा स्वस्थ हैं। समझ गई? खाने से ही व्यक्ति ज्यादा स्वस्थ नहीं होता, उसमें हमारा अपना पुण्य और पाप भी है। अगर तुम्हारे दादाजी ने अपने जीवन को इस तरह से सन्तुलित कर रखा है, तो बहुत अच्छा है, क्योंकि रात में नहीं खाने से उनकी कभी तबीयत तो नहीं बिगड़ी न? इसलिए तुम्हारे दादा की उम्र खाने की नहीं है, छोड़ने की है। उनको निभाने दो और उनके लिए अनुमोदना करो, रोको मत। किसी के नियम को निभाओगे तो लाभ मिलेगा और किसी का नियम तोड़ने में निमित्त बनोगे तो पाप के भागीदार बनोगे। इसलिए एक तो उनके नियम को निभाने में सहायक बनो और अपने लिए एक सीख लो कि अपने जीवन में जब भी नियम में आगे बढ़ोगी तो किसी प्रकार का कम्प्रोमाइज नहीं करोगी।
  17. शंका - मेरे अन्तर्मन में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणो में नमोऽस्तु अर्पित करते हुए मैं आपके पावन चरणो में कोटि-कोटि नमन अर्पित करता हूँ। पूज्य मुनिवर! वर्तमान जीवन का अन्त उत्तम समाधिमरण पूर्वक हो, इसके लिए हमें क्या क्या तैयारी करनी चाहिए ? - डॉ. सत्येन्द्र जैन, दमोह समाधान - देखिए समाधिमरण की तैयारी में सबसे पहली तैयारी है कि हम अपने परिणामों के प्रहरी बने। यथासम्भव हम अपने मन को निर्मल बनाने की कोशिश करें। एक मरण-समाधि है, एक चित्त-समाधि है। मरण की समाधि तो अन्त में होती ही है, मगर चित्त की समाधि हर पल होनी चाहिए। हमारा चित्त शान्त हो, संयत हो, सन्तुलित हो और स्वस्थ हो, यह प्रयास हमारा होना चाहिए। उसे बनाए रखने के लिए हमें निमित्तों से अप्रभावित रहने का प्रयास करना चाहिए। भेद-विज्ञान की भावना हर समय भाते रहना चाहिए। यह एक प्रकार से कषाय-सल्लेखना का ही प्रकार है। अपने शरीर से जितना बन सके, त्याग-तपस्या का अभ्यास करते रहना चाहिए। जितना त्याग कर सकें, जितनी तपस्या कर सकें, शरीर व साधना के मध्य सन्तुलन बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। फिर जब समय आए। तो समाधि ले सकते हैं।
  18. शंका - गुरुदेव! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! गुरुदेव! मेरा प्रश्न कल के ही प्रश्न से जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार गलती होने पर गुरुदेव प्रायश्चित देते हैं उसी प्रकार जब वह प्रसन्न होते हैं, तो क्या करते हैं? - श्रीमती साधना जैन झिरौता, किशनगढ़ समाधान - देखिए, प्रायश्चित देना आचार्य का दायित्व है। आपने पूछा कि प्रसन्न होकर वह कैसे प्रोत्साहित करते हैं? वह हमेशा प्रोत्साहित करते हैं। अगर कभी किसी का मन किसी कारण से बुझता हो तो कई बार वह एकान्त में बुलाकर भी मार्गदर्शन करते हैं। और उस घड़ी में ऐसा लगता है कि इनसे अच्छा मोटिवेटर कोई नहीं है। उन के वचनों में ऐसा जादू होता है कि सामने वाला अपने आप प्रोत्साहित हो जाता है और मुझे तो ऐसा लगता है कि उनकी वाक्शक्ति कुछ ऐसी है। मैं अपने जीवन का एक अनुभव बताता हूँ। सन् 1986 में मैं जब क्षुल्लक अवस्था में था, मेरे मन में एक बात कुछ दिनों से रह-रहकर आ रही थी कि मैं मुनि नहीं बन पाऊँगा। अपने आप आती थी कि मैं मुनि नहीं बन पाऊँगा और बनूंगा तो मुनि पद का निर्वाह नहीं होगा। करीब एक महीने तक यह द्वन्द्व मेरे भीतर चला। मैंने अपने मन की व्यथा गुरुचरणों में जाकर एकान्त में प्रकट की और गुरुदेव से कहा कि गुरुदेव कुछ दिनों से ऐसा हो रहा है। मुझे लग रहा है कि मैं मुनि नहीं बन पाऊँगा, अब मेरा क्या होगा? उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया, मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जाएगा। तुम मुनि ही नहीं, अच्छे मुनि बनोगे और मुझसे कहा कल से मेरे बाजू में ही सोया करो। सोता तो पहले भी उन्हीं के कक्ष में था, पर थोड़ा दूर सोता था। बोले- अब बाजू में ही सोया करो। और उस दिन की रात से पता नहीं क्या जादू हुआ उनका, बस ऐसा उत्साह हुआ कि मुझे कब मुनि बनना है! कब मुनि बनना है! कब मुनि बनना है! मुझे लगता है कि यदि उस घड़ी में उनके पास नहीं गया होता, तो ऐसी स्थिति नहीं होती।
  19. शंका - मेरे अन्तर्मन में विराजमान परमपूज्य गुरुवर को अनन्त बार प्रणाम करते हुए पूज्य मुनिवर के पावन चरणों में भी मैं अनन्त बार प्रणाम करता हूँ। पूज्य मुनिवर! अनेक बार मैंने देखा कि गुरुवर दिनभर संघ से सम्बन्धित समस्याओं का भी समाधान करते हैं, सबकी बात सुनते हैं, शाम को भी आवाज सुनते हैं, परन्तु अपने आवश्यक सामायिक आदि उत्कृष्ट रूप में कैसे नि:स्पृह भावों से करते हैं? - डॉ. सत्येन्द्र जैन, दमोह समाधान - देखिए, जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होता है, उसकी प्राथमिकता ही कुछ और होती है। हमें व आपको ऐसा लगता है कि वह संघ, समाज व अन्य निर्देशन कार्य में अपना समय देते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि उनकी प्राथमिकता यह नहीं है। उन्होंने अपनी पहली प्राथमिकता अपनी साधना को दे रखी है। इसलिए सभी चीजें सेकण्डरी हो जाती हैं। वे प्रमुख होती हैं जिसका वह पालन करते हैं।
  20. शंका - आचार्यश्री के अन्दर ऐसा क्या है? कोई सम्मोहन है, कोई मन्त्र प्रयोग करते हैं कि हम सब एक झलक के लिए उनके वशीभूत हो जाते हैं? - श्री शोभित जैन, जयपुर समाधान - बस मैं तो यही मानता हूँ कि यह एक करिश्मा है। यह करिश्मा उनके त्याग व तपोमय महान् व्यक्तित्व का है, जो सहज स्फूर्त होता है, अनचाहे होता है। कल मैंने बताया था, उन्होंने कभी मन्त्रप्रयोग नहीं किया, किन्तु उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है कि हर कोई मन्त्रमुग्ध हो जाता है। मैं एक दृश्य का साक्षी बना था दमोह में। गुरुदेव विराज रहे थे, कुण्डलपुर के महोत्सव के ठीक पहले। सन् 2001 की बात है, हमने दमोह में गुरुदेव की अगवानी की, आहारचर्या करके साथ-साथ लौटे। गुरुदेव ऊपर छत पर थे। वहाँ के एक मंदिर में शायद नन्हे मंदिर था, नन्हे मंदिर के प्रांगण में करीब 15 से 20000 लोग होंगे और गुरुदेव छत पर और मैं नीचे दालान में बैठ गया। मैं लोगों की एक्टिविटी को देख रहा था, लोग चातक की तरह गुरुदेव की ओर निहार रहे थे। करीब-करीब 15 से 20 मिनट हो गए, मैं ऐसे ही देखता रहा। फिर मुझसे रहा नहीं गया और मैं ऊपर गया, गुरुदेव को प्रणाम किया और कहा - गुरुदेव! देखो, कितनी देर से यह लोग आपकी एक झलक पाने के लिए तरस रहे हैं। आपको चातक की तरह देख रहे हैं। मैं इतनी देर से देख रहा हूँ, कम से कम एक बार आशीर्वाद तो दे दो। मेरे कहने से उनकी करुणा मुखरित हो गई, उन्होंने दोनों हाथ ऊपर करके आशीर्वाद दिया, उस घड़ी मैंने लोगों का जो उत्साह देखा, वह अद्भुत था। यह उनके पुण्य का प्रताप है। महान् व्यक्तियों का व्यक्तित्व ही अपने आप खींचता है, यही उनका आकर्षण है।
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