शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! महाराज जी! गुरु भगवन्तों के साथ में सबसे ज्यादा आनन्द भक्तों को जो आता है, वह उनके साथ विहार में चलने में आता है। आपने कई वर्षों तक आचार्यश्री के साथ विहार किया है। विहार से जुड़ा हुआ कोई संस्मरण यदि आपको याद है, तो हम सुनना चाहते हैं।
- श्री अभिनन्दन जैन, पिडावा
समाधान - देखो, गुरुदेव के साथ विहार करने का योग तो कई बार मिला, काफी लम्बे समय तक मिला। पाँच साल तक तो लगातार संघ के साथ ही विहार करने का सौभाग्य मिला। गुरुचरणों में ही रहने का अवसर मिला। विहार में कई तरह के अनुभव होते हैं लम्बी थकान, ऊबड़-खाबड़ सड़क और कभी-कभी सेवकों द्वारा दी गई गलत सूचना बड़ी उलझन पैदा कर देती है। उस घड़ी में मैंने गुरुदेव की जिस समता व सहजता को देखा, आज मैं अगर सिर्फ विहार के संस्मरण सुनाऊँ तो हो सकता है पूरा सत्र इसी में निकल जाए।
इतनी सारी बातें आज मेरे मानस-पटल पर तैरने लगी हैं, मैं सुनाना शुरु करता हूँ। दो-तीन प्रसंग जरूर सुनाऊँगा जो बड़े प्रेरक
एक बार चौबीस किलोमीटर चलना था। मेरे पाँव में फफोले थे, गुरुदेव के पाँव कट गए थे, खून की धारा बह रही थी। चर्चा-चर्चा में मुँह से निकल गया कि कैसी सड़क से ले आए, कितने कंकड़ हैं। गुरुदेव ने बात को काटते हुए कहा कि नाराज मत हो। उस पथिक की क्या परीक्षा जिसके पथ में शूल न हों। उस नाविक की क्या परीक्षा जिसमें धारा प्रतिकूल न हो। उसे मत कोसो, जिसने तुम्हें निर्जरा करने का मौका दिया है। मुस्कुराते चलो, आगे बढ़ो।
सन् 1993 में जब बीनाबारहा से रामटेक की ओर विहार हो रहा था उसके मध्य सिवनी और खबासा के बीच में एक गाँव था। कुरई। घाटी पड़ती है, वहाँ चल रहे थे। सड़क नई बन रही थी। वहाँ मोटी-मोटी गिट्टियाँ थी। जून का महीना था और जो गिट्टियाँ थी वह नस्तर की तरह चुभ रही थीं। काफी लम्बा विहार करके वहाँ तक पहुँचे थे। आचार्य गुरुदेव, हमारे, समयसागर जी और कुछ मुनिराजों के पाँव छलनी हो गए थे। एक-एक कदम पर खून गिर रहा था। मैंने उस चुभन युक्त रास्ते पर चलते-चलते गुरुदेव से कहा कि तीर्थंकरों के लिए बहुत अच्छा सिस्टम है। उन्होंने पूछा क्या? हमने कहा उनके लिए फूल बिछ जाते हैं। उन्होंने कहा- चार अंगुल ऊपर चलने की क्षमता ले आओ, तुम्हारे लिए भी बिछ जाएँगे।
सन् 1986 की बात है। मैं उन दिनों क्षुल्लक था। मड़ावरा से एक गाँव नैकोरा जाना था, सड़क मार्ग से दूरी 12 किलोमीटर बताई थी। गुरुदेव चले, 3-4 किलोमीटर चले कि कुछ भाई लोग मिले। वह बोले महाराज! इस तरफ से 3 किलोमीटर शॉर्ट है। उनकी बात सुनकर मूल रास्ते को छोड़कर साइड के रास्ते को पकड़ लिया। 3 किलोमीटर चलने के बाद एक गाँव आया 'लोहरा' उसके बाद 2 किलोमीटर और चले तो आया 'डोंगरा' दोनों जगह मंदिर के दर्शन किए, फिर वहाँ से चले, चलते ही जा रहे हैं नैकोरा का कोई पता ही नहीं। 12 किलोमीटर चलना था, 16 किलोमीटर से ज्यादा विहार हो गया। नैकोरा का पता नहीं, गुरुदेव देखें कि अब दिन अस्त होने वाला है, स्थान का कोई ठिकाना नहीं। वहाँ एक मैदान जैसा था, वहाँ जाकर बिना पाटा व चटाई के बैठ गए। मुर्मिला इलाका था, कंकड़ थे और बिना पाटा व बिना चटाई के बैठ गए। अप्रैल का पहला सप्ताह था, गर्मी बहुत थी, हल्की-फुल्की लू चल रही थी तो सभी लोगों ने घी लगा दिया। रातभर चीटियाँ उनके शरीर पर चढ़ गईं। सुबह होने पर सभी लोगों ने सोचा कि गुरुदेव 7-8 किलोमीटर दूर क्षेत्र है ‘नवागढ़ वहाँ आहार करेंगे और गुरुदेव सीधे चले तो 21-22 किलोमीटर चलकर सीधे अजनौर पहुँच गए। रात में इतनी थकान, पहले दिन इतने चले कि सो नहीं पाए, चीटियों ने कष्ट दिया। सब लोग कहने लगे कि किन लोगों ने रास्ता बता दिया? जिन लोगों ने रास्ता बताया उन्हें गालियाँ देने लगे। हम साधुओं में से भी कुछ को गुस्सा आ रहा था, कोस रहे थे, पर क्या करें। गुरुदेव ने कहा किसी को मत कोसो, उनको धन्यवाद दो कि उन्होंने हमें तपस्या करने का एक अवसर दे दिया।
मैंने उन्हें देखा है कि वे सदा प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रसन्नता। रखने का स्वभाव रखते हैं, जब कभी कोई ऐसी बात होती है तो कभी भी उल्टी प्रतिक्रिया नहीं देते। सन् 1993 की बात है, बेलखेड़ा से तारादेही जाना था। एक सीधा रास्ता जो मुझे बताया कि लगभग 30 किलोमीटर का पड़ता है, बोले पहाड़ी के रास्ते से चलेंगे तो 18 किलोमीटर में हो जाएगा। फरवरी का महीना था, हमने पता किया और सोचा 30 किलोमीटर का रास्ता 18 किलोमीटर में होता है तो 1 दिन बचेगा। हमने वह रास्ता गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर फाइनल कर दिया। अब चले तो एक पहाड़ चढ़े, उतरे, फिर एक और पहाड़ चढ़े, उतरे। वह 18 किलोमीटर नहीं लगभग 25-26 किलोमीटर हो गया। उस दिन पूरा संघ कई हिस्सों में बँट गया। तीन महाराज ही तारादेही पहुँच पाए। गुरुदेव, हम और छह अन्य मुनिराज तारादेही से तीन किलोमीटर पहले एक गाँव में रुक गए, शाम होने को थी। एक सरकारी स्कूल मिला, जिसके दरवाजे खिड़कियाँ अन्दर से लगाने की व्यवस्था नहीं थी। बड़े-बड़े सेंध थे, रोशनदान टूटे हुए थे, अंग्रेजी खप्पर वाला मकान था और पाँच-सात खप्पर भी टूटे हुए थे। शीत लहर प्रचण्ड थी। हम छह महाराज थे, चारों के चारों ही बिना चटाई वाले। इधर सारे महाराज हमें कोसे कि हमने कैसा रूट तय किया। अब हम क्या बोलें? भाई गलती है, हमें मालूम तो था नहीं। समय बचे, शार्ट रास्ता है इस भाव से हमने बात कर ली। सुबह हुई गुरुदेव के चरणों में गए, उनको नमोऽस्तु किया। वैसे एक ही कमरा था, उसी में सब लोग थे तो गुरुदेव को थोड़ी सी ओट कर दी थी। उन्होंने पूछा कैसी कटी रात? मैंने कहा, सुबह की प्रतीक्षा में। उन्होंने एक शब्द कहा कि रास्ता बताने वाले पर गुस्सा तो नहीं आया? हमने कहा गुस्सा हमें तो नहीं आया पर यह मुनिराज हम पर गुस्सा कर रहे हैं, आप समझाइए इन्हें। उन्होंने कहा- देखो यहाँ तो अभावकाश योग है। हमें अच्छी भावना रखनी चाहिए, अभ्रावकाश योग यानी शीतकाल में खुले चौपाल पर रहना चाहिए। अरे इतना नहीं कर सकते हम, संहनन के निमित्त से कम से कम इन निमित्तों को स्वीकार करके योग धारण कर लिया करो। इसी में आनन्द है, जब भोगना ही है तो आनन्द से क्यों न भोगो? स्वर्णिम यात्रा ऐसे कितने प्रसंग मैं सुनाऊँ, बहुत सारे प्रसंग हैं। जब-जब ऐसे प्रसंग घटे, उनके प्रति हमारा मस्तक श्रद्धा से नम्रीभूत हुआ, क्योंकि वास्तव में वे एक महान् आध्यात्मिक पुरुष हैं, सन्त हैं। अध्यात्म को भी जीते हैं, उन्होंने अध्यात्म को आत्मसात किया है। कभी मैंने उनके मुख से ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखी जो कहें कि ऐसा क्यों हुआ। बल्कि हमारी तरफ से उन्होंने तरफदारी की। महाराजों को कहा कि इसमें इनका क्या दोष। हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, सहन करना चाहिए। हम जितना सहन करेंगे, हम उतना समर्थ बनेंगे।