शंका - महाराजश्री! नमोऽस्तु! महाराजश्री! गुरुओं के मुख से ऐसा सुनते हैं कि आचार्यश्री अपने जीवन में अगर कोई खेल भी खेलते थे तो उसमें भी अपना अध्यात्म खोज लेते थे। जैसे वे गिल्ली डण्डा खेलते थे या साइकिल चलाते थे तो इन खेलों में भी वह कैसे अध्यात्म में डूब जाते थे?
- श्रीमती शशि जैन, भोपाल
समाधान - हम लोग कहते हैं कि हर जगह अध्यात्म है। मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक जौहरी का बेटा था 25 साल का जवान बेटा, कूड़े के ढेर में लोट रहा था। लोगों ने जाकर उसके पिता से शिकायत की कि तुम्हारे बेटे को कैसा पागलपन छाया है, कूड़े पर लोट रहा है। पिता को भी बुरा लगा और बेटा लथपथ शरीर, ऊपर से नीचे तक पूरा कूड़े से गन्दा हो गया और ऐसी दशा में घर आया। पिता ने बेटे से कहा- बेटा! तूने क्या हाल कर रखा है? अपनी कैसी हालत बना रखी है? क्या दिमाग खराब हो गया? बोला- नहीं, पिताजी कुछ वजह थी। पिताजी बोले क्या वजह थी? वह बोला पिताजी! आप अपना हाथ दिखाइए। पिता ने हाथ दिखाया, बेटे ने अपनी जेब में हाथ डाला और कुछ निकालकर पिता के हाथ में रख दिया। पिता देखकर भौंचक्का रह गया (हीरा था)। पिताजी बोले कहाँ से मिला? बेटा बोला- उसी कचरे के ढेर से। पिताजी बोले तो कचरे में लोटा क्यों? बेटा बोला- पिताजी! सीधे-सीधे उठाता तो। लोगों को संशय होता, इसलिए पहले लोटा फिर स्टाइल से उठा लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि जौहरी का बेटा कचरे के ढेर में भी हीरा खोजता है। इसी तरह जिनके संस्कार अच्छे होते हैं, वे लोग कोई भी क्रिया करें, उसमें अध्यात्म निकाल लेते हैं। अध्यात्म द्रष्टा। के जीवन के साथ ऐसा होता है। गुरुदेव के बचपन से ही सारे लक्षण थे, उनकी अन्तर्दृष्टि उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन करती थी।