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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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Blog Entries posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 37☀☀
               ? "बचो शराबी से" ?
    एक दिन आचार्य श्री मोहनीय कर्म एवं मोही प्राणी के बारे में समजा रहे थे। उन्होंने कहा कि  मोह को सबसे बड़ा शत्रु कहा है, क्योंकि यह मोह ही संसारी प्राणी को चारों गतियों में भटकाता रहता है। ऐसे मोह की संगित से बचो औऱ जो मोह से बच कर निर्मोही, साधु त्यागीवार्ति बन गए है,  उन्हें मोहियों से भी बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। मोह को महामद यानि शराब की उपमा दी गयी है तो मोह को शराबी की उपमा दी।जा सकती है।
         आचार्य श्री ने आगे कहा- जैसे सभ्य लोग शराब पीने से तो बचते ही है, लेकिन शराबी की संगित से भी बचते है। शराबी से बात करना भी पसंद नही करते , वैसे ही साधुजनों को मोह तो करना ही नही चाहिए और हमेशा मोहि श्रावकों से भी बचना चाहिए। उनसे ज्यादा बात नही करनी चाहिए । अंत मे उन्होंने कहा कि मोह ओर मोहियों से दूर रहना ही।मोक्ष मार्ग हैं।
    ? अनुभूत रास्ता ?
     ? मुनि श्री कुंथुसागर  महाराज
     
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 36☀☀
               ? धन के साथ धर्म भी ?
    आज अर्थ के युग में व्यक्ति धर्म को भूलता जा रहा है,मात्र उसे अर्थ ही अर्थ(पैसा) दिखाई दे रहा है,आज विद्यालय में भी अर्थ कारी विद्या हो गई ऐसी संस्कार शून्य विद्या व्यक्ति को m.a. की डिग्री तो दे देगी लेकिन हे m a n (आदमी)नहीं बना पावेगी। आज मानवता लुप्त होती जा रही है *व्यक्ति धन की इच्क्षा करता है चाहे उसे कुछ भी अनैतिक कार्य करना पड़े,करने तैयार रहता है वह धन की चाह में अपने मानवीय धर्म को भी भूलता चला जा रहा है,धन को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलने वाला व्यक्ति कभी भी अपने मानव जीवन को सार्थक नहीं कर सकता। धन कमाते  हुए भी व्यक्ति को धर्म नहीं भूलना चाहिए क्योंकि धर्म से ही धन आदि लौकिक वस्तुओं की उपलब्धि होती है।
    एक दिन आचार्य गुरुदेव ने बताया कि-आज चाहे वह राजनेता हो या सामान्य व्यक्ति वह धर्म की ओर से दृष्टि हटाकर धन कमाने की होड़ में लगा है लेकिन इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि धर्म को छोड़कर धन उपार्जन करते रहना मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा
    पास ही बैठे एक सज्जन ने कहा- भारत भी अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों की श्रेणी में आना चाहता है आचार्य श्री सहसा ही बोले-ध्यान रखो विदेशों में धन है लेकिन धर्म के अभाव में क्या हो रहा है वहां आप स्वयं अनुमान लगा सकते हो।धर्म सुख रूपी फल का वृक्ष है। वृक्षों को जड़ से काट कर फल खाने वाले को कृष्ण लेश्या होती है, यानि जघन्य परिणामी ही माना जाता है अंत में कहा कि धन के अर्जन के लिए लाखों प्राणियों को मारकर मांस निर्यात करना पेड़ को काटकर फल खाना है।
    आज के दिग्भ्रमित मानव के लिए यह उपदेश महान उपकारी सिद्ध होगा कि वह धन को  अर्जित करते हुए भी धर्म को ना भूले क्योंकि धर्म के बिना संसार की वस्तुओं की भी उपलब्धि नहीं होती और ना ही अंतरंग में सुख शांति।
    गुरुदेव की निरीह पशुओं के प्रति निरंतर अनुकंपा बस्ती रहती है हमेशा यह उपदेश देते हैं कि मांस निर्यात जैसी घिनौने कृत्य को बंद किया जाना चाहिए एवं भारत की अहिंसक संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए ताकि देश सुख शांति का अनुभव कर सकते क्योंकि आज मानव के पास भौतिक साधन आदि सभी कुछ उपलब्ध है लेकिन धर्म के अभाव में सुख और शांति जैसी अद्भुत संपत्ति से वंचित होता चला जा रहा है।
    ? अनुभूत रास्ता ?
     ? मुनि श्री कुंथुसागर  महाराज
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 34☀☀
               ? क्षमामूर्ति ?
    पूज्य आचार्य भगवन उत्तम क्षमा को धारण करने वाले अद्भुत संत है, उनकी हर क्रिया क्षमा से ओतप्रोत है।
    एक बार की बात है रात्रि के समय आचार्य श्री जी की वैयावृत्ति चल रही थी तब किसी श्रावक ने आचार्य श्री की आंखों में गलती से अमृतधारा लगा दी, जिसे लगाते ही आचार्य श्री जी की आंखों से आंसू निकलने लगे,लेकिन आचार्य भगवन तो क्षमा के भंडार हैं उन्होंने उस श्रावक को कुछ नहीं कहा और समता पूर्वक उस दर्द को स्वयं सहन कर लिया वास्तव में यह है वास्तविक क्षमा क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करना यह उत्तम क्षमा का लक्षण है,जो आचार्य श्री जी की प्रत्येक क्रिया में हमे देखने को मिलता है।
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 35☀☀
               ? नमस्कार में चमत्कार ?
    पथरिया नगर की बड़े मंदिर में नई वेदी पर पारसनाथ भगवान को विराजमान किया जा रहा था, पाषाण की प्रतिमा वजन में भारी थी,व्यवस्थित वेदी पर रखी नहीं जा रही थी, हम सभी साधक गुरुदेव के साथ वही उपस्थित थे। बहुत प्रयास के बाद जब प्रतिमा जी नहीं विराजमान हो पाई तो आचार्य महाराज से कहा आप प्रतिमा जी में हाथ लगा दीजिए ताकि प्रतिमा जी विराजमान हो जाए,
    आचार्य भगवान ने जैसे ही प्रतिमा जी में हाथ लगाया प्रतिमा जी व्यवस्थित वेदी में विराजमान हो गई यह देख सभी लोग आनंदित हो उठे, सारा मंदिर जय - जयकारों के नारों से गूंज उठा।
    आचार्य महाराज से हम लोगों ने कहा आपने हाथ लगाया और चमत्कार हो गया,आचार्य महाराज सहसा ही बोल उठे-नहीं मैंने हाथ नहीं लगाया था बल्कि भगवान को नमोस्तु किया था।
     गुरु महाराज की महिमा निराली है वह हमेशा आपने कार्य की सफलता को गुरु या प्रभु का आशीर्वाद ही मान कर चलते हैं कभी मेरे द्वारा ऐसा हुआ नहीं कहते हैं,सच बात है, मिथ्यादृष्टि चमत्कार को नमस्कार करते हैं, और सम्यक दृष्टि जहां नमस्कार करते हैं वहां चमत्कार हो जाता है।
     गुरुदेव हमेशा अपनी लघुता प्रदर्शित करते हैं कभी भी यह कार्य मेरे द्वारा हुआ ऐसा नहीं मानते उनके सानिध्य में हुआ कुंडलपुर में इतना बड़ा चमत्कार किसी से छुपा नहीं है लाखों श्रद्धालु जनों ने अपनी आंखों से देखा है यह जड़ का चमत्कार नहीं बल्कि चिट्चमत्कार है। 
     
    ? अनुभूत रास्ता ?
     ? मुनि श्री कुंथुसागर  महाराज
     
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 33☀☀
               ? क्रोध ?
     प्रतिकूल परिस्थितियों में आने वाले आवे का नाम क्रोध है, क्रोध एक ऐसा विकारी भाव है जो हमारे तन मन और धर्म सभी को दूषित करता है, यह एक खतरनाक बीमारी है और हमेशा से चली आ रही है एवं व्यापक भी है इसलिए यह बीमारी नहीं लगती।
     दूसरों की गलती पर कॉल करने का अर्थ है-दूसरों की गलती की सजा स्वयं को देना।
     कुछ लोगों का लोगों का कहना है कि- क्रोध मैं नहीं करता कर्म का उदय आता है,इसका समाधान देते हुए,
    आचार्य श्री जी ने कहा कि-कर्म कभी क्रोध नहीं करता, कर्म के उदय में आत्मा क्रोध करता है,पुदगल कर्म में क्रोध कराने की शक्ति है पर आप क्रोध करेगे तब वह कर सकता है वरना नहीं करा सकता।आचार्य श्री जी ने व्यक्ति अजीव से क्रोध कैसे करता है, यह उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे दर्पण सामने रखा है और मुर्गा उसके सामने खड़ा है उसमें दिखाई देने वाली अपनी ही आकृति से लड़ता है जब उसकी चौंच से खून आने लगता है तो वह समझता है दर्पण में बनी हुई आकृति से आ रहा है,  क्रोध भी उसी मुर्गी के समान है।
     आज उत्तम क्षमा का दिन है, तो हम सभी जीवों को क्रोध का त्याग करके उत्तम क्षमा को धारण करना चाहिए।
    ? संस्मरण से साभार ?
    ? मुनि श्री कुंथुसागर जी महाराज
     
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 32☀☀
               ? अंतर्बोध ?
    उस दिन शाम का समय था । आचार्य महाराज मन्दिर के बाहर खुली दालान में विराजे थे। थोड़ी देर तत्व-चर्चा होती रही। उस पवित्र और शान्त वातावरण में आचार्य महाराज का सामीप्य पाकर सभी बहुत खुश थे। फिर सामायिक का समय हो गया। आचार्य महाराज वह से उठकर भीतर मन्दिर में चले गए । बाहर किसी ने मुझसे कहा कि  भीतर भी बिजली जला आओ। आचार्य श्री ने यह बात सुन ली । मैंने जैसे ही भीतर कदम रखा कि भीतर से वे बोल उठे - " हाँ भाई, भीतर की बिजली जला लो।" 
    उनका आशय आन्तरिक आत्म- ज्योति के प्रकाश से था। मैं अवाक्. खड़ा रह गया । उनके द्वारा कही गई वह बात बोध- वाक्य बन गई, जो हमे आज भी आत्म-ज्योति जलाए रखने के लिए निरन्तर प्रेरित करती हैं।
    कुण्डलपुर (१९७७)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 31☀☀
               ? वीतरागता ?
    यह बात उस समय कि है जब आचार्य महाराज भोपाल में झिरनों के मन्दिर में  दर्शन करने गए थे। बहुत प्राचीन खड़गासन प्रतिमाजी के दर्शन किये। वहाँ एक सज्जन ने पूछा-आचार्यश्री जी यह कौनसे भगवान है ? ,आचार्यश्री जी बोले - कौन से भगवान है ! भगवान है बस इतना ही जानो ।
    सज्जन पुनः बोले- चिह्न तो देखो इस प्रतिमा में स्पष्ट नहीं है  !
     तब आचार्य गुरुदेव ने कहा कि बस वीतरागता ही इनका चिह्न है।
    ? दिशाबोध पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री कुन्थुसागर जी महाराज
     
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 30☀☀
               ? अध्यात्म ?
    एक बार आचार्य श्री ने बताया कि आप लोगों (मुनिराजों) की रत्नत्रय की गाड़ी है। इसमें रत्न भरे है, अध्यात्म इस गाड़ी की स्टरीग है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को अध्यात्म की ओर दृष्टि रखना चाहिए। अध्यात्म को भी भूलना नही चाहिए । अध्यात्म स्टेरिग की भांति है जैसे गाड़ी में स्टेरिग होती है जहाँ ,जब चाहो उसे स्टेरिग के मध्यम से मोड़ सकते हो, ऑक्सीडेन्ट (दुर्घटना) से बच सकते हो।वैसे ही मोक्ष मार्ग में बढ़ने वाले साधक को अध्यात्म स्टेरिंग की भांति है, जीवन मे किसी भी प्रकार के मोड़/समस्या, आ जावे तो अध्यात्म के माध्यम से बचा जा सकता है उपसर्ग परिषह के समय अध्यात्म ही काम आता है। इसीलिए साधक को हमेशा अध्यात्म की और दृष्टि दृष्टि बनाए रखना चाहिए , लौकिकता से बचना चाहिए।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 29☀☀
               ? सात्विक धंधा ?
    सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में श्रावकाचार की कक्षा में श्रावक को किस प्रकार से आजीविका चलना चाहिए । गुरुदेव ने बतलाते हुए कहा की आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज जी ने बताया था की एक सेठजी थे वे अहिंसा धर्म मे बड़ी ही निष्ठा रखते थे। उन्होंने अपने पुत्र से कह दिया था कि तुम कपड़े की दुकान खोल सकते हो, लेकिन कपड़े की फैक्ट्री(मिल) नही खोल सकते क्योंकि उसमें हिंसा होती है। और सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात की दुकान खोल सकते हो लेकिन खदान में ठेका नही ले सकते हो क्योंकि उसमें हिंसा अधिक होती है। हमे हिंसा से बचना चाहिए। मूल उद्देश्य हिंसा से बचने का होना चाहिए। अनर्थ से धन कमाना ठीक नही। परमार्थ के साथ अर्थ का उपार्जन करना चाहिए। प्रत्येक श्रावक को सात्विक धंधा अपनाना चाहिए।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 28☀☀
               ? अहिंसा का आयतन ?
    किसी सज्जन के आचार्य गुरुदेव से कहा साधुओं को गौशाला खुलवाले की प्रेरणा नही देनी चाहिए उसमें हिंसा होती है। उन्हें तो आत्म ध्यान करना चाहिए। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा गौशाला में हिंसा नही होती, साक्षात दया पलती है, करुणा के दर्शन होते है, गौशाला भी आयतन है, "अहिंसा का आयतन"। सम्यकदर्शन में अनुकम्पा गुण कहा है वह गौशाला में पशुओं के संरक्षण से प्रयोग में आता है। यह सक्रिय सम्यकदर्शन माना जाता है। बच्चों को पालना मोह है, किन्तु पशुओं को पालना दया अनुकम्पा है।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 27☀☀
               ? त्याग की भावना ?
    *ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ-सहित बण्डा ग्राम पहुँचे। रात्रि-विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था। खिड़कियाँ भी खूब थी और दरवाजा काँच के अभाव से खुला ना खुला बराबर ही था। जैसे-जैसे रात अधिक हुई , ठंड भी बड़ गई। सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी। घास किसी ने ली नही थी। सारी रात बैठे-बैठे ही गुजर गई । सुबह हुई, आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा की रात में ठंड ज्यादा थी, मन मे क्या विचार आए बताओ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहे, पर साहस करके तत्काल कहा की "महाराज जी ठंड बहुत थी" मन मे विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता ।" इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया । बोले " देखो,त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नही आया। मुझे तुम सब से यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन मे न आए ,यह सावधानी रखना।" 
    उनका यह उद्बोधन हमे जीवन भर संभालता रहेगा।
    बण्डा(1982)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 26☀☀
               ? उपाधि ?
    सागर में आचार्य महाराज के सानिध्य में पहली बार षट्खंडागम वाचन-शिविर आयोजित हुआ। सभी के खूब रुचि ली। लगभग सभी वयोवृद्ध औऱ मर्मज्ञ विद्वान आए। जिन महान ग्रन्थों को आज तक दूर से ही माथा झुकाकर अपनी श्रद्धा सभी ने व्यक्त की थी , आज उन पवित्र ग्रथों को छूने ,देखने, पढ़ने और सुनने का सौभाग्य मिला। यह जीवन की अपूर्व उपलब्धि थी।
    वाचना की समापन  बेला में सभी विद्वानों के परामर्श से नगर में प्रतिष्ठित एवं प्रबुद्ध नागरिकों के एक प्रतिनिधि मंडल ने आचार्य महाराज के श्री-चरणों मे निवेदन किया कि समुचे समाज की भावनाओं को देखते हुए आप चारित्र-चक्रवर्ती पद को आप धारण करके हमे अनुगृहीत करे। सभी लोगो ने करतल ध्वनि के साथ अपना हर्ष व्यक्त किया । ☀आचार्य महाराज मौन रहे।☀ कोई प्रतिक्रिया तत्काल व्यक्त नही की।
    थोड़ी देर बाद आचार्य महाराज का प्रवचन प्रारम्भ हुआ,और प्रवचन के अंत मे उन्होंने कहा, "पद-पद पर बहुपद मिलते है , पर वे दुख-पद आस्पद है। प्रेय यही बस एक निज-पद सकल गुणों का आस्पद है।" आप सभी मुझे मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने दे और इन सभी पदों से मुक्त रखे। आप सभी के लिए मेरा यही आदेश, उपदेश, और संदेश है।
    सभा में सन्नाटा छा गया। सभी की आँखे पद के प्रति आचार्य महाराज की निस्पृहता देखकर हर्ष व विस्मय में भीग गई।
    शिक्षा- सच मे आचार्य भगवन कभी भी किसी सम्मान या उपाधि को स्वीकार नही करते, हमेशा इस सब से दूर रहते है, वैसे ही हमे भी अपने कर्तव्य को करते रहना चाहिए, कभी किसी सम्मान की चाह नहीं रखना चाहिए।
    सागर(अप्रैल1980)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 25☀☀
               ? निरंतर प्रयास ?
    जबलपुर से मुक्तागिरी की ओर आचार्य महाराज का विहार हुआ।
     मुलताई के आस-पास रास्ते में एक दिन बहुत तेज बारिश आ गई,थोड़ी देर पानी बरसता रहा फिर थक गया,  महाराज मुस्कुराए और आगे बढ़ते-बढ़ते बोले-"भाई इतनी जल्दी थक कर थम गए, हम तो अभी नहीं थके"
     उनका इशारा बादलों की ओर था सभी हंसने लगे।
    आचार्य महाराज ने इस तरह चलते-चलते एक संदेश दे दिया कि कितनी भी बारिश आये, धूप हो या ठंड लगे,मोक्षार्थी को बिना थके शांत भाव से अपने मोक्षमार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए,कितनी छोटी सी बात लेकिन इतना बड़ा उपदेश।
    शिक्षा- वास्तव में हमारे मार्ग में थोड़ी सी परेशानी आ जाये, तो हम मार्ग से विचलित हो जाते है, आचार्य श्री जी हमे यही शिक्षा दे रहे है, कि मार्ग में कितनी भी बाधायें आये, हमे उन सबको दूर करके अपनी मंजिल को प्राप्त करना चाहिए।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 23☀☀
               ? अनुकम्पा ?
           सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ-सहित नैनागिरि आ गए।वर्षाकाल निकट था,पर अभी बारिश आई नहीं थी।पानी के अभाव में गाँव के लोग दुखी थे।एक दिन सुबह-सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच-क्रिया के लिए मन्दिर से बाहर आए,हमने देखा कि गाँव के सरपंच ने आकर अत्यंत श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनत भाव से बुन्देलखण्डी भाषा में कहा कि "हजूर ! आप खों चार मईना इतई रेने हैं और पानू ई साल अब लों नई बरसों,सो किरपा करो,पानू जरूर चानें है।"
        आचार्य महाराज ने मुस्कराकर उसे आशीष दिया,आगे बढ़ गए।बात आई-गई हो गई, लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे।दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी।पहली बारिश थी।तीन दिन लगातार पानी बरसता रहा।सब भीग गया।जल मन्दिर वाला तालाब भी खूब भर गया।
        चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गद् गद् कंठ से बोला कि "हजूर ! इतनो नोई कई ती,भोत हो गओ,खूब किरपा करी।"
        आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्म-चिंतन में लीन हो गए।मैं सोचता रहा कि,इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकम्पा का फल मानूँ।जो भी हुआ,वह मन को प्रभावित करता है।
                                
                      नैनागिरि(1982)
    साभार-आत्मान्वेषी
    ? आत्मान्वेषी-मुनिश्री क्षमासागर जी?
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 24☀☀
               ? अनुग्रह ?
           नैनागिरि में आचार्य महाराज के तीसरे चातुर्मास की स्थापना से पूर्व की बात है।सारा संघ जल-मन्दिर में ठहरा हुआ था।वर्षा अभी शुरू नहीं हुई थी।गर्मी बहुत थी।एक दिन जल मन्दिर के बाहर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सामायिक के समय एक जहरीले कीड़े ने मुझे दंश लिया।बहुत वेदना हुई।सामायिक ठीक से नहीं कर सका।आचार्य महाराज समीप ही थे और शान्त भाव से सब देख रहे थे।जैसे-तैसे सुबह हुई।वेदना कम हो गई।हमने आचार्य महाराज के चरणों में निवेदन किया कि वेदना अधिक होने से समता भाव नहीं रह पाया,सामायिक ठीक नहीं हुई।
         उन्होंने अत्यंत गंभीरता पूर्वक कहा कि "साधु को तो परीषह और उपसर्ग आने पर उसे शान्त भाव से सहना चाहिए,तभी तो कर्म-निर्जरा होगी।आवश्यकों में कमी करना भी ठीक नहीं है।समता रखना चाहिए।जाओ,रस परित्याग करना।यही प्रायश्चित है।"सभी को आश्चर्य हुआ कि पीड़ा के बावजूद भी इतने करुणावंत आचार्य महाराज ने प्रायश्चित दे दिया।
          वास्तव में अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना,शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना;यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा-अनुग्रह है।जो हमें हमेशा उनकी कृपा से प्राप्त होता है।                  
                         
                      नैनागिरि(1982)
    साभार-आत्मान्वेषी
    ? आत्मान्वेषी-मुनिश्री क्षमासागर जी?
     
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 22☀☀
               ? दृढ़ चरित्र ?
     आचार्य भगवन भविष्य में दृढ़ चारित्र का पालन करेंगे, चरित्र को अपने जीवन की अंतिम श्वासों तक बहुत अच्छे से अपनाएंगे, इसका पता पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी को बहुत पहले चल चुका था
    बात उस समय कि है जब आचार्य भगवन ब्रम्हचारी अवस्था मे थे, जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सानिध्य में केशलोंच कर रहे थे, उस समय प्रत्येक बाल खींचतें समय खून निकल रहा था, उस दृश्य को देखकर वहां पर उपस्थित क्षुल्लक श्री आदिसागर जी ने मुनिवर ज्ञान सागर जी को इस स्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने कहा-"चुप रहो" फिर भी क्षुल्लक जी से देखा नहीं गया  अतः उन्होंने थोड़ी देर बाद पुनः ब्रहमचारी विद्याधर से कहा- "क्यों कैंची मंगवाएं" ब्रह्मचारी विद्याधर बोले "ओम ह्रूं।" तो मुनि श्री ज्ञानसागर जी ने कहा-" हाँ दृढ़ता है।" ब्रहमचारी विद्याधर जी की यही दृढ़ता उन्हें आचार्य विद्यासागर बना गई।
    आज हम देख रहे हैं कि आचार्य विद्यासागर  जी *न चलन्ति चरित्रत: सदा नृसिंहा: अर्थात (जो मनुष्य चरित्र को कभी भी छोड़ते नहीं है, हमेशा सिंह की तरह निर्भय रहते है) 
    आचार्य पूज्यपाद देव की इन पंक्तियों को अपनी दृढ़ता के माध्यम से चरितार्थ कर रहे हैं।
    ? आचार्य श्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम प्रणाम अंजिलि भाग 1 से साभार?
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 21☀☀
               ? आत्मबोध ?
    मुक्तागिरी का चातुर्मास सानंद संपन्न हुआ, आचार्य महाराज संघ सहित रामटेक होते हुए बालाघाट पहुंचे।सुबह संघ सहित शौच क्रिया के लिए जंगल की ओर गए। वहां वन-विभाग के ऑफिसर के बंगले पर दो शेर के बच्चे खेलते हुए दिखे सारा संघ  क्षणभर को वहां ठहर गया।वन विभाग के ऑफिसर ने उन बच्चों के मिलने की जानकारी दी। आचार्य महाराज सारी बातें चुपचाप सुनते रहे, फिर सहसा बोले कि- हे वनराज जैसे देश काल की परिस्थिति आज तुम वन के स्थान पर भवन में रह रहे हो ऐसे ही वनों में  निर्द्वन्द्व विचरण करने वाले मुनिराजों ने नगर में रहना स्वीकार तो कर लिया है,पर यह हमारा स्वभाव नहीं है हमें अपना यथाजात,एकाकी निर्द्वन्द्व विचरण करने का स्वभाव नहीं भूलना चाहिए।
    उन क्षणों में आचार्य महाराज की निस्पृहता और स्वभाव की ओर रुचि देखते ही बनती थी, सभी लोग उनके द्वारा दी गई इस अध्यात्म की शिक्षा से अभिभूत हो गए।
     (बालाघाट 1991) 
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 20☀☀
               ? परीक्षा ?
      चातुर्मास स्थापना का समय था, क्षुल्लक सुमति सागर जी की मुनि बनने की बड़ी भावना थी,साधना भी थी पर वृद्ध हो गए थे,
    आचार्य महाराज ने उनकी भावना के अनुरुप उन्हें मुनि दीक्षा दे दी। और वह मुनि वैराग्य सागर हो गए। दो-तीन माह तक उन्होंने महाव्रतों का बड़ी सावधानी से पालन किया, जीवन का अंत निकट जानकर और वृद्धावस्था का विचार करके आचार्य महाराज से सल्लेखना ग्रहण कर ली।
    मुनि की आहार चर्या सर्वोत्कृष्ट है, स्वस्थ व  अस्वस्थ हर दशा में समताभाव रखकर निर्दोष विधिपूर्वक आहार ग्रहण करना आसान काम नहीं है,
    एक दिन विधि पूर्वक पड़गाहन के बाद जब वे जल ग्रहण करने के लिए खड़े हुए तो अंजली बांधकर जल ग्रहण करना मुश्किल सा लगा, जल नीचे गिर गया,आचार्य महाराज समीप खड़े थे,बोले चाहो तो गिलास ले लो 
    हम सभी यह बात सुनकर चकित हुए, पर समझ गए की परीक्षा की घड़ी है, सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्षपक की परीक्षा प्रतिक्षण है। अत्यंत वृद्ध होने के बाद भी एक सच्चे महाव्रती की तरह मुनि वैराग्य सागर जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, और शांति भाव से अन्न - जल का जीवन पर्यंत के लिए त्याग करके यम सल्लेखना धारण कर ली
     आचार्य महाराज ने मुस्कुराकर आशीर्वाद दिया और कहा कि- सभी को इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और परीक्षा में उत्तीर्ण होने की तैयारी जीवन भर करते रहना चाहिए।
     आहार जी1985
    ? आत्मानवेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     हम सब भी भगवान से यही प्रार्थना करते है कि-हम भी उस परम समाधि अवस्था हो जीवन के अंतिम क्षणों में अवश्य प्राप्त करे, और पूज्य आचार्य भगवन के चरणों में ही दिगम्बर अवस्था मे गुरुदेव को देखते-देखते ही इस जीवन का अंत हो।और जिस प्रकार आज के दिन हमारा देश आजाद हुआ था,उसी प्रकार हमारी आत्मा को आगामी भवों में जल्द ही कर्मबन्धन और इस शरीर से आजादी मिले और हम उस परम मोक्षपद को प्राप्त कर सके।
     
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 19☀☀
               ? अनुशासन ?
    मैंने सुना है एक दिन रात्रि के समय जब लोग आचार्य महाराज की सेवा में व्यस्त थे,तब किसी की ठोकर लगने से तेल की शीशी गिर गई।शीशी का ढक्कन खुला था, तो तेल भी फैल गया।
     सभी थोड़ा घबराये ,पर आचार्य महाराज मुस्कुराते रहे,सुबह आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज चर्चा करते-करते बोले की देखो- शिष्य और शीशी दोनों में डांट लगाना कितना जरूरी है जैसे शीशी में डाट(ढक्कन )ना लगा हो तो उसमें रखी कीमती चीज गिर जाती है, ऐसे ही शिष्य को डांट (अनुशासन के लिए कठोरता)न लगाई जाए तो स्वच्छंद होने और मोक्ष मार्ग से विचलित होने या गिर जाने की संभावना बढ़ जाती है।
    शीशी  गिनने की एक जरा सी घटना से इतना बड़ा संदेश दे देना यह आचार्य महाराज की विशेषता है।
     ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 18☀☀
               ? वीतरागी से अनुराग ?
     आचार्य महाराज संग सहित  विहार कर रहे थे, खुरई नगर में प्रवेश होने वाला था ,एक गरीब सा दिखने वाला व्यक्ति साइकिल पर अपनी आजीविका का बोझ लिए समीप से निकला और थोड़ी दूर जाकर ठहर गया,जैसे हीआचार्य महाराज उसके सामने से निकले वह भाव विह्वल होकर उनके श्री चरणों में गिर पड़ा।गदगद कंठ से बोला कि-" भगवान राम की जय हो"आचार्य महाराज ने क्षण भर उसे देखा और अत्यंत करुणा से भर कर धर्म वृद्धि का आशीष दिया,और आगे बढ़ गए।
    वह व्यक्ति हर्ष विभोर होकर बहुत देर तक आगे बढ़ते हुए आचार्य महाराज की वीतराग छवि को देखता रहा।
    उस घटना को सुनकर लगा की वीतराग के प्रति अनुराग हमें अनायास ही आत्मानंद देता है, उन क्षणों में उस व्यक्ति की आंखों में आचार्य महाराज की वीतराग छवि अत्यंत मधुर और दिव्य रही होगी , जो हम सभी को आज कल्याण का संदेश देती है।
    सच मे जो भी आचार्य श्री जी को देखता है, उन्हें पहली ही नज़र में अपना भगवान मान लेता है।
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 17☀☀
               ? दृष्टि लक्ष्य की और ?
     एक बार एक साधक के दांत में छेद हो गया, जिस से तकलीफ बनी रहती,आहार के समय और तकलीफ बढ़ जाती डॉक्टर को दिखाया उस दिन उनका उपवास था, डॉक्टर ने उसको निकाल दिया बहुत खून गिरा,
     जब आचार्य श्री जी को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने पूछा क्यों,उन्हें दांत से बहुत खून आया
    मैंने (कुंथुसागर जी)कहा -जी आचार्य श्री जी डॉक्टर ने ऊपर गाल पर बर्फ रखा, वह ठंडा लगा उस ओर ध्यान गया कि झटके से दांत निकाल दिया मालूम ही नहीं पड़ा दांत कब निकल गया,यह सब उपयोग के परिवर्तन से हुआ उपयोग/ध्यान बर्फ की ठंडक पर गया और यहां काम हो गया 
    यह सुनकर आचार्य महाराज बोले- यदि हमारा  उपयोग भी लक्ष्य की ओर हो जावे,तब मार्ग में आने वाली समस्याएं उपसर्ग परीषय सभी सहज रुप से सहन हो जाते हैं
    ठीक पुनः मैंने कहा आचार्य श्री जी उस दांत की जड़ बहुत मजबूत थी,
    आचार्य श्री सहसा ही बोले-जड़ें मजबूत होती है तभी चने छपते हैं वैसे ही सम्यग्दर्शन मजबूत होता है तभी संसार के चने चंबते हैं
    यह घटना बताती है कि गुरुदेव की लक्ष्य की ओर दृष्टि हमेशा रहती है विपरीत वह हमेशा प्रत्येक घटना को मोक्षमार्ग  के साथ जोड़कर उदाहरण बना देते हैं एवं हर क्षण हम सभी को भी लक्ष्य को ध्यान में रखकर चलने का उपदेश देते हैं लक्ष्य निर्धारण एवं लक्ष्य पर चलना का,लक्ष्य प्राप्ति में बाधाओं का सहर्ष  सामना करना महान पुरुषों का कार्य हुआ करता है,महापुरुष कभी भी लक्ष्य को प्राप्त करते समय आ रही बाधाओं से डरते नहीं हैं बल्कि उन बाधाओं को सफलता की सीढ़ी समझकर उस पर पैर रख कर आगे बढ़ जाते हैं।
    (सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी 2002)
    ? अनूभूत रास्ता पुस्तक से साभार?
    ? मुनि श्री कुंथुसागर जी महराज
     
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 16☀☀
               ? मुक्ति ?
    मुक्तागिरी 1980 वर्षाकाल पूरा होने को था,दीपावली की पूर्व संध्या में आचार्य महाराज ध्यानस्थ हुए तो सारी रात निश्चल ध्यान में बैठे-बैठे ही बीत गई। महावीर स्वामी के परिनिर्वाण की प्रत्युष बेला में उन्होंने आंखें खोली और क्षणभर हम सभी की ओर देख कर कहा कि-  भगवान तो वर्षों पहले मुक्त हो गए हम भी ऐसे ही कभी मुक्त होंगे पर जाने कब होंगे
    उस क्षण उनकी दिगंत में झांकती आंखें मुख्य मंडल पर छाई अपार शांति और गदगद कंठ से झरती यह अमृतवाणी देख- सुनकर हम सभी अवाक रह गए, एक क्षण को लगा मानो वे सचमुच संसार के आल-जाल से मुक्त होकर आत्म-आनंद में डूब गए हैं
    मुक्ति पाने की इतनी गहरी प्यास उन्हें शीघ्र ही संसार के आवागमन से मुक्त करेगी।
     
    मुक्तागिरी(1980)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 15☀☀
               ? विनम्र श्रद्धा ?
      एक बार की बात है सिवनी के बड़े मंदिर में पूज्य आचार्य भगवान विराजमान थे,वयोवृध्द पंडित सुमेर चंद जी दिवाकर उनके दर्शन करने आए,तत्व चर्चा चलती रही,
    जाते समय पंडित जी बोले कि-  महाराज हमें तो आचार्य शांति सागर जी महाराज ने एक बार मंत्र जपने के लिए माला दी थी, जो अभी तक हमारे पास है।  पंडित जी का आशय था कि-आप भी हमें कुछ दें,पर आचार्य भगवन तत्काल बोले कि - पंडित जी हमें तो हमारे आचार्य महाराज *(ज्ञानसागर जी)मालामाल कर गए हैं।
    माला की लय में मालामाल सुनकर सभी हंसने लगे।
     इस स्वस्थ मनोविनोद में अपने पूर्व आचार्यों के प्रति विनम्र श्रद्धा, उनसे प्राप्त मोक्षमार्ग के प्रति
    गौरव और अपनी लघुता यह सभी बातें छुपी थी, साथ ही एक संदेश भी पंडित जी के लिए या शायद सभी के लिए था कि चाहो तो महाव्रती होकर स्वयं भी मालामाल हो जाओ, अकेली माला कब तक जपते रहोगे।
    शिक्षा- पूज्य आचार्य भगवंत अपने गुरु और पूर्वाचार्यों के प्रति अनन्य आस्था, श्रध्दा, और समर्पण से भरे हुए है, उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञ है, और सभी को मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते है, हमे भी  अपने पूर्वाचार्यों और आचार्य भगवन के उपकारों को कभी भी नही भूलना चाहिए, और धर्म के मार्ग पर चलते हुए, मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए
    (सिवनी,1991)
    ? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार
    ? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
     
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ??????????    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 14☀☀
               ? संयमी जीवन? 
    आज पंचमकाल में कैसी भौतिकता है,चारों तरफ वासनाओं का वास हो चुका है, और ऐसे समय में एक अकेला संत जो संयम की रक्षा करते हुए संतत्व से सिध्दत्व की यात्रा करते हुए, मोक्ष मार्ग की ओर निरंतर बिना रुके आगे बढ़ता जा रहा है वह यात्रा जो स्वयं ने अकेले शुरू की थी आज वह यात्रा अविरल रूप से प्रवाहमान है और लाखो हजारों लोग उस  यात्रा में शामिल होकर मोक्ष मार्ग की ओर निरंतर गमन कर रहे हैं लाखों लोगों की मन की सिर्फ एक ही इच्छा होती है कि बस आचार्य श्री जी एक इशारा कर दें और वो लोग वस्त्र उतारकर फेंकने को तैयार हो जाते है ,बस एक इशारे की जरूरत है
    लेकिन आचार्य श्री जी नीचे देखकर एक - एक चींटी, एक-एक जीवकी रक्षा करते हुए संयम के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं, उनकी एक एक दृष्टि में संयम झलक रहा है।
    बात उस समय की है जब आचार्य श्री जी जबलपुर के निकट भेड़ाघाट की चट्टानों पर विराजमान थे, भेड़ाघाट मध्यप्रदेश का एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है जहां पर नर्मदा नदी का जलप्रपात बना हुआ है और वहां नर्मदा नदी का जल निर्बाध रूप से निरंतर शांतभाव से बहता जाता है

    पूज्य गुरुदेव वही भेड़ाघाट की चट्टानों पर बैठ कर नदी के प्रवाह को शांत भाव से देख रहे थे, आचार्य श्री ने संघ के महाराजों से कहा कि - आज सामायिक यही करेंगे और पूज्य गुरुदेव ने अपनी जिंदगी में पहली बार आंखें खोलकर सामायिक की, सामायिक में गुरुदेव निरंतर बहते जा रहे उस नदी के जल को देख रहे थे सामायिक पूर्ण होने के पश्चात संघ के कुछ महाराजों ने पूछा कि - आचार्य श्री जी आप  बहुत देर से  उस जल में क्या देख रहे हैं,तब पूज्य गुरुदेव ने कहा कि- मैं बहते हुए नदी के जल में सिद्ध शिला में स्थित अनंतानंत सिद्धों से भी अनंत भावी सिद्धजीवों को उन जल की बूंदों में देख रहा हूं ,उस जल में स्थित प्रत्येक जीव में सिद्ध बनने की, भगवान बनने की क्षमता विद्यमान है,और आज सामायिक में उन्हें देख कर यही विचार कर रहा था।
     सभी महाराजाओं ने आचार्य श्री जी के मुख से यह बात सुनी तो सबका मन प्रफुल्लित हो उठा और वे आचार्य श्री जी के प्रति नतमस्तक हो गए।
    धन्य है ऐसे गुरुदेव जिन्हें प्रत्येक जीव में सिद्ध परमेष्ठी के दर्शन होते हैं।
    एक तरफ भेड़ाघाट में दुनिया राग-रंग देखने आती है,मौज मस्ती करने आती है और वहीं दूसरी तरफ गुरुजी वहां के जल में स्थित भविष्य की सिद्ध परमेष्ठी  देख रहे थे। धन्य है ऐसे गुरुदेव , जिनकी प्रत्येक क्रिया में संयम झलकता है।
    बस हमारी तो यही भावना रहती है कि ऐसे परम दर्शनीय, परम उपकारी आचार्य भगवन को बिना पलके झपकाए देखते रहे।
    और बस उन्हें देखकर यही श्लोक याद आता है - 
    दृष्ट्वा भवंत-मनिमेष- विलोकनीयं
    नान्यत्र - तोष - मुपयाति जनस्य चक्षु:
    पीत्वा पय: शशिकर द्युति दुग्ध सिंधो:
    क्षारं जलं जलनिधे रसितुं का इच्छेत
    बस गुरुजी बिना पलक झपकाए अपलक रूप से आपको बस देखते रहे,बस देखते रहे और जब तक हम मोक्षमहल नहीं प्राप्त कर लेते , तब तक हम आपके चरणों की धूल बनकर हमेशा आपके साथ रहे। 
    पूज्य मुनिपुंगव सुधासागर जी के मुख से समयसार जी शिविर, व्याबर में साक्षात सुना हुआ संस्मरण।
     
  25. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 13☀☀
         ? प्रथम दर्शन की अनुभूति ?
           घटना 1975 की है,एक दिन जब हम ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी (पूर्व अधिष्ठाता ईशरी आश्रम) से श्री समयसार जी का अध्ययन कर रहे थे,तब ही अचानक वे बोल उठे कि छीपीटोला,आगरा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पधारे हुये है।दोपहर 2 बजे उनके दर्शन करने चलेंगे। ठीक 2 बजे हम छीपीटोला, आगरा पहुँच गये। धर्मशाला के प्रथम तले पर एक कमरे में पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज अकेले स्वाध्याय में तल्लीन विराजमान थे। ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी तथा में उनको नमोस्तु करके उनके सामने डेढ़ घण्टे बैठे रहे,परन्तु पू. आचार्यश्री ने आँख उठाकर भी नहीं देखा।वे अपने स्वाध्याय में डूबे हुये थे। डेढ़ घण्टे तक हम उस प्रतिभाशाली चेहरे को जी भरकर देखते रहे और फिर उठकर चल दिये। ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी ने कहा - मैं तुमको पढ़ाता हूँ वह तो श्री समयसार नाम का शास्त्र है और यहाँ जो मैंनै आचार्य श्री के दर्शन कराये हैं यह जीवित समयसार है। मेरा हृदय गदगद हो गया और उनकी श्रद्धा में मेरा माथा अच्छी प्रकार झुक गया।मन में एक अपूर्व आनंद का अनुभव हुआ था। कारण यह था कि श्रमणाचार के कुछ ग्रन्थों का अध्ययन अच्छी प्रकार कर लेने से, साधू परमेष्ठी कैसे होते है ? यह बात अच्छी प्रकार समझ ली थी।पर जहाँ-जहाँ भी मुनिराजों या आचार्यों के दर्शन का अवसर मिला,उनकी चर्या श्रमणाचार के अनुसार न होने से मन बड़ा उदास रहता था।अब जब आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन किये तथा उनकी चर्या के संबंध में सुना तो श्रमणाचार के अनुसार चर्या वाले साधू को देखकर मन हर्ष से प्रफुल्लित था। मेरे द्वारा यह पूज्य आचार्य श्री का प्रथम दर्शन था।
       इसके बाद तो मन हमेशा उनके दर्शन को लालयित रहने लगा और हर साल दो साल में उनके दर्शन को जाने लगा।
    संस्मरण पण्डित रतनलाल जी बैनाड़ा आगरा द्वारा लिखित
     
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