प्रथम दर्शन की अनुभूति - संस्मरण क्रमांक 13
☀☀ संस्मरण क्रमांक 13☀☀
? प्रथम दर्शन की अनुभूति ?
घटना 1975 की है,एक दिन जब हम ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी (पूर्व अधिष्ठाता ईशरी आश्रम) से श्री समयसार जी का अध्ययन कर रहे थे,तब ही अचानक वे बोल उठे कि छीपीटोला,आगरा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पधारे हुये है।दोपहर 2 बजे उनके दर्शन करने चलेंगे। ठीक 2 बजे हम छीपीटोला, आगरा पहुँच गये। धर्मशाला के प्रथम तले पर एक कमरे में पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज अकेले स्वाध्याय में तल्लीन विराजमान थे। ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी तथा में उनको नमोस्तु करके उनके सामने डेढ़ घण्टे बैठे रहे,परन्तु पू. आचार्यश्री ने आँख उठाकर भी नहीं देखा।वे अपने स्वाध्याय में डूबे हुये थे। डेढ़ घण्टे तक हम उस प्रतिभाशाली चेहरे को जी भरकर देखते रहे और फिर उठकर चल दिये। ब्र. सुरेन्द्रनाथ जी ने कहा - मैं तुमको पढ़ाता हूँ वह तो श्री समयसार नाम का शास्त्र है और यहाँ जो मैंनै आचार्य श्री के दर्शन कराये हैं यह जीवित समयसार है। मेरा हृदय गदगद हो गया और उनकी श्रद्धा में मेरा माथा अच्छी प्रकार झुक गया।मन में एक अपूर्व आनंद का अनुभव हुआ था। कारण यह था कि श्रमणाचार के कुछ ग्रन्थों का अध्ययन अच्छी प्रकार कर लेने से, साधू परमेष्ठी कैसे होते है ? यह बात अच्छी प्रकार समझ ली थी।पर जहाँ-जहाँ भी मुनिराजों या आचार्यों के दर्शन का अवसर मिला,उनकी चर्या श्रमणाचार के अनुसार न होने से मन बड़ा उदास रहता था।अब जब आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन किये तथा उनकी चर्या के संबंध में सुना तो श्रमणाचार के अनुसार चर्या वाले साधू को देखकर मन हर्ष से प्रफुल्लित था। मेरे द्वारा यह पूज्य आचार्य श्री का प्रथम दर्शन था।
इसके बाद तो मन हमेशा उनके दर्शन को लालयित रहने लगा और हर साल दो साल में उनके दर्शन को जाने लगा।
संस्मरण पण्डित रतनलाल जी बैनाड़ा आगरा द्वारा लिखित
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