त्याग की भावना - संस्मरण क्रमांक 27
☀☀ संस्मरण क्रमांक 27☀☀
? त्याग की भावना ?
*ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ-सहित बण्डा ग्राम पहुँचे। रात्रि-विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था। खिड़कियाँ भी खूब थी और दरवाजा काँच के अभाव से खुला ना खुला बराबर ही था। जैसे-जैसे रात अधिक हुई , ठंड भी बड़ गई। सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी। घास किसी ने ली नही थी। सारी रात बैठे-बैठे ही गुजर गई । सुबह हुई, आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा की रात में ठंड ज्यादा थी, मन मे क्या विचार आए बताओ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहे, पर साहस करके तत्काल कहा की "महाराज जी ठंड बहुत थी" मन मे विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता ।" इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया । बोले " देखो,त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नही आया। मुझे तुम सब से यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन मे न आए ,यह सावधानी रखना।"
उनका यह उद्बोधन हमे जीवन भर संभालता रहेगा।
बण्डा(1982)
? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार?
? मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now