पत्र क्रमांक-१५०
०९-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
आत्मोपासक चलते-फिरते शास्त्र श्री गुरुवर श्री ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आपके बारे में आपके अनन्य भक्त-विद्वानों ने बताया और कई विद्वानों ने लिखा, वह हमने पढ़ा है कि आप आचार्य श्री वीरसागर जी एवं आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ में उपाध्याय रूप कर्तव्य का निर्वहन करते थे। जिनवाणी के सच्चे अध्यवसायी बनकर आपने उपलब्ध आगमों का मंथनकर नवनीत का रसास्वादन किया और जिसे जीवन के बहुभाग अनुभूत किया है।
यूँ तो आप सन् १९६९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए किन्तु वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध तपोवृद्धत्व के अनुभव से आप अनेकों भव्यों को जिन्दगी जीने की कला सिखाकर आचार्यत्व का सफलतम कर्तव्य भी पूर्व से ही निर्वहन करते आ रहे हैं क्योंकि स्वयं के व्यक्तित्व को परिष्कृत परिमार्जित करके ही दूसरों के व्यक्तित्व को गढ़ा जा सकता है। हे गुरुवर ! जिस प्रकार लौकिक क्षेत्र में समाज-देश और विश्वस्तर पर प्रतिभाओं की आज कमी नहीं है, चाहे विज्ञान का कोई भी क्षेत्र हो या प्रबन्धन का क्षेत्र हो या फिर दर्शन-इतिहास-राजनीति का क्षेत्र हो हर क्षेत्र में अव्वल दर्जे के प्रतिभाशाली विद्यार्थी, शिक्षक, शिक्षण संस्थान हैं, किन्तु उनका आन्तरिक व्यक्तित्व बिखरा खोखला-सा दिखायी पड़ता है। सब कुछ पाकर भी वे गहरी प्यास से प्यासे लगते हैं, अतृप्तिमय जीवन को पूर्ण करने की मजबूरी को झेल रहे हैं। इसी प्रकार अलौकिक क्षेत्र में हो रहा है कि आज भव्यात्माओं के पुरुषार्थ में कोई कमी नहीं है। और चारों अनुयोगों का ज्ञान भी खूब किया जा रहा है किन्तु फिर भी आन्तरिक ज्ञान-भावश्रुत ज्ञान जो सम्यग्ज्ञान है उससे अन्तरंग खोखला दिख रहा है। फलस्वरूप आत्मा अतृप्त हो आत्मसुधा रस से प्यासे के प्यासे दिख रहे हैं और जीवन को दु:खों के जंजालरूप कर्मों में उलझा बैठे हैं।
दोनों ही क्षेत्रों में एक ही कमी नजर आती है वह है आप जैसे अनुभवी आचार्य की जिनकी वाणी मात्र नहीं बोलती अपितु आचरण अधिक मुखर होकर बोलता है। वाणी की पहुँच तो कानों तक होती है। किन्तु आचरण प्राणों तक पहुँच बनाता है। आचार्य शास्त्र के विचारों का सम्प्रेषण मात्र नहीं करता, साथ में शास्त्र सूत्रों को जीकर तपस्या के अनुभव की चासनी में घुट्टी चटाता है। जिससे आचरण के पालने में झूलकर शिष्य आनंद की अनुभूति में जीवन को पूर्ण करता है।
हे दादागुरु! आपने चारों अनुयोगों के शास्त्रों का स्वाध्याय कर जो तत्त्व हासिल किया उसे व्यवहार में ऐसा उतारा कि आचरण, शास्त्रों की पर्याय बन गया और अपने लाड़ले शिष्य को विचारों से व्यवहार तक की महायात्रा इतनी सरल कर दी कि उन्हें सहज बोधगम्य हो अनुभवगम्य होती चली गई। आपके साथ हर पल रहकर आपकी हर श्वासों पर जो पहरा देते रहे और आपके समान पुरुषार्थ से उत्पन्न आत्मानंद रस को गटागट पीते जाते एवं बनाने की कला सीखते जाते। ऐसे मेरे गुरु ने अन्तर्यात्रा के तृतीय वर्ष १९७१ में किन-किन पड़ावों पर क्या-क्या सीखा? ऐसी जिज्ञासा को लेकर मैं खोजबीन प्रारम्भ कर रहा हूँ। हे दादागुरु! अपने इस पोते शिष्य को अनुमति प्रदान करें और आशीर्वाद प्रदान करें कि मैं अपने इस अभियान में सफल होऊँ। जैसे-जैसे मैं खोजबीन कर जो कुछ हासिल करूंगा वह आपके करकमलों में समर्पित करता जाऊँगा।
इस शुभ पवित्र भावना के साथ आपके श्रीचरणों की वन्दना करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य